Saturday 31 March 2012

झारखण्ड : राज्य सभा चुनाव रद्द की नैतिकता !


                           ( एसके सहाय )
              जैसी कि आशंका थी ,वही हुआ ,राज्य सभा के लिये होने वाले मतदान में भ्रष्टाचार के तौर पर दो करोड पन्द्रह लाख रूपये पकड़ में आना और फिर कल ही देर रात चुनाव आयोग द्वारा चुनावी प्रक्रिया को रद्द किये जाने से यह साफ हो गया कि झारखण्ड में बिना दौलत के कोई सामाजिक क्रियाविद उच्च सदन का सदस्य नहीं हो सकता | ऐसे में यक्ष प्रश्न है कि आखिर धनबल से कैसे निपटा जाये और स्वस्थ मानसिकता ,चरित्र के बूते सामाजिक - राजनीतिक -आर्थिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में योग दे रहे नागरिक किस राष्ट -राज्य को अपनी निस्वार्थ सेवा देस सकें ?
           दरअसल , जब से झारखण्ड अस्तित्व में आया ,तब से राज्य सभा के लिये होड लग गई ,जहाँ विगत १२ सालों से बराबर कोई न कोई पूंजी का धनिक व्यक्ति अचानक आ धमक गया और अपनी चकाचौंध से विधायकों को प्रभावित करने में सफल होता रहा ,जिसका यह  परिणाम निकला कि सरे देश में यह सन्देश विस्तृत हो गए कि झारखण्ड से राज्य सभा में घुसना है तो " पैसे लगाओ " और पहुँच जाओ उच्च सदन में , फिर अपनी ओछी कामनाओं को पूरी करो < इसमें को हर्ज नहीं है | दिक्कत इसलिए नही कि पिछला इतिहास इसी तरह का रहा है | नाथवानी ,केडी ,मबेलो ,अहवालिया जैसों का इतिहास ऐसा ही रहा है ,जिनका इस राज्य से कोई सीधा रिश्ता कभी नहीं रहा लेकिन अपनी ऊँची पहुँच और पैसे के बल पर राज्य सभा में निर्विध्न पहुँच गए |ऐसे में नवधनाढय लेकिन राजनीतिक सोच के कथित नेता एक बार फिर वैसी ही रणनीतिक व्यूह रचनाओ के जरीये अपने लक्ष्य को साधने में भिड़ें हो तो कैसा आश्चर्य ?
       अब जरा ,उस दृश्य को देखें ,जिसमें आर के अग्रवाल के नाम पर रूपये आयकर वालों ने कल रांची में पकड़ा और फिर इसके साथ , जो पर्चा मिला ,उसमें जिन विधायकों के नाम लिखे थे ,उनमें कई राष्टीय मान्यता प्राप्त पार्टियों के विधायकों के नाम उल्लेखित है अर्थात संदश यह कि वे पैसे पर अपने ही पार्टी के विपरीत वोट करने के लिये कमर कास लिये थे ,जिनके चेहरे अब उजागर है | इतना ही नहीं ,अग्रवाल ने अपने को भाजपा के करीब दर्शाने के लिये ,जो विज्ञापन कल ही याने मतदान के ही दिन एक राष्टीय दैनिक पत्र को दिया ,उसमें अटल बिहारी बाजपेयी और लालकृष्ण अडवानी के साथ ही कई संघ से जुड़ें नेताओं के तस्वीर थे ,जो बता रहा था कि उसे भाजपा का आशिर्बाद प्राप्त है |
     इसी तरह ,कई ऐसी बातें हैं ,जिसे वर्णन नहीं किया जा सकता .अन्यथा एक मोटी पोथी तैयार हो सकती है | वैसे३ .झारखण्ड में इस तरह की राजनीती के शुरूआत भाजपा और कांग्रेस ने की ,और इसकी प्रेरणा प्रधान मंत्री से मिली ,जो १९१९ में असम से जीतकर राज्य सभा में पहुंचे थे और इसे लेकर न्यायिक लड़ाइयां भी तब हुई थी ,जिसे बाद में चुनाव आयोग , केंद्र सरकार और उच्चतम नयायालय के बीच इसे साध्य कर इस मुद्दे को खत्म किये गए ,तब से यह पूरी तरह स्पष्ट हो गया कि कोई भी नागरिक कहीं से भी कहीं के लिये राज्य सभा की दावेदारी कर सकता है अर्थात राज्यवासी होने का मूल विषय गौण कर दिए . फलत: अब झारखण्ड जैसे राज्य इसके बेहतर प्रयोगशाला के रूप में सामने हैं ,जहाँ सार्वजनिक नैतिकता नाम की कोई बात या प्रक्रिया नहीं ,सीधे "दौलत " ही यहाँ किसी के सम्मान का अधिकारिणी है |
  झारखण्ड में कांग्रेस -झाविमो के बीच विधान सभा में चिनावी तालमेल रहा और इसी के आधार पर इनके बीच आपसी सदभावना के तहत रणनीतिक कदम होने चाहिए थे लेकिन इन दोनों के बीच केवल जरूरत के रिश्ते थे और परस्पर लेन -देन की कोई ऐसी बात हुई नहीं और आपस में ही खीचतान करते रहे | यही हाल , झामुमो और भाजपा के लिये रहा ,जो स्वार्थवश एक दूसरे को साथ देने में हैं मौका मिलते ही इनमें छतीश का आंकड़ा होने में देर नहीं लगेगी | नजारा देखें - भाजपाध्यक्ष नितिन गडकरी ने अपने मर्जी से झारखण्ड में अंशुमान मिश्र को पार्टी का प्रत्याशी बनाया ,फिर इसकी उम्मीदवारी को वजन देखने के लिये कुछ दिन इंतजार किये मगर जब इस उम्मीदवारी का विरोध हुआ ,तब इसे पल्ला झाड लिये और अपने को पाक-साफ दिखने को लेकर "वोटिंग प्रक्रिया " से अपने दल को अलग रखने की बात कही और जब झामुमो ने अपने पसंदीदा उम्मीदवार संजीव कुमार के लिये दबाव बनाया ,तो कल अचानक यह कहते हुए मतदान में कूद पड़ी कि " वोट नहीं देने से उसके प्रतिदंदी उम्मीदवार अर्थात कांग्रेस के प्रदीप कुमार बलमुचू के जीत हो जायेगी ,इसलिए विधायकों को मतदान करने के निर्देश दिए गए | हैं न कमाल की बातें ,  सत्ता के बीच अपनी भद पीट गई साख को बचाए रखने के कवायद में भाजपा की यह "गत्त" हुई .इसके बावजूद इनमें अबतक ग्लानी के भाव पैदा नहीं हुए तो भविष्य कैसा होगा ,यह इनके लिये सोचनीय वाली बात है |
     अब ,जब राज्य सभा के चुनाव रद्द हैं .तब यह जरूरी है कि यह सोचा जाना चाहिए  कि आखिर कैसे भला होगा झारखण्ड का ,जहाँ तात्कालिक लाभ के लिये विधायक खुलेआम बिकते हों और "दलगत अनुशासन " का भय नहीं हो ,साथ में "लज्जा" भी शर्मिंदा हो जाये और इसके चपेट में एक -दो नहीं बल्कि पूरी पार्टियां ही शामिल हो ,तब इस संसदीय व्यवस्था के लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को बदलने की दिशा में चिंतन क्यों नहीं हो "
    


                           ( एसके सहाय )
              जैसी कि आशंका थी ,वही हुआ ,राज्य सभा के लिये होने वाले मतदान में भ्रष्टाचार के तौर पर दो करोड पन्द्रह लाख रूपये पकड़ में आना और फिर कल ही देर रात चुनाव आयोग द्वारा चुनावी प्रक्रिया को रद्द किये जाने से यह साफ हो गया कि झारखण्ड में बिना दौलत के कोई सामाजिक क्रियाविद उच्च सदन का सदस्य नहीं हो सकता | ऐसे में यक्ष प्रश्न है कि आखिर धनबल से कैसे निपटा जाये और स्वस्थ मानसिकता ,चरित्र के बूते सामाजिक - राजनीतिक -आर्थिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में योग दे रहे नागरिक किस राष्ट -राज्य को अपनी निस्वार्थ सेवा देस सकें ?
           दरअसल , जब से झारखण्ड अस्तित्व में आया ,तब से राज्य सभा के लिये होड लग गई ,जहाँ विगत १२ सालों से बराबर कोई न कोई पूंजी का धनिक व्यक्ति अचानक आ धमक गया और अपनी चकाचौंध से विधायकों को प्रभावित करने में सफल होता रहा ,जिसका यह  परिणाम निकला कि सरे देश में यह सन्देश विस्तृत हो गए कि झारखण्ड से राज्य सभा में घुसना है तो " पैसे लगाओ " और पहुँच जाओ उच्च सदन में , फिर अपनी ओछी कामनाओं को पूरी करो < इसमें को हर्ज नहीं है | दिक्कत इसलिए नही कि पिछला इतिहास इसी तरह का रहा है | नाथवानी ,केडी ,मबेलो ,अहवालिया जैसों का इतिहास ऐसा ही रहा है ,जिनका इस राज्य से कोई सीधा रिश्ता कभी नहीं रहा लेकिन अपनी ऊँची पहुँच और पैसे के बल पर राज्य सभा में निर्विध्न पहुँच गए |ऐसे में नवधनाढय लेकिन राजनीतिक सोच के कथित नेता एक बार फिर वैसी ही रणनीतिक व्यूह रचनाओ के जरीये अपने लक्ष्य को साधने में भिड़ें हो तो कैसा आश्चर्य ?
       अब जरा ,उस दृश्य को देखें ,जिसमें आर के अग्रवाल के नाम पर रूपये आयकर वालों ने कल रांची में पकड़ा और फिर इसके साथ , जो पर्चा मिला ,उसमें जिन विधायकों के नाम लिखे थे ,उनमें कई राष्टीय मान्यता प्राप्त पार्टियों के विधायकों के नाम उल्लेखित है अर्थात संदश यह कि वे पैसे पर अपने ही पार्टी के विपरीत वोट करने के लिये कमर कास लिये थे ,जिनके चेहरे अब उजागर है | इतना ही नहीं ,अग्रवाल ने अपने को भाजपा के करीब दर्शाने के लिये ,जो विज्ञापन कल ही याने मतदान के ही दिन एक राष्टीय दैनिक पत्र को दिया ,उसमें अटल बिहारी बाजपेयी और लालकृष्ण अडवानी के साथ ही कई संघ से जुड़ें नेताओं के तस्वीर थे ,जो बता रहा था कि उसे भाजपा का आशिर्बाद प्राप्त है |
     इसी तरह ,कई ऐसी बातें हैं ,जिसे वर्णन नहीं किया जा सकता .अन्यथा एक मोटी पोथी तैयार हो सकती है | वैसे३ .झारखण्ड में इस तरह की राजनीती के शुरूआत भाजपा और कांग्रेस ने की ,और इसकी प्रेरणा प्रधान मंत्री से मिली ,जो १९१९ में असम से जीतकर राज्य सभा में पहुंचे थे और इसे लेकर न्यायिक लड़ाइयां भी तब हुई थी ,जिसे बाद में चुनाव आयोग , केंद्र सरकार और उच्चतम नयायालय के बीच इसे साध्य कर इस मुद्दे को खत्म किये गए ,तब से यह पूरी तरह स्पष्ट हो गया कि कोई भी नागरिक कहीं से भी कहीं के लिये राज्य सभा की दावेदारी कर सकता है अर्थात राज्यवासी होने का मूल विषय गौण कर दिए . फलत: अब झारखण्ड जैसे राज्य इसके बेहतर प्रयोगशाला के रूप में सामने हैं ,जहाँ सार्वजनिक नैतिकता नाम की कोई बात या प्रक्रिया नहीं ,सीधे "दौलत " ही यहाँ किसी के सम्मान का अधिकारिणी है |
  झारखण्ड में कांग्रेस -झाविमो के बीच विधान सभा में चिनावी तालमेल रहा और इसी के आधार पर इनके बीच आपसी सदभावना के तहत रणनीतिक कदम होने चाहिए थे लेकिन इन दोनों के बीच केवल जरूरत के रिश्ते थे और परस्पर लेन -देन की कोई ऐसी बात हुई नहीं और आपस में ही खीचतान करते रहे | यही हाल , झामुमो और भाजपा के लिये रहा ,जो स्वार्थवश एक दूसरे को साथ देने में हैं मौका मिलते ही इनमें छतीश का आंकड़ा होने में देर नहीं लगेगी | नजारा देखें - भाजपाध्यक्ष नितिन गडकरी ने अपने मर्जी से झारखण्ड में अंशुमान मिश्र को पार्टी का प्रत्याशी बनाया ,फिर इसकी उम्मीदवारी को वजन देखने के लिये कुछ दिन इंतजार किये मगर जब इस उम्मीदवारी का विरोध हुआ ,तब इसे पल्ला झाड लिये और अपने को पाक-साफ दिखने को लेकर "वोटिंग प्रक्रिया " से अपने दल को अलग रखने की बात कही और जब झामुमो ने अपने पसंदीदा उम्मीदवार संजीव कुमार के लिये दबाव बनाया ,तो कल अचानक यह कहते हुए मतदान में कूद पड़ी कि " वोट नहीं देने से उसके प्रतिदंदी उम्मीदवार अर्थात कांग्रेस के प्रदीप कुमार बलमुचू के जीत हो जायेगी ,इसलिए विधायकों को मतदान करने के निर्देश दिए गए | हैं न कमाल की बातें ,  सत्ता के बीच अपनी भद पीट गई साख को बचाए रखने के कवायद में भाजपा की यह "गत्त" हुई .इसके बावजूद इनमें अबतक ग्लानी के भाव पैदा नहीं हुए तो भविष्य कैसा होगा ,यह इनके लिये सोचनीय वाली बात है |
     अब ,जब राज्य सभा के चुनाव रद्द हैं .तब यह जरूरी है कि यह सोचा जाना चाहिए  कि आखिर कैसे भला होगा झारखण्ड का ,जहाँ तात्कालिक लाभ के लिये विधायक खुलेआम बिकते हों और "दलगत अनुशासन " का भय नहीं हो ,साथ में "लज्जा" भी शर्मिंदा हो जाये और इसके चपेट में एक -दो नहीं बल्कि पूरी पार्टियां ही शामिल हो ,तब इस संसदीय व्यवस्था के लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को बदलने की दिशा में चिंतन क्यों नहीं हो "
    

Thursday 29 March 2012

दिलचस्प वाक्याँ मगर सोचनीय


                    एसके सहाय
         झारखण्ड की प्रांतीय राजधानी रांची में गत दिन एक मजेदार घटना हुई लेकिन यह गंभीर किस्म का प्रकरण है ,जिसमें व्यक्त डायलाग किसी फ़िल्मी अंदाज से कम नहीं अहसास करते |सो , इसपर विचार किया ही जाना चाहिए कि "अधिकार बड़ा है या फिर कर्तव्य " इस मामले में दोनों बिंदु समाहित हैं ,जिसमें अखडपन् है तो विशिष्ट होने का दंभ भी दृष्टिगत है |
            घटना बिरसा चौक की है ,जहाँ लोकनायक जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति के आंदोलन में भाग लिये जत्था धरना पर बैठा था और इसमें शांति भंग न हो ,इसके लिये स्थानीय प्रशासन ने एक पुलिस बल की प्रतिनियुक्ति की थी ,तभी अचानक दो विधायक धरना स्थल पर आ धमके और उनसे मिलने की जुर्रत करने लगे ,जिसे मौके पर पुलिसकर्मियों ने रोक दिया ,जिससे वहां पर थोड़े समय के लिये नोंक -झोंक की स्थिति उत्पन्न हो गई और इसी क्रम में दरोगा ने अपने चिर -परिचित शैली में बोला कि- "क्या आपके माथे पर विधायक होने का तमगा लगा है" |
        इस फ़िल्मी अंदाज में कही गई बात से निराश होकर दोनों विधायक वापस विधान सभा लौट गए ,जहाँ सत्र के दौरान आपबीती सुनाई ,जिसपर बवाल मच गए और सत्तापक्ष और प्रतिपक्ष मिलकर घटना पर तीखी प्रतिक्रिया अभिव्यक्त किये और एक स्वर से दोषी पुलिसकर्मियों नके विरूद्ध करवाई करने की मांग करने लगे , नतीजत: दरोगा रामकृष्ण महतो और जमादार लुईस मिंज को तत्काल मुअतल कर दिए जाने की घोषणा की गई |
        वैसे ,पुलिस प्रताडना के शिकार हुए भाजपा विधायक उमाशंकर अकेला और राजद के विधायक जनार्दन पासवान ने यह भी बताया कि दोनों ने अपना परिचय पत्र दिखला कर पुलिस से धरना पर बैठे आंदोलनकारियों से भेंट करने की अनुनय की मगर उनकी एक भी नहीं सुनी गई | अपने को पिटे जाने तक की बात विधायकों ने सदन में रखी | प्रकट है कि पक्ष -विपक्ष दोनों के विधायक पुलिस अपमान के शिकार हुए और इनके खीझ में उन दो पुलिसकर्मियों को निलंबन होना पड़ा ,जिनको कानून -व्यवस्था बनाये रखने कि जिम्मेदारी दी गई थी |
         इस घटना क्रम को ध्यान से देखें तो, जाहिर होगा कि इस प्रकरण में दोनों ने गैर जिम्मेवारी का परिचय दिया है | अव्वल तो दोनों विधायकों को धरना स्थल पर जाना नहीं चाहिए , विशेष कर यह जानते हुए कि वहां पर पुलिसकर्मी प्रतिनियुक्त हैं ,जो इनके आंदोलन को नियंत्रित करने के लिये तैनात है और यदि मिलने जाना ही था ,तब पुलिस बल के उच्चाधिकारियों से अनुमति लेकर जाना चाहिए था .ऐसा इसलिए कि वहां पर पुलिस बल अपने कर्तव्य के पालन में दृढ थी ,यह उस  हालात में और गंभीर था कि निकट  ही विधान सभा के सत्र चल रहे थे , और यह सब विधायकों को इसलिए भी ध्यान रखना चाहिए था कि वह खुद कानून -व्यवस्था बनाये  रखने के लिये नियमों -परिनियमों का इजाद किये है ,जिसका पालन पुलिस धरना स्थल पर कर रही थी ,ऐसे में यदि पुलिस के नुमाइंदे ने उनके साथ जो बर्ताव किये वह ज्यादा गंभीर नहीं कहे जा सकते लेकिन यह तो लोग जान ही गए कि विधायक खुद नियमों की परवाह नहीं करते ,तब साधारण लोगों से क्या अपेक्षा की जा सकती है !
       दूसरी तरफ , पुलिस ने यह जानते हुए कि दोनों विधायक हैं ,इनके साथ गंभीरता से पेश होने चाहिए थे और जब स्थितियां अनुकूल है ,तब मिलने -मिलाने में कोई विशेष हर्ज भी नहीं था | ऐसे में कौन कसूरवार है और कौन बे कसूरवार यह तय कर पाना मुश्किल सा है |फ़िलहाल तो दोनों पुलिसकर्मी निलंबित है |

यह चेहरा झारखण्ड विधान सभा की


                            एसके सहाय
           वैसे तो ,झारखण्ड विधान सभा अपनी विशिष्ट कार्य शैली के लिए पूरे देश में प्रचलित है,खासकर भ्रष्टाचार के मामले में कैसे आश्वासन देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेती है ,इसका एक नमूना पिछले दिनों देखने को मिला ,जहाँ दो दिनों के भीतर जाँच रपट सदन में रखने की बात सरकार की तरफ से कहा गया और समय भी गुजर गया ,इसके बावजूद उस जाँच रपट में क्या हुआ ,इसकी खुलासा तक नहीं किये गए |हद तो यह है कि भ्रष्टाचार के सवाल जी विधायक ने एक वरिष्ठ नौकरशाह के विरोध उठाये थे ,उन्होंने भी अपने खुद के मुद्दे से अलग कर लिये और चर्चित मुद्दे पर कहीं -किसी ओर से कोई आवाज तक नहीं उठी |
          यह भ्रष्टाचार भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी से जुड़ा है ,जिसने अपने क्षेत्राधिकार के तहत छ करोड रूपये दो अलग -अलग गैर सरकारी संगठनों को दे दिए ओर फिर काम हुआ या नहीं इस ओर आखें मुंद ली | मामला २००८ की है ,तब चतरा जिले में पूजा सिंघल उपायुक्त के पद पर पद स्थापित थी ,इन्होने अपने कार्यकाल के दरम्यान स्वैच्छिक संस्था वेलफेयर प्वाइंट को चार और प्रेरणा निकेतन को दो करोड रूपये बिना काम के अग्रिम भुगतान कर दी ,जो जांचोपरांत घोटाले के रूप में सामने आया था
          इस घोटाले को ही भाकपा (माले ) के विधायक विनोद सिंह ने चालू विधान सभा के सत्र में उठाया और इसके लिये जिम्मेदार उपायुक्त के खिलाफ दंडात्मक करवाई की मांग की ,जिसके प्रत्युत्तर में उप मुख्य मंत्री सुदेश महतो ने सदन में उस मामले की जाँच दो दिनों के भीतर करने और जांच की जिम्मेदारी विकास आयुक्त देवाशीष गुप्ता को दिए जाने की घोषणा विधान सभा में की | इस आश्वासन के बाद दो दिन से अधिक गुजर गए और इसकी जाँच रिपोर्ट का क्या हुआ ,इस बारे में न महतो ने और न ही सिंह ने सदन के भीतर कुछ कहा और न बाहर ही | स्पष्ट है कि चर्चा में बने रहने की कोशिश ने झारखण्ड की काफी भद पिटने में योगदान दिया है |पक्ष -विपक्ष का चरित्र सिर्फ दिखावे का है | परस्पर  लाभ में दोनों के चरित्र एक से हैं |ऐसे में राज्य की क्या गति हो सकती है ,सहज ही कल्पना की जा सकती है |
        यह सवाल एक ऐसे भाप्रसे के अधिकारी से जुड़ा है ,जो अपने पद स्थापना के साथ ही भ्रष्टाचार को लेकर हमेशा विवाद में आती रही है | यह महिला अधिकारी सिंघल जहाँ -जहाँ भी रही भ्रष्ट आचरण के लिये बराबर चर्चित रही | फ़िलहाल यह पलामू जिले में उपायुक्त है ,इसके पुर खूंटी में भी जिलाधिकारी रही है ,जहाँ के इनके कारगुजारियों की मोटी संचिका तैयार है लेकिन इनके खिलाफ करवाई करने में अबतक सरकार जाने क्यों हिचकते रही है ,जबकि खूंटी में बरती गई अनियमितता के सिलसिले में तीन अभियंता कारगर की सैर कर चुके है मगर इनके विरूद्ध अबतक कोई कदम नहीं उठाये गए हैं यही हाल चतरा
और पलामू जिले के संदर्भ में है ,जहाँ इनके खिलाफ कई नए गबन .घोटाले और अनियमितता के मामले प्रकट एवं चर्चित हैं .मगर कोई पहल इनके विरूद्ध नहीं हो सकी है और न ही साफ -साफ सरकार भी इनके लिये बात भी की है |सभी मामले में टालू अंदाज ही रहा है ,जो इंगित करता है कि सिंघल का सरकार पर पूरा प्रभाव है |
        विधायिका में जब जान सरोकारों का यह हाल है ,तब राज्य के अन्य विषयों _क्रियाविधियों की क्या दशा हो सकती है ,यह सोचनीय है | फ़िलहाल तो ऐसा ही चेहरा विधान सभा की है , जहाँ विषय की गंभीरता का को मोल नहीं है ,लोग जैसे - तैसे जीवन शैली के अभ्यस्त हो गए हैं ,जिसके लिये "धन " ही किसी काम की चीज हो गई है | इसी हालात में लुट-खसोट का सार्वजनिक स्थितियां अभी इस प्रान्त में दृष्टिगत है |
 

संसद : कूपमंडूक बहस

                                                                        (  एसके सहाय )
अन्ना हजारे और अरविन्द केजरीवाल के बहाने संसद में निंदा प्रस्ताव पर हुई बहस का लब्बो -लुआब यह है कि आज भारत समेत पूरी दुनिया जान गई है कि सत्ता और प्रतिपक्ष के शिखर पर कूपमंडूक चरित्र के लोग काबिज हैं ,जिन्हें थोड़ी कवायद के के साथ साधा जा सकता है और हाल में यूरोपियन -अमेरिकन हितों ने श्रीलंका के परिप्रेक्ष्य में साधा भी,लेकिन इसका "भान " केन्द्रीय सत्ता को नहीं है |
बहरहाल ,लोकपाल के लिए संघर्ष कर रहे हजारे और केजरीवाल ने "संसद " का अपमान नहीं किया और न ही इसके अस्तित्व को समाप्त करने की मांग की ,बल्कि यह दुनिया को खुलेआम यह बताया कि भारतीय संसद में लोक प्रतिनिधि के तौर पर १६२ सदस्य अपराधिक प्रवृति के है या इनपर फौजदारी मुकदमे न्यायालयों में लंबित हैं |
क्या इस सच्चाई से मुंह मोड़ा जा सकता है या यह दलील काफी है कि अबतक किसी न्यायिक निर्णयों में दोषी इनको नहीं ठहराया गया है |
बोलचाल की भाषा में कही गई बात को इतने गंभीरता से लोकसभा के कुछेक और वाचाल सदस्यों ने ले लिया कि इनके निंदा प्रस्ताव का कोई अर्थ ही नहीं निकला |
देश में इनदिनों यूँ कहिये पिछले दशक से कथित नेतागण अपने संबोधनो में बार -बार "जनता " शब्द का उल्लेख करते आ रहे हैं और इनके हितों-कल्याण की बातें कर रहे हैं | इन नेताओं से पूछा जाना चाहिए कि क्या वे "जनता " का मतलब से अवगत है या फिर बरगलाने केलिए ही उसका उपयोग् करने में अपने को महारथी समझते है |
मैं समझता हूँ कि मौजूदा समय में दस फीसदी ही ऐसे नेता -राजनीतिज्ञ होंगे ,जो "जनता " का मतलब समझने के योग्य होंगे |
इसलिए अपने जबान के पक्के नेता अपनी जबान से बार -बार "जनता ' की जगह "लोग -नागरिक "शब्द का उच्चारण करते हैं |
एक उदाहरण से आपको बता दूँ कि आर्ट आफ लिविंग के गुरू श्री श्री रविशंकर ने एक पखवारे पहले एक बयान दिया ,जिसमे कहा गया कि "सरकारी स्कूलों में नक्सली पैदा होते हैं ,इसलिए सभी सरकारी स्कूलों को बंद कर दिया जाना चाहिए "
इस बयान में सरकारी स्कूलों को एकदम बंद कर देने की बात निहित है ,जो सैन्द्दंतिक एवं व्यवहार्य में कभी एक लोकतंत्रात्मक व्यवस्था वाले देश में संभव नहीं है और इई अधर पर रविशंकर की कटु आलोचनाएं भी हुई
इसी सन्दर्भ में केजरीवाल की बातों को समझे ,तब खुद प्रतीत होगा कि उन्होंने किसी भी कोण से संसद की मुखालपत नहीं की केवल आपराधिक अभियुक्त बने लोक सभा के सदस्यों पर प्रश्न चिन्ह खड़े किये ,जो वर्तमान हालात में एक जाज्यवालमन विचार बन कर पुरे भारत को उद्वेलित और मथ रहा है |

Tuesday 27 March 2012

आजादी के दीवाने


        आजादी का जूनून क्या होता है ,यह देखना है तो कल नई दिल्ली में घटित उस दृश्य को देखें ,जहाँ तिब्बत के एक मतवाले ने खुद को आग के हवाले कर लिया और विश्व को यह सन्देश दे गया कि स्वतंत्रता ही उसके जीवन का ध्येय है ,जो फिलवक्त चीन के कब्जे में है |
जानफेल नाम के तिब्बती युवक ने अपने देश के प्रति विवशता में जो प्रदर्शित किया ,वह मानवता के लिहाज़ से उचित नहीं कहा जा सकता लेकिन इसके भीतर छिपे उस भावना के अतिरेक को क्या कहेंगे ,जिसे पिछले छ दशकों से भारत सहित पूरा विश्व असहाय सा तिब्बत के प्रति रूख का इजहार किये हुए है |-कल्पना करें ,स्वंय के बारे में ,जब स्वाधीनता संघर्ष में कितने युवा अपने को आत्मोत्सर्ग इसी तरह कर दिए या कहिये जान हथेली पर लेकर हँसते -हँसते फांसी के फंदे पर झूल गए ,गोलियों के अनगिनत शिकार होकर बलिदान हो गए और आज जब हम स्वतन्त्र देश के स्वतन्त्र नागरिक है ,तो सत्ता पर काबिज शक्तियां हम देशवाशियों को ही "भ्रष्ट तंत्र " से निजात दिलाने के नाम पर कुत्सित बातें कर रही है ,गोया लोक विश्वास -लोक शक्ति उनके ही आश्रित है |
देश में लोकतंत्र के प्रतिनिधियात्मक स्वरूप ने ऐसी व्यवस्था जन्य तंत्र का जन्म दिया है कि आज इस मुद्दे पर टाल  -मटोल की बातें ही संसद में हो रही है ,जिस खीझ ही पैदा हो रही है और यह खीझ कब ज्वाला बन जाए इसकी कल्पना ही की जा सकती है | लोकपाल के मुद्दे हों या अन्य कोई लोककल्याणकारी विषय, बराबर नुक्ता-चीनी की प्रवृति ने लोगों को नैराश्य ही किया है और इसका प्रतिकार किस रूप में प्रकट होगा ,फिलवक्त साफ -साफ नहीं कहा जा सकता |
इस तथ्य को विधायिका के अधिसंख्य सदस्य समझने में विफल है कि "व्यक्ति " से ज्यादा "तंत्र " में व्याप्त भ्रष्टाचार ने रोष पैदा किया है | तंत्र की अवैध दोहन की प्रवृति ने पुरे व्यवस्था को अविश्वनीय बना दिया है जिसके मूल में " टैक्सों " से इनकी आजीविका अर्जित है और इसके तत्काल हाल होने में खुद के बनाये प्रक्रिया ही इसके मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है ,जिसे दूर करने की मांग इन दिनों एक बार फिर से अन्ना हजारे की शक्ल में गूंजने लगी है ,जिसकी ताकत दलगत अधर से परे है ,इसके बावजूद " प्रक्रिया " के नाम पर तेजी से लोकपाल - लोकायुक्त जैसे मसले को हाल करने के लिए त्वरित कदम उठाने में संसद विफल है तो मानना होगा कि हम टूट  चुके पथ के पथिक हैं ,जिसके लिए इंतजार-दर-इंतजार ही किस्मत में लिखा है ,जिसका कोई मूल्य सत्ता संघर्ष में नहीं है |
मगर यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि " भ्रष्ट ,भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी " समाज के ऐसा रोग है ,जिसका समाधान काफी भयावह होता है ,बस प्रतीक्षा करें उस घडी की जब एक बार पूरा देश घरों से  निकल कर सड़कों पर आएगा और फिर --- 

Monday 26 March 2012

घटिया राजनीती


बिहार में केन्द्रीय विश्वविदद्यालय खोला जाना है और इसके लिए संघ सरकार ने अनुमति भी दे दी है लेकिन इसके खोले जाने के मार्ग में रोड़ा यह है कि खोला कहाँ जाए |
इस विषय पर केंद्र और राज्य के अपने -अपने दलील हैं ,साथ में राजनीती भी ,इसलिए इसके खोले जाने में अनावश्यक देरी हो रही है ,जो घटिया राजनीती का द्द्योतक है |
राजनीतिक वाक युद्द इस मुद्दे पर है कि इसे मोतिहारी में स्थापित किया जाए या फिर गया में ,इसी को लेकर केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिबल और मुख्य मंत्री नीतीश कुमार आपस में भीड़ गए है ,जो बेहूदा और घटिया राजनीती के नमूने हैं |
इस मामले में दोनों अपने -अपने जिद पर अड़े हैं ,जिसका कोई अर्थ शैक्षणिक जगत में नहीं है ,सो इसका निदान जल्द हो जाय ,यही उम्मीद करना चाहिए |
शिक्षा  का विषय संवैधानिक रूप से समवर्ती  सूचि में दर्ज है अर्थात केंद्र एवं राज्य के विषय संयुक्त रूप से है और इसी कि आड़ लेकर दोनों राजनीतिज्ञ आपस में सार्वजनिक तौर पर बयानबाजी पर उतर आयें हैं ,जो बिहार के लिए नुकसान ही करेगा |
और अंत में एक सलाह - नीतीश और सिब्बल में से कोई एक अपनी जिद से हट जाएँ ,तो ज्यादा जनहितकारी होगा और झुकने से कोई सम्मान नहीं घट जायेंगे ,यह दोनों को समझने की जरूरत है |वैसे भी प्रबुद्ध नागरिक भलीभांति यह जानते है कि दोनों में में कौन घटिया किस्म का राजनीतिज्ञ है |

सेना में घोटाले आजादी बाद से ही --


स्थल सेनाध्यक्ष वीके सिंह ने खुद खुलासा किया है कि उन्हें चौदह करोड रुपये के घुस उसके मातहत एक अधिकारी लेफ्तितेंत जनरल तेजेन्द्र सिंह ने देने की पहल किया  था ,जिसे उन्होंने ठुकरा दिया और तत्काल इसकी सुचना रक्षा मंत्री एके एंटोनी को दी | यह वाक्याँ डेढ़ वर्ष पूर्व की है , जिसका परदाफाश इन दिनों एक समाचार जगत में हुआ है और इसे लेकर सेना और राजनीतिक क्षेत्रों में बवाल मचा हुआ है |
यह खबर देश के साथ पुरे विश्व में फैलने के बाद अब एन्तोनो ने इसकी जाँच केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो से करने की सिफारिश गृह मंत्रालय से की है मगर बात इतने से ही सलाटने वाला नहीं है बल्कि इससे आगे तक इसके असर होने वाले हैं और इसका दिग्दर्शन हो भी रहा है |
इस सन्दर्भ में राजनीतिक दृष्टिकोण को देखें तो और भी स्तब्धकारी स्थितियां देश के समक्ष है ,जिसे स्पष्ट है कि हर बात पर राजनीती करने की चाहत ने देश का बेडा गर्क करने में योगदान दे रही है और राजनीती है कि जल्द समाधान के स्थान पर बस बयानबाजी को असहाय होकर देखने को मजबूर है | 
भाजपा कहती है कि डेढ़ साल बाद इसके खुलासे होने से इसमें व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार होने की आशंका है ,जिसमे सरकार भी शामिल है और कांग्रेस कहती है कि सेनाध्यक्ष ने उसकी रिपोर्ट क्यों नहीं पुलिस में दर्ज करवाई ?
है न काफी सोचनीय वाली बात ,इन दोनों राजनीतिक पार्टियों का मतलब इसके समाधान पर कम बल्कि एक -दूसरे को " नीचा " दोखने पर ज्यादा है |ऐसे में कैसे भ्रष्टाचार पर काबू पाया जा सकता है | अव्वल तो हर बात की एफआईआर दर्ज नहीं करवाई जा सकती ,और प्राथमिकी दर्ज करवानी है तो इसमें सेना और सरकार की संयुक्त जवाबदेही बनती है लेकिन इस मामले में ऐसा नहीं हुआ और डेढ़ साला का लंबा अंतराल खीच गया ,ऐसे में एक साथ सारी जवाबदेही केंद्र सरकार की बनती है ,क्योंकि रक्षा मंत्री के संज्ञान में जब बात अ गई थी ,तब पहल भी उनके द्वारा ही की जनि चाहिए थी लेकिन यह पहल नहीं हुआ ,इसका मतलब क्या है ? फिलवक्त यही मौजू सवाल हवा में तैर रहा है |
वैसे देखा जाय तो सेना में यह पहला घोटाले की खबर नहीं है बल्कि आजादी मिलने के साथ ही इसके साजो -सामान की खरीद में घोटाले हुए है ,जिसके छीटें देश के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू के दमन पर पड़ें है लेकिन समय के साथ सभी मामले बिसरा दिए गए या रद्दी के टोकरी में फेंक दिए गया ,जिसे अब तब भी घोटाले की बात सामने आती रही है |
वह बी ही मामला जीप घोटाले से जुड़ा था और आज भी जो घोटाले सामने हैं ,वह भी जीप घोटाले से सबंधित है |ऐसे में इसे अप किस रोप में लेते हैं .यह आप पर निर्भर करता है |

Saturday 24 March 2012

बलात्कारी आईपीएस बर्खास्त


                           (एसके सहाय)
                 आश्चर्यजनक मगर हकीकत में आज झारखण्ड में भारतीय पुलिस सेवा के एक पतित अधिकारी को नौकरी से बर्खस्त कर दिया गया | आश्चर्य इसलिए कि राज्य में जैसी अराजक प्रशासनिक एवं राजनीतिक स्थितियां हैं , उसमें  अनाचार में अंतर्लिप्त पाए जाने वाले वरिष्ठ पुलिस पदाधिकारी को सेवा मुक्त नहीं करके सीधे बर्खस्त होना विस्मय पैदा करता है | बर्खास्त होने वाले अधिकारी आरक्षी महानिरीक्षक स्टार के हैं ,जिनका नाम पीएस नटराजन के रूप में चर्हित है |
                इस पुलिस अधिकारी कि सेवा से बर्खास्तगी सात सालों बाद हुई है |यह २००५ से दो दिन को छोड़कर लगातार मुअतल रहे ,फिर भी क़ानूनी नुक्ताचीनी  एवं तकनीकी चूक कि वजह से दो दिन के लिए बहाल भी हुए ,लेकिन पुन: सरकार ने इनको निलंबित कर दिया , जिसमें  झारखण्ड उच्च न्यायालय का यह सन्देश था कि वह चाहे तो इनको पद स्थापित कर फिर से दंडात्मक कदम उठा सकती है और इस बात को लेकर नटराजन को सरकार ने न्यायालय के ही निर्देश पर निलंबन मुक्त किये थे ,जिसका राजनीतिक ,सामाजिक और प्रशासनिक हलकों में काफी शोर हुए थे |इनकी निलंबन की वापसी प्रशासकीय - न्यायाधिकरण के फैसले के तहत हुई थी ,जहाँ सरकार ने ठीक एवं उचित तरीके से कारगर बातें नहीं रखी थी ,जिसका फायदा इस अधिकारी ने आनन् -फानन में मुअतल अवधि के अपने सभी वेतनादि की राशि को प्राप्त कर लिए जो प्राय: हासिल करने में कोई कामयाब नहीं हो पाते हैं |
              यों तो, पीएस नटराजन के बर्खास्तगी का मामला प्रांतीय राजधानी रांची से जुड़ा है  लेकिन इसकी पृष्ठभूमि डालटनगंज थी ,जहाँ वह पलामू परिक्षेत्र के पुलिस उप महानिरीक्षक के तौर पर करीब पौन साल से अधिक समय तक पदस्थापित रहे, इसलिए इस कांड की कहानी काफी दिलचस्प है |
             नटराजन को जिस घटित कांड के सिलसिले में पुलिसवा से हटाया गया है ,उसका संबंध सुषमा बदाईक नाम की एक आदिवासी युवती से है ,जो डाल्टनगंज में ही इनके संपर्क में आ गई थी ,लेकिन रिश्ता कायम हुआ नटराजन के स्थान्तरण के बाद ,जहाँ रांची में इनकी पद स्थापना हुई और एक बार फिर दोनों एक -दूसरे के संपर्क में आये |
              इस पूर्व संपर्कों का परिवर्तन इनके अन्तरंग तस्वीरों को लेकर हुआ,जिसमें एक समाचार चैनल की खास भूमिका रही | चैनल ने विस्तार से इनके  "हमबिस्तर " के घुमती तस्वीरों का खुला प्रदर्शन कर दिया | इस अप्रत्याशित घटित मामले से नौकरशाही के क्षेत्रों में भूचाल आ गई | चौक  -चौराहों पर बहसों -चर्चों का लंबा सिलसिला राज्य से बाहर पुरे देश में चल पड़ा ,जिसमें मूवी कैमरे ने सच्चाई काफी स्पष्ट तरीके से यह अहसास -जतलाया कि कैसे भापुसे के अधिकारी "सदाचार " से भटक कर अनैतिक काम -कलाओं में शामिल है |
             इस अचानक हुई कांड से नटराजन को तुरत निलंबित करने तथा कुछेक दिनों की जाँच के बाद इनके विरूद्ध आपराधिक प्राथमिकी रांची पुलिस में दर्ज हुई | इसके बाद पुलिस - नटराजन के बीच लुका - छिपी का खेल भी सामने आये ,इनके घर की कुर्की जब्ती हुई और काफी अरसे बाद यह पुलिस अधिकारी अंतत न्यायालय में अपने को आत्म समर्पित किया ,जहाँ से तक़रीबन दो साल तक इनको जेल की हवा कहानी पड़ी इस दौरान और जमानत पर बाहर आने के बाद हर उस बचाव का अवलंबन किये ,जो एक खुले समाज में हर शख्स को प्राप्त है
           इन सात सालों में इस पुलिस अधिकारी ने क्या - क्या पापड़ बेले और सरकार का क्या रूख इस मामले में रहा ,वह भी कम मजेदार नहीं है बल्कि इस पुलिस अफसर को खुली छूट भी मिली रही | फरारी के अवधि में इसे पकड़ा नहीं जाना भी ,सरकार और पुलिस महकमे के लिए लज्जाजनक रहा |

            अब जब , पी एस नटराजन , राष्टपति प्रतिभा सिंह पाटिल के आदेश से भारतीय आरक्षी सेवा से बर्खास्त है और इसकी पुष्टि गृह सचिव ज्योति भ्रमर तुबिद ने कर दी है ,तब इसे लेकर पुलिस कर्मियों के बीच दुराचारी अफसर सहम से गए हैं |
          इस विषय में "आपसी रिश्ते " को लेकर बहस काफी तेज है | ऐसा इसलिए कि नटराजन-सुषमा के मध्य जो भी कुछ हुआ ,वह आपसी सहमति का मामला था ,जिसमें रजामंदी पहली बात थी | हालाँकि इसमें सुषमा ने छल की, मगर इस व्यभिचार को फिल्मांकन में मूवी कैमरे का इस्तेमाल पीडिता ने ही खोजी पत्रकारों के लिए की थी | फिर भी , एक पुलिस कर्मी या सरकारी कर्मचारी ,अन्य के लिए सार्वजनिक पदों पर  बने रहने का संवैधानिक अधिकार नहीं है | देश के संविधान में स्पष्ट है कि अखिल भारतीय प्रशासकीय ,पुलिस और अन्य सेवा के अधिकारी केवल  "सदाचार " पर्यंत तक ही अपने पद पर बने रहने का नैतिक अधिकार रखेंगे ,इससे अलग नहीं, दुराचार -अनाचार में अंतर्लिप्त रहने पर इनकी सेवा से बर्खास्त किये जाने का अधिकार सरकार अर्थात कार्यपालिका को है ,जिसका पहला बेजोड़ उदाहरण नटराजन के रूप में  सामने आया है |
           यदि इस मामले में "सहमति " थी भी ,तब भी ,यह पुलिस अधिकारी ,पद पर बने रहने का नीति एवं क़ानूनी हक खो चूका था ,जिसका अराजक माहौल में स्वागत किया जाना चाहिए | वैसे , इस बर्खास्तगी के बाद झारखण्ड में नौकरशाहों के बीच हडकंप व्याप्त है और इस भय की वजह व्यभिचार ही है ,जिसमें कई संलिप्त हैं ,जो फिलवक्त पकड़ से बाहर हैं लेकिन इनके बीच बर्खास्तगी का सन्देश सावधान तो कर ही दिया है |   

Monday 19 March 2012

त्रिवेदी के इस्तीफे के मध्य रेलवे बजट के खास पहलू


                 
                             (एसके सहाय)
                 रेल मंत्री के पद से दिनेश त्रिवेदी के त्याग पत्र दिए जाने के बाद,ऐसा नहीं है कि रेलवे के हालात में कोई गुणात्मक परिवर्तन के आसार दीखते हों |ऐसा संभव है कि कुछेक बिंदुओं पर सस्ती और सतही घोषणा हो जाय, परन्तु मूल समस्या जो इसके हैं ,वो जस -के -तस ही रहने वाले हैं |इसमें बदलाव तभी हो सकते हैं ,जब स्थायित्व सरकार के स्थायी रेलमंत्री हों ,तदर्थ मंत्रियों के रहते आमूल चूल परिवर्तन और राष्ट हितकारी के सपने देखना मन को भुलावे में रखने के बराबर है |इसलिए एक नजर इसके चाल -ढाल पर दौडाना लाजिमी है |इसी को ध्यान में रख कर कहना है |
                वैसे , यह परिघटना १०७० के दशक की शुरूआत की है | उस दौर में रेल मंत्रालय ने प्रांतीय राजधानियों को द्रुतगामी रेल सेवा से राष्टीय राजधानी नई देहली को जोड़ने के लिए "राजधानी एक्सप्रेस " नाम से यात्री ट्रेन के परिचालन प्रारंभ किया ,जिसके ठहराव केवल राजधानी में ही नियत किये गए लेकिन इसमें अफवाद स्वरूप एक ठहराव "रायबरेली " को भी दिया गया और यह ठहराव राजनीतिक सोच के तहत दिए गए ,क्योंकि उस क्षेत्र का लोक सभा में प्रतिनिधित्व तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी कर रही थी |
               इसी तरह, दूसरे मामले का रिश्ता आजादी पूर्व का है ,जिसमे रेलवे की एक महत्त्वपूर्ण योजना गुलाम भारत में ही करीब अस्सी फीसदी पूरी कर ली गई थी मगर स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही इसके निर्माण पर अनिश्चित काल के लिए ग्रहण लग गया और यह निर्माणाधीन  योजना क्यों  स्थगित किया गया ,उसका कोई साफ -साफ जवाब आजतक किसी भी केंद्र सरकार ने नहीं दिया ,इसके बावजूद कई योजना रेलवे अपने हाथों में लेता रहा लेकिन पहले की अपूर्ण योजना को पुरे किये जाने के प्रति कभी भी खास दिलचस्पी नहीं ली |नतीजतन ,धरना ,प्रदर्शन ,घेराव जैसे आंदोलन होते रहे और रेल मंत्रालय इसे नजरंदाज करती रही |यह हाल दिखा है रेल मंत्रालय का ,जिसमे दूरगामी सोच की अवधारणा का कुछेक समय के बाद विलोप हो गया और तदर्थ  आधार पर परियोजना बनने लगे |
              इन दो परिदृश्यों से प्रकट है कि रेल शुरू से ही राजनीतिक शक्तियों का खिलौना बना रहा |ऐसे में दिनेश त्रिवेदी काफी अरसे बाद थोड़ी ईमानदारी का इजहार देश के वर्तमान जरूरत के हिसाब से किया तो मानो पहाड टूट गए और लगे हाथ अपनी ही पार्टी के प्रमुख ममता बनर्जी की आलोचना के शिकार होने लगे और यह कबतक रेल मंत्री के पद पर बने रहेगें ,यह संशय का प्रश्न बन गया है |तात्पर्य यह नहीं कि त्रिवेदी ने सबसे बेहतर रेल बजट को जनोन्मुखी स्वरूप में प्रस्तुत किया है | कहने का मतलब यह कि पूर्व के मंत्रियों कि तुलना में इनका पेश किया गया बजट अन्यों से ठीक है |ऐसा योजनाओं एवं आर्थिक जरूरतों के दृष्टि से परिलक्षित है ,इसलिए इस रेल बजट को २०१२-१३ के लिए परिवर्तनकारी समझा जाय तो गलत नहीं होगा |
              अतएव , रेल मंत्री के रूप में त्रिवेदी ने समग्रता में रेल बजट को प्रस्तुत करने को कोशिश की है ,जिसमे यात्री किराये में वृद्धि को अधिसंख्य नागरिकों ने गंभीरता से नहीं लिया है और कोई लिया है  तो वह इनकी पटी प्रमुख ममता बनर्जी ने ही ,जिनकी तुनक मिजाजी से अब बंगाल ही नहीं बल्कि पुरे देश के लोग आजिज  आने लगे हैं ,जिसका भान खुद ममता को फ़िलहाल नहीं है लेकिन यह कटु सत्य है ,जो ठोस तौर पर व्यावहारिक होने के इंतजार में है |
                बहरहाल , इस रेल बजट को खास राजनीतिक चाहत का नतीजा नहीं कहा जा सकता ,वह इसलिए भी  कि इसमें वो रेखांकित नहीं है ,जो कभी ममता ,लालू , नीतीश और राम विलास के कार्यकाल में परिलक्षित होता था ,जहाँ खुल कर बजट में अपने राज्यों के लिए विशेष जगह होती थी ,इसलिए इसे अलग ही कहा जा सकता है ,जो दिनेश त्रिवेदी को अन्य रेल मंत्रियों से अलग और राष्टवादी सोच के राजनीतिज्ञ की श्रेणी में शुमार कर दिया है ,जो इसकी खास बात उल्लेखनीय है |इस आधार पर पेश बजट की आलोचना कतई संभव नहीं | वैसे ,आलोचना के लिए आलोचना हो तो बात अलग है |
                   इसलिए रेलवे को यदि व्यवस्थित रूप देना है ,तब इसके  लिए सुविचारित नीति ,जो लोकतान्त्रिक अवधारणा के तहत लोक कल्याणकारी भाव से व्यावसायिक स्वरूप देना होगा ,जैसा कि इस बजट में दीखता है | त्रिवेदी ने कोशिश की है और इस कोशिश को बढ़ावा दिए जाने की जरूरत है क्योंकि पक्षपात पूर्ण रूख  से क्षेत्रीय असंतोष स्वाभाविक तौर पर विस्तृत स्थान घेरती है ,जो एक देश -राज्य के लिए नुकसानदेह ही होगा ,इसे भलीभांति समझने कि आवश्यकता है | इंदिरा गाँधी ने अपने चुनाव क्षेत्र के लोगोएँ को राजधानी एक्सप्रेस का तोहफा देकर सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने में पहल की और बदकिस्मत से तत्कालीन रेल मंत्री ने इसे नजरंदाज भी कर दिए ,जिसका परिणाम है कि अब हर कोई रेल को लेकर राजनीती करने को आतुर है और आर्थिक योजना के स्थान पर राजनीतिक रणनीति काम करने की प्रवृति पिछले दो दशक से परवान पर है ,जो क्षोभ पैदा करने में मददगार सिद्ध हो रही है ,जो देश के सेहत के लिए उचित नहीं है बल्कि इसके जगह पर सैधांतिक आधार को महत्त्व दिया जाना चाहिए ताकि आपसी लगाव की दुरी में खटास नहीं हो | राजधानी एक्सप्रेस की शुरूआत हुई थी .तब इसके लिए खास अवधारणा तैयार किया गया था ,जिसमे आर्थिक मजबूती के साथ -साथ राजनीतिक जुडाव भी इसके मुख्य तत्व थे लेकिन अब हाल यह है कि ट्रेन कहलाती है एक्सप्रेस और इसके चाल और ठहराव से खीझ पैदा होती है | ऐसा इसलिए कि राजनीतिक चाहत ने छोटे -छोटे स्टेशनों को रूकावट के तौर पर इसकी चाल -लक्षण को खस्ताहाल बना देने में अहम योगदान दिया है ,जहाँ आर्थिक लाभ के बड़े स्रोत के दर्शन भी रेलवे को  नहीं होते जो इसकी मूल शक्ति है |
                  दरअसल , व्यवस्था के लोकतान्त्रिक स्वरूप में ही "लोकप्रियता " ऐसी प्रक्रिया है ,जिसके लोभ संवरण करने में कई अच्छे नेताओं को बेनकाब कर दिया है और इसका दिग्दर्शन रेल महकमे में ज्यादा है ,तभी तो इसके लेने को लेकर गठबंधन सरकार के दौर में काफी जोड़- तोड़ होती है ,जैसा कि पूर्ववर्ती कई मंत्रियों के काल में हुआ है | अपने क्षेत्र में रेलवे का विकास हो ,इसे कौन इंकार कर सकता है ,लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि व्यावसायिक सिंद्धात  के फैसले को दरकिनार कर दिया जाय ,जैसा कि विगत दो दशकों से होता आ रहा है
                  रेलवे को  नई परियोजना में हाथ डालने के पूर्व एक बार पहले से निर्माणाधीन योजनाओं को देखना  चाहिए कि ,उसकी क्या हाल है ? समय से यह कार्य कर रही है या नहीं ,या धन की कोई कमी तो नही है , अन्य योजना हाथ में लेने से कहीं इसके निर्माण में खर्च हो रही राशि का टोटा तो नहीं हो जायेगा | ऐसा ही ,नज़ारा उस वक्त था ,देश आजाद हो गया था बरवाडीह  -चिरमिरी रेल खंड के लिए स्टेशन, पुल -पुलिया ,कर्मचारियों के क्वार्टर ,बंगले , रेल पटरी वगैरह के काफी हद तक काम पुरे कर लिए गए थे ,जिसके अवशेष आज भी देखें जा  सकते हैं ,जहाँ अब झाड -फूंक के रूप में बड़े -बड़े दरख्त के विहंगम दृश्य विधमान हैं | यह नजारा ,झारखण्ड के पलामू -गढ़वा जिले और इससे सटे छतीशगढ के अंबिकापुर ,रामानुजगंज ,जसपुर तथा अन्य इलाके है जहाँ भी रेलवे के खंडहर दीखते हैं |
                साफ है कि रेलवे के संचालन में आर्थिक जरूरतों को नजरंदाज करने और राजनीतिक स्थितियों के अनुरूप दिशा तय करना ही इसके दुर्दशा के लिए जिम्मेदार तत्व है पुराणी योजन पूरब हुई नहीं और लगे हाथ नई योजना को क्रियान्वित करने कि ललक ने आज रेलवे को इस मुकाम पर ला खड़ा  कर दिया है कि इसे सुधरने के लिए कड़े निर्णय लेने होंगे ,तभी इसकी हालत में सुधर हो सकेगी |त्रिवेदी के पेश बजट में ज्यादा ललो-चपो नहीं था ,इस लिए इसकी आलोचना सिर्फ विपक्ष की अपनी उपस्थिति जतलाने भर थी ,ऐसे में त्रिवेदी को खास मुश्किलों का सामना दूसरे से नहीं बल्कि अपनों से ही थे ,जिसका नतीजा इस्तीफे में देखने को मिला है ,जिसमे तृणमूल प्रमुख एवं पशिचमी बंगाल के मुख्य मंत्री ममत बनर्जी को फ़िलहाल खलनायक बना दिया है ,जिसके लिए दिनेश जिम्मेवार कतई नहीं है |यह राजनीतिक खेलों का ही नतीजा है कि बजट पेश किया कोई और पारित होने में अहम भूमिका कोई अन्य निभाता है |

Saturday 10 March 2012

युवा नेतृत्व के भरोसे पर


      युवा नेतृत्व के भरोसे पर 
                                                                            (एसके सहाय )
                                    अब ,जब उत्तर प्रदेश में युवा नेतृत्व के हाथों में सत्ता की  बागडोर कुछेक दिन में होगी ,तब यह विचारणीय प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि किस परिस्थितियों में समाजवादी पार्टी ने अखिलेश यादव के नाम पर एक बार जुआ खेलने का निर्णय लेने को मजबूर  हुई ,जुआ इसलिए कि खुद अखिलेश और मुलायम सिंह यादव के निकट के साथी इस नेतृत्व के फैसले से अनमने से थे और इसका दिक्दर्शन आजम खान के रूख से परिलक्षित हुआ भी ,इसके बावजूद ,इस युवा नेतृत्व के मुख्य मंत्री बने का मार्ग साफ हुआ | अतएव ,एक बार फिर नए सिरे से अनुभव शून्य नेतृत्व का साबका ठीक उस प्रकार देश के सबसे बड़े सूबे में दिखने को मिलेगा ,जैसा कि राजीव गाँधी के प्रधान मंत्री बनने  के वक्त था |
                                  फ़िलहाल , अखिलेश, मुख्य मंत्री के पद संभालेंगे और मुलायम छाया की तरह उनके मार्गदर्शन करेंगे | भारतीय राजनीति का  यह चेहरा  अगले छ माह तक काफी दिलचस्प होगा | रोचक इसलिए कि इतिहास को देखें ,तब आय काफी कुछ -कुछ राजीव गाँधी के सिंहासनारूढ़ की तरह है ,वह ऐसा इसलिए कि ,जब राजीव गाँधी प्रधान मंत्री  बने थे , तब कांग्रेस के अगले वर्ष शताब्दी वर्ष था और इसके उपलक्ष्य में 1985 में पार्टी के आयिजित समारोह को संबोधित करते हुए कहा था कि " देश के विकास मद की 100     फीसदी राशि र्मे से मात्र पांच प्रतिशत ही निर्धनों  याने आम देश वाशियों के पल्ले पड़ती है ,बाक़ी बिचौलिये रास्ते में ही खा जाते हैं और इस स्थिति को बदलना उनकी सरकार का प्रथम कर्तव्य है "  परवर्ती काल में क्या हुआ और क्या हस्र कांग्रेस की सरकार को प्रचंड बहुमत रहते झेलना पड़ा ,इसे बताने की जरूरत यहाँ नहीं है |
                               बहरहाल , अखिलेश ,राजीव के बनिस्पत ज्यादा खुशहाल हैं ,वह इसलिए कि इनके प[इत मुलायम अभी जीवित हैं और सक्रिय राजनीति में पूरे -दम -ख़म के साथ  मौजूद भी है ,जो राजनीति के उचित -अनुचित परिणामों के प्रति आगाह करते रहेंगे लेकिन क्या इतने से भर से अखिलेश का काम चल जायेगा  ? कदापि नहीं | फिर तो हल क्या है ? हल है .लेकिन उसके लिए "दृढ इच्छा "  की जरूरत है और यह  फौलादी इरादा वैसे अखिलेश में चुनावी दौरे और भाषणों के दौरान दिखा भी है  .जिसे मूर्त रूप होते देखना भी प्रान्त के लोग चाहते भी है |
                                उत्तर प्रदेश  के लिए ,वर्तमान  समय में "कानून एवं व्यवस्था " ही मुख्य समस्या है ,जिसे सत्ता से ख़ारिज किए गए मायावती ने हार के बाद बहुत ही स्पष्ट शब्दों में रेखांकित किया है कि " बसपा के कार्यकर्त्ताओं को निराश होने की जरूरत नहीं है ,सपा के राज -काज में कानून -व्यवस्था के हालात बिगड़ेगी ,2007 की तरह ही स्थितियां , राज्य में गुंडागर्दी का नजारा होगा  ,जिससे लोगों का मोह भंग होना निश्चित है " इस नपे -तुले बयान के बाद ही तुरत जीत के बाद पहले संवाददाता सम्मलेन में अखिलेश ने भी अपनी और सपा के सर्वोच्च प्राथमिकता कानून -व्यवस्था को ही बनाये रखने की बात की है ,इससे उम्मीद है कि बसपा और सपा  याने दोनों को यह पत्ता है कि यदि राज्य में शांति बनी रहती है ,तभी उनका टिकाऊपन   होगा ,सो इसके खतरे से पक्ष -विपक्ष वाकिफ हैं | इस मुदे कि गंभीरता का अहसास अखिलेश को है ,तभी तो विधायक दल एक नेता चुने के बाद अपनी पहली बोल में ही "कानून -व्यवस्था को पुन: रेखांकित किए |इसलिए ,अभी तो भरोसा ही किए जाने के क्षण हैं |
                               इन परिप्रेक्ष्य में देखें तो स्पष्ट होगा कि देश के सबसे बड़े राज्य की राजनीति पर इन दिनों राजनीतिक समीक्षकों का ध्यान स्वाभाविक तौर पर है और अगले कदम का इंतजार है कि अखिलेश की रहनुमाई में कैसे कार्यक्रम का प्रदर्शन यहाँ होता है ? यह इसलिए भी भारतीय राजनीति में वंशवाद अब प्रयोग की उतनी महत्पूर्ण विधा नहीं रही ,जैसा कि नेहरू -गाँधी के ज़माने में हुआ करती थी और अब लोकप्रियता है तो योग्यता  भी है ,जिसका निर्धारण मतदाता ही अपने मनोयोग से कर रही है और यदि ऐसा नहीं होता तब , राहुल गाँधी को यूपी के लोग नहीं ठुकराते बल्कि अच्छी -खासी वोट देकर कम से कम विपक्ष में बैठने लायक बहुमत तो देते ही .लेकिन ऐसा नहीं हुआ बल्कि सिर छुपाने के लिए भी  जगह नहीं दी ,जिसका मतलब बहुत ही साफ है और यह कि केवल  हवाबाजी के बातों से काम नहीं चलने वाला ,वरन कथनी  -करनी  में साम्य का भी दिक्दर्शन होना चाहिए ,जैसा कि अखिलेश ने डी पी यादव ,अमर सिंह और  अपने चाचाओं    के प्रति किया है  और यही पूंजी भरोसे का अभी अखिलेश के पास है ,जिसका अभाव अन्य युवा नेतृत्व को  हैं |
                            वैसे में अखिलेश की बातों में अभी भरोसा किया ही जाना चाहिए ,ताकि इनके प्रवृतियों  का परीक्षण हो सके |किसी भी राज्य का पहला दायित्व कानून -व्यवस्था को बनाये रखने का है फिर विकास की गति को धैर्यपूर्ण  तरीके से अमली जामा पहनने से है ,जिसका बैचेनी से उत्तर प्रदेश को इंतजार है | इसके लिए अखिलेश के पास समय भी काफी है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वह दूसरों के मीन-मेख निकलने में अपना वक्त जाया करें ,वक्त किसी का इंतजार नहीं करता बल्कि लोग समय की प्रतीक्षा करते है ताकि अपनी सोची योजना को मूर्त स्वरूप   दिया  जा सके .ठीक उसी  प्रकार जैसा कि मुलायम सिंह यादव ने पांच साल का इंतजार किए और इन वर्षों में समूचे सूबे में मायावती के खिलाफ अलख जगाते रहने में अपने को कभी अकेला नहीं माने और अब यही तेवर -धैर्य  अखिलेश में देखना बाक़ी है |
                          और एक सलाह अखिलेश को ,वह यह कि आपराधिक तत्वों से दोस्ती मत करो और न ही प्रोत्साहन दो ,केवल जन कल्याण के मद्देनजर समग्रता में निर्णय लो ,फिर सिर्फ पानी -बिजली और सडक के विकास को फिलवक्त प्राथमिकता दो .देखो भविष्य के रास्ते और सुखद एवं आश्चर्यित होंगे | फ़िलहाल इतना ही --
                               

Thursday 8 March 2012

झारखण्ड की राह पर उत्तराखंड


उत्तराखंड भी अब झारखण्ड की राह पर है | खबर है कि कांग्रेस भी अब राज्य में सरकार बनाने के लिए कमर कस चुकी है |ऐसे में सरकार के स्थायित्व का संकट बराबर रहेगा ,जो इस खुबसूरत वादियों वाले  प्रान्त को बर्बाद कर देगी |जोड़ -तोड़ और धूर्त चालें अब इसके मुख्य अस्त्र होगें ,जिसमे आम लोग पीसने के लिए अभिशप्त होगें |यही संसदीय प्रणाली के लोकतंत्र का विद्रूप चेहरा है ,जो कई प्रदेशों में भी दिखता रहा है |इसके बावजूद भी कोई धीर -गंभीर शक्ति जनहितों के अनुरूप सार्वजनिक क्षेत्र में राजनीति को एक ठोस दिशा देने के लिए आगे बढ़ने से कतराती है और यह स्थिति व्यवस्था से ही चिढ लोगों को पैदा करने में योगदान  दे रही है ,जो किसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए भविष्य में नुकसान दायक हो सता है |
                                  आकंड़े और  वह भी प्रतिनिध्यात्मक संख्या संसदीय व्यवस्था में समूचे जन विश्वास को अपने में नहीं समेटती ,बल्कि टुकड़े -टुकड़े में स्थानीय "मनो इच्छा "को अभिव्यक्त करती है ,इसे  समझने की जरूरत है |इसे ही समझ कर और अनुभूत करके कांग्रेस के ही एक दिबगंत नेता बसंत साठे ने  इंदिरा गाँधी के प्रधान मंत्रित्व काल में और खुद मंत्री रहते अध्यक्षात्मक प्रणाली की सरकार  अर्थात व्यवस्था की जोरदार वकालत की थी लेकिन 1982 में उठाई गई बात अब भी देश के लिए प्रासंगिक है और बहस की मांग करते है ,जिस पर वाकई में गौर करने की आवश्यकता है | यह विषय जब साठे ने आम लोगों के बीच विचार करने के लिए रखा ,तब इसे हल्के से लिए गए और तत्कालीन सता और प्रतिपक्ष मतलब सभी पक्षों ने इसे अपने -अपने तरीके से शंकालू होकर अपनी  बातें ,दबी जबान से की थी ,इसलिए यह बहस आगे नहीं बढ़ सकी |खुद इंदिरा गाँधी ने ही इसे उस वक्त ध्यान नहीं दी थी ,अन्यथा परवर्ती दिनों में कुछेक परिवर्तन देखने को मिल सकता था |
                                          खैर, अब .जब उतराखण्ड में कांग्रेस और भाजपा की संख्या एक -दो से पीछे है और राज्य में संघ सरकार द्वारा पदस्थापित कांग्रेस चरित्र के राज्यपाल मार्गरेट अल्वा मौजूद है ,तब एक बार फिर देश को सरकार बनाने के लिए हो रहे नौटंकी देखने का मौका मिल सकती है और इन दलों से अलग जीत कर आए दलों में भी टूट -फुट  और बागीपन के तेवर दिखेंगे ,जिसमें पद और मुद्रा ही सत्ता की चाभी इनके बीच स्थायित्व का मानक बनेगा ,इससे इतर कुछ भी नहीं और यदि कोई चतुर नेता खासकर भाजपा और कांग्रेस से गोल - गोल बातें करते हैं तो उसका कोई मतलब यथार्थ राजनीति से नहीं होता ,सिर्फ "सत्ता " ही इनके येन -केन -प्रकारेण लक्ष्य होते हैं .जहाँ सैधान्तिक , आदर्श और चरित्र के लिए कोई जगह नहीं होती |ऐसे में अब देखने लायक यह होगा कि राज्यपाल किसे सरकार बनाने के लिए सर्व  प्रथम बुलावा देती है ,वैसे दावे तो दोनों कर ही चुके हैं |
                                         उत्तराखंड और झारखण्ड समेत छतीशगढ प्रदेश का गठन एक साथ थोड़े -थोड़े अन्तराल के बाद 2000 में हुआ |इतफाक से झारखण्ड को छोड़कर इन दोनों  राज्यों में  स्थायित्व का संकट प्राय: नहीं रहा लेकिन इस बार उतराखंड फंस गया है .इसे अब झारखण्ड की तरह ही अराजक स्थिति से गुजरने के लिए तैयारी कर  लेनी होगी ,इसमें कोई संशय नहीं | जो विधायक ,विशेष कर निर्दल सरकार बनाने में अपना समर्थन देगा ,वह इसकी पूरी कीमत वसूलेगा |यह आज की राजनीति का दस्तूर बन गया है और ऐसा नहीं हुआ ,तब समझे कि खंडूरी जैसे नेता अब भी राज्य में मौजूद हैं ,भले ही मुख्य मंत्री खंडूरी खुद चुनाव हर गए हो लेकिन इनकी ईमानदारी का कोई जोड़ नहीं | ऐसे नेता हारते भी है ,तो अपनी व्यापक सोच को लेकर जिसमे  क्षेत्रीयता,जातीयता और सांप्रदायिकता    के लिए कोई जगह नहीं होती .यदि ऐसा होता तो वह चुनाव नहीं हारते ,जैसे कि आप जानते है -सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी सरीखे नेता अपने चुनाव क्षेत्र से बाहर विकास के प्रति समग्र सोच रखते ही नहीं ,केवल अपने ही चुनाव हल्कों में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं ताकि चुनावी युद्ध में उनको कोई परेशानी भविष्य में नहीं हो सके |इसका नतीजा क्या हो सकता है ,खंडूरी सामने हैं ,अगर यह भी अपने चुनावी इलाकों को ध्यान में रखकर राजनीति की भौतिकवादी प्रवृतियों के अनुकूल सरकार का नेतृत्व करते तो हर का यह सामना इनको नहीं करना पड़ता |
                                        बहरहाल ,उत्तराखंड के जनादेश का संकेत काफी साफ है और काफी हद तक निरपेक्ष है ,वह यह कि सरकार में सभी की भागीदारी हो ,ताकि स्थायित्व के संकट से यह राज्य बचा रहे | यदि ऐसा संभव नहीं है ,तो राष्टपति शासन ही इसकी नियति है ,ऐसा इसलिए भी बेहतर होगा कि बहुमत पर आधारित सरकार  का स्वरूप ढीला -ढाला होगा ,और बात -बात पर "सनक " पूर्ण राजनीति का शिकार होने के लिए यह विवश होगा ,जैसा कि झारखण्ड में प्राय; रोज दिखता है | राष्पति शासन इसलिए कि कम से कम एक व्यक्ति याने राज्यपाल के हुक्म की तामिला होगी  .जिससे प्रशासनिक अराकता से प्रान्त बच जायेगा | हाँ ,इसके लिए लोगों को खासकर., राजनीतिक प्राणियों को सब्र करना होगा ,अगर लोक कल्याण की भावना में विश्वास करते हों तब , वह भी इसलिए कि परोक्ष रूप से केंद्र की सरकार ,जो संयोग से कांग्रेस नेतृत्व वाली है |
                                     लेकिन प्रश्न है कि क्या  भाजपा -कांग्रेस ऐसा होने देगी  खासकर , केंद्र में बैठी संप्रग सरकार के स्वभाव में जनतांत्रिक मूल्यों और जनहितों के स्थायी समझ को ठोस रूप देने की मादा   है  |कांग्रेस सरकार का सीधे सँचालन करती हो या अप्रत्यक्ष तौर से केंद्र के सहारे ,कलेजे पर सांप भाजपा के ही लोटेंगे न ,फिर जनहित -लोकहित कहाँ है ? यही बात कांग्रेस के साथ भी लागू है ,जो केंद्र में होने के लाभ राज्यपाल के जरीये लेने से नहीं हिचकेगी |ऐसे में लोकतान्त्रिक व्यवस्था का यह विद्रूप चेहरा देश को हमेशा चिढाता रहेगा और हम बराबर "अट्ठाहस " करते  रहेंगे |
                                          
                                   

Tuesday 6 March 2012

इन चुनाव परिणामों का क्या


 
                                                                                 एसके सहाय 
                          देश में संपन्न पांच राज्यों के विधान सभाओं के चुनाव परिणामों में मणिपुर के नतीजे चौकाते नहीं , बल्कि इसके लिए पूर्व से ही राजनीति समीक्षक उस तरह के प्रतिफल के लिए तैयार थे ,लेकिन अन्य चार राज्यों में आए परिणामों को लेकर अब ज्यादा माथा -पच्ची रजनीतिक -सामाजिक हल्कों में होने को बताब है |ऐसा इसलिए कि 2014 अब ज्यादा दूर नहीं है और इसमें कांग्रेस के साथ कथित इनके युवराज राहुल गाँधी के किस्मत का फैसला होने वाला है और यह निर्णय ठीक उसी तरह के होने हैं ,जैसे इनके पिटा राजीव गाँधी के हुए थे ,यह इसलिए कि राजीव भी बिना अनुभव के सीधे प्रधान मंत्री बन गए  थे और अब काफी कुछ इसी तरह कि स्थिति राहुल की है ,जो बिना राज -काज के अनिभव लिए उस पद पर निगाहें गडा दी है ,ऐसे में गंभीर मंथन का दौर इन दिनों रजनीतिक  गलियारों में हैं ,इसलिए स्वाभाविक है कि अब वक्त आ गया है कि देश के नेतृत्व  को लेकर  दो -चार हो लिया जाय |
                           पहली बात यह कि मणिपुर देश नहीं है और इसपर ज्यादा भरोसा करके कांग्रेस भविष्य की राजनीति को धार नहीं दे सकती |अतएव , उत्तर प्रदेश ,पंजाब और उत्तराखंड के ही परिणामो को लेकर भविष्य के कयास किए जाये  तो ज्यादा बेहतर होगा |   खासकर , यूपी में राहुल के कड़ी  परिश्रम का कोई साफ परिणाम नहीं हैं ,सो आने वाले कल की तस्वीर कांग्रेस के लिए ज्यादा दुःख पहुँचाने वाली प्रतीत है | ऐसा क्यों हुआ ? शायद वह इस विचार पर  ज्यादा सोचने वाले भी नहीं हैं ,ऐसा इनकी सोच की दिशा को देख कर परिलक्षित है |वजह साफ है ,इन चुनाव परिणामों के पहले के इतिहास को देखें ,विशेष कर 2009 के लोक सभा चुनाव और 2010 विधान सभाओं के वक्त के राहुल को याद करें ,तब काफी कुछ इनके मन -मिजाज का हाल आप बेहतर तरीके से जान सकते हैं |   
                             बिहार और झारखण्ड में जब उन लोक सभा -विधान सभा के चुनाव की घोषणा हो रही थी ,तब राहुल ने पूरे जोर -शोर से कांग्रेस जनों और आम जनों के मध्य यह गर्जन किए कि दागी ,  दो बार हार चुके राजनितिक तथा किसी भाई -भतीजे या पुत्रों को कांग्रेस का टिकट नहीं मिलेगा ,इतना ही नहीं साफ -सुथरी ,ईमानदार छवि के साथ युवा तबकों को टिकट दिए जाने के पैमाने तय कर दिए जाने की बात कही थी लेकिन जब चुनाव लड़ने के मौके आए ,तब अपनी कही गई और घोषित नीतियों के विपरीत बिहार और  झारखण्ड में कांग्रेस के टिकट दिए गए ,जहाँ कांग्रेस का क्या हाल हुआ .यह अब स्पष्ट रूप में रेखांकित है | राहुल की यह मकारी  पूर्ण  बातों  को यूपी के लोग भूले नहीं थे ,सो नतीजा सामने है |
                             राहुल को थोड़ी भी सामाजिक .राजनितिक और भौगोलिक समझ होती तो तो यह अहसास होता कि झारखण्ड -बिहार की सीमा और सामाजिक सरोकार उत्तर प्रदश से बंधे हैं ,जहाँ कही गई झूठ जल्द पकड़ में आ जाएगी मगर अपने गलैमर के प्रभाव से कांग्रेस की नैया हांकने की कोशिश क्या हो सकती है ,इसका ख्याल उन्हें नहीं था ,अन्यथा ऐसा हस्र नहीं होता ,जैसा की अभी हुआ है |
                               दूसरी यह कि .कांग्रेस को तीन मोर्चे पर लड़ाई लड़नी थी लेकिन इसके लिए उसके पास अपने शत्रु पार्टियों के काट के लिए कोई शस्त्र नहीं थे | समाजवादी पार्टी ,बहुजन पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के पास स्थानीय स्तर पर भी कद्दावर नेता थे ,जो कांग्रेस से कहीं पर भी उनसे बीस पड़ने कि काबिलियत से लैस थे लेकिन इनके पास वैसा कुछ भी नहीं था ,जैसा की अन्यों नके पास था |ऐसे में कांग्रेस को हारना ही किस्मत में बदा था .इससे इतर कुछ भी नहीं |
                              वैसे भी ,व्यक्तिपरक दृष्टिकोण से देखें तो स्पष्ट प्रतीत है कि कांग्रेस के पास खोने और पाने के लिए  कुछ भी नहीं था | सोनिया गाँधी कभी जन मुद्दों पर आम लोगों के बीच नहीं आइ केवल बयानबाजी ही इनके अस्त्र रहे लेकिन मुलायम सिंह यादव का लंबा इतिहास संघर्ष का रहा है और लीक से हटकर बेबाकी से राजनितिक पूर्ण चतुराई से अपनी बात कह देने में माहिर रहे हैं | याद करें .वह बयान जब अयोध्या मुद्दे पर इलाहबाद उच्च न्यायालय के फैसले आए थे ,तब इस निर्णय को सपा खेमे को छोड़ कर अन्य क्षेत्रों से सराहनीय फैसले की बात कहीं जा रही थी और मुलायम कुछेक दिन के लिए छुपी साध लिए थे .फिर मौका मिलते ही इन्होने जो कुछ भी कहा ,वह भाजपा ,कांग्रेस और बसपा के लिए अनमने सा था | इनका साफ तौर पर नपा -तुला विचार था कि "उक्त फैसले से देश का एक खास समुदाय ठगा सा महसूस कर रहा है " 
                                 बस, इस प्रतिक्रिया  को सामने आने भर की देर थी ,समूचे देश में  इसे लेकर सपा   और मुलायम को क्या -क्या आलोचनाओं   के तीर से भेद दिया गया  लेकिन वह स्थिर बने रहे .इतना ही नहीं अमर सिंह जैसे राजदार ने उकसाने वाली बात कई बार कही लेकिन उसका कोई प्रत्युत्तर नहीं दिए  और अपने तरीके से पूरे राज्य में राजनितिक दौरे में भिड़े रहे |ऐसे में चुनाव का लाभ इन्हें नहीं मिलेगा तो किसे मिलेगा ? अल्पसंख्यक समुदाय जो कल तक मायावती - बसपा के साथ थी अब सप -मुलायम के साथ दम साधे खड़े हो चुकी थी | इतना ही नहीं , इनके बेटे अखिलेश यादव ने जिस बेबाक तरीके से युवा साथियों  के साथ संपर्क साधा ,वह बेमिसाल रहा ,इसमें किन्तु -परन्तू का कोई सवाल बीच में नहीं थे  |
                                 इसी तरह काफी कुछ  उत्तराखंड और पंजाब की रही | अल्पसंख्यक वाली बातें यूपी में कांग्रेस ने की लेकिन उसके असर में पंजाब आ गया ,जहाँ अल्पसंख्यक मतदाताओं का अर्थ ही नहीं था और आजादी पूर्व के इतिहास को भाजपा -अकाली दल ने इस तरीके लोगों के बीच विस्तृत किए कि कांग्रेस जीत कर भी हार गई |कांग्रेस यह भूल गई कि तुस्टीकरण और लोक लुभावने बातों का प्रभाव भारत जैसे देश में बदलाव और स्थिरता के ठोस रह नहीं हो सकते |यह थोड़े समय के लिए फायदेमंद हो सकती है ,हमेशा के लिए नहीं | राहुल -सोनिया -प्रियंका  के भरोसे कांग्रेस में इनसे कई उम्दें राजनितिक प्राणी हैं ,फिर राहुल के रहते कैसे कोई युवा अपनी महत्वकांक्षा  को गर्त्त में मिलते देख सकता है ,वह भी तब ,जब वह राजनितिक  को  जीवन दर्शन  के लिए चुना हो |
                                   गोवा और उत्तराखंड के परिणाम शुरू  से से जुदा थे .जितना सच मणिपुर के लिए चुनाव पुर अपरिनाम कि उम्मीद थी .ठीक उसी तरह गोवा के लिए भी आशा राजनीति प्रेक्षकों की थी ,फर्क सिर्फ मात्रा का अर्थात संख्या बल का था ,जो करीब -करीब सामाजिक विज्ञानं के अनुरूप ही रहे | थोड़ा अचरज ,उत्तराखंड के लिए ही है ,जहाँ बहुमत के फासले में कांग्रेस -भाजपा पिछड़ गए लेकिन सत्ता विरोधी रूझान के बावजूद भाजपा को इतना शक्ति लोगों ने दे दी कि वह -जोड़ -तोड़ कर पुन: सरकार बना सकती है |यह अलग प्रश्न है कि इस राज्य का हस्र भविष्य में झारखण्ड जैसे दिखे ,जहाँ  अराजक सी स्थिति ही इसके अस्तित्व में आने बाद से बनी है और यही बात कांग्रेस पर भी लागू है ,जो अगर सरकार बना भी लेती है तो स्थायित्व का संकट उसे लगातार झेलने के लिए अभिशप्त रहना होया |
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