Sunday 1 May 2022

युक्रेन-रुस युद्ध, यूरोप और गैस

      -रूसी गैस का खेल और अमेरिका का प्रतिबंध दांव फेल-



यूरोप का ऊर्जा संकट अब एक आर्थिक समस्या से राजनीतिक चुनौती में बदल गया है। पश्चिमी देश खुलेआम रूस पर 'गैस वॉर' छेड़ने का इलज़ाम लगा रहे हैं, जबकि क्रेमलिन इन आरोपों से इनकार करता है।


रूस ने पश्चिमी देशों के सामने एक तरह से अंतिम शर्त रख दी है कि यूरोप को अलग अलग प्रभाव क्षेत्र वाले खांचों में बांटा जाए और गैस मार्केट में खेल के नियम बदले जाएं। यूरोपीय देश अपनी आबादी और उद्योग, दोनों को ही बचाने के लिए युद्ध स्तर पर तैयारी कर रहे हैं और अमेरिका इस बात से खुश लग रहा है कि वो यूरोप को रूसी गैस के बदले ऊंची क़ीमतों पर इसकी सप्लाई का मौका मिलेगा।


वैश्विक ऊर्जा संकट की शुरुआत बीते पतझड़ के साथ ही शुरू हो गई थी। सर्दियां आते आते हालात और बिगड़ गए। पहले गैस और अब तेल की क़ीमतों को भी आग लग गई है। यूरोप में ऊर्जा संसाधनों की इतनी कमी है कि आम लोगों से लेकर उद्योगों तक का बिजली और गैस बिल बेहिसाब बढ़ गया है।


ऐसे में ये सवाल पूछा जा सकता है कि यूरोप में अचानक क्यों गैस संकट गहरा गया और वो सर्दी में ठिठुरकर जम जाने की इंतेहा पर पहुंच गया? इसके कई कारण हैं।


दो वजहें तो अस्थाई किस्म की हैं। पहली कोरोना महामारी और दूसरा मौसम और बाक़ी तीन वजहें ऐसी हैं जो काफी लंबे समय से अनसुलझी हैं। इसकी बुनियाद एनर्जी मार्केट में प्रतिस्पर्धा, यूक्रेनी लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार और भविष्य की अर्थव्यवस्थाओं में हाइड्रोकार्बन की भूमिका को लेकर रूस और यूरोप के बीच जो सैद्धांतिक मतभेद हैं, उसी में है। यूरोप का ऊर्जा संकट कब तक चलेगा? यूरोप को इसका नुक़सान उठाना पड़ेगा? गैस मार्केट में खेल के नियम कैसे बदलेंगे? और रूस की कमाई का प्रमुख स्रोत माने जाने वाले हाइडोकार्बन के इस्तेमाल को कम करने के लिए जिस ग्रीन एनर्जी को बढ़ावा दिए जाने की बात की जा रही है, उसका भविष्य क्या है?


इन तमाम सवालों के जवाब इस बात पर निर्भर करता है कि यूरोप और रूस के बीच जिन बुनियादी सवालों को लेकर मतभेद हैं, उसे कितनी जल्दी सुलझा लिया जाता है। यूरोप को जितने प्राकृतिक गैस की ज़रूरत पड़ती है, उसका तकरीबन एक तिहाई रूस सप्लाई करता है। लेकिन बीते बसंत के बाद उसने गैस की आपूर्ति में बड़ी कटौती कर दी है।


15 अप्रैल तक यूरोपीय देश क्रेमलिन पर 'गैस वॉर' शुरू करने का आरोप सीधे तौर पर लगाने से बचते दिख रहे थे लेकिन जैसे ही यूक्रेन को लेकर व्लादिमीर पुतिन के इरादे सामने आने लगे,और उन्होंने रूबल में पेमेंट करने के लिए कहा तो पश्चिमी देशों ने यूरोप के ऊर्जा संकट के लिए रूस को सीधे जिम्मेदार ठहराना शुरू कर दिया।


कुछ समय पहले ही इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के प्रमुख फातिह बिरोल ने साफ़ लफ़्जों में रूस को चालबाज़ करार दिया था। उनका कहना था कि यूरोप को रूस की ओर से गैस सप्लाई में कटौती और यूक्रेन को क्रेमलिन से बढ़ती धमकियों के बीच का कनेक्शन दिखाई दे रहा है। उन्होंने कहा, हमारा मानना है कि यूरोप के गैस मार्केट की समस्याएं रूस ने पैदा की हैं। पिछले तीन महीनों में गैज़प्रोम ने रिकॉर्ड क़ीमतों के बावजूद यूरोप को सप्लाई की जाने वाली गैस में 25 फीसदी की कटौती की है। इतना ही नहीं यूरोप में जिन जगहों पर गैस स्टोर करके रखा जाता है, वहां भी सप्लाई रोकी गई ताकि क़ीमतें और बढ़ जाएं।


आईईए के प्रमुख का कहना है कि साल 1973-74 के ऐतिहासिक तेल संकट के बाद ये यूरोप के सामने सबसे बड़ा ऊर्जा संकट खड़ा हो गया है।


साल 1973 के यॉम किप्पुर युद्ध में पश्चिमी देशों ने इसराइल का समर्थन किया था जिसके बाद अरब देशों ने पश्चिमी देशों को तेल बेचने से इनकार कर दिया था।

फातिह बिरोल की बात में काफी वजन है क्योंकि वे पश्चिमी देशों की ऊर्जा सुरक्षा को सुनिश्चित करने वाले संगठन के प्रमुख हैं। आईईए का गठन इन्हीं हालात से निपटने के लिए किया गया था कि वो आने वाले संकट से विकसित देशों को आगाह कर सके और संकट से बचने के लिए साझा कोशिशों को अंज़ाम दे सके और अगर संकट पैदा हो जाए तो उसे जल्द से जल्द निपटाया जा सके।


पिछली आधी सदी में ये केवल तीन बार हुआ। दो बार जंग की सूरत में (1991 का खाड़ी युद्ध और साल 2011 का लीबिया संकट) और एक बार साल 2005 में कटरीना चक्रवात के बाद के हालात में।


एक ओर जहां पश्चिमी देश रूस पर संकट खड़ा करने का इलज़ाम लगा रहे हैं तो दूसरी ओर क्रेमलिन का कहना है कि यूरोप खुद इन हालात के लिए जिम्मेदार है।


रूस पश्चिमी देशों के आरोपों से इनकार करता है। उसका कहना है कि यूरोप के ऊर्जा संकट से उसका कोई लेना देना नहीं है। रूस की दलील है कि यूरोपीय संघ, गैस सप्लाई करने वाली कंपनियों के बीच कड़ी प्रतिस्पर्धा लाने की कोशिशें और जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ लड़ाई इसके लिए जिम्मेदार हैं।


रूस के उपप्रधानमंत्री अलेक्ज़ेंडर नोवाक कहते हैं,  मैं इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी जैसी प्रतिष्ठित संस्था के प्रमुख से ऐसी बातें सुनकर हैरत में हूं। वे यूरोपीय उपभोक्ताओं की समस्याओं के लिए हम पर दोष मढ़ रहे हैं। न तो रूस और न ही गैज़प्रोम इसके लिए जिम्मेदार है। 


उधर, रूस की सरकारी गैस कंपनी गैज़प्रोम यूरोप को अतिरिक्त गैस आपूर्ति करने को लेकर कोई जल्दबाज़ी नहीं दिखा रही है जबकि क़ीमतें अपने रिकॉर्ड स्तर पर हैं। पश्चिमी देशों के मन में ये विचार मजबूत हो रहा है कि रूस ने अपने कान बंद कर लेने का फ़ैसला कर लिया है।


व्हाइट हाउस के एक अधिकारी ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर कहा,  इसका बाज़ार से कोई लेना देना नहीं है। इसमें बाज़ार की शक्तियों की कोई भूमिका नहीं है। ये पूरी तरह से चालबाज़ी है।


यूरोपीय संघ के एंटी ट्रस्ट नीतियों के लिए जिम्मेदार मार्ग्रेट वेस्टागेर भी कुछ ऐसी ही शंकाएं जाहिर करती हैं। वो कहती हैं, जब मांग बढ़ने पर एक कंपनी आपूर्ति कम कर देती है तो बात समझ में आ जाती है। प्रतिस्पर्धात्मक बाज़ार में ऐसा बर्ताव शायद ही कोई करता है।


गैज़प्रोम की गैस सप्लाई का मॉडल लंबी अवधि वाले ठेकों के आधार पर चलता है। इस तरह के करार में क़ीमतें और आपूर्ति की मात्रा साल दर साल तय की जाती है। इसमें नए गैस फील्ड के विकास और नई पाइप लाइन बिछाने के लिए कर्ज़ें दिए जाने का भी प्रावधान रहता है। लेकिन यूरोप चाहता है कि क़ीमतें बाज़ार की ताक़तें तय करें और वो खुले बाज़ार की व्यवस्था में गैस की खरीद बिक्री का मॉडल अपनाना चाहता है जहां क़ीमतों और वॉल्यूम की कोई गारंटी नहीं होती है। इस व्यवस्था में मांग और आपूर्ति के आधार पर बाज़ार क़ीमत तय की जाती है। तेल बाज़ार भी इसी तरह से काम करता है। तेल बाज़ार में भी लंबी अवधि वाले कॉन्ट्रैक्ट काम करते हैं और यूरोप की ख़्वाहिश है कि उसके यहां का गैस बाज़ार भी इसी तरह से काम करे।


साल 2050 से यूरोपीय संघ ने सब कुछ स्टॉक एक्सचेंज के हवाले कर देने का लक्ष्य रखा है लेकिन रूस इस मॉडल का सख़्ती से विरोध करता है। राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन कई मौकों पर अपना विरोध जाहिर कर चुके हैं और रूस अपने स्टैंड पर कायम है। उसके उपप्रधानमंत्री अलेक्जेंडर नोवाक ने भी एक दिन पहले यही बात दोहराई है।


उन्होंने कहा, यूरोपीय संघ का नज़रिया संकीर्ण है। वो लॉन्ग टर्म के कॉन्ट्रैक्ट वाली व्यवस्था की जगह शॉर्ट टर्म के स्पॉट कॉन्ट्रैक्ट वाला मॉडल अपनाना चाहता है। हमारे पास बहुत बड़े संसाधन हैं और हम आपूर्ति कर सकते हैं लेकिन उत्पादन के लिए किसी प्रोजेक्ट में निवेश की ज़रूरत होती है और किसी प्रोजेक्ट के मुनाफे वाली स्थिति में पहुंचने में वक़्त लगता है। और ये हमारी स्पष्ट रणनीति है। रूस इस बात से भी नाराज़ है कि जर्मनी यूक्रेन को नज़रअंदाज़ करके बाल्टिक सागर से गुजरने वाली नॉर्डस्ट्रीम2 गैस पाइपलाइन की दूसरी परियोजना की मंज़ूरी को अटका रहा है। राष्ट्रपति पुतिन ने अक्टूबर में कहा था कि जैसे ही इस प्रोजेक्ट को हरी झंडी मिलेगी यूरोप को गैस की आपूर्ति अगले ही दिन से बढ़ जाएगी।


चूंकि यूरोप ने अपने ऊर्जा संकट को बाज़ार की समस्या की जगह राजनीतिक समस्या के तौर पर देखा है इसलिए इससे लड़ने के लिए वो आपातकालीन उपाय भी कर रहा है। मुद्रास्फीति, अर्थव्यवस्था में सुस्ती और असंतोष रोकने के लिए जनता और उद्योगों को सब्सिडी का आश्वासन दिया गया है। इटली ने इसके लिए चार अरब डॉलर और स्वीडन ने 20 लाख परिवारों के लिए 50 करोड़ डॉलर का बजट रखा है। जर्मनी भी उद्योगों को सब्सिडी का वादा किया है। उसने रूस यूक्रेन संकट में यूरोपीय मूल्यों की रक्षा के लिए नॉर्डस्ट्रीम2 गैस पाइपलाइन छोड़ने की संभावना को भी खारिज नहीं किया है। अभी तक यूरोप इस बात को लेकर आश्वस्त है कि भले ही रूस गैस की आपूर्ति न बढ़ाए तो भी बसंत के आने तक वो ठंड से जम नहीं जाएगा, लेकिन सवाल क़ीमत का है। ऊंची क़ीमतों ने अमेरिका को बाज़ार तलाशने का मौका दे दिया है। अभी तक मध्य पूर्व और अमेरिका की लिक्विफाइड नैचुरल गैस (एलएनजी) के लिए एशिया प्रमुख बाज़ार रहा था लेकिन यूरोप का बाज़ार इस समय इतना आकर्षक है कि मेक्सिको की खाड़ी से एशिया की ओर रवाना किए गए एलएनजी कैरियर्स प्रशांत महासागर के आधे रास्ते में रूट बदलकर पनामा नहर के रास्ते अटलांटिक की ओर रुख कर रहे हैं। चीन और ब्राज़ील के लिए गैस मार्केट में गुंजाइश दिख रही है।


इन सर्दियों में रूस ने यूरोप के लिए मुश्किल हालात पैदा करने की रणनीति बना ली है। आशंका इस बात की है कि ये संकट कहीं साल भर से ज़्यादा न खिंच जाए और यूरोप को इसकी बड़ी क़ीमत न चुकानी पड़ जाए। क्योंकि रूस के रूबल में भुगतान करने से रूबल दिनोदिन मजबूत होता जा रहा है, जिससे यूरोपीय यूनियन सहित अमेरिकी प्रतिबन्धों की धज्जियां उड़ रही हैं। 


कहा जा सकता है कि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने इस अवस्था को भांप लिया था कि उनपर पूर्व की भांति अमेरिका अपने सहयोगियों के साथ प्रतिबंध लगाएगा और उन प्रतिबंधों को बेअसर साबित करने के लिए वो गैस और ऊर्जा के लिये रूबल में भुगतान लेंगे।


देखा जाये तो पुतिन अभीतक अमेरिका की हर चाल को बेअसर करते चले आ रहे हैं, जिसमे तात्कालिक प्रतिबन्धों का हश्र भी सामने दिख रहा है। जिसमे पुतिन बाइडेन पर भारी दिखाई देते हैं।

अर्थव्यवस्था:बदलते स्वरूप

    भारतीय अर्थव्यवस्था के कदम पूंजीवाद की ओर 

              -एसके सहाय-

                 आजादी के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था को जनोन्मुखी होने और उसे आम और राष्ट्रीय हितों को गति देने के लिए नेहरू काल में ठोस पहल हुई, इसमें मिश्रित अर्थव्यवस्था की परिकल्पना को साकार करने के लिए ठोस प्रबंधन किए गये, जिससे वैयक्तिक और सार्वजनिक पूंजी के बीच सामंजस्य स्थापित हो, ताकि उसके लाभ हर नागरिक एवं सरकारों को मिल सके ।

        बहरहाल, इधर 2014 से देखा गया है कि, नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व में सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों-उपक्रमों को बेचने की गति में काफी तेजी आई है और इसके लिए तर्क यह ढूंढा गया है कि, सरकारी कल-कारखाने घाटे के औजार बन गये हैं, सो इसे ज्यादा प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए निजी हाथों में सौंपना जरूरी है ।

        सवाल है कि, बगैर ठोस विचार-विमर्श के सरकारी कंपनियों को औने-पौने दामों में बेचना कहां तक उचित है ? यह प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि, सरकार अपनी जिम्मेदारियों से या समझिये अयोग्यता से बचना चाहती है और सिर्फ नफे-नुकसान के नजरिये से किसी " प्रकिया " को देखती है और  यही ' लोकतांत्रिक अवधारणा " को क्षति पहुंचाने वाली कदम है ।

        यह बात इसलिए भी विचारणीय है कि, कोई भी " जनतंत्र " की व्यवस्था में " उसके कल्याणकारी संकल्पना " स्वत, स्वाभाविक और प्राकृतिक रुप से निहित होती है ।ऐसे में एकतरफा व्यापार-व्यवसाय को निजी क्षेत्र में सुपुर्द करना आम हितों के विरुद्ध है ।

         ऐसे में नेहरूकालीन अर्थ व्यवस्था को समझने की जरूरत है, आवश्यकता इसलिए भी है कि, मिश्रित अर्थव्यवस्था की शुरुआत के नेपथ्य में आखिर उस वक्त के सरकार की मंशा विकास के संदर्भ में क्या थी?

           अतएव , एक संक्षिप्त नजर उस दौर के विश्वव्यापी अर्थ व्यवस्था की ओर दौङाना अपरिहार्य है । यह सर्वविदित है कि, दितीय विश्वयुद्ध के पश्चात दुनिया दो खेमों में विभक्त थी, जिसमें एक का नेतृत्व संयुक्त राज्य अमेरिका तो, दूसरे का नेतृत्व तत्कालीन सोवियत संघ कर रहा था ।इनके अर्थ व्यवस्था के स्वरूप भी एक-दूसरे के विपरीत थे ।अमेरिका जहां प्रतिस्पर्धा, खुला अर्थकीय व्यवस्था का पक्षधर था और आज भी है, तो सोवियत संघ सरकारी नियंत्रण में विकास के पैमाने गढ़ रहा था ।

          इस परस्पर विरोधी दो अर्थजगत के व्यवस्थाओं को काफी करीब से नेहरू जी ने अध्ययन किए और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि, दोनों अर्थकीय दुनिया एकांगी है और यह भारत जैसे विविधता पुर्ण देश के लिए उचित एवं हितकर नहीं हो सकती, इसलिए " समन्वय तथा तालमेल " के साथ ही भारत की आर्थिकी संरचना को बृहत स्वरुप दिया जाए, ताकि एक के पंगु होने से दूसरे की मदद से आम लोगों के दैनंदिन जीवन को संरक्षित किया जा सके ।

            सो, इसके लिए, सरकार ने भारी भरकम क्षेत्रों में खुद पूंजी के निवेश को प्राथमिकता दिए जाने की नीति क्रियान्वित करने शुरू किए, जिससे देश में एक व्यापक एवं संगठित रोजगार के सृजन आरंभ हुआ और इसके क्या फायदे हुए, वह दृष्टिगत है, इसे यहां बताने की जरूरत नहीं है ।

     आशय यह कि, नेहरूकालीन अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्धा के साथ उसकी उपयोगिता के सिद्धांत समाविष्ट थे, कुछ व्यवसाय सरकार कर रही थी तो, कुछ व्यवसाय पूंजीपतियों के हाथों संचालित थी, इसी अवधारणा के तहत विकास के पैमाने स्वातंत्र्योत्तर भारत में अर्थ व्यवस्था को गति प्रदान की गई ।

      बदलते समय में वर्ष 1991 में  सोवियत संघ का विघटन हो गया और इस टूटते रुस को अमेरिका ने अपने कथित अर्थ व्यवस्था को विजयी के लिए उद्घोषित किया, अर्थात उदारवाद, खुलावाद और भूमंडलीकरण जैसे शब्दावली को गढ़ कर पूरे दुनिया में दुदंभि बजाने में सफल रहा कि, " बगेर वैयक्तिक पूंजी के विकास ,प्रगति एवं लोकहित संभव नहीं है, इसे तभी जनहित कारी बनाया जा सकता है, जब पूंजीवादी तरीके से अर्थ व्यवस्था को संचरण के लिए अनुकूल खाद्ध-पानी मिले ।"

        इस बहुप्रचारित झांसे में पी वी नरसिंह राव की सरकार आ गयी और उसने फूंक-फूंक कर कदम बढाने की दिशा में शुरू की, परवर्ती काल में जब बाजपेयी की सरकार केन्द्र में आई, तब बकायदा ' अलग से विनिवेश मंत्रालय " ही गठित हो गये और सार्वजनिक/सरकारी कंपनियों को विक्री के लिए बाजाप्ता कार्यक्रम बनने लगे ।

       मनमोहन युग में ऐसा नहीं हुआ, बल्कि सार्वजिनक क्षेत्र के कंपनियों की उपयोगिता एवं उसके जन अपेक्षा पर कसौटियों को तौला जाने लगा,इस दौर में सरकारी प्रतिष्ठान निजी हाथ में गये, लेकिन उसके  सांगोपांग उपयोगिता को ध्यान में रखकर ही, उसे क्रियान्वित किया गया ।

         और अब मोदी काल में हालत यह है कि, लाभप्रद कंपनी को भी चयनित तरीके से अपने पसंदीदा निजी हाथों को दिए जाने  की नीति के तहत सत्ता खुद गतिशील है ।

     कुल मिलाकर आशय यह कि, क्या सरकार व्यावसायिक तरीके से एक लोकतंत्र में नागरिकों के साथ व्यवहार कर सकती है? और यदि जन  जरूरतों के " अकाल " पैदा हो गई, तब सरकार उसके लिए धनकुबेरों पर आश्रित नहीं हो जाएगी अर्थात मोलभाव! कोविद-19 के संक्रमण वर्तमान में एक अच्छा उदाहरण है ।

     सिर्फ़ टैक्स वसूली ही, क्या सरकार के मुख्य व्यवसाय हैं? मरते लोगों को बचाने की जवाबदेही से कैसे कोई लोकतांत्रिक सरकार पल्ला झाङ सकती है?

       दरअसल, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यह समझने को तैयार ही नहीं हैं कि, लोकतंत्र में शासन के होने के मतलब उत्तरदायित्व को वहन करना है, न कि, सत्ता का संचालन व्यापारिक दृष्टिकोण से, यदि ऐसा ही व्यवहार में रहा तो आने वाले कल में हम जनक्रांति को निमंत्रण देते दिखेंगे ⁉️