Tuesday 7 February 2012

पाक: नई सोच के कूटनीतिक आयाम


                                                          पाक: नई सोच के कूटनीतिक  आयाम 
                                                                     (  एसके सहाय )
                             पाकिस्तान के प्रधान मंत्री युसूफ गिलानी ने कहा है कि " 21 सदी में पाकिस्तान एक और युद्ध का बोझ भारत के साथ झेलने में असमर्थ है |"  यह बयान दक्षिण एशिया के लिए स्वागत योग्य तो है लेकिन इसके यथार्थ में देखें तब , यह अंदरूनी स्थितियों से उत्पन्न परिस्थितियों का समावेश  भी इसमें है ,जो पाकिस्तान को एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए बेहद जरूरी है ,सो इसका   समर्थन किया ही जाना चाहिए | ऐसा इसलिए भी आवश्यक है कि अंतराष्टीय सबंधों में भू: राजनीति की अपनी उपयोगिता है ,जिसे भारत कभी उपेक्षा नहीं कर सकता ,क्योकि देश की प्रतिनिध्यात्मक जनतांत्रिक पद्धति में स्वतंत्रता हासिल करने के बाद ही "अल्पसंख्यक " राजनीति के महत्त्व को एकाध राजीनीति पार्टियों को छोड़ कर सबों ने पाक के प्रति एक खास नजरिये का इजहार किया है ,जिसका सुन्दर उदाहरण पांच राज्यों के मौजूदा विधान सभा चुनाव है | ऐसे में गिलानी का कश्मीर दिवस के मौके पर दिए विचार को गंभीरता के साथ लिया जाना चाहिए |
                             वैसे , पाक प्रधान मंत्री का व्यक्त विचार किस मकसद से स्पष्ट रूप से सामने आया है , इस बारे में थोड़ा संशय है ,संशय भी इसलिए कि पूर्व का इतिहास भारत को फूंक -फूंक कर कदम उठाने के लिए मजबूर  करता है ,फिर भी जिस हालातों में गिलानी के व्यक्त भावना पूरी दुनिया के समक्ष आई है ,उसे सकारात्मक पहल के तौर पर लिया जाने की जरूरत दोनों देशों  के हित में है | हित भी इसलिए कि भारत लोकतान्त्रिक प्रणाली वाली व्यवस्था के रूप में स्थापित है और पाकिस्तान इस प्रक्रिया के संक्रमण के दौर से गुजर रहा है ,जिसे भारत के साथ की  आवश्यकता ज्यादा है |
                               भारतीय हितों के परिप्रेक्ष्य में गिलानी की बातों को फिलवक्त मनमोहन सिंह किस रूप में ग्रहण करते हैं ,इसे सामने आने में देर हो सकती है लेकिन इतना सच है कि गिलानी के बयान में "कातरता " की झलक है  ,और यही कातरता  भारत हित में है |यह स्थिति कुछ -कुछ नवाज शरीफ के प्रधान मंत्रित्व में भी  झलका था ,जिसे परवान चढाने अटल बिहारी वाजपेयी कोशिश कर ही रहे थे कि परवेज मुशर्रफ़ ने उसमे पलीता लगा दिया ,जिससे कश्मीर के मुद्दे को  भी ले -दे के ख़त्म करने  की पहल थी | यह पहल साकार क्यों नहीं ले सकी ? इस पर चिंतन करें ,तब साफ परिलक्षित होगा कि उस काल में अमरीका का भरपूर समर्थन पाक सेना को परोक्ष तौर पर हासिल था ,जिसके बूते जनरल मुशरर्फ ने शरीफ के तख्ता पलट करने की हिमाकत की | तब अमरीका के रिश्ते इस कदर बिगड़े नहीं थे .जैसा फिलवक्त पाक के साथ हैं और नवाज़ का भारत के साथ व्यापारिक रिश्ते को खास प्राथमिकता दिया जाना था ,और यह अमरीका को पसंद नहीं थे  ,जिसमे शह पाकर सेना ने पाक में सत्ता हस्तगत करने में कामयाब हो गई थी |
                                      अब ,तब की स्थिति से गुणात्मक अंतर है ,जिसमे अमरीका पाक से खफा है ,अपने विश्व बिरादरी से आर्थिक मदद की किल्लत है ,ले -देकर चीन ही वह देश है ,जो कुछ सहायता दे सकता है ,मगर यह मदद उतना देने में भी सक्षम नहीं है ,जितना अमरीका उसे दे सकने में आगे रहा है | इस बात को गिलानी की सरकार भली भांति समझती है ,तभी वह खास अवसर पर एक कटु सच्चाई को स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं की है ,जिसका भरपूर लाभ उठाये जाने की ओर भारत को पहल करना ही होगा और इसके लिए खटाई में पड़ी "मित्रता की संधि " की तरफ कदम बढ़ाने की कूटनीतिक पहल होनी चाहिए ,तभी राष्टीय हितों को साधने में मदद मिल सकती है |
                                    दरअसल , पाककिस्तान की जो मौजूदा हालात हैं ,उसमे गिलानी के व्यक्त विचार किसी क्रांतिकारी से कम प्रतीत नहीं हैं | पाक में लियाकत अली खान के बाद जुल्फिकार भुट्टो ,बेनजीर भुट्टो ,नवाज शरीफ और युसूफ गिलानी ही वैसे प्रधान मंत्री हैं ,जिनको सेना के साये में ही काम करने की विवशता रही है |विशेष कर , उस हालात में ,जब एक तरफ सेना ,दूसरी तरफ कट्टरपंथी ,तीसरी तरफ सर्वोच्च न्यायालय और चौथी तरफ विश्व की निगाहें पाकिस्तान पर टेढ़ी हो ,तब अचानक भारत के संदर्भ में व्यक्त विचार का विशेष मतलब होना है |   गिलानी के बयान जोखिम भरें है ,इसमें दो राय नहीं कि वह  एक बार फिर सेना और कट्टरपंथियों के नज़र में चढ़ गयें हों | लेकिन हकीकत को खुलेआम स्वीकार कर पाक प्रधान मंत्री ने साफ कर दिया है कि  वह अपने देश में "लोकतान्त्रिक मूल्यों के अस्तित्व के प्रति प्रतिबद्ध " है |
                                     बहरहाल  , पाक की अर्थ व्यवस्था  काफी दयनीय है ,आतंकवाद ,रोजमर्रे की बात है ,बाहरी मदद के रास्ते सिकुड़ गए हैं | देश की व्यवस्था में परस्पर अविश्वास का माहौल है ,जैसे -तैसे अपनी  अपनी लोकतान्त्रिक व्यवस्था के नाम पर विश्व बिरादरी से मदद की आकांक्षा उसे जिन्दा किए हुए है और इसकी पूर्ति का रास्ता भारत से ही गुजरता है ,जिसमे हिंसा  के लिए कोई स्थान हैं ,तब गिलानी ने भारत को खुश करने के लिए अनजाने में ही  एक तथ्यपरक बात  सार्वजनिक तौर पर रख दी है .जो उनके लिए तो  जोखिम भरा है ही ,साथ में इसके लपेटें में भारत को भी ले लिया है .जिसे आसानी से नज़रंदाज नहीं किया जा सकता है |
                                           गिलानी अपने विचारों से साफ कर दिए हैं कि भारत के प्रति उनके विचार दुराग्रही नहीं है ,इसलिए पाकिस्तानी अवाम को अब यह निर्णय लेना है कि  उसे कश्मीर चाहिए या इससे अधिक की ओर सोचने वाली लोकतान्त्रिक एवं सुदृढ़ अर्थ व्यवस्था वाली देश पसंद है .इन्हीं दो बिन्दुओं पर गिलानी के अस्तित्व टिके है ,यदि इसमें वह सफल हो गए तो इतिहास पुरूष कहलायेंगे और आधी शताब्दी से अधिक चले आ रहे दो देशों के झगडे को   मिटा कर नए सिरे से कूटनीति के इबारत लिख डालेंगे ,जिसकी उम्मीद अमन -चैन पसंद  दोनों देशों के लोग अरसे से कर रहे है | 
                                             भारत -पाक के संदर्भ में एक बात तो साफ हो गई है ,वह यह कि  जिस हिम्मत के साथ गिलानी ने अपनी बात रखी है ,वह तारीफे काबिल है .इसके पहले किसी प्रधान मंत्री या राष्टपति ने अपनी देश की कमजोरी का बखान खुलें आम नहीं किया ,बल्कि यह भी साफ कर दिया कि   कश्मीर समस्या का हल केवल बातचीत से ही संभव है ,हथियारों के बल पर    कदापि नहीं | इसके लिए बिना शर्त वार्ता किए जाने से ही इस समस्या का हल हो पायेगा और पाक, ऐसा ही कदम उठाने पर गंभीरता से विचार कर रहा है | 
                                              संभव है ,पाक प्रधान मंत्री के बयान के बाद गिलानी के विरूद्ध राष्टीय -अंतर्राष्टीय षड्यंत्र हों ,इसमें सिर्फ खतरें ही खतरे हैं ,यह खतरा गिलानी को ज्यादा है ,भारत को कम | गिलानी को दुश्मन  देश बरगला सकते है और अपनी धन -दौलत से चका चौंध भी कर सकते है ,जिसका फ़िलहाल उसे जरूरत भी है |कश्मीर ही वह केंद्र है जिसके सहारे अबतक पाक इस्लामी जगत से आर्थिक ताकत पाता था और अमरीका समेत पशिचमी राष्ट उसे भारत के खिलाफ हर वक्त उकसाये रखने में जोर लगाये रहते थे ,जिसमे डालर की माया काफी रहा करती थी | फिर भी जब ,गिलानी ने सामरिक तौर पर यह मान ही लिया कि ,पाक हिंदुस्तान  से कभी भी पार नहीं पा सकता था ,तब एक बार फिर भारतीय कूटनीति को तेज धार देने में क्या हर्ज़ हो सकती है ?