Sunday 16 October 2011

भगवा लहर के वो लाल दिन

                                                            एसके सहाय 

                         भाजपा नेता लाल कृष्ण अडवानी के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के तहत जन चेतना यात्रा शुरू करने के पूर्व इनके मुखार विंद से यह उच्चरित होना कि "अगले लोक सभा में प्रधान मंत्री का चयन पार्टी करेगी "  का राजनितिक निहितार्थ अब साफ है कि खुद उनको भरोसा  नहीं है कि 
भाजप उनको उस पद पर रखकर चुनाव लड़ेगी |
                               उम्र के अंतिम पहर  में अडवानी के अवचेतन मन में  आज भी प्रधान मंत्री के पद की ललक है ,सो, इन्होने स्पष्ट कर दिया है कि वह आसानी से मैदान छोड़ने वाले नहीं हैं ,बल्कि अपने रणनीतिक कौशल पर पूरा भरोसा है ,तभी तो पत्रकारों दो टुक शब्दों में बताया कि  फिलवक्त उनका मकसद भ्रष्टाचार के प्रति देशवाशियों को जागरूक करना है ,जिसके लिए जन चेतना  रथ की   पहिया देश के तेईस राज्यों में अपने विचार रखेगी |
                              वास्तव में , जब अडवानी को यह कहना पड़ा कि     --       पार्टी ही तय करेगी कि      प्रधान मंत्री कौन होगा ? तब यह जाहिर है कि वह नब्बे के दशक  से अभी उबरें नहीं है ,और इस मुगालते में है कि उनकी चिर -परिचित रथ यात्रा से एक बार फिर उनके पक्ष में भाजपा के लिए माहौल बनेगा ,जो कि  ,तब और अब के बीच के फर्क को समझ पाने के फेर में है | इस यात्रा का सन्देश पहले कि भांति लोगों के बीच जायेगा या इसके उलटे परिणाम सामने आयेंगे ,यह कह पाना थोड़ा मुश्किल है |
                           वैसे , व्यावहारिक तौर पर आज की सामाजिक -राजनितिक फिजां में गुणात्मक परिवर्तन पिछले नब्बे के दशक से है , जिसका भान शायद अडवानी को नहीं है ,तब उदारवादी चेहरा के तौर पर भाजपा में अटल बिहारी बाजपेयी थे , जिनको नेता घोषित करने में इन्होने कोई गुरेज नहीं की ,बल्कि कई बार जोर   देकर घोषणा किए कि भाजपा के प्रधान मंत्री बाजपेयी ही होगें |इसका असर यह था कि उस काल में इस स्वयंमेव घोषणा के विरूद्ध दलीय आवाज कभी नहीं उठी ,लेकिन अडवानी के साथ कभी वैसी स्थिति नहीं रही  
,खुद बाजपेयी भी सक्रिय राजनीति नसे हटे तो अडवानी के नाम पर खुलकर बातें कहने से बचते रहे ,जबकि हकीकत में जब भाजपा की उगाई फसल में अडवानी के ही मेहनत थे ,जिसे बाजपेयी काट ले गए |
                            अतएव ,अडवानी के पुन: रथ पर सवार होकर देश व्यापी भ्रमण का मतलब दल के अंदरूनी शक्तियों को अपनी ताकत का इजहार कराना है ,ताकि उनकी स्वीकार्यता भाजपा में बनी रहे |ऐसा इसलिए भी कि हल में भाजपा के राष्टीय कार्य समिति की बैठक में गुजरात के मुख्य मंत्री नरेन्द्र मोदी भाग नहीं लेने को लेकर " नेतृत्व " पर काबिज होने की होड़ के रूप में देखे जाणे की प्रवृति राजनितिक हल्कों में है | यह हालात  अडवानी को उस स्वंयसेवक से देखने की विवशता है ,जिसे अपनी अध्यक्षता में मोदी को महासचिव  बनाया था और इनके ही बूते केशु भाई और शंकर सिंह बाघेला के बीच हुए झगडे के हल में नरेन्द्र मोदी को मुख्य मंत्री बनाने में योग दिए थे |
                               दरअसल ,भाजपा का वर्तमान परिदृश्य पिछली  सदी के अंतिम दो दशकों से बिल्कुल भिन्न है | जनता पार्टी  से नाता तोड़कर पूर्व जनसंघ के नेताओं  ने भाजपा का गठन जब 1980  में किया था ,तब इसके गिनती के ही सांसद थे ,ऐसे में बाजपेयी के नेतृत्व में " गांधीवाद और एकात्म मानववाद " के मिश्रण से बनी अवधारणा के तहत पार्टी को आम लोगों के बीच ले जाणे की बातें पूरे जोर -शोर से हुई ,लेकिन यह देश वाशियों के बीच परवान नहीं चद्ग सका और इसके नतीजे १९८५ के  लोक सभा के चुनाव में सिफर रहे 
.इसका फल यह था कि इसके दो उम्मीदवार ही लोक सभा में पहुँच सके और बाजपेयी स्वयं चुनाव हार  गए |
                             भाजपा की यह दुर्गति त्रासदपूर्ण थी कि ऐसे ही जीर्ण  -शीर्ण  सांगठनिक हालातों के बीच लालकृष्ण अडवानी अध्यक्ष के रूप में अवतरित हुए और इसे संयोग कहें या दुर्योग ,उसी काल में तलक सबंधी शाहबानों प्रकरण का मामला राष्टीय राजनितिक क्षितिज में उछल गया ,जिसमें राजीव गाँधी के प्रधान मंत्रित्व में कांग्रेस सरकार ने उच्चतम न्यायालय के निर्णय को पलटते हुए संसद से 
वैसा विधेयक पारित करवा दिया ,जिससे बहुसंख्यक समाज काफी आहत था ,इसी को शामित करने के उदेश्य से कांग्रेस कि तत्कालीन सरकार ने 46  वर्षों से टला लटके अयोध्या में श्रीराम मंदिर के दरवाजे खोल दिए ,जिसका नतीजा यह था कि इस विषय को विश्व हिन्दू परिषद् ने लपक लिया और वहां पर भव्य मंदिर निर्माण किये जाने की घोषणा कर डाली , जिसे इस बढती शक्ति को भाजपा का मौन समर्थन प्राप्त तो था, लेकिन इसका खुला समर्थन 1989  इसने किया ,तबतक बोफोर्स ,फेयर फैक्स जैसे मामले  देश की राजनीति में  गरमा चुकी थी और कांग्रेस   सरकार बुरी तरह से प्रतिपक्ष के बिछाए व्यूह में घिर चुकी थी | 
                                    इन्हीं ,राजनीतिक -सामाजिक स्थितियों के बीच आडवानी का  करिश्माई नेत्रित्व चमक गई ,जिसमे राम मंदिर के मुद्दे इसके कार्य सूचि में सबसे ऊपर  थे | इस काल में अडवानी ही एकमात्र व् एकछत्र भाजपाई नेता थे जिनके खुला विरोध की हिम्मत किसी में नहीं थी |इस क्रम में छः दिसम्बर 1992  को विवादित राम मंदिर - बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ | इसके पूर्व 1090 में   अडवानी ने सोमनाथ मंदिर से  इस राम मंदिर आन्दोलन को गति देने के लिए रामरथ के नाम पर ठीक उसी तरह दौरे किये ,जैसा की अब सिताबदियारा से एक बार फिर इन्होने भ्रष्टाचार के विरूद्ध अलख जगाने की शुरूआत की है लेकिन तब पूरा भाजपा में विभ्रम की स्थिति नहीं थी ,जैसी कि इस बार परिलक्षित है |
                       यह ,वह काल था ,जब पुरे देश में भगवा की लहर थी और इसमें सवार अडवानी का दमकता   चेहरा की टूटी बोलती थी ,जिसका असर यह हुआ कि भाजपा के संग गलबहियां करने को मध्यमार्गी और क्षेत्रीय दल उतावले थे ,जिसमे जनता दल से जुड़े कई दल अलग -अलग नाम वाले,  बसपा,  अकाली दल, एडीएम के लोकदल असम गण परिषद् और बाद में तृणमूल कांग्रेस -बीजू जनता दल ,तेलगु देशम ,शिव सेना,  नॅशनल कांफ्रेंस सरीखी पार्टियों में होड़ थी |इस कड़ी में बाजपेयी के छ वर्षों का कार्यकाल (1998 -2004  )स्थायित्व को प्राप्त करता रहा |
                               कालांतर   में अडवानी का  पाकिस्तान जाना और वहां के कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्ना  के सम्मान में कसीदे पढ़ा जाना इनको  भाजपा में अपच बना दिया | जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष व् उदार के साथ महान घोषित करना इनके लिए मंहगा पड़ गया और यहीं से इनकी चमक खोती गई  ,जिसका प्रभाव यह रहा कि पार्टी के अध्यक्ष के पद से भारी मन से हटना पड़ा और यही बात आज संघ विचार धारा के उग्र भाजपाई  को  रह -रह कर चिढाती रही है \ऐसे में इनकी मौजूदा यात्रा का क्या हस्र होगा ,वह देखने लायक होगी |





       

Wednesday 14 September 2011

अमर के पैरवीकार जेठमलानी

                                              एसके सहाय
राम जेठमलानी ,अब अमर सिंह को नोट के वोट मामले में पैरवी करेंगे ,यह  वह शख्स है जो भाजपा का सांसद है और अपने व्यावसायिक वसूलों केलिए किसी विचार धारा और सिन्धांत को मानता नहीं , ऐसे में इसकी निष्ठा दलगत और देश हित से परे है ,सिर्फ इस दलील पर कि  "वकालत उसका पेशा है " इसलिए वह इससे समझौता नहीं कर सकता ,तब प्रश्न है कि फिर राजनीति के नियमीकरण में इनकी क्या उपयोगिता है ,यह सवाल भाजपा के नेतृत्व से पूछा जाना चाहिए ,यह इसलिए जरूरी है कि दलगत लोकतंत्र में सिन्धांत और विचार धारा ही किसी रजनीतिक दल के मुख्य शक्ति होते हैं और उसके एक जिम्मेदार सदस्य जेठमलानी है |
                                   बेशक कोई भी अधिवक्ता व्यावसायिक कार्यों में किसी दखलंदाजी को मानने के लिए बाध्य नहीं हैं , लेकिन यदि वह किसी खास विचार धारा के वाहक भी  बनने  का ढोंग करे  और ठीक उसके आदर्शों के विपरीत आचरण करे ,तब इसकी गंभीरता बढ़ जाती है ,ऐसे में जेठमलानी का निर्णय एक बार फिर अवसरवादी राजनीति का परिचय दिया है ,यदि यह निर्दलीय होते ,तब बात कुछ और होती मगर भाजपा के संग होकर ठीक इसके वसूलों के विपरीत काम करने से जाहिर है कि ,इस शख्स के लिए राजनीति का कोई मतलब नहीं है सिर्फ नाम-- पैसा ही महत्वपूर्ण है ,जिसका परिचय इन्होने अमर सिंह के मामले में दिया है |
                                                 वैसे ,जेठमलानी के लिए यह पहला मौका नहीं है ,जो व्यवस्थागत खामियों से जुड़े मामलों में  अपने मुव्वकिल के लिए अदालत में खड़े हुए हों ,,इसके पूर्व भी कई ऐसे मामले हैं ,जिनकी पैरवी इन्होने किया है और क़ानूनी नुक्ताचीनी के बीच कामयाबी भी हासिल की है ,चाहे इंदिरा गाँधी या राजीव गाँधी से जुड़े मुकदमे हों या फिर वैसे विषय ,जिसमे राज्य की शक्ति को नीचा दिखाने का अवसर मिल सकने की गुंजाईश हो  ,प्राय: चर्चित मामलों में एक वकील के रूप में यह हमेशा मौजूद रहे है , २ जी स्पेक्ट्रम घोटाले में करूणानिधि की सांसद बेटी कनिमोझी के भी यही पैरवीकार हैं |
                                                 नाम ,दाम और यश के चक्कर  में जेठमलानी ने अपनी एक अलग ही छवि बनाई है ,जिसका कोई जवाब नहीं , राजनीति में भी अटल बिहारी बाजपेयी जैसे शख्स के विरूद्ध  चुनाव लड़ने से परहेज नहीं ,जब मन में आया भाजप में घुस गए और जब दिल भर गया ,इससे अलग हो गए ,यह इनकी फितरत में है ,फिर भाजपा क्या सोच कर राजनीतिक तौर पर विचारहीन जेठमलानी को आत्मसात करती रही है ,,यह आम लोगों के लिए समझ से परे है |
                                             यहाँ  सिर्फ इतना ही कहना है कि दलीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था में  राजनीति का सामान्यीकरण ,दल के  आदर्श होते हैं ,जिससे सिन्धांत ,विचार धारा ,कार्यक्रम ,नीति का उदभव स्वभाविक तौर  पर ,निसृत होती है ,ऐसे में अगर भाजपा को शर्मिन्दिगी झेलनी पड़े तो कोई अचरज नहीं , ,आखिर उसने ही जेठमलानी जैसे अराजक वकील को अपने यहाँ पनाह दे रखी है ,जिसका अपना कोई वसूल सामुदायिक हितों के परिप्रेक्ष्य  में नहीं है ,फिर भी वह व्यवस्था के मौजूदा स्वरूप को स्वीकारता है लेकिन व्यावहारिक जीवन में ऐसा नहीं है ,यही आज देश के समक्ष रोना है ,जिस पर कोई प्रतिबन्ध नहीं !
 
 
                      

Wednesday 31 August 2011

इन्दर सिंह नामधारी के चेहरे को देखिये

                                                                         एसके सहाय                                                                                                                                            सांसद इन्दर सिंह नामधारी को ओमपुरी - किरण बेदी के कहे शब्द काफी बुरे लगे हैं इसलिए इनके खिलाफ विशेषाधिकार का नोटिस दिए जाने को उचित मानते हुए कहते हैं कि सांसदों कि सरेआम तौहीन करना संसदीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था में  उनके मर्यादा के विरूद्ध है इनको दंडित किया ही जाना चाहिए |वह रे नामधारी ,लगता है मर्यादा ,नैतिकता ,सत्य निष्ठां ,सचरित्र्ता के तीर उनके ही तरकश में है और किसी के पास यह नहीं है | अब यहाँ इनकी ब्लेकमेलिंग और कायरपन का झलक दिखा दिया जाय तो कैसा रहेगा ? खैर  छोडिये इन सब बातों को ----,   
 फिर भी दो कारनामे यहाँ इनके देना मौजूं है - पहला यह कि झारखण्ड में विधान सभा के अध्यक्ष रहते अपनी ही सरकार के विरूद्ध इन्होने साजिश की,यह उस वक्त की बात है ,जब बाबूलाल मरांडी मुख्य मंत्री थे ,यह षड्यंत्र जब उजागर हुआ ,तब छ: माह के लिए अपने मुंह सिल लिए थे ,इनके कारनामों की तब इनके ही तत्कालीन अध्यक्ष शरद यादव और पार्टी के वरिष्ठ नेता रवि राय ने इनके क़दमों की तीखी आलोचना की थी याने चारों तरफ से थू -थू इनकी हुई थी ,इस फजीहत के बाद काफी दिनों तक इनके मुंह पर ताले लटके रहे और जाकब मुंह खोला तो बड़ी मासूमियत से कहा " आखिर में भी तो राजनितिक प्राणी हूँ ,सो मुख्य मंत्री की लालसा किसे नहीं होती "
                                          यह है नामधारी का दिलचस्प बातें और कारनामें | अब इनकी डरपोकपन को देखिये -यह वाक्यां मुख्य मंत्री अर्जुन मुंडा के विरूद्ध लाये जाने वाले अविश्वास प्रस्ताव से है ,तब विपक्ष ने पहली बार एकजुट होकर तत्कालीन मंत्रिमंडल में शामिल कथित निर्दलीय मंत्रियों    के सहयोग    से मुंडा को पदच्युत  करने  की रणनीति  बनाई  थे और नामधारी सरकार को लगातार  विश्वास  दिलाते  रहे कि उनिकी  सरकार को कोई  खतरा  नहीं  है ,वह इनके बागी  मंत्रियों  को डाल  -बदल  अधिनियम  के तहत  अयोग्य  करार  देंगे  |इसके  लिए नामधारी ने लगातार सिंह गर्जना करते हुए  तारीख  डर  तारीख  सुनवाई  के  तहत  अदालत  लगाते  रहे लेकिन  जब फैसले  देने  की  घडी  आई  तो मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए | इन्होने बारह  घंटे  पूर्व  अपना  इस्तीफा  विधान  सभाध्यक्ष  के पद  से देकर  मुंडा को बता  दिया कि "निर्णय  देने  के जोखिम   वह नहीं उठा  सकते  "  ये वही मंत्री हैं ,जो अब मधु कोड़ा के साथ जेल में चक्की पीस रहे है |
                              यही है नामधारी  का असली चेहरा ,जो बातें तो बड़ी गोल-गोल करते  है और अपनी पर जब बन आये , तब एहसास होता है की दर्द कैसा होता है | ठीक यही बयान किया है ,इन्होने एक टीवी चैनल को दिए बयान में ,जिसमे इनको "विशेषाधिकार ही लोकतंत्र में सुरक्षा  कवच नज़र आता है ,यह दिखता ही नहीं कि -- भारत के संविधान के प्रस्तावना में ही पहली पक्तिं कि शुरूआत -" हम भारत के लोग" से होती है ,जिसकी झलक अभी -अभी देशवासियों ने देखा है और अगर इनके नज़र टेढ़ी हो गई ,तब क्या होगा ,कह पाना मुश्किल होगा | यह तो गनीमत समझिये कि अन्ना हजारे का भूख हड़ताल लंबा नहीं खीचा और इतफाक से यह लंबा होता ,तब  भीड़ की क्या मानसिकता होती है ,यह तो देहली देखता और पूरी दुनिया इसकी गवाह होती | आखिर पक्ष -विपक्ष ने इसे "भीड़ " ही घोषित करके वाजिब लोकतान्त्रिक मांग को बारह दिन तक टालते रहे थे | फ़िलहाल  इतना ही ------
 
     

Saturday 27 August 2011

संसद को अपनी शक्ति का भान नहीं

                                                                                         एसके सहाय                                                                                                                              वाह  रे भारतीय संसद , प्रक्रिया, संविधान और इसकी सर्वोच्चता के बीच प्रक्रियागत प्रविधियों के सहारे लोकपाल के मुड़े को फ़िलहाल टालने में कामयाब हो ही गई | माननीय सांसदों को इसका भी भान नहीं रहा कि वे राइ को पहाड़ और पहाड़ को राइ बनाने की सामर्थ्य रखते हैं जैसा कि 1973 में दिए एक फैसले में उच्चतम न्यायालय ने दिया था | इसमें साफ निर्णय थे कि संसद सविधान सहित अन्य मामले में प्रयाप्त बहुमत के बूते कोई भी निर्णय  ले सकती है सिर्फ संविधान के मूल भावना को बदल नहीं सकती | यह मूल भावना क्या है ?इसकी व्याख्या उस संविधान पीठ में शामिल न्यायधीशों ने अलग -अलग किए थे लेकिन इनके फैसले का मूल तत्व था - लोकतान्त्रिक व्यवस्था में परिवर्तन संसद हरगिज नहीं कर सकती |
                                               इस अपनी ताकत को पहचानते हुए भी संसद ने जाहिर कर दिया है कि उसे अपने हितों से ज्यादा प्यारा कुछ भी नहीं है | यदि ऐसा नहीं होता , तब सभी नियमों -परिनियमों को धत्ता बताते हुए संसद लोकपाल विधेयक के प्रावधानों पर तत्क्षण विचार करते ,जिसके लिए पूरा देश बैचेन है | इसके लिए सरकार के प्रस्तुत विधेयक पर ही विमर्श होता और फिर सर्वसम्मति से इसके सभी धाराओं पर बहस करते हुए वस्तुपरक तरीके से मतदान के जरीये आगे बढती ,जिसमे पक्ष -विपक्ष के चेहरे सामने आते ,जिससे मालूम  होता कि आखिर अधिसंख्य सांसदों का रूख कैसा है ?
                                                   वैसे ,तीन मुद्दे पर संसद ने सर्वानुमति से अपनी मुहर लगा दी है ,जो अभी सैधान्तिक रूप में है ,जिससे कुछ आस जगी है लेकिन मात्र इतने भर से काम नहीं बनने  वाले है |अभी लंबी लड़ाई के लिए एक बार फिर देशवासियों को तैयार रहना होगा | लोकपाल के प्रस्तावित बातें संसद के स्थायी समिति को भेजे गए हैं |यह समिति कब अपना गुण -दोष के साथ प्रावैधानिक   सलाहों के साथ अपना राय पत्र देती है ,इसे देखना बाकी है |
                                               अभी की स्थिति में संतोष जनक बात यही है कि क्म से कम अन्ना हजारे के आत्म बल, सचारित्र्ता , नैतिकता ,सद भाव और त्याग के बीच एक बार फिर देश में लोक शक्ति अपने मौलिक मांगों के प्रति सचेत हुई है ,जिसका स्वागत किया जाना चाहिए | यह आन्दोलन इसलिए कामयाबी के शिखर तक पहुचने के स्थिति तक है कि  हजारे जैसे एक पवित्र आत्मा कि यह पुकार है ,जिसका अभाव आज भारतीय राजनीति में बहुत ही कम देखने को मिलते हैं | एक गैर राजनितिक पुरूष ने यह स्थापित कर दिया कि यदि आपका खुद का आचरण पाक -साफ हो और सोच की दिशा  परोपकारिता से लबरेज हो तो ,दुनिया की कोई भी शक्ति आपको लक्ष्य प्राप्त करने से नहीं रोक सकती ,अभी के हालात में तो यही दिखा है |
                                                 इस देश व्यापी जन आन्दोलन में यह भी सामने आया कि विचारवान लोग भी बहस के दौरान मूल विषय -मुद्दे से भटकते नज़र आये , इनके लिए लोकपाल केवल बहस के लिए बहस करना ही शगल बना रहा ,जिसमे तथ्य की समझ कम  और अपने व्यक्तिगत सोच की बातें ज्यादा उल्लेखित रहीं | मसलन, किसी ने कहा कि निजी क्षेत्र ,गैर सरकारी संगठनों को भी इसके दायरे में लाया जाना चाहिए |शायद इस तरह के चिंतन करने वालों को यह भी पत्ता नहीं कि ,जब सरकारी कर्मी ,जिसमे संसद -विधान मंडल आ जायेंगे ,तब खुद  बी  खुद निजी संस्थाए इसके परिधि में आ जायेंगे |इनके लिए अलग से कानून बनाये जाने की क्या   जरूरत है | आखिर सार्वजनिक धन के लुट का ही मामला है न ,फिर इसमें जो व्यापारी ,उद्योगपति ,कारोबारी या अन्य लोग आयेनेग ,ठीक उसी तरह ही कारवाई के शिकार होंगे ,जैसे अधिकारी -कर्मचारी वर्ग के लोग, फिर अलग से शब्दों के डाल देने से ही समस्या का अंत तो होगा नहीं |
                                                     और अब जब लोकपाल पर सर्वानुमति है ,तो देखना है कि बनने वाली विधेयक में इसके अन्तर्निहित शक्तियों का स्वरूप कैसा होगा |मूल बात यही है |क्या यह नियंत्रण महालेखा  परीक्षक -चुनाव आयोग  जैसे संविधान से निसृत संस्था होगी ,जिसकी जाँच की प्रक्रिया  अपनी और स्वतन्त्र होगी  तथा समयबद्ध सुनवाई की बाध्यता होगी और इसके जाँच के दायरे में प्रधान मंत्री सहित उच्च -उच्चतम न्यायालय के न्यायधीश आते हैं या नहीं ,इन्ही सब बिन्दुओं पर स्थायी  समिति और संसद के रूख का परीक्षण होना है भारतीय लोगों के सामने ,जिसका बेसब्री से इंतजार ह
 

Friday 22 July 2011

अभिव्यक्ति पर जिलाधीश की टेढ़ी नज़र

                                                   अभिव्यक्ति पर जिलाधीश के टेढ़ी नज़र
                                                                       एसके सहाय
झारखण्ड में एक जिलाधीश की बक्र दृष्टि एक सांध्य  दैनिक पत्र पर पड़ गई है ,वह भी एक तस्वीर को को लेकर ,जिसमे आपति जनक ऐसी कुछ भी बात नहीं है ,जिसे लेकर हाय-तौबा मचाया जा सके ,फिर भी अपनी अकड़ को दिखलाने के लिए उस उपायुक्त ने जो नोटिस अख़बार के हाथों में थमाया  है ,जिससे गंभीर सवाल पैदा होते हैं ,जो किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं है |
                                             यह धौंस पलामू जिले के उपायुक्त पूजा सिघंल ने समाचार वर्षा पर जमाया है, जिसने अख़बार को दिए नोटिस में पूछा है कि "किसके अनुमति से उनसे सबंधित छाया चित्र मुख्य मंत्री अर्जुन मुंडा  के साथ छापा गया है |" बस इतनी से हल्की बात जिला प्रशासन को नागवार गुजरी है ,जो आजकल यहाँ जन चर्चा का विषय बन गया है |
                                                   जिला प्रशासन  के  यह कारण पृच्छा नोटिस से जाहिर है कि अब पत्रकार क्या छापें  और क्या नहीं ,इस विषय पर अब प्रशासन की अनुमति  लेनी होगी ,जो अभिव्यक्ति  की  खुल्लम -खल्ला चुनौती देने जैसी  हैं ,जिसकी जमकर आलोचना हो रही है ,लेकिन उपायुक्त की जिद है कि वह अपनी " शक्ति " का इजहार करने से बाज़ नहीं आ रही |
                                                 दरअसल अखबार ने उपायुक्त के एक साल पलामू में कार्य काल पूरे करने के अवसर पर उनकी उपलब्धियों का बखान अपने पत्र में की थी ,इसी क्रम में उसने अपने मुख्य मन्त्री के साथ पूजा सिंघल कि तस्वीर को प्रकाशित किया था ,जिसमें अर्जुन मुंडा हाथ जोड़ें खडें है और बगल में वह खड़ी है |यह सामान्य फोटो था ,जो १९ जुलाई को प्रकाशित हुए थे |इसमें आपति जनक कोई भी बात नहीं थी लेकिन जो नागवार करने वाली बात थी ,उसपर जिला प्रशासन के मुखिया ने ध्यान ही नहीं दिया ,जिससे अब वह बात भी चर्चा में आई है ,जिसकी कल्पना  भी पूजा  सिंघल नहीं कर सकती थी |यह सब अनजाने में हुई या जान बुझकर   ,इस पर फ़िलहाल कुछ भी कह पाना मुश्किल है |मामला अब काफी संगीन हो चूका है | इस मामले में अख़बार प्रबंधन अब कानून की शरण लेने के प्रयास में है |
                                            लेकिन इतना तय हो गया कि देश में कोई भी व्यक्ति अभिव्यक्ति के नाम पर अपनी बात सार्वजानिक क्षेत्रों में आसीन व्यक्तियों के बारे में प्रदर्शित करने की हिमाकत कि ,तब उसे पूजा सिंघल जैसे उपायुक्तों से पंगा लेने को अपने को तैयार करना होगा |
                                      यहाँ  यह भी बताना  जरूरी है  कि फोटो के साथ जो बात ऊपर लिखी है ,उसपर उपायुक्त को कोई आपति नहीं है ,आपति सिर्फ तस्वीर पर है ,जब कि कैप्सन में लिखा हुआ है - मुख्य मंत्री अर्जुन मुंडा  के वरद हस्त प्राप्त उपायुक्त पूजा सिंघल |  इतना ही नहीं ,इस उपायुक्त को महिमा मंडन करने के अतिरेक में अख़बार ने यहाँ तक लिख डाला ,जिसमे उल्लेख है -  पूजा सिंघल ने पलामू में कम करते हुए "अपने जीवन " में भी खास उपलब्धि हासिल किये है ,जो जिले की खास धरोहर के तौर पर याद किया जाता रहेगा | मगर इस बिंदु पर कोई विशेष नज़र जिला प्रशासन की नहीं है |
                                          वैसे, यहाँ आपको यहाँ बता दें कि पूजा सिंघल अपने कई कारनामों से हमेशा चर्चा में रही हैं | मसलन -चतरा जिले में उपायुक्त रहते इनका बेहोश हो जाना ,खूंटी में जिलाधिकारी रहते ग्रामीण विकास की करोड़ों रुपये के घोटाले होना और अब पलामू में रहते ----
                                    यहाँ आपको यह भी  स्मरण करा दूँ कि करीब एक पखवारे पहले पलामू में ट्रेन यात्रा के साथ मुसाफिरों से मुखातिब होकर जन समस्याओ से रूबरू होना इनकी लोकप्रियता को चार चाँद लग जाने की बात हो रही  थी लेकिन एक सामान्य सी फोटो पर नाक -भौंह  सिकोड़ लेना समझ से परे की बात  है | आखिर किस तरह प्रकशित तस्वीर आपति जनक है ,वह ही सही -सही बता सकती है |इधर कई माहों  से उनका नियमित मासिक प्रेस कांफ्रेंस भी नहीं हुआ है ,जिससे कि असलियत उजागर हो सके और उनके दृष्कों को समझा जा सके | इनके अख़बार को नोटिस थमाने से यह तो जाहिर हो गया कि नौकरशाह  की अकड़ अब भी देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था में बनी हुई है ,जिसे जब चाहे ,वह अपनी शक्ति का प्रदर्शन करके अपनी गरूर को आत्मसात कर सके |
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Monday 6 June 2011

लोकतान्त्रिक अधिकारों को दबाने की कोशिश

                                                           एसके सहाय
काला धन और भ्रष्टाचार के सवाल पर बाबा रामदेव और इनके समर्थन में जुटे सत्याग्रहियों पर गत रात देहली पुलिस के अचानक धावा बोल देने से एक बात साफ हो गई है कि विदेशों में जमा धन को लाने और भ्रष्ट तत्वों के विरूद्ध गंभीर कारवाई करने के प्रति केंद्र सरकार का रूख ठीक नहीं है |
बाबा रामदेव की पृष्ठभूमि  को लेकर संशय हो सकती है लेकिन इन्होने जिस प्रश्न को लेकर जनतांत्रिक  तरीके से भूख हड़ताल पर बैठे थे ,वह इतना बड़ा कानून व् व्यवस्था के लिए परेशानी पैदा करेगी ,इसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती | इसलिए जो भी कुछ कल  रात रामलीला मैदान में हुआ ,उसका संकेत है कि  आने वाले दिनों में जबर्दस्त जन आन्दोलन होने वाले हैं ,जिससे निपटने की तैयारी अभी से कांग्रेस की केंद्र और राज्य सरकारों को शुरू कर देनी चाहिए |
लोकतंत्र में अपनी बात रखने और उससे सहमत होने और न होने पर अर्थात दोनों स्थिति में सरकार को संयम का परिचय देना चाहिए ,तभी सरकार टिकाऊ हो सकती है | आखिर धरना ,प्रदर्शन ,रैली ,सभा -गोष्ठी ,घेराव ,बंद ,पुतला दहन ,भूख हड़ताल ,नारेबाजी ,जन संपर्क ,सत्याग्रह , सविनय अवज्ञा जैसी प्रक्रिया लोकतंत्र के आधार स्तंभ   ही तो है ,जिसका अनुसरण करने से कैसे सरकार आपने नागरिकों को रोक सकती है ,मगर दुर्भाग्य से केंद्र सरकार में ऐसे मानसिकता वाले तत्व शामिल हैं ,जो  लोकतंत्र से अन्योन्याश्रय  रूप से जुड़े मानवाधिकारों को भी लात मारने से गुरेज नहीं करते ,यही देश की राजनितिक अनुभवों का तकाजा है ,जिसका दिग्दर्शन कल राष्टीय    राजधानी में हुआ है  ,जिसका प्रतिकार किया ही जाना चाहिए |
शांति [पूर्ण आन्दोलन में अचानक व्यवस्था के तकनीकी पहलुओं को हथियार बना कर लाठी चार्ज करना और आश्रू गैस का इस्तेमाल करना जिससे लोग चोटिल हों ,ताकि भय के वातावरण तैयार करके भ्रष्टाचार पर से देश का ध्यान हट सके ,यह कोशिश प्राय: हर सत्ताधारी करता है ,विशेष कर अधिनायकवादी प्रवृति के राजनीतिज्ञों के लोकतंत्र के नाम पर सत्तासीन होने पर, ,इसके दिग्दर्शन आसानी से हो जाते है |ठीक वैसा ही कल की घटना में दिखा है ,जो जल्द ही व्यापक स्वरूप में देश के सामने आने को परिलक्षित है |
भ्रष्ट तत्व और काला धन से किसे प्रेम हो सकता है ? दो नंबर  के तत्व भी बोल -चल में इसके खिलाफ ही आपने विचार प्रकट करने को विवश होते है ,भले ही वे कितना ही निकृष्ट हों ,लेकिन लोकतान्त्रिक मूल्यों के प्रति दिखावा प्रकट करने में वे परहेज नहीं करते, जैसे की कपिल सिब्बल ,पी चिदम्बरम ,दिग्विजय सिंह सरीखे कांग्रेसी इन दिनों कर रहे है |
अतएव , घटना को लेकर उत्पन्न राजनितिक परिद्रश्य में एक बार फिर पिछली सदी के सत्तर और नब्बे दशक की हालात सामने आ जाये ,तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए | ऐसा इसलिए कि बर्बर कारवाई से ही लोग तेजी से आपस में धुर्वीकरण के प्रति अनायास ही जुटते  रहे है  और काफी कुछ माहौल ऐसा ही प्रतिपक्ष के जाहिर भी हैं |
 
 

Wednesday 4 May 2011

लादेन मामले पर अमरीका कभी कमजोर नहीं था

                                                               एसके सहाय
अमरीका और ओसामा बिन लादेन के सन्दर्भ में इन दिनों कूटनीतिक क्षेत्रों में शक्ति और इसके तीखे उपयोगिता को लेकर चल रही बहस में गुमराह होने वाली बातों को ज्यादा प्रमुखता से तवज्जो दिया जा रहा है | इससे भारत सहित कई उदीयमान महा शक्तियों को अमरीका के तर्ज़ पर अपने राष्टीय हितों के संवर्धन को लेकर बहस -चर्चा काफी तेज़ है |इसलिए जरूरी है कि "भारत भी अपने दुश्मनों को साफ करने के पूर्व यह भली भांति समझ ले ,कि राष्ट हित से बड़ा और महत्वपूर्ण चीज किसी भी राज्य -देश के लिए कुछ भी नहीं होती |"
सर्व प्रथम यह आप याद करें कि ९/११ उस काल में उआ था ,जब बराक ओबामा के स्थान पर जार्ज डब्ल्यू . बुश वहां के राष्टपति थे, तब इनकी गर्जना कि खौफ से पूरी दुनिया दहशत जादा था ,इनकी पहली घोषणा  थी कि विश्व अपना -अपना मित्र चुन ले ,और हमसे युद्ध के लिए तैयार हो जाय तथा आतंकवाद कि लड़ाई में जो हमारे साथ नहीं हैं ,वे हमारे शत्रु है और दूसरी मुख्य घोषणा थी कि "लादेन" जहाँ भी होगा ,उसे हम खोज निकालेंगे ,चाहे वह किसी भी "बिल " में छुपा हो |
मतलब स्पष्ट था कि अमरीका के लिए लादेन का पकड़ा जाना या इसके मारे जाने का खास अर्थ था और इसके लिए उसने हर उस कूटनीतिक  प्रक्रिया का अवलंबन किया जो उसके राष्टीय हितों के लिए जरूरी था ,लेकिन  ठीक वैसा ही भारत के लिए संभव क्यों नहीं ? इसी बिंदू पर भारत कोई ठोस कदम उठा पाने में चुकता रहा है अबतक , जिसे लेकर अब भी संप्रग और राजग सरकारों की आलोचना होती आ रही है |
इन सारी स्थितियों को जानने के लिए थोड़ा देश की राजनीतिक माहौल को भी देखना होगा ,तब जाकर स्थिति साफ होगी | पहला यह  है कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था का लुफ्त तो हम लेते हैं लेकिन राष्टीय सवालों पर येन मौके पर "वोट " दायें -बाएं हमारी सोच हो जाया करती है ,जिसका लादेन के मारे जाने के बाद इसके अंतिम संस्कार किए जाने के तरीकों पर कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने धार्मिक प्रश् खड़ा करने कि जुर्रत कि ,हालाकिं समय रहते सोनिया गाँधी ने इनको फटकार लगाने में जरा भी देर नहीं की, लेकिन वोट पिपासु व्यवस्था का इससे अच्छा चित्रण देखने को देशवाशियों को मिल ही गया | इसे नहीं समझ पाने का ही आलम है कि "आजादी के बाद से ही हम लगातार आतंकवाद को झेल रहे हैं ,इसके लिए "मत " कि उपयोगिता को ही सबसे मुख्य उपकरण समझा गया है ,ऐसे में यदि कोई ठोस कारवाई भारत नहीं कर पाता, तब  स्पष्ट है कि हमारे जन प्रतिनिधियों में  "इच्छा शक्ति " का घोर अभाव है और जिनके पास दृढ इच्छा शक्ति है ,भी वे शासन सत्ता से कोसो दूर है ,यही भारत की सबसे बड़ी कमजोरी है |
 भारत एक जन तांत्रिक व्यवस्था वाला राष्ट है लेकिन यहाँ "राष्ट हित को पहचान करने वाले राजनेताओं का घोर अभाव है और यदि वे सत्ता में हैं ,तब उनकी कोई पूछ भी नहीं है| " केन्द्रीय मंत्री मंडल में प्रणव मुखर्जी एवं एके अंटोनी की समझ अन्य की तुलना में काफी अधिक है लेकिन इनकी बातों को कोई तवज्जो नहीं ,जब तक कांग्रेसके आलाकमान उसकी इजाजत नहीं दे |लेकिन अमरीका के साथ वैसा नहीं है | लादेन को मजा चखाना था और अपने शक्ति का प्रदर्शन करके दुनिया को जाताना भी था ,सो अमरीका ने बखूबी अंजाम दिया |उस देश में रंग भेद ,नस्ल भेद ,जातिगत भेद या अन्य किसी तरह के अंदरूनी बातें जब तब सामने आती हैं लेकिन कानून के समक्ष जिस ठोस एवं विधिक तरीके से कारवाई होती है ,उसका जरा सा भी अनुकरण हम करने को तैयार नहीं दिखते ,कारण वही दुराग्रही विचार  का होना है ,ऐसे में फिर मुंबई जैसी घटना की पुनरावृति होती है ,तब आश्चर्य नहीं होना चाहिए |
जब अमरीका में अल कायदा ने ९/११ को अंजाम दिया था तब ,पूरे विश्व की जान सांसत में थी लेकिन ऐसे में भी मानवाधिकार का सम्मान उसने काफी धैर्य पूर्वक किया ,लादेन को पकड़ने या मारने में उसने लबे समय का इंतजार भी इसलिए किया की कि   यदि वह चाहता तो लाखों लोगों के बीच बमवारी कर उसे ख़त्म कर सकता था ,ऐसी क्षमता उसके पास थी भी ,लेकिन उसने समय का इंतजार किया और जब मौका आया भी तो कूटनीतिक तरीके को दर किनार करके सीधे लादेन को मार डाला ,यही उसकी कामयाबी के सकेंत को काफी बारीकी से राजनीतिक -कूटनीतिक हल्कों में अन्य देशों से अलग पहचान दिलाने में मददगार हुई ,जिसका फल भी वह भविष्य में कटेगा भी तो अपनी शर्तो पर ,क्या भारत भी वैसा कदम उठा सकता है ? मौजूदा समय में यही यक्ष प्रश्न है |
   पाकिस्तान पर दबाव ,मदद और फटकार के साथ चेतावनी की बरसात करते अमरीका ने दिखा   दिया है कि जब वह कुछ ठान लेता है तब ,उसे पूरा करके दम लेता है ,इसके लिए वह किसी के मदद की इंतजार नहीं करता  ,अपने राष्टीय हितों को ही ध्यान में रखना उसकी उच्च प्राथमिकता सूची में शामिल है | आपरेशन लादेन में उसने अपने  प्राविधिक तकनीकी इजादों को परख भी लिया है फिर वह शक्ति "गुमान क्यों नहीं करे | लोकतंत्र ,वैक्तिक स्वतंत्रता जैसी मूल भूत मानवाधिकारी बातों पर इसके जोर दिए जाने की प्रक्रिया ऐसे ही नहीं है ,भले ही अमरीका इसकी आड़ में अपने राष्टीय  हितों  का संवर्धन करता हो और आप भी करें तो इसके लिए किसने आपको रोक रखा है ?
 

Tuesday 3 May 2011

परवर्ती समय में आतंकवाद :परिप्रेक्ष्य ओसामा बिन लादेन

            एसके  सहाय  
संयुक्त  राज्य  अमरीका  का  सबसे   बड़ा  मुजरिम  ओसामा  बिन  लादेन  के  मारे  जाने  के  बाद  स्वाभाविक  प्रतिक्रिया  में  अहिंसक  जगत  में  ,खास  कर  एक  लोकतान्त्रिक  व्यवस्था  वाले  राष्ट  -राज्य  में  ख़ुशी  की  लहर  है  ,लेकिन  यह  हर्ष  कितने  दिनों  तक  बरकरार  रहेगा  ,इसमें  संदेह  है  ,यह  शक  इसलिए  पैदा  हुआ  है  कि  "दुनिया  को  कोई  भी  बलशाली  कितना  बड़ा  क्यों  न  हो  , वह  संगठित  शक्ति  याने  राज्य  शक्ति  के  आगे  बोना  ही  है  और  ओसामा  बोना  ही  था , जिसे  मार  कर  बहुत  बड़ा  तमगा  पा  लेने  की  कल्पना  यदि  अमरीका  एवं  पश्चिम
   जगत  कर  रहा  है  तो  यह  ख़ुशी  उनके  लिए  क्षणिक  ही  है
 .
इन  बातों  को  समझने  के   लिए  आपको  "व्यक्ति  और  राज्य  शक्ति  के  बीच  के  भेद  को  जानना  होगा  ,तभी  यहाँ  लिखी  शब्दों  के  अर्थ   आप  समझ  सकेंगे . सबसे  पहले  तो  यह  अनुभूत  करें  की   जब  9/11 हुआ  था  ,तब  लादेन  कि  शक्तियों  का  बखान  इस  तरीके  से  तब  किया  गया  कि  वह  सचमुच  पाशविक  शक्तियों  में  अत्यधिक  बलशाली  है  ,मतलब  कि  जो  दुनिया  के  सबसे  ताकतवर  देश  में  अपने  खूंखार  वारदातों  को  अंजाम  दे  सकता  है  ,वह  वाकई  में  काफी  मजबूत  शक्ति   का  स्वामी  है  , न  जाने  किस - किस  तरह  कि  बातें  तब  फिजां  में  तैरती    नजर   आई  .इससे   काफी  कुछ   भ्रम   भी   विश्व  में  फैले  ,जो  सच्चाई  से  कोसों  दूर  तब भी  थे  और  आज भी   है  .
पहले   तो  यह  जानिए  कि  ओसामा  कोई  राज्य  नहीं  था  ,यह  मुठ्ठी  भर  के  धर्मांध  लोगों  का  जनूनी   शक्तियों  का  गिरोह  का  नेतृत्व   कर्त्ता  था  ,जिसमे  इस्लाम  एक  बहाना  था  अपनी  निजी  शक्ति  के  विस्तार  करने  के  लिए ,  ऐसे  में  सिर  -फिरे  लोगो  कि  सम्मिलित  ताकत  इसे  बल  दे  गई  तो  उसे  नायकत्व   प्रदान  उन  हलको  में  कर  दिया  जो , किसी  भी  सूरत  में  इस्लाम  से  इत्तर  कुछ  भी  सोचने  को  तैयार  नहीं  होते  ,जो  प्राय : हर  क्षेत्र - देश  दुनिया  में  मिल  ही  जाया  करते  हैं  .इसमें  जो  ध्यान  देने  लायक  बात  यह  कि  ,ओसामा  को  आखिर  इतने  दिन  तक  कौन  टिकाये  रखा  ,यह  किसी  देश  के  सरक्षण  में  ही  हो  सकता  है  ,इससे  अलग  नहीं   ,ऐसे  में  पाकिस्तान  का  नाम  स्वाभाविक  तौर  पर  सामने  है  ,जो  आज  भी  चिल्ला  कर  कह  रहा  है  :उसकी  व्यवस्था  में  आतंकवादियों -अपराधियों  के   लिए  कोई  जगह  नहीं  है  ,उनके  यहाँ  कानून  कि  सत्ता  है   ,इसलिए  किसी  भी  आतंकवादी को  पनाह  देने  का  सवाल  ही  नहीं  उठता है  " ऐसा  खुद  वहां  के  स्वराष्ट  मंत्री  रहमान  कई  दफे  कह  चुके हैं  . लेकिन  बात  जमती  नहीं  .
बहरहाल , ओसामा  बिन  लादेन  यदि  दस  सालों  तक  दुनिया  की  आखों  में  धुल  झोकने  में  सफल  रहा  तो  वह  इसलिए  की  उसके  सिर  पर  राज्य  शक्ति  का  वरदहस्त  था  ,जिसका  नाम  पाकिस्तान  है  ,भले  ही  अमरीका  या  इसके  पिछलग्गू  देश  इसे  khuleaam स्वीकार  करने  से  हिचकें .
साधारण  सी   बात  है  - समाज  का  उन्नत  रूप  ही  राज्य  -राष्ट  का  होता  है  ,भारत , अमरीका  पाकिस्तान  जैसे  ही  राष्ट  कम - अधिक  मात्रा   में  अलग - अलग  स्वरूपों  में  पूरे  दुनिया  में  "सह  अस्तित्व " के  तौर  पर  स्थापित  हैं , ऐसे  में  एक  आतंकी   कैसे  इतने  दिनों  तक  अपने  को  बचा  सकता  है  ,जब  विश्व  की  तमाम  पुलिस  उसकी  तोह  में  भिड़े  हों , जिसमें  खुद   उसके  आका  अर्थात   पाकिस्तान  भी  शामिल  हो  ,साफ   है  की  "बिना  राज्य  शक्ति  के  कोई  भी  ताकतवर  प्राणी  लंबे  काल  तक  अपने  को  नहीं  छिपा  सकता  "
ऐसे  में  लादेन  के   9.11 के  पश्चात    गुमनाम  तरीके  से  रह  कर  आतंकी  कारवाई  को  अंजाम  दिए  जाने  की  बात  पचती  नहीं , इसलिए  अमरीका  के  बढ़ते  दबाव  में  पाक  सरकार  झुक  कर  भविष्य  को  ध्यान  में  अपने  को  सुरक्षित  करने  की  कोशिश  की   है  ,तब  ताज्जुब  नहीं  कर्म  चाहिए , आखिर  पाकिस्तान  एक  वैध  सत्ता  ही  तो  है  ,जिससे  एक  राज्य  की  तरह  ही  कूटनीति गत  तरीके  से  व्यवहार  किए  जाते  रहें  हैं , ऐसे  में  अमरीका  हो  या  अन्य  कोई   देश   के  सरक्षण  के  बिना  कोई  भी  आतंकी  ज्यादा  समय  तक  अपने  को  दुनिया  से  छिपा  कर  नहीं  रह  सकता  .
   ऊपर  लिखित  बातों  को  यदि  आप  नहीं  समझ  पायें  तो  एक  उदाहरण  से   इसे   समझने  की  चेष्टा  करें , एक  थानेदार  को  अमूमन  अपने  इलाके  की  पल  -पल  ki जानकारी  होती  है  ,यदि  सूचना  मिलने  में   देर  है   ,तब  समझें  की  वह  जन  बुझ  कर  नौटंकी  कर  रहा  है  या  
नाकाबिल   है  या  वह  अपराध  जगत  से  उपरी  कमाई  करने  की  जुगत  में  है  , और  यदि  वह  ईमानदारी से   अपने  कर्तव्यों  का  निर्वाह  करने   शुरू   कर  दे   तब , उस  क्षेत्र  में  कोई  भी  अपराधी  लंबे  समय  तक  नहीं  शरण  ले  सकता  और  यदि  वह   है  तो साफ  मानिये  की  उसकी  अपनी  कमजोरियां  हैं  ,जिससे     वह  अपनी  डयूटी  नहीं  कर  रहा  है  ,जिसमें  रिश्वत , जातिगत  मामले  या  एक  के  लिए  दूसरे  को  छुट  देने  की  विवशता  जैसे  अपनी  -लाभ  -हानि  के  विराग   काम  करते  हैं , लेकिन  अगर  यह  ठान  ले  की  उसके  इलाके  में  अपराध  या  अन्य  कोई  गैर  क़ानूनी  काम  नहीं  हो  तो  क्या  कोई  उसे  ऐसा  करने  से  रोक  सकता  है  ,कदापि  नहीं , व्यावहारिक  तौर  पर  देखें  तो  मालूम  होगा  की  उसे  तबादले  झेलने  होंगे  ,वह  भी  अन्य  के  हितों  के  लिए  .यह  एक  मामूली  सी  एक  पुलिस  अधिकारी  का  रूख  हो  सकता  है  .
अतएव  लादेन  जब  10 वर्षों  से  टिका   रहा  ,तो  साफ   है  कि  उसके  पीछे  राज्य  शक्ति  का  ही  हाथ  है  ,इसके  इत्तर  कुछ  भीं  नहीं , लादेन  की  उपयोगिता  पाकिस्तान  के  लिए  ख़त्म  हुई  तब  इसे  पाक  ने  ठिकाने  लगा  दिया अमरीका  के  हाथों , इसमें  आश्चर्य  करने  वाली  कोई  बात  नहीं  है  , जिस  जगह  पर  लादेन  के  मारे  जाने  कि  बात  हो  रही  है  ,क्या  उसके  बारे  में  पाक  सरकार  या  सेना  या  इसके  ख़ुफ़िया  तंत्र  को  वाकई  में  कोई   जानकारी  नहीं  थी ?ऐसा  हो  ही  नहीं  सकता  ,पाक  अब  भी  लगातार  झूठ  पर  झूठ  बोले  जा  रहा  है  और  भारत  सिर्फ  अपने  ऊपर  हुए  आतंकी  हमले  की  बात  कर  रहा  है  .ऐसे  में  यदि  फिर  कोई  बड़ी  हिंसक  घटना  होती  है   तब  भी  कोई   आश्चर्य  नहीं  .
पूरे  विश्व  के  आपसी  रिश्ते  कूटनीति  से  या  दौत्य  सबंध  से  परिचालित  होते  हैं  ,जैसे  अमरीका  और  भारत  या  इससे  स्वभाव  वाले  राज्य  केवल  कुटनीतिक   तरीके  से  रिश्ते  बनाते  और  बिगड़ते  है  लेकिन  भारत  -नेपाल  ,पाकिस्तान  श्रीलंका  बंगला   देश,  Bhutan  या  अन्य  से  रिश्ते  का  आधा r "दौत्य " ही  है  ,जिसमे  हर  वक्त  कूटनीति  ही  प्रभावी  नहीं  होती  ,यदि  इसे  समझ  लेन  तो  फिर  लादेन  का  मामला  भी  आसानी  से  समझ  सकते  है  अन्यथा  नहीं .
अब  जब  लादेन  मारा  जा  चुक्का  है  तो , आने  वाले  दिनों  में  और  अधिक  सावधानियां  बरतने  की  जरूरत  hai  .यह  तो  स्पष्ट  हो  चुक्का  है  कि  एक  राज्य  भी  आधिकारिक  रूप में  अपराधी  -आतंकवादी  को  शरण - सरक्षण   दे  सकता  है  ,ऐसे  में  अस्थिरता  का  दौर  जारी  रहे  और  मार - काट  होती  रहे  ,यही  आज  संसार  कि  मुख्य  त्रासदी  है  ,जिसके  चपेट  में  भारत  लगातार  आजादी  से  जूझता  आ  रहा  है  और  अमरीका  व्  पशिचम  देश  तो  हल  में  उसके  चपेट  में   आये  है  ,फिर  वह  क्या  जाने की  'अराजक  स्थिति  में  आतंकवाद  का  दर्द  कैसा  होता  है  किसी  व्यवस्थागत  देश  में  जहाँ  कानून  की  सत्ता  सिर्फ  दिखावे   भर  की  होती  है  और  आम  नागरिक  घूंट  कर  रहने  को  विवश  होता  है   "
यहाँ  एक  बात  और  जरूरी  है  ,वह  यह  की  लादेन  की  दुनिया  के  ख़त्म  होने  का  भ्रम  विश्व  नहीं  पाले  , अब  छोटे  -छोटे  समूहों  में  उससे  भी  अधिक   खतरनाक  आतंकवादी  गिरोह  पाकिस्तान  अफगानिस्तान  जैसे  दुनिया  में विचर  रहे  है  ,जो  मौका  मिलते  ही  अपनी  ताकत  का  अहसास  कराने  से  नहीं  चुकेंगे  और  इसके  पीछे   भी  कोई  राज्य  की  शक्ति  निहित  हो  तो  उसे  अब  कुटनीतिक  तरीको  से  हल  करने  की  सोचना  बेवकूफी  भरा  ही  होगा  ,इसलिए  सख्ती  का  इल्म  ही  शांति  का  बड़ा  स्रोत  हो  सकती  है  ,जिसे  अमरीका  ने  लादेन  के  परिप्रेक्ष्य  में  दिखा  दिया  है  ,जिसे  सबक  के  तौर  पर  भारत  जितना  जल्द  ग्रहण   कर  ले  उतने  ही  हितकर  होगा   .



Friday 22 April 2011

गुटखा : सरकार डाल -डाल तो कारोबारी पात - पात

                                                    एसके  सहाय 
                              आपने  यह  कहावत  सुनी  होगी - तू  डाल  -डाल  तो  मै  पात  -पात  ,ठीक  इसी  तर्ज़ पर  इन  दिनों  गुटखा  के  कारोबार  में  दिख  रहा  है . यह  सभी  जानते  है  की  सर्वोच्च  न्यायालय  ने  पर्यावरण   को  देख  कर  पान  -मसाले  के  तौर  पर  बेचे  जाने  वाली  गुटखे  के  पैकेजिंग   में  प्लास्टिक   का  उपयोग  करने  पर  रोक  लगा  दी  है  और  इसके  लिए  सरकार  को  निर्देशित  कर  रखा  है   . न्यायालय  के  आदेश  के  तहत  सरकार  ने  भी  बाकायदा  इसके  लिए  अधिसूचना  जारी  भी  किए  और  स्वच्छ  प्रयावरण  के  हित  में  प्रतिबंधित  कर  रखा  है  ,इसके  बावजूद  इस   धंधे  से  जुड़े  व्यवसायी  कैसे  सरकार  ,प्रशासन  और   न्यायालय  को  धोखा  दे  रहे हैं    ,यह  किसी   से       छिपा     नहीं   है
गुटका  वैसे  भी  स्वास्थ्य  के  लिए  नुकसान  देह  हैं  ,चिकित्सा  विज्ञानं   भी  इसे मानती   है  ,साथ  में  इसके  पैकेजिंग  में  प्रयुक्त  किए  जाने  वाले  प्लास्टिक  भी  प्रयावरण  को  क्षति  पहुँचाने  में  योगदान   देते  है  ,इसे  भी  लोग  और  पूरी  दुनिया  मानती -जानती  है  ,फिर  भी  इस  बारे   में  लोक  चेतना  गंभीर  नहीं   है  ,जिसके   वजह   से  सरकार  और  न्यायालय  को  धता   बताते    हुए   इसके  कारोबार  में  पिल   पड़े   कारोबारी  अपने   धंधे  को  बद स्तूर   जारी  रखे हैं   ,जो   इनकी   हिम्मत   को  इस  रूप   में  प्रदर्शित   की  है  ,जैसे  इनको   कानून का भय नहीं हो अर्थात कानून इनके लिए खिलौना जैसे हैं |  .
अब    जरा   गुटखे  की  तस्वीर   को  देखें  , इसे  निरीक्षण   करें   तो  पाएंगे   कि   इसके  पैकेजिंग  के  उपरी   कवर   पर  कागज   के  लबादा   ओढ़ाये   हुए   है और    अन्दर   प्लास्टिक   का  पैकेजिंग  ठीक  उसी   तरह   का  है  ,जिस   तरह   प्रतिबंधित  किए  जाने  के  पूर्व   यह  था |    .
मतलब कि     " आँखों में     धुल  झोकने   के   लिए  धंधे बाजों   ने  गुटखे  की  उपरी   आवरण   को  कागज   से  ढँक  दिया  लेकिन   इसमें   नमी   पैदा   नहीं   हो   जाय  ,इसके  लिए  प्लास्टिक  के  बनाये   को   रखा , ताकि इसकी  मियाद  पहले  कि  तरह  बनी  रहे  ." फ़िलहाल  जो  गुटके  बिक  रहे  है  ,वह  केवल  दिखावे  भर  के  लिए   कागज  के  कवर  से  ढंके  हुए  हैं   ,अन्दर  तो  प्लास्टिक  ही  है   ,फिर  इसके  प्रतिबंधित  करने  के  क्या  मतलब  रह  गए  हैं  ?
भारत  में  कानून  की  आड़  में  लोगों  को  मुर्ख  बनाने   का  धंधा  काफी  पुराना  है  ,कभी  इसके  जद   में  सरकार  आती  है  ,तो  कभी   आम  लोग  आते  है  और  इस  वक्त  कारोबारी  हैं  ,जिन्होंने  बिना  डर  के  बेहिचक  गुटखे  की  बिक्री  कर  रहे  हैं . इस  कारोबार  में  सरकारी  कर्मचारी  -अधिकारी  को  हाथ  हो  तो  आश्चर्य  नहीं  करना    चाहिए  .आखिर  उपरी  आमदनी  का  जो  मामला  है  , समाज  के  प्रगतिशील  और  रचनात्मक  कामो  के  "दंभ " भरने  वाले    गैर  सरकारी  संगठन  भी  इस  दिशा  में  खामोश  हैं  ,जबकि  एक  स्वैच्छिक  संस्था  की  पहल  पर  ही  यह  मामला  जनहित  याचिका  के  तौर  पर  उच्चतम  न्यायालय  के  सामने  आया  था  ,जिसे  जरूरी  समझ  न्यायालय  ने  इसे  रोकने  की  निर्देश  सरकार  को  दिए  थे , जिसका  काट  इस  रूप  में  सामने  कारोबारी  करेंगे  ,इसकी  कल्पना  नहीं  थी  .तभी  तो  कहा  गया  है  कि तू  डाल  डाल  तो  हम  पात - पात
प्रश्न  है - जीवन की तुलना में पैसे का क्या महत्व  जिसमे सिर्फ रोजगार   .के तर्क हों ?

Sunday 17 April 2011

prime minister manmohan the importance of voting

        मनमोहन  और मताधिकार के मतलब
                                                               एसके सहाय
              देश के प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने असम विधान सभा के चुनाव में अपना "मत " का इस्तेमाल नहीं करके यह साफ जतला दिया है कि वह "राजनीतिक प्राणी" नहीं हैं '
अतएव,यह निष्कर्ष निकालना कि आम जीवन को कोई विशेष उम्मीद इनसे नहीं है ,गलत नहीं होगा ,काफी हद तक सच के निकट है |
किसी भी देश का शासक उस राष्ट के मुख्य प्रेरणादायक शक्ति होता है ,इसके कार्य व्यवहार को लोग आत्म -साथ करते हैं और उसके अनुकूल आचरण करने के   कोशिश की  जाती है लेकिन आजादी के करोब ६० साल बाद यह स्थिति आएगी कि देश के शिखर पर बैठा राजनीतिक अपने वोट इसलिए नहीं देगा की उसे इन सब में कोइ रूचि नहीं है ,तब बात काफी गंभीर है |ऐसे में विचारणीय प्रश्न है कि "आखिर हमारा भविष्य क्या है " क्या यह मान लिया जाय  कि देश की बागडोर नादान किस्म के लोगों के हाथो में आ गया है| 
  भारत अब भी तीसरे श्रेणी के देशों में शुमार है ,विकसित  देश   होने की कगार पर हम है ,लेकिन इसका यह अर्थ नहीं की देश पूरी तौर पर " लोकतान्त्रिक  ताकतों     

  के हवाले है ,इसलिए यदि प्रधान मंत्री वोट नहीं करता तो इसके कोई खास नकारात्मक परिणाम नहीं होगें .        
 लोकतंत्र में मतदान एक ऐसे प्रक्रिया है ,जिसका परिपालन प्राय: हर देश के नागरिक करते है ,खासकर जहाँ "लोकतान्त्रिक व्यवस्था  " जड़ें जमा चुकी हैं ,वहां सत्तर से अस्सी फीसदी तक मत्ताधिकार  का उपयोग होता है, लेकिन भारत जैसे देश में तो इसके लिए नागरिको के बीच खास जागरूकता अभियान हर बार चलाया  जाता है ,ताकि लोग अपने प्रतिनिधि को मन मुताबिक चुन लें |  यूरोप  और अमरीका के साथ कुछेक अन्य देश भी है ,जहाँ मतदाता को वोट देने के लिए इसलिए  सरकार या अन्य लोकतान्त्रिक शक्तियां प्रेरित नहीं करती कि   "उसे लोकतंत्र को मजबूत करना है |" मगर भारत में प्रत्याशियों को तो वोट चाहिए ही ,साथ में मत्ताधिकार के लाभ भी बताये जाते है ,ताकि तानाशाही प्रवृति से देश को बचाया जा सके |
 वैसे सभी जानते हैं कि मनमोहन सिंह एक अर्थ शास्त्री हैं ,जिन्होंने जीवन यापन के लिए नौकरी करना ही अपना और अपने परिवार के हित में उचित समझा ,सो बैंकों कि सेवा करते और अपने ईमानदारी की बदौलत  रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के गवर्नर एवं विश्व बैंक की सेवा में रहते  इतना "नाम" हुआ  कि लगने  लगा , अब देश  की अर्थ व्यवस्था को मजबूती मिलेगी ,क्यों क्योकि  इसकी बागडोर एक प्रख्यात अर्थ विज्ञानी के हाथों में है लेकिन व्यवहार में ऐसा नहीं है .६० प्रतिशत  की आबादी इनके ही वित्त मंत्री और प्रधान मंर्त्री रहते कैसी अवस्था में यह छुपा नहीं है ,पूंजी का प्रवाह खास "धन्ना   -सेठों "  की ओर है ,इससे आज पुरे देश में रंज की स्थिति है
इससे क्षुब्ध होकर भूमिगत संगठनो की बाढ़  आई हुई है .केन्द्रीय बलों का बड़ा हिस्सा पूर्वोत्तर और जम्मू -कश्मीर में प्रतिनियुक्त तो है ही ,साथ ही बिहार ,झारखण्ड,   छतीशगढ ,ओड़िसा आन्ध्र प्रदेश ,महाराष्ट .मध्य प्रदेश और वब उत्तर प्रदेश के कुछ भागों  में उग्रवादियों से मोर्चा संभालें हुए है ,जो किसी भी सूरत में मौजूदा लोकतंत्र को मानने को तैयार नहीं है |ऐसे में प्रधान मंत्री द्वारा मत्ताधिकार का प्रयोग नहीं होने से यदि यह प्रचारित हो जाय कि "असम की हिंसक हालातों के मद्देनजर ही वह वोट देने नहीं गए ,तब इसका क्या अर्थ होगा ,क्या मनमोहन जानते हैं ?
       देश में अब भी "मतदान " को एक पवित्र लोकतान्त्रिक प्रक्रिया माना -समझा जाता है और इससे इत्तर जन प्रतिनिधि नजर  चुराते    दिखे , तब जाहिर   है  कि  उनकी कोई अभिरुचि  देश के प्रति  नहीं है ,काफी कुछ ऐसा ही मनमोहन   सिंह के व्यव्हार  में झलका   है , ऐसे में आम नागरिक भी मतदान से यह कहते हुए इंकार कर दे कि उसे भी फुर्सत नहीं है चुनाव में ,क्योकि "सभी दल और उम्मीद्वार एक जैसे है" ,तब क्या होगा ?वैसे भी कई बार सामने आ चुका है कि लोक सभा और  विधान सभा के अलावा स्थानीय चुनाव में नागरिक समूहों ने कई बार मतदान से हिस्सा नहीं लिया अर्थात बहिष्कार कर दिया ,जो जनतंत्र के लिए गंभीर बात है ,इस संदर्भ में यदि आम व्यक्ति और मनमोहन सिंह को एक ही "सोच "वाला निरुपित किया जाय  तो ताज्जुब नहीं करनी चाहिए |
                          असम से मनमोहन सिंह दो दशक से लगातार राज्य सभा में पहुंचे है ,इनका दिश्पुर में एक मतदाता के रूप में नाम दर्ज है ,इसी बिना पर इनके पहली दफा निर्वाचन होने पर विवाद हुआ था जो इनके असम वासी होने को लेकर था| यह विवाद सर्वोच्च न्यायालय मेंसलता था ,विवाद इस बात प़र  थी कि "संबंधित राज्य के वासी को ही उच्च   सदन (राज्य सभा )में सदस्यता के पात्रता निर्धारित थे ,जिसमे वह अनफिट पाए गए थे |बाद में संवैधानिक संसोधन के जरिये इसका स्वरूप में बदलाव संसद ने अपने हितो के अनुकूल किया ,तब जाकर इनकी सदस्यता बच पाई थी| इसे लोग अभी तक भूलें नहीं हैं | तब सरकार कि काफी छिछलेदारी हुई थी |
              मनमोहन सिंह को प्रधान मंत्री का पद एक तोहफे में मिला ,जिसमें इनकी स्वामी भक्ति का विशेष गुण था |इनकी शक्ति का पत्ता उस वक्त ही चल गया था ,जब यह तय नहीं था कि प्रधान मंत्री कौन  होगा लेकिन वित्त  मंत्री मनमोहन ही होगें  यह सारा देश  जानता को पहले से मलिम था, बात १९९१ की है . साफ है कि कांग्रेसी राजनीति में एक परिवार कि छत्र छाया में ही  कोई मनमोहन जैसे शख्स तरक्की कर सकते हैं ,जिनका  खुद का कोई  नहीं हो  |
                  सार्वजनिक जीवन के मामले में प्रधान मंत्री की सोच का पता मतदान से चला ही है ,साथ ही भविष्य में अन्य कई राजनितिक /राजनितिक समूह भी मतदान के प्रति उदासीन हो सकते है ,जिसके आसार बढ़ गए है ,जम्मू -कश्मीर में कभी कम मतदान को लेकर अक्सर बात होती रहती है |इस परिप्रेक्ष्य  में मनमोहन के मतदान नहीं करने को देखें तो काफी खतरें आने वाले  दिनों  में हो सकते है .ऐसे में आम बुद्धिजीवियों  की चुप्पी इसमें ठीक नहीं है | ऐसा इसलिए की मतदान के दिन मनमोहन काफी अस्वस्थ थे ,या देश में स्थिति गंभीर थी, महत्वपूर्ण कामो को निपटाया  जाना जरूरी था|
                      जीवन  के अंतिम क्षण में जब आम व्यक्ति आराम चाहता है ,तन मनमोहन सिंह को राजनितीक शिखर के पद की प्राप्ति होती है,जिसके लायक वह कभी नहीं रहे ,| किसी भी राजनितीक सवालों को हल्कें में लेने की प्रवृति का नतीजा है कि  देश आज बाहरी और अंदरूनी हालातों से जूझने की कवायद में भिड़ा है | यह हालात जन्म कैसे हुई ,यह जानना हो तो मंमिहन सिंह के कार्य-  कारण को जानिए ,काफी दिलचस्प जानकारियां मिलेगी | अब तक के ज्ञात इतिहास में यही जाना जाता है कि  लोकतंत्र के लिए होने वाले मतदान में जन  नायकों की भूमिका सर्वोपरि है ,वे मतदान करके यह प्रदर्शित करते हैं कि "सभी नागरिक अपने विचारों के अनुरूप के दल और प्रत्याशियों को चुने .ताकि अपने विकास के  मार्ग तय कर सके,"|
               
            

Monday 11 April 2011

inferior character IPS officer in jharkhand

पतित  आइपीएस  के  फिर  से  सेवा   में  आने  के  आसार  
एसके  सहाय  
रांची   : झारखण्ड  में  भारतीय  पुलिस  सेवा  के  एक  पतित  पुलिस  अधिकारी  के  पुन  सेवा  में  लौट  आने  की  आशंका  है    .यह  स्थिति  राज्य  सरकार  के  अस्थिरता  का  परिणाम  है  कि  पीएस  नटराजन  नाम  का  अधिकारी   न्याय  के  उचित  प्रकिया    का  अवलंबन  करके  सरकार  को  मजबूर  करने  कि  कोशिश  किया  है  कि  उसे  वह  फिर  से  नौकरी  में  नियमित  तौर  पर  बहल  करे , अन्यथा  न्यायालय  कि   तौहीन  को  झेलने  के  लिए  तैयार  रहे .इससे  इन  दिनों  राजनितिक  क्षेत्रों   के  अलावा  प्रशासनिक  ,सामाजिक  हल्कों  सहित  हर  वर्ग  में  सरकार  कि  हालात  काफी  कमजोर  दिखी   है  ,जो  इसके  सेहत  के  लिए  ठीक  नहीं  है .
                            यहाँ  पर  जिस  पुलिस  अधिकारी  की    चर्चा  की  जा  रही  है , वह  पुलिस  महा  निरीक्षक  (आईजी )स्तर  का  है  ,जो  २००५  से  निलबिंत   है  और  जमानत  पर  करा  से  निकलने  पर  कानून  ki  तकनीकी  सीढियों  का  सहारा  लेकर  सरकार  को  विवश  करने  की  मुद्रा  में  ला  दिया  है  .अतएव   इस  पूरे  प्रकरण  को  जानने  के  लिए  २००५  की    उस  घटना  को  याद  कर्म  होगा  " जिसमे  नटराजन  एक  आदिवासी  युवती  के  साथ  अय्यासी   करते  पूरे  देश  में  देखे  गए  थे  . यह  तस्वीर  एक  निजी  टीवी  चैनल  के  द्वारा  प्रसारित  हुआ  था  ,जिसके  बाद  सरकार  ने  इस  अधिकरी   को  मुअतल  करके  अपने  कर्तव्य  की  इतिश्री  समझ  कर  इसे  पांच  सालों  तक  लगातार  अनदेखा  करती  रही  .
                 अब  ,जब  झारखण्ड   उच्च  न्यायालय  ने  सरकार  की  उस  याचिका   को  ख़ारिज  कर  दिया  है  ,जिसमे  इस  पुलिस  अधिकरी  को  निलंबन  में   रखने  के   मांग  की   गई  थी  ,तब  सरकार  को  लोक -लाज  की  याद  सताने  लगी  है  ,ऐसे  में   राज्य  की  सामाजिक  ताना -बाना  में  भरोसा   कैसे  हो  ,इसके  संकट   पैदा  हो  गए  हैं  .इसलिए  यदी    पीएस  नटराजन  जैसे  चरित्रहीन  अधिकारी  फिर  से  कुर्सी  पर  बैठ  जाएँ  ,तब  इंसाफ  का  क्या  होगा   ,इस  बारे  में  सहज  hi  सवाल  खड़े  हो  जाएँ  ,तो  आश्चर्य  नहीं   .
                 यहाँ  पर  महज  नटराजन  का  सवाल  नहीं  है , यह  चिंता  लोक  व्यवस्था  से  जुडी  है  ,जिसमे  "संवैधानिक  तौर  पर  यह  साफ  रेखांकित  है  की  "राज  कर्मचारी  अपने  पद  पर  तभी  तक  रह  सकता  है   ,जब   तक  वह  सदाचारी  है   " .लेकिन  इस  मामले  में  तो  पूरी  बात  ही  उलटी  दिख  रही  है  ,जिससे  अंदेशा  है  कि  क़ानूनी -दांव  पेंच  से   नटराजन  को  मत  देना  उतना  आसान  नहीं  है  जितना  अमूमन  समझ  लिया  गया  है  ,ऐसे  में  सरकार   हर  जाय  और  एक  कदाचारी  को  पुन :  नौकरी  पर  बुलाने  के  लिए  बाध्य  होना  पड़े  ,तब  कैसा  शासन  -प्रशासन  का  रूप  दिखेगा  ,इसकी  सहज  कल्पना  की  जा  सकती  है  .
         इस  पूरे  प्रकरण  को  समझने  के  लिए  थोड़ा  नटराजन  के  ही   बोटों  पर  विश्वास  करें ,-जिसमें  उन्होंने  कहा  था   -सुषमा  के  साथ  जो  कुछ  भी  हुआ  .उसमे  उसकी  रजा  मंदी  थी    अर्थात  परस्पर  सहमती  thi  ,इसके  लिए  उनको  दोषी  नहीं  ठहराया  जा  सकता  .
                      जाहिर  है    कि  वे  सदाचार  के   मतलब  से  अपने  को   अलग  रख  कर  सोचते  है   ,ताकि " सेवा"  का  लाभ   मिलता  रहे  ,ऐसे  में  अदी  हर  कोई  कर्मचारी  व्यक्तिगत  बात  करके  किसी   अश्लील  हरकत  को  सहज  बताने  लगे  तब  क्या  होगा  , तब  तो  हर  वक्त  अनाचार -कदाचार  कि  स्थिति  होगी   ,ऐसे " सभ्य    समाज " की  कल्पना  ही  मुश्किल  होगी   जैसी  कि  संवैधानिक  तौर  पर  सभी  नागरिकों  को  बताया  जाता  रहा  है .
              आइपीएस  नटराजन  का   मामला  सरकार  के  अनदेखी  का  है   ,यह  उस  काल  का  है    ,जब  राज्य  में  स्थायित्व  को  लेकर  राजनितिक  दलों  के  भीतर  जोड़ -तोड़  की  राजनीति  चरम  पर  थी  ,ऐसे  में  खानापूर्ति  के  लिए  आनन्  -फानन  में  इस  अधिकारी  को  निलंबित  किया  गया  और  "इस  तथ्य  को  भुला  दिया  गया  ki  निलंबन  के  बाद  की   प्रक्रिया   बर्खास्तगी   की  होती  है  |" लेकिन  यहाँ  पर  उदासीनता  ka  ऐसा  ज्वर  चढ़ा  की  सरकार  और  प्रशासक  भूल  ही   गए  की  उनके  यहाँ  एक  अय्यास  अधिकारी  भी  है  जिसे  दंडित   किया  जाना  लोक  हित  में  इसलिए  जरूरी  है  कि  लोगों  का  विश्वास  सरकार  और  प्रशासन  पर  बनी  रहे  . कानून   -व्यवस्था  को  हानि   नहीं  पहुंचे  .
                 दरअसल ,  इस  मामले  में   नटराजन   का  कोई   दोष  नहीं  है  कि   व्यवस्था  कैसी  है  ,तभी   तो  अराजक  सी  स्थिति  में  उस  पुलिस  अधिकारी  ने  कानूनों  का    पूरा  इस्तेमाल  अपने  हित  के  लिए  किया  और  यह  अहसास  करा  दिया  कि  यदि  तिकड़म  और  नियम -परिनियम  कि  थोड़ी  भी  जानकारी  हो  तो  किसी  भी  सरकार  को  अपने  अनुकूल  कारवाई  करने  के  लिए  बाध्य  किया  जा  सकता  है ,   इस  मामले  में  काफी  कुछ  ऐसा  ही   है  , नटराजन   निलबिंत  हुए  ,जेल  गए  ,फिर  जमानत  में  बाहर  आये   ,इसके  बाद  केन्द्रीय  प्रशासनिक  न्यायाधिकरण  (कैट )  में  दरखाव्स्त  किए  कि  उनके  साथ  अन्याय  किया  जा  रहा     है  ,सो  कैट  ने  इनके  पक्ष  में  फैसला  दे  दिया  ,यहाँ  पर  सरकार  इसलिए  मात  खा  गई  कि  वह  अपनी  बातों  को  ठीक  से  रख  नहीं  सकी  . ढीले -ढले  तरीके  से  किसी  मामले  को  अंजाम  तक  पहुचाने  की  प्रवृति   ने   राज्य  को  काफी  नुकसान  पहुँचाया  है  ,जिसका  इसमें  एक   झलक  है  .
   कैट  के  आदेश  के  तहत   नौकरी  पर  रखे  जाने  की  बात  पर  सरकार  ने  झारखण्ड  उच्च  न्यायालय  से  इसमें  रोक  लगाने   की  गुहार  की  ,तब   यहाँ  पर  भी   सरकार  को  मात  खानी  पड़ी  .ऐसे  में  आसार  इसी  के  है   कि  पतित  समझे  जाने  वाले  नटराजन  एक  बार  फिर  पुलिस  की  लाठियां  भांजते  नज़र  आवें .
           इस  घटना  से  जाहिर  है  की  कानून  --संविधान  का  कोई  मतलब  नहीं  है   . व्यावहारिक  स्तर  पर  तो  यही  फिलवक्त  दिखा  है  ,वैसे  राज्य  सरकार  अब  उच्चतम  न्यायालय  में  एक  बार  फिर  इस  मामले  में  जाने  को  सोच  rahi  hai . लेकिन  प्रश्न  है  कि    जब  खुद  को  अपने  शक्तियों  के  बारे  में  पता  नहीं  हो  ,तब  कैसे  ऐसे  मामले  को  संभाल  सकते  है   ,झारखण्ड  का  यही   मूल  संकट  है