Sunday 16 February 2014

केजरीवाल : सबक में इतिहास

               (एसके सहाय)
      कहते हैं , इतिहास कभी नहीं मरता ,जब भी स्थितियां इसके अनुरूप होती है ,वह अपने को दोहराता है ,काफी कुछ यही बात अरविन्द केजरीवाल के मुख्य मंत्री के पद से इस्तीफे दिए जाने की है ,वह दिल्ली विधान सभा में सदन की हालात से खिन्न होकर त्याग पत्र दिए जाने की घोषणा कर रहे थे ,ठीक उसी क्षण दिल्ली कांग्रेस के अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली ,पार्टी विधायको का समर्थन मौजूदा सरकार को जारी रखने की बात कर रहे थे,यह विरोधाभास बता रहा था कि, कांग्रेस २४ साल बाद भी नहीं बदली है ,इसकी रणनीतियां ठीक उसी तरह की आज भी है ,जैसे प्रधान मंत्री चंद्रशेखर काल के समय थी , उस वक्त भी कांग्रेस राजीव गाँधी के नेतृत्व में इसी तरह की नाटकबाजी कार रही थी , लोक सभा में तत्कालीन सरकार अपने पहले 'विश्वास मत' पर बहस कर रही थी और कांग्रेस के निम्न सदन के सदस्य ,उससे बाहर आकर चंद्रशेखर सरकार को अपना समर्थन दिए जाने की बात कर रहे थे ,जिससे आजिज होकर चंद्रशेखर ने लोक सभा में ही अपने त्याग पत्र दिए जाने की घोषणा कर डाली थी और राष्टपति को उसे जाकर सौंप दिए थे |यही दुहरा अर्थात "दुरंगी नीति" का अनुसरण एक बार फिर कांग्रेस ने 'आप' अर्थात केजरीवाल सरकार के साथ की है |
      घटना देखिये , 'आप' की दिल्ली सरकार , केन्द्रीय पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोईली , उद्योगपति मुकेश अंबानी समेत अन्य पर " गैस " के दामों पर सुनियोजित भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आपराधिक प्राथमिकी दर्ज किये जाने के आदेश दे चुकी है और अपने घोषित "जन लोकपाल" के लिये विधान सभा में विधेयक रखने वाली है ,जिसका कांग्रेस / भाजपा विधायकों ने इतने जबर्दस्त अशोभनीय तरीके से सदन में खिलाफत की, कि वह पेश ही नहीं हो सका | पिछली सदी के अंतिम दशक के शुरूआत में भी यही हुआ हुआ था , कांग्रेस ने अपने चिर-परिचित अन्दाज में तिकड़मी रणनीतिक योजना के तहत चंद्रशेखर को प्रधान मंत्री की कुर्सी दिला तो दी थी ,मगर इसके मंशा कुछ और थे ,जिसमे यह था कि इसे ज्यादा दिनों तक न टिका कर ,कोई बहाने से गिरा दिया जाये ,जिससे जनता दल और इससे मिलते -जूलते पार्टियों के चेहरे इस कदर लोगों में 'लालची व अवसरवादी'  के रूप में स्थापित कर दिया जाये कि वे मध्यावधि चुनाव में कांग्रेस के आगे धराशायी हो जाएँ |इतफाक से कांग्रेस को एक हल्का मौका भी मिल गया , हरियाणा के दो पुलिसकर्मी राजीव गाँधी के आवास पर टहलते हुए दबोचे गये ,जिसे कांग्रेस नेताओं ने यह कहकर प्रचारित और ब्लैकमेल करना शुरू किया कि दोनों सिपाही पार्टी नेता के "जासूसी" कर रहे थे | इसी को मुद्दा बनाकर कांग्रेस ने चन्द्रशेखर से 'राजनीति के मोल -भाव' करने शुरू किया ,जिसे अपमान समझ ,प्रधान मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिये थे  |
     उस वक्त भी, कांग्रेस ने अल्पमत सरकार को अपना समर्थन दिया था और इस बार भी अल्पमत केजरीवाल सरकार को बिना शर्त समर्थन दिए जाने की बात की थी ,मगर विधान सभा में इतने विद्रूप ढंग से इसके विधायकों ने हरकत किये की ,कि जन लोकपाल विधेयक प्रस्तुत ही नहीं हो सका , जिसे मुद्दे बनाकर केजरीवाल ने पद त्याग की घोषणा ही कर डाली ,हालाँकि इसमें "आप" के रणनीतिक कदम भी नेपथ्य की राजनीति के लिये छिपे थे |
     जाहिर है , भारतीय राजनीति का चेहरा अब भी वही पुरानी "साजितन" है ,फर्क केवल "मुद्दे" को लेकर है और इस तरह की पैतरेबाजी करने में कांग्रेस को महारथ हासिल है | मामला ,दो पुलिसकर्मियों के कथित जासूसी का हो या अब संवैधानिक/ उप राज्यपाल के निर्देशों का , यह ऐसा विषय नहीं था कि उसके लिये विधायिका में हंगामे /जोर जबरदस्ती के हालात पैदा किये जाएँ , जन लोकपाल विधेयक " देश की संप्रभुता को चोट पहुंचाने वाली एवं पृथकतावादी "  विचारों से जुड़ा नहीं था ,बल्कि इसमें ' लोकतान्त्रिक व्यवस्था के मूल  का 'प्रस्फुटन' होना था ,जो वर्तमान में देश को शिद्दत से जरूरत है |
              वैसे ,भी इन दिनों देश में "काम' की राजनीति का करीब -करीब अभाव है ,जो रचनात्मक / सकारात्मक करने की राह में हैं ,उनके रास्ते में कांटे बिछाए जाने के प्रयास हैं , उप राज्यपाल  जंग केन्द्रीय सत्ता के एजेंट भर हैं , वह सीधे किस आधार पर विधायिका को निर्देशित कर सकते हैं कि --यह करो ,वह मत करो , यह संसदीय पद्धति के शासन के लिये गंभीर विषय है| गलत या सही इसका निर्णय संघ सरकार अपने मान्य व्याख्या के अनुरूप लेने की अधिकारिणी है ,इतना ही नहीं ,इसमें राजनीति घुस जाये तब और प्रवेश कर भी गया है ,इसका फैसला स्वतंत्र देश की स्वतंत्र अदालत करेगी कि क्या वैध/ अवैध और उचित /अनुचित है | दलगत राजनीति में डूबे राजनीतिज्ञ को यह हक कदापि नहीं दिया जा सकता कि ,वह डग-डग पर रोडे अटकाए ,जैसा कि कांग्रेस और भाजपा ने किया है |
    दरअसल ,सार्वजनिक जीवन में नियमों /परिनियमो का महत्त्व अब तत्कालीन लाभ /हानि से जुड़ा है | कोई किसी के प्रति निष्ठावान,प्रतिबद्ध , वचनबद्ध ,समर्पित नहीं है ,झाल -झपट की भेंट राजनीति मौजूदा समय में है ,जहाँ -लाज -शर्म के लिये कोई जगह नहीं , रिश्वत लेते पकडे जाएँ ,तो दांत निपोड़ते भ्रष्ट तत्व दिख जायेंगे , इसमें राज कर्मचारी से लेकर मंत्री ,मुख्य मंत्री रह चुके कई नामों की फेहरिस्त है |
        एक बात और ,वह यह कि अरविन्द केजरीवाल के इस्तीफे को कतिपय राज प्रेक्षकों ने फिलवक्त गैर जरूरी समझा है ,जो अधकचरी विश्लेषण है, जब अपने समर्थक विधायक (कांग्रेस)ही प्रतिपक्ष अर्थात भाजपा के साथ मिलकर सदन में अराजक माहौल कायम करने में योगदान दे रहे हों ,तब क्या रह जाता है सरकार का ,कुछ भी विधायी कार्य करने को ,ऐसे में एकमात्र रास्ता "सत्ता" के मार्ग से हट जाना ही श्रेयकर है ,जिसका अनुकरण केजरीवाल ने किया है | यह  सब जानते थे कि दिल्ली सरकार कांग्रेस के रहमो -करीब पर आश्रित थी  , केजरीवाल ने भी विवशता में इस चुनौती को स्वीकार किया था , कांग्रेस पहले ही उप राज्यपाल को अपना बिना शर्त वाली समर्थन का पत्र दे दी थी ,तब "आप" संसदीय प्रणाली के मान्य तकाजे को मंजूर करते हुए तख़्त पर बैठना स्वीकार किया , मगर चौकन्ना के साथ , इसमें अपनी राजनीति के मकसद भी अंतर्निहित हों ,तब कैसा अचरज ? 

Thursday 13 February 2014

गहरे अर्थ हैं मोदी-पावेल मुलाकात के

                (एसके सहाय)
    अमरीकी राजदूत नैंसी पावेल और गुजरात के मुख्य मंत्री नरेन्द्र मोदी के बीच हुई मुलाकात के अपने एवं खास अर्थ हैं | यह विशेष इसलिए है कि देश में चुनावी वर्ष का मौसम है ,दित्तीय यह कि संयुक्त राज्य अमेरिका को प्रतीत है कि अगले प्रधान मंत्री मोदी हो सकते हैं और तृतीय यह कि इस 'भेंट' का विश्व राजनय अर्थात कूटनीतिक हल्कों में प्रभाव पड़ना अवश्यम्भावी है | सो , भारतीय लोक सभा अर्थात निम्न सदन के निर्वाचन में इस "बातचीत" का मनोवैज्ञानिक असर होना भी तय है ,जिसके आसार अभी से दिखने लगे हैं |
        पावेल-मोदी मुलाकात और वह भी अमरीका की पहल/आग्रह पर होने का मतलब काफी साफ है ,जो इंगित कर रहा है कि यूनाइटेड स्टेट अब भारत में बढते दक्षिणपंथी शक्तियों अर्थात भाजपा समूह के साथ वाली राजनीतिक ताकतों को स्वीकार करने के मन:स्थिति में है ,जिसके खास वजह भी हैं ,जो दो देशों के आपसी रिश्ते ही नहीं ,वरन पूरे दुनिया के लिये विशेष अर्थ रखते हैं |इसलिए इस बातचीत को मौजुदा परिप्रेक्ष्य में नजरन्दाज नहीं किया जा सकता |
      इस तथ्य से प्राय: सभी अवगत हैं कि अमरीका ने मोदी को 'वीसा' देने से सार्वजनिक तौर पर इंकार किया था | यह इंकार इसलिए था कि उसे मोदी एक 'धर्मांध' व्यक्ति नजर आये थे | इसके मूल में गोधरा दंगे के बाद प्रतिक्रिया में भडके राज्य व्यापी दंगे थे ,जिसके नियंत्रण कर पाने में असमर्थ मोदी को इसके लिये उसने जिम्मेदार माना था ,जिसे अल्पसंख्यक समाज के दुश्मन के रूप में एक राज्य के मुख्य मंत्री को रेखांकित करके वीसा देने से मनाही कर दी थी |
        ऐसे में ग्यारह साल बाद अमरीका को लग रहा है कि जिसे वह 'लोकतान्त्रिक समाज' के लिये घातक और अछूत समझ रहा था ,वह अब " भारत जैसे वहुविध समाज " के शिखर अर्थात प्रधान मंत्री के पद पर आरूढ़ होने वाला हैं ,तब यह इंकार कहीं उसे कूटनीतिक झटके न दे जाये ,सो समय से पहले " संबंधों' को सुधारने की प्रक्रिया को शुरू कर देना ही उसके लिये बेहतर है | वैसे भी ,भारत संसार का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक व्यवस्था वाले देश के रूप में स्थापित है,जिसकी खूबियों से संसार परिचित भी है |
 सोवियत संघ के बिखरने के बाद अमरीका की छवि विश्व "दारोगा" की स्वत: उभर गई है ,जिसमे उसके खुद के योगदान भी कम नहीं है , ऐसे में विश्व के समक्ष उत्पन्न एक नये तरीके के "आतंकवाद" से निपटने के लिये भारत जैसे राष्ट को साथ में रहना उसके लिये मज़बूरी है ,जो "शक्ति" के साथ ही आर्थिक क्षेत्र में बज्ज़र भी आसानी से उपलब्ध करवाने की सामर्थ्य रखता है ,जिसे किसी भी कीमत पर वह खोना नहीं चाहता है | थोड़े देर के लिये चीन, अमरीका के लिये बाज़ार दे सकता है ,लेकिन यह टिकाऊ होगा ही ,इसकी कोई गारंटी नहीं , ऐसा इसलिए कि यह देश भूमंडलीकरण, उदारवाद , बाजारवाद जैसे प्रक्रिया को बढ़ावा देता तो है ,लेकिन यह अब भी "बंद" व्यापार से पूरी तरह मुक्त नहीं है ,जिसके नेपथ्य में सत्ता का सर्वाधिकार वादी स्वरूप के शासन /सत्ता का खतरा निहित हैं | ऐसे में , एशिया ही नहीं पूरे जगत में भारत ही उसके लिये महत्वपूर्ण एवं भरोसे का सतही हो सकता है ,जिसकी मित्रता बदलते विश्व में वह खोना नहीं चाहता |
       इतना ही नहीं , फिलवक्त अमरीका इस्लामिक कट्टरवादियों के आतंक से जूझता देश है और इसका शिकार भारत लंबे अरसे से है ,इसका ज्ञान उसे है, इसलिए भविष्य के सामुदायिक बहुधुर्वीय दुनिया में वह अलग -थलग नहीं पड़ना चाहता , इस साल के अंत में वह अफगानिस्तान से बाहर होगा ,वैसे अमरीका राष्टपति हामिद करजई से १० हज़ार सैनिक बल रखने की गुजारिश भी की है ,ताकि यहाँ उसके अमरीकी हित सुरक्षित राह सके और इसे अफगानिस्तान मानने से इंकार भी कर रहा , जो उसे विवश कर रही कि भारत का साथ उसे एशिया में मिलना अपरिहार्य है |इन हालातों में बराक हुसैन ओबामा (अमरीकी राष्टपति)का परिवर्तित रूख मोदी -पावेल मुलाकात के जरीये आने वाले दिनों के लिये आश्वस्त करते दीखते हों ,तब इस भेंट वार्ता के उपयोगिता को समझा जा सकता है |
       बहरहाल , इस मुलाकात को अमरीका ही नहीं ,वरन संपूर्ण यूरोप के देश अब आँख फाड़कर अपने -अपने हितों के सन्दर्भ में आकलन अर्थात लेखा -जोखा करने में भीड़ गए हैं | ग्रेट ब्रिटेन तो पहले ही मोदी के संग "पेंगे" बढ़ा चूका है ,फ़्रांस भी कतार में खड़ा है ,इसके अलावे कई देश जल्दी -जल्दी अपने कूटनीतिक रिश्ते को सहज करने में जुट गए हैं ,जो बता रहा कि भाजपा को शेष विश्व भविष्य का "शासक पार्टी' मानने के लिये अभी से तैयारियां शुरू कर दिए हैं |
       राजदूत -मुख्य मंत्री के इस मुलाकात का लब्बो -लुआब क्या रहा ? यह खुलकर सामने नहीं आ पाया है ,यदि आया भी है ,तो वह ढंके-तोपे हैं ,जिसका लोक सभा चुनाव के परिणाम आने तक कोई अर्थ नहीं | इसके मतलब ,बदलते सत्ता के साथ ही आने प्रारंभ होंगे | अभी केवल इतना हुआ है कि , इस बातचीत नुमा भेंट ने देश में " भाजपा " को सत्ता में आने के करीब सा मनोवैज्ञानिक आधार मतदाताओं के मध्य तैयार करने अनजाने में मददगार बन गई हैं ,जिसमे बुधि के जरीये चिढ -फाड करके अपने नजरिया कायम करने वाले बुद्धिजीवियों की संख्या में इजाफा हो गई है और इसमें यह तर्क कि "अमरीका ने मोदी के साथ अपने घोषित रूख पर विचार किया है, तब निश्चित है कि उसे अपने ख़ुफ़िया रिपोर्ट अर्थात चुनावी परिणाम का आकलन हो गया होगा |"

   और अंत में यह कि मोदी .भाजपा के घोषित प्रधान मंत्री के दावेदार हैं ,जिनकी महत्त्व को अधिक समय तक संसार के कोई भी देश उपेक्षा नहीं कर सकता ,विशेकर उस स्थिति में जब यह सत्ता लोकतान्त्रिक तरीके से हस्तांतरित होकर अधिशासी "व्यक्ति अर्थात नेता" के पास खुद चलकर पहुंचे | 

Monday 10 February 2014

तीसरा मोर्चा अर्थात अराजक समूह

                                           (एसके सहाय)
    देश में इन दिनों राजनीतिक हल्कों में तीसरे मोर्चे को लेकर बहस -मुबाहिसों का दौर तेज है और इस सन्दर्भ में जब भाजपा के घोषित प्रधान मंत्री के पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ,कोलकाता में यह कहे कि 'थर्ड फ्रंट का मतलब थर्ड ग्रेड है' तो सरसरी तौर पर प्रतीत हुआ कि यह 'शब्दों की तुकबंदी' है , सो, इसे कतिपय क्षेत्रों में हल्के ढंग से लिया गया ,मगर जब इसके "गहराई" में ताक-झांक की गई ,तब काफी चौकाने वाले बातों और स्थितियों के 'भान' हुए हैं | इसलिए इसपर खुले दिल -दिमाग से विचार किया ही जाना चाहिए कि १६ वीं लोक सभा के चुनाव परिणाम आने के बाद कैसी "संघीय" सत्ता की स्थापना जरूरी है ,ताकि एक स्थायित्व वाली सरकार नागरिकों को मिल सके |
       सर्व प्रथम यह जानना आवश्यक है कि तीसरे मोर्चे अर्थात तीसरा मोर्चा की अवधारणा क्या है ? यह मौजूदा राजनीतिक /सामाजिक परिस्थिति में कैसे उपयोगी है ? क्या यह स्थायी सरकार के हित में है ? इसके पूर्व के प्रयोग देश में कैसे रहे हैं ? और इससे आगे यह कि कहीं यह अराजकता उत्पन्न करने वाली 'सत्ता' तो नहीं है ?
      इन प्रश्नों के तह में जाने के पहले ,जरा उस परिप्रेक्ष्य को समझने -बुझने की जरूरत है ,जब यह संकल्पना सबसे पहले अस्तित्व में आई थी ,विशेषकर देश के राजनीतिक सन्दर्भों में , यह इसलिए कि तीसरे मोर्चे के गठन की कवायद उन राजनीतिक हालातों में अबतक हुई है ,जब लोक सभा में किसी दल या दलिय समूह को स्पष्ट बहुमत नहीं थे , तब देश की दो बड़ी पार्टियां संख्या बल में अधिक होने के बावजूद सत्ता के हासिये पर रहने को विवश थी | ऐसे में तीसरे मोर्चे में शामिल पार्टियों के चांदी ही चांदी थी ,भले ही यह कालावधि अल्प समय के लिये ही हो |
      अतएव , एक बार फिर तीसरे मोर्चे की गूंज चुनाव पूर्व सुनाई पड़ रही है ,तो आश्चर्य नहीं | फिर भी ,इसमें दिक्कत इस बात पर हैं कि जिस मोर्चे की बात कुछेक दिन पहले ग्यारह पार्टियों के प्रमुख नेताओं ने की है ,वह पहली नजर में ही अंतर्विरोध से भरा है ,जिसमे आपसी समन्वय एवं सामंजस्य का घोर अभाव है | यह सैन्धान्तिक तौर पर टिकाऊ तो परिलक्षित नहीं लगता ,साथ में विचारधारात्मक स्तर पर भी इनके बीच टकराव के बिन्दू अधिक हैं ,जो इसकी खास कमजोरी को इंगित कर रहा |
     मसलन , तीसरे मोर्चे में भाजपा और कांग्रेस अर्थात राजग एवं संप्रग से अलग राह तलाशने वाली पार्टियों के लिये जगह सैन्धान्तिक तौर पर होनी चाहिए ,तो उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी , बहुजन समाज पार्टी तथा अन्य , बिहार में राष्टीय जनता दल , लोकजनशक्ति पार्टी , जनता दल (यूनाइटेड) व अन्य , पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के संग वाम दल , तमिलनाडु में एआईडीएमके , डीएमके और अन्य ,आंध्र प्रदेश में जगनरेद्दी कांग्रेस , तेलगु देशम व अन्य समेत देश के तमाम वैसे छोटे -बड़े दलों के इसके छाते के नीचे आने चाहिए , मगर व्यवहार में क्या यह संभव है ?
     जाहिर है कि सिन्धांत ,विचारधारा और नेतृत्व के वैक्तित्व के स्तर पर इनके बीच एका नहीं है और कभी इनके बीच पूर्व में गठित मोर्चे में भी नहीं रही | ऐसे में यह निष्कर्ष निकाला जाये कि तीसरा मोर्चा अराजक शक्तियों का प्रतिनिधित्व करता है ,जो विविधता से पूर्ण एकबद्ध देश के लिये अराजक हो सकती है ,तो गलत नहीं होगा | इसके तीन मौकों को संदर्भित किया जा सकता है |
   फिलवक्त ,जिस मोर्चे की बात है ,वह सबसे पहले गैर कांग्रेस सरकार के सन्दर्भ में ही सबसे पहले आई थी ,तब यह राष्टीय मोर्चा के शक्ल में थी, बात १९८९ में जनता दल के नेतृत्व वाली सरकार की है , उस काल में वाम एवं भाजपा बाहर से विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधान मंत्रित्व को सहारा दिए थे | इस सरकार का बाद में कैसे पतन हुआ , यह किसी से छिपा नहीं है | फिर मोर्चा १९९६ और १९९७ में संयुक्त मोर्चा के रूप में अवतरित हुई ,जिसमे एचडी देवगोडा और इन्द्र कुमार गुजराल क्रमश: प्रधान मंत्री के तौर पर देश के सामने आये ,तब यह कांग्रेस के बल पर सत्ता में एक -एक साल के लिये टिकी रही |
      इन स्थितियों में मौजूदा तीसरे मोर्चे के गठन की पहल होती है ,तब इसके नतीजे कितने अराजक होंगे ,शायद कल्पना ही की जा सकती है | इस मोर्चे का एक मतलब साफ है कि भाजपा और कांग्रेस को "केन्द्रीय सत्ता" से दूर रखने की प्रयास के रूप में यह कवायद है | देश को फ़िलहाल ठोस बहुमत से गठित एवं स्थायित्व से लबरेज सरकार की जरूरत है ,इसे मौजूदा दल के नेताओं को बोध नहीं है , यही नहीं ,इनमे विरोधाभास चुनाव पूर्व ही प्रदर्शित है , मायावती /मुलायम - लालू /नीतीश - नायडू / रेड्डी -करूणानिधि/जयललिता तथा अन्य प्रदेशों में कई ऐसे विपरीत समीकरण मौजूद हैं कि इनके स्वार्थ एक -दूसरे से बराबर टकराते रहे हैं , फिर कैसे मजबूत नेतृत्व देश को तीसरा मोर्चा देगा ? यह यक्ष प्रश्न देश के प्रबुद्ध जन इसकी बात करने वाले नेताओं से पूछ रहा है |
    दरअसल ,बात केवल मोदी के सोच की नहीं है | उनके तुकबंदी में भविष्य के सार छिपे हैं | समाज वैज्ञानिकों ने यह शुरू से मान्यता स्थापित कर रखा है कि " पुरूष तीन तरह के विचार एवं व्यक्तित्व वाले होते हैं , जिनमे प्रथम पुरूष वह है ,जो खुद विचरता है और तदनुरूप निर्णय लेकर व्यव्याहर /आचरण करता है | दितीय पुरूष वह है , जो प्रथम पुरूष के बताये मार्ग /नीति सिन्न्धंत / विचार /निर्णय को अपने विवेक से तौलता है ,तब उचित /अनुचित व लाभ /हानि की ओर कदम बढ़ाता  है , लेकिन तृतीय पुरूष बगैर विचारे अर्थात समझे -बुझे बगैर सीधे घोषित /प्रतिपादित बातों को क्रियान्वित कर डालता है | काफी कुछ यही बात मुलायम सिंह यादव , शरद यादव ,नीतीश कुमार सरीखे नेताओं का है ,जिसे "ताल" देने में वाम दलों की अहम भूमिका रेखांकित है |

    कुल मिलाकर यह कि तीसरे मोर्चे में जब संपूर्णता का अभाव है और यह चुनावी दंगल में भी विरोधाभासी स्वरूप में शिरकत करेगी ,तब इसके महत्त्व को चुनावी नतीजे के बाद कौन स्वीकार करने को तैयार होगा ? भाजपा और कांग्रेस को परस्पर विरोधी मानकर हो रही १६ वीं लोक सभा के चुनाव वैसे भी अब दिलचस्प मोड पर हैं ,जिसमे नई पीढ़ी अपने तरीके से मैदान में पैतरेबाजी करने को उतावला है | पूर्व में जिस कथित राष्टीय मोर्चा और संयुक्त मोर्चा का गठन हुआ हैं ,वह परिणाम आने के पश्चात ही "आकार" ले सका है ,ऐसे में इस मोर्चे को "हताशा में उठाये गए कदम" के तौर पर राज प्रेक्षकों ने समझा है ,जो आने वाले दिनों में अराजक राजनीति को जन्म देने में सहयोगी होगी |

Sunday 9 February 2014

राहुल का यह नाटकीय अंदाज

                                    (एसके सहाय)
     कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गाँधी तीन दिन पूर्व झारखण्ड के एक दिवसीय दौरे पर जिस अंदाज़ से अपने निर्धारित कार्यक्रमों में भाग लेकर वापस लौट गए, उससे स्पष्ट है कि वह अभी " चुनावी राजनीति के मैदान " में अपरिपक्व हैं| इनका अवतरण जिस अंदाज में राज्य के तीनों जिलों में हुआ , मानों वह कोई "फिल्म सितारा" हों , जिस तरह १६ वीं लोक सभा के घोषणा पत्र तैयार करने के निमित्त ' आदिवासी महिलाओं एवं अल्पसंख्यक समाज ' से रूबरू हुए , यह बता गया कि अब भी वह पार्टी के चतुर खिलाडियों के फैलाये जाल में फंसे गैर राजनीतिक प्राणी हैं और साथ में चुनिंदे पत्रकारों से हुई विमर्श इनके खोखले रणनीति की ओर इशारा किया है |
      इस दौरे में राहुल के मुख्य फोकस में 'रोड शो' था ,इतफाक से उस दिन माओवादियों का राज्य व्यापी बंद आहूत थी ,जिसमे कार्यक्रम में परिवर्तन करके सुरक्षित तरीके से कांग्रेस ने अपने प्रिय नेता के चेहरे को सड़क पर प्रदर्शित की | यह चेहरा प्रदर्शन हजारीबाग ,कुजू और रांची की सडकों पर कम दूरी में हुआ ,अन्यथा तय कार्यक्रम में १०० किलोमीटर की दूरी निर्धारित थी | अलबत्ता , यह ऐसा रोड शो की झलक थी ,जिससे लोगों को आभास मिले कि वह किसी अन्य ग्रह के जीव हैं ,जिसे आम नागरिक "ग्लैमर" को देखकर अभिभूत ठीक उसी तरह हो जाये ,जिस तरह अभिनय के क्षेत्र में पारंगत अभिनेता को देखकर अक्सर जन साधारण प्राय: हो जाया करते हैं |   
        इतना ही नहीं , राजनीति के दूसरे चरण को देखें - राहुल गाँधी जिस आदिवासी महिलाओं -अल्पसंख्यक समाज से बातचीत किये ,उसमे कौन शिरकत कर रहे थे ? यह जानने का प्रयास भी इन्होने नहीं किया , थोड़ी कोशिश की होती ,तब जाहिर होता कि उसमे मौजूद लोग 'कांग्रेस' के ही नेता -कार्यकर्ता'  शामिल हैं , जो उनको सर्व जन साधारण से किनारे होने का अनुभूत कराती और पार्टी के ज्ञानी एवं तिकड़मी नेताओं के रूख से परिचय कराती |
      इसी तरह ,जब वह रांची के वरिष्ठ एवं चयनित पत्रकारों से बंद कमरे में मुखातिब थे ,तब इनका आग्रह था कि "इस बातचीत" को ऑफ द रिकार्ड ही समझा जाये | साफ है कि इसके मतलब क्या थे ? यह कोई बहुत अबूझ पहेली अब भारतीय राजनीति में नहीं रही ,जिसके लिये कांग्रेस के इस नायक को चिरौरी करना पड़े |
   अब जरा ,राहुल के इस दौरे के प्रयोजन और प्रभाव को देखें ,तो प्रकट होगा कि इस आगमन से कोई नई उर्जा कांग्रेस को मिली हो ,ऐसा प्रतीत नहीं होता | सुरक्षा के ताम-झाम से पार्टी के इस नेता को मीडिया में प्रचार मिला ,मगर इसके निहितार्थों को कोई भी पकड़ नहीं पाया | राहुल अपने दौरे में १६ वीं आम चुनाव के लिये स्थानीय स्तर पर 'जन समस्याओं -संकटो' को समझने के कथित बातों को लेकर झारखण्ड पधारे थे और इनके पास समय इतने काफी कम थे कि चंद घंटों में राज्य की प्रमुख समस्याओं को निकट से जान जाया जाये ,जो कभी सहज नहीं हो सकती |
     वैसे, यह सभी अवगत हैं कि इस दफे के लोक सभा के चुनाव में कांग्रेस के मुख्य स्टार प्रचारक वहीं हैं और वही चुनावी रणनीति तय करेंगे , फिर इस जैसे दौरे का एक अर्थ यह भी निकला है कि पार्टी के इस राष्टीय उपाध्यक्ष को किसी पर 'भरोसा' नहीं ,तभी तो " घोषणा पत्र " के लिये इनके देश व्यापी दौरे हो रहे हैं | देश की परिवर्तित राजनीति में यह पहली बार हो रहा है कि कोई राष्टीय पार्टी का स्वयमेव नेता अपने दम पर आम भारतीयों के नब्ज टटोलने को निकला है | काफी हद तक ,यह मोहन दास करमचंद गाँधी की तरह का अधुनातन दौरा है ,जिसमे महात्मा गाँधी ने सक्रिय राजनीति में भाग लेने के पहले अपने तरीके से देश की सुदूरवर्ती इलाकों का दौरा किये थे और यह जानने के प्रयास किये कि मौजूदा सामाजिक -राजनीतिक मांग और जरूरत क्या है ?
   मतलब यह नहीं कि राहुल के इस झारखण्ड दौरे अर्थात देश व्यापी गमनागमन को राजनीति के आदर्श सूत्र की ग्रहण किया जाये | यह इसलिए कि इस दौरे का मतलब 'सत्ता' पर पुन: काबिज होने के प्रयास से जुड़ा है ,जैसा कि इस नेता ने कई बार कहा है | कांग्रेस के चुनावी घोषणा पत्र तैयार करने के लिये पार्टी में एक से एक धुरंधर प्रकांड विद्वान है ,ऐसे में कांग्रेस अर्थात राहुल का यह स्टंट अपने को अन्यों से श्रेष्ठ बताने को लेकर है ,जो अन्य कांग्रेसियों के लिये नई सबक है कि ' वे ' भावी राजनीति के लिये तैयार /सतर्क हो जाएँ अन्यथा कूड़ेदान में जाने के लिये विचार कर लें |

     यह सर्व विदित है कि कांग्रेस अब व्यवहार में एक कारपोरेट कंपनी की तरह आचरण करने वाली "कार्य शैली" के राजनीति करने की हिमायती पार्टी है ,इसके पसंद -नापसंद  आलाकमान अर्थात सोनिया गाँधी /राहुल गाँधी के इच्छा /अनिच्छा पर निर्भर है , सत्ता के शिखर पर जो चेहरे दिख रहे हैं ,वो केवल मोहरे भर हैं ,जिनकी अपनी कोई अभिलाषा / मनोकामना नहीं , यह दिक्दर्शन आज से नहीं ,वरन राजीव गाँधी के काल से है ,फिर भी यह अन्य से ज्यादा लोकतान्त्रिक दल होने का ढोंग करती प्रतीत है , तब यह नाटक कर रही होती है ,जैसा कि राहुल ने झारखण्ड में किया है | 

Tuesday 4 February 2014

मोर्चेबंदी में झामुमो

               (एसके सहाय)
    झारखण्ड से दो परदेशियों के राज्य सभा के चुनाव में निर्विरोध चुने जाने के बाद सरकार का नेतृत्व कर रही पार्टी झामुमो इन दिनों मोर्चेबंदी का शिकार हो गई है | यह मोर्चा दल के ही तीन विशेष विधायकों ने सामाजिक रणनीति के आधार पर तैयार किया है ,जिसके लिये झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन जिम्मेदार हैं |इसमें किसी तरह के संशय नहीं है |
     अतएव , पार्टी के मौजूदा संकट में सरकार के स्थायित्व पर खतरा स्वभावगत है ,जो आने वाले लोक सभा के साथ विधान सभा के चुनाव में असर करने की दिशा में अग्रसर है |यह इसलिए की झामुमो की राजनीतिक शक्ति में शुरू से ही दो जातियों का योगदान इसके जन्म काल से है ,इसमें एक आदिवासी और दूसरा कुरमी समाज का , इनके बूते ही यह पार्टी अबतक एकीकृत बिहार के वक्त से प्रभावी रही है ,जिसकी अनदेखी का असर चुनावी राजनीति में अब दल देखने को अभिशप्त है |
      फ़िलहाल ,जो संकट झामुमो में पसरा है ,वह उच्च सदन अर्थात अर्थात राज्य सभा के लिये निर्वाचित प्रेमचंद गुप्ता से जुड़ा है ,जिन्होंने अचानक राजद के प्रत्याशी बनके सभी को अपनी ताकत का अहसास कराकर चल दिए और पार्टी के घोषित उम्मीदवार साबित महतो हाथ मलते रह गई जिसमे तुर्रा यह कि इनके लिये नामाकन पत्र तक खरीद लिये गए थे और यह गृहणी अपने दिवंगत पति सुधीर महतो के श्राद्ध कर्म किये बगैर जमशेदपुर से रांची डेरा डाल दी थी कि उसे सांसद बनने के अवसर मिलने वाले हैं ,लेकिन ऐसा नहीं हुआ ,जिससे कुरमी जाति से ताल्लुकात रखने वाले पार्टी के तीन विधायको ने क्रोधित होकर विधान सभा से ही इस्तीफा दिए जाने की सार्वजनिक घोषणा कर दी है ,जिससे झामुमो और सरकार सकते में है |
     इस पटकथा के नेपथ्य में झारखण्ड की राजनीति में दबदबा  को स्थापित करने की प्रक्रिया है ,जिसमे सत्ता पक्ष के साथ ही प्रतिपक्ष के अपने -अपने केन्द्रीय नेतृत्व के सहारे अपनी -अपनी दुकानदारी चमकाने की कोशिश जैसी है | कहानी देखें - 'वो (विधायक) ,उन्हें जानते नहीं ,मगर राज्य सभा के चुनाव में विधायकों के वोटों पर कब्ज़ा उनके ही रहा , नतीजतन "सत्ता" बचाने के समीकरण ऐसे उत्पन्न हुए कि उनके चयन निर्विरोध हो गया |' मतलब ,प्रेमचंद गुप्ता और परिमल नथवानी से है , जो मूल रूप से क्रमश: हरियाणा और गुजरात के वासी हैं लेकिन अब उच्च सदन में वे सूबे का प्रतिनिधित्व करेंगे |वैसे , नथवानी इसके पूर्व भी इसी राज्य से उक्त सदन की शोभा बढ़ा चुके हैं ,तब झामुमो और भाजपा में अनचाहे मतैक्य थे |
    इतफाक से इस दफे स्थितियां विचित्र एवं भिन्न थी , झामुमो ,राजद और कांग्रेस में राज्य सभा में उम्मीदवार संयुक्त रूप से खड़ा करने का विग्रह चरम पर था ,कांग्रेस ने फुरकान अंसारी ,तो झामुमो ने दिवंगत सुधीर महतो की पत्नी साबित महतो को अपना प्रत्याशी खड़ा करने का निश्चय कर लिया था अर्थात सत्तासीन हल्कों में एका का अभाव के बीच राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव की घुड़की ने सबको सरकार के अस्तित्व की चिंता में डुबो दिया ,जिसमे झामुमो ने बिना लाग -लपेट के घुटने टेक दिए ,जो वर्तमान में झामुमो में समस्या पैदा की है |
      विधायक जगन्नाथ महतो ,विद्युत चरण महतो और मथुरा महतो ने संयुक्त तौर पर इस परिघटना को कुरमी जाति के लिये अपमान समझा है | इनके अपमान के पीछे ,जो तर्क है ,वह यह कि सुधीर महतो के बेवा सबिता महतो को पार्टी ने बैठक करके सर्सम्मत से अपना उम्मीदवार घोषित किया था ,फिर झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन ने बिना राय -मशविरा के कैसे राजद के दबाव में आना स्वीकार कर लिया ? 
       साफ है कि झामुमो में अधिनायकवादी प्रवृति के विरूद्ध पहली बार आवाज नेतृत्व के प्रति उच्चे आवाज में गूंजी है ,जिसका असर अभी नहीं ,लेकिन आने वाले समय में काफी नुकसानदेह साबित होने जा रहा है ,जिसका शायद गुरूजी के नाम से मशहूर शिबू सोरेन को अंदाज अब होने को है | सबिता  महतो ,उस परिवार से सबंधित है ,जिसने पृथक राज्य के संघर्ष में अपना बलिदान देने में कभी कोई हिचकिचाट नहीं प्रकट की है  अर्थात स्वर्गवासी निर्मल महतो के भाई सुधीर महतो थे जिनकी पत्नी सबिता महतो हैं | निर्मल महतों को कुरमी समाज में बलिदानी शख्स के तौर पर नमन किया जाता रहा ,जिनकी हत्या १९८५ में जमशेदपुर के मजदुर आंदोलन में सक्रिय रहने की वजह से हुई थी , उस वक्त निर्मल महतो ही झामुमो के केन्द्रीय अध्यक्ष थे ,तब गुरूजी कहे जाने वाले शिबू सोरेन की हैसियत पार्टी में दूसरे दर्जे की हुआ करती थी |
       इस प्रतिशा को ठेस पहुँचने पर आज कुरमी समाज उद्वेलित दीखता हो ,तो इसे मानव सुलभ सामाजिक ताने -बाने अस्वाभाविक भी नहीं कहा जा सकता |इसी शक्ति के बदौलत झामुमो को सिंहभूम के साथ उत्तरी झारखण्ड में दृढ़ता प्राप्त है ,जिसकी उपेक्षा से यह समाज मर्माहत है |इस अपमान जनित चोट से मंत्री जय प्रकाश पटेल फिलवक्त चुप्पी साधे हुए है | इससे पार्टी के राजनीतिक शक्ति में क्षरण होने की संभावना बलवती है | यह संभावना इसलिए भी स्वाभाविक प्रतीत है कि स्थानीय पार्टी के रूप में आजसू का भी विस्तार राज्य में शनै -शनै पिछले कुछ सालों से हुआ है और इसका नेतृत्व भी कुरमी समाज से जुड़ा शख्स सुदेश महतो के हाथों में है ,जो झामुमो के भीतरी विग्रहों पर नजर रखे हुए है |यह पार्टी भी काफी हद तक जातीय गोलबंदी की जुगत में है और यह मौजूदा समय में कामयाब भी दिखती है | उदाहरण सामने है ,हजारीबाग में लोकनाथ महतो - देवीदयाल कुशवाहा ,चार /पांच बार भाजपा के विधायक रह चुके हैं ,मगर इनमे जातीय चेतना हाल में इस तरह जगी कि दोनों अब इससे किनारा कर चुके हैं और आजसू के दामन थाम चुके है | वैसे भी ,
धनबाद ,गिरिडीह ,बोकारो, हजारीबाग , कोडरमा , जमशेदपुर और रांची के इलाकों में कुरमी समाज का अपना प्रभाव क्षेत्र है ,जहाँ इसकी अनदेखी करने का साहस तभी संभव है ,जब इनमे विग्रह के सूत्र तारतम्य में नहीं हों |
   संक्षिप्त में यह कि झामुमो को आकार देने में स्वर्गीय बिनोद बिहारी महतो(पार्टी संस्थापकों में अग्रणी) की शुरूआती भूमिका नकारने की दिशा में शिबू सोरेन आगे बढ़ चुके हैं ,सत्तालिप्सा ने इन्हें बेटे हेमंत सोरेन को ताज पहना दिया ,मगर यह ताज कितने दिनों तक रहेगा ,यह संदिग्ध है |शिबू -हेमंत अब सबिता को खुश करने के लिये निगमों /बोर्डों के अध्यक्ष और समय आने पर राज्य सभा में भेजे जाने के 'लालीपाप' दिए जाने के बात की है ,यह वैसे भी गिरते राजनीतिक स्तर की ओर इशारा की है , भ्रष्ट राजनीति के संकेत हैं |

    बहरहाल ,झारखण्ड अस्मिता ,संस्कृति और स्थानीय पहचान को नजरंदाज करके अब प्राय: सभी दल अपनी विश्वसनीयता पर कुठाराघात किये हैं ,इसमें प्रमुख झामुमो तो है ही ,साथ में झाविमो (प्रजातान्त्रिक) भाजपा ,राजद व आजसू भी शामिल हैं , इनमे झाविमो ने बिकाऊ स्थिति की जमीन इस एलान के साथ तैयार कर दी थी कि वह चुनाव में शिरकत ही नहीं करेगा | इससे बाहरी खिलाडियों को खेलने के पूरे अवसर मिल गए ,जिसमे झामुमो को तत्काल स्वर्गवासी हुए नेता सुधीर महतो का "माइलेज " नहीं मिल सका | इसमें भी संदेह है कि झामुमो का इसमें अपना वैक्तिक स्वार्थ के तार न जुड़े हों | पूर्व के इतिहास से ऐसे कयास  पूरे जोर -शोर से झारखण्ड में चर्चा का विषय बन गई है |
   कुल मिलाकर ,झारखण्ड बाहरी राजनीतिज्ञों के प्रयोगशाला के रूप में सामने है ,राजद के मूल आधार वाले बिहार में एक भी सीट उसे नसीब नहीं है ,मगर पांच विधायकों के बल पर अपने पसंदीदा उम्मीदवार को जीता ले जाना उसकी खास 'धौंस -पट्टी' के रणनीतिक पहलू है ,जिसमे कांग्रेस भी नतमस्तक है ,तो उसकी वजह आसन्न लोक सभा के नज़ारे हैं | पहले भी सूबे से बाहरी तत्व राज्य सभा में जा चुके हैं और इस बार भी उच्च सदन में गए हैं ,तो आश्चर्य कैसा ? इस खेल में कोई एक भी अछूता हो ,तब तो ---