Friday 22 April 2011

गुटखा : सरकार डाल -डाल तो कारोबारी पात - पात

                                                    एसके  सहाय 
                              आपने  यह  कहावत  सुनी  होगी - तू  डाल  -डाल  तो  मै  पात  -पात  ,ठीक  इसी  तर्ज़ पर  इन  दिनों  गुटखा  के  कारोबार  में  दिख  रहा  है . यह  सभी  जानते  है  की  सर्वोच्च  न्यायालय  ने  पर्यावरण   को  देख  कर  पान  -मसाले  के  तौर  पर  बेचे  जाने  वाली  गुटखे  के  पैकेजिंग   में  प्लास्टिक   का  उपयोग  करने  पर  रोक  लगा  दी  है  और  इसके  लिए  सरकार  को  निर्देशित  कर  रखा  है   . न्यायालय  के  आदेश  के  तहत  सरकार  ने  भी  बाकायदा  इसके  लिए  अधिसूचना  जारी  भी  किए  और  स्वच्छ  प्रयावरण  के  हित  में  प्रतिबंधित  कर  रखा  है  ,इसके  बावजूद  इस   धंधे  से  जुड़े  व्यवसायी  कैसे  सरकार  ,प्रशासन  और   न्यायालय  को  धोखा  दे  रहे हैं    ,यह  किसी   से       छिपा     नहीं   है
गुटका  वैसे  भी  स्वास्थ्य  के  लिए  नुकसान  देह  हैं  ,चिकित्सा  विज्ञानं   भी  इसे मानती   है  ,साथ  में  इसके  पैकेजिंग  में  प्रयुक्त  किए  जाने  वाले  प्लास्टिक  भी  प्रयावरण  को  क्षति  पहुँचाने  में  योगदान   देते  है  ,इसे  भी  लोग  और  पूरी  दुनिया  मानती -जानती  है  ,फिर  भी  इस  बारे   में  लोक  चेतना  गंभीर  नहीं   है  ,जिसके   वजह   से  सरकार  और  न्यायालय  को  धता   बताते    हुए   इसके  कारोबार  में  पिल   पड़े   कारोबारी  अपने   धंधे  को  बद स्तूर   जारी  रखे हैं   ,जो   इनकी   हिम्मत   को  इस  रूप   में  प्रदर्शित   की  है  ,जैसे  इनको   कानून का भय नहीं हो अर्थात कानून इनके लिए खिलौना जैसे हैं |  .
अब    जरा   गुटखे  की  तस्वीर   को  देखें  , इसे  निरीक्षण   करें   तो  पाएंगे   कि   इसके  पैकेजिंग  के  उपरी   कवर   पर  कागज   के  लबादा   ओढ़ाये   हुए   है और    अन्दर   प्लास्टिक   का  पैकेजिंग  ठीक  उसी   तरह   का  है  ,जिस   तरह   प्रतिबंधित  किए  जाने  के  पूर्व   यह  था |    .
मतलब कि     " आँखों में     धुल  झोकने   के   लिए  धंधे बाजों   ने  गुटखे  की  उपरी   आवरण   को  कागज   से  ढँक  दिया  लेकिन   इसमें   नमी   पैदा   नहीं   हो   जाय  ,इसके  लिए  प्लास्टिक  के  बनाये   को   रखा , ताकि इसकी  मियाद  पहले  कि  तरह  बनी  रहे  ." फ़िलहाल  जो  गुटके  बिक  रहे  है  ,वह  केवल  दिखावे  भर  के  लिए   कागज  के  कवर  से  ढंके  हुए  हैं   ,अन्दर  तो  प्लास्टिक  ही  है   ,फिर  इसके  प्रतिबंधित  करने  के  क्या  मतलब  रह  गए  हैं  ?
भारत  में  कानून  की  आड़  में  लोगों  को  मुर्ख  बनाने   का  धंधा  काफी  पुराना  है  ,कभी  इसके  जद   में  सरकार  आती  है  ,तो  कभी   आम  लोग  आते  है  और  इस  वक्त  कारोबारी  हैं  ,जिन्होंने  बिना  डर  के  बेहिचक  गुटखे  की  बिक्री  कर  रहे  हैं . इस  कारोबार  में  सरकारी  कर्मचारी  -अधिकारी  को  हाथ  हो  तो  आश्चर्य  नहीं  करना    चाहिए  .आखिर  उपरी  आमदनी  का  जो  मामला  है  , समाज  के  प्रगतिशील  और  रचनात्मक  कामो  के  "दंभ " भरने  वाले    गैर  सरकारी  संगठन  भी  इस  दिशा  में  खामोश  हैं  ,जबकि  एक  स्वैच्छिक  संस्था  की  पहल  पर  ही  यह  मामला  जनहित  याचिका  के  तौर  पर  उच्चतम  न्यायालय  के  सामने  आया  था  ,जिसे  जरूरी  समझ  न्यायालय  ने  इसे  रोकने  की  निर्देश  सरकार  को  दिए  थे , जिसका  काट  इस  रूप  में  सामने  कारोबारी  करेंगे  ,इसकी  कल्पना  नहीं  थी  .तभी  तो  कहा  गया  है  कि तू  डाल  डाल  तो  हम  पात - पात
प्रश्न  है - जीवन की तुलना में पैसे का क्या महत्व  जिसमे सिर्फ रोजगार   .के तर्क हों ?

Sunday 17 April 2011

prime minister manmohan the importance of voting

        मनमोहन  और मताधिकार के मतलब
                                                               एसके सहाय
              देश के प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने असम विधान सभा के चुनाव में अपना "मत " का इस्तेमाल नहीं करके यह साफ जतला दिया है कि वह "राजनीतिक प्राणी" नहीं हैं '
अतएव,यह निष्कर्ष निकालना कि आम जीवन को कोई विशेष उम्मीद इनसे नहीं है ,गलत नहीं होगा ,काफी हद तक सच के निकट है |
किसी भी देश का शासक उस राष्ट के मुख्य प्रेरणादायक शक्ति होता है ,इसके कार्य व्यवहार को लोग आत्म -साथ करते हैं और उसके अनुकूल आचरण करने के   कोशिश की  जाती है लेकिन आजादी के करोब ६० साल बाद यह स्थिति आएगी कि देश के शिखर पर बैठा राजनीतिक अपने वोट इसलिए नहीं देगा की उसे इन सब में कोइ रूचि नहीं है ,तब बात काफी गंभीर है |ऐसे में विचारणीय प्रश्न है कि "आखिर हमारा भविष्य क्या है " क्या यह मान लिया जाय  कि देश की बागडोर नादान किस्म के लोगों के हाथो में आ गया है| 
  भारत अब भी तीसरे श्रेणी के देशों में शुमार है ,विकसित  देश   होने की कगार पर हम है ,लेकिन इसका यह अर्थ नहीं की देश पूरी तौर पर " लोकतान्त्रिक  ताकतों     

  के हवाले है ,इसलिए यदि प्रधान मंत्री वोट नहीं करता तो इसके कोई खास नकारात्मक परिणाम नहीं होगें .        
 लोकतंत्र में मतदान एक ऐसे प्रक्रिया है ,जिसका परिपालन प्राय: हर देश के नागरिक करते है ,खासकर जहाँ "लोकतान्त्रिक व्यवस्था  " जड़ें जमा चुकी हैं ,वहां सत्तर से अस्सी फीसदी तक मत्ताधिकार  का उपयोग होता है, लेकिन भारत जैसे देश में तो इसके लिए नागरिको के बीच खास जागरूकता अभियान हर बार चलाया  जाता है ,ताकि लोग अपने प्रतिनिधि को मन मुताबिक चुन लें |  यूरोप  और अमरीका के साथ कुछेक अन्य देश भी है ,जहाँ मतदाता को वोट देने के लिए इसलिए  सरकार या अन्य लोकतान्त्रिक शक्तियां प्रेरित नहीं करती कि   "उसे लोकतंत्र को मजबूत करना है |" मगर भारत में प्रत्याशियों को तो वोट चाहिए ही ,साथ में मत्ताधिकार के लाभ भी बताये जाते है ,ताकि तानाशाही प्रवृति से देश को बचाया जा सके |
 वैसे सभी जानते हैं कि मनमोहन सिंह एक अर्थ शास्त्री हैं ,जिन्होंने जीवन यापन के लिए नौकरी करना ही अपना और अपने परिवार के हित में उचित समझा ,सो बैंकों कि सेवा करते और अपने ईमानदारी की बदौलत  रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के गवर्नर एवं विश्व बैंक की सेवा में रहते  इतना "नाम" हुआ  कि लगने  लगा , अब देश  की अर्थ व्यवस्था को मजबूती मिलेगी ,क्यों क्योकि  इसकी बागडोर एक प्रख्यात अर्थ विज्ञानी के हाथों में है लेकिन व्यवहार में ऐसा नहीं है .६० प्रतिशत  की आबादी इनके ही वित्त मंत्री और प्रधान मंर्त्री रहते कैसी अवस्था में यह छुपा नहीं है ,पूंजी का प्रवाह खास "धन्ना   -सेठों "  की ओर है ,इससे आज पुरे देश में रंज की स्थिति है
इससे क्षुब्ध होकर भूमिगत संगठनो की बाढ़  आई हुई है .केन्द्रीय बलों का बड़ा हिस्सा पूर्वोत्तर और जम्मू -कश्मीर में प्रतिनियुक्त तो है ही ,साथ ही बिहार ,झारखण्ड,   छतीशगढ ,ओड़िसा आन्ध्र प्रदेश ,महाराष्ट .मध्य प्रदेश और वब उत्तर प्रदेश के कुछ भागों  में उग्रवादियों से मोर्चा संभालें हुए है ,जो किसी भी सूरत में मौजूदा लोकतंत्र को मानने को तैयार नहीं है |ऐसे में प्रधान मंत्री द्वारा मत्ताधिकार का प्रयोग नहीं होने से यदि यह प्रचारित हो जाय कि "असम की हिंसक हालातों के मद्देनजर ही वह वोट देने नहीं गए ,तब इसका क्या अर्थ होगा ,क्या मनमोहन जानते हैं ?
       देश में अब भी "मतदान " को एक पवित्र लोकतान्त्रिक प्रक्रिया माना -समझा जाता है और इससे इत्तर जन प्रतिनिधि नजर  चुराते    दिखे , तब जाहिर   है  कि  उनकी कोई अभिरुचि  देश के प्रति  नहीं है ,काफी कुछ ऐसा ही मनमोहन   सिंह के व्यव्हार  में झलका   है , ऐसे में आम नागरिक भी मतदान से यह कहते हुए इंकार कर दे कि उसे भी फुर्सत नहीं है चुनाव में ,क्योकि "सभी दल और उम्मीद्वार एक जैसे है" ,तब क्या होगा ?वैसे भी कई बार सामने आ चुका है कि लोक सभा और  विधान सभा के अलावा स्थानीय चुनाव में नागरिक समूहों ने कई बार मतदान से हिस्सा नहीं लिया अर्थात बहिष्कार कर दिया ,जो जनतंत्र के लिए गंभीर बात है ,इस संदर्भ में यदि आम व्यक्ति और मनमोहन सिंह को एक ही "सोच "वाला निरुपित किया जाय  तो ताज्जुब नहीं करनी चाहिए |
                          असम से मनमोहन सिंह दो दशक से लगातार राज्य सभा में पहुंचे है ,इनका दिश्पुर में एक मतदाता के रूप में नाम दर्ज है ,इसी बिना पर इनके पहली दफा निर्वाचन होने पर विवाद हुआ था जो इनके असम वासी होने को लेकर था| यह विवाद सर्वोच्च न्यायालय मेंसलता था ,विवाद इस बात प़र  थी कि "संबंधित राज्य के वासी को ही उच्च   सदन (राज्य सभा )में सदस्यता के पात्रता निर्धारित थे ,जिसमे वह अनफिट पाए गए थे |बाद में संवैधानिक संसोधन के जरिये इसका स्वरूप में बदलाव संसद ने अपने हितो के अनुकूल किया ,तब जाकर इनकी सदस्यता बच पाई थी| इसे लोग अभी तक भूलें नहीं हैं | तब सरकार कि काफी छिछलेदारी हुई थी |
              मनमोहन सिंह को प्रधान मंत्री का पद एक तोहफे में मिला ,जिसमें इनकी स्वामी भक्ति का विशेष गुण था |इनकी शक्ति का पत्ता उस वक्त ही चल गया था ,जब यह तय नहीं था कि प्रधान मंत्री कौन  होगा लेकिन वित्त  मंत्री मनमोहन ही होगें  यह सारा देश  जानता को पहले से मलिम था, बात १९९१ की है . साफ है कि कांग्रेसी राजनीति में एक परिवार कि छत्र छाया में ही  कोई मनमोहन जैसे शख्स तरक्की कर सकते हैं ,जिनका  खुद का कोई  नहीं हो  |
                  सार्वजनिक जीवन के मामले में प्रधान मंत्री की सोच का पता मतदान से चला ही है ,साथ ही भविष्य में अन्य कई राजनितिक /राजनितिक समूह भी मतदान के प्रति उदासीन हो सकते है ,जिसके आसार बढ़ गए है ,जम्मू -कश्मीर में कभी कम मतदान को लेकर अक्सर बात होती रहती है |इस परिप्रेक्ष्य  में मनमोहन के मतदान नहीं करने को देखें तो काफी खतरें आने वाले  दिनों  में हो सकते है .ऐसे में आम बुद्धिजीवियों  की चुप्पी इसमें ठीक नहीं है | ऐसा इसलिए की मतदान के दिन मनमोहन काफी अस्वस्थ थे ,या देश में स्थिति गंभीर थी, महत्वपूर्ण कामो को निपटाया  जाना जरूरी था|
                      जीवन  के अंतिम क्षण में जब आम व्यक्ति आराम चाहता है ,तन मनमोहन सिंह को राजनितीक शिखर के पद की प्राप्ति होती है,जिसके लायक वह कभी नहीं रहे ,| किसी भी राजनितीक सवालों को हल्कें में लेने की प्रवृति का नतीजा है कि  देश आज बाहरी और अंदरूनी हालातों से जूझने की कवायद में भिड़ा है | यह हालात जन्म कैसे हुई ,यह जानना हो तो मंमिहन सिंह के कार्य-  कारण को जानिए ,काफी दिलचस्प जानकारियां मिलेगी | अब तक के ज्ञात इतिहास में यही जाना जाता है कि  लोकतंत्र के लिए होने वाले मतदान में जन  नायकों की भूमिका सर्वोपरि है ,वे मतदान करके यह प्रदर्शित करते हैं कि "सभी नागरिक अपने विचारों के अनुरूप के दल और प्रत्याशियों को चुने .ताकि अपने विकास के  मार्ग तय कर सके,"|
               
            

Monday 11 April 2011

inferior character IPS officer in jharkhand

पतित  आइपीएस  के  फिर  से  सेवा   में  आने  के  आसार  
एसके  सहाय  
रांची   : झारखण्ड  में  भारतीय  पुलिस  सेवा  के  एक  पतित  पुलिस  अधिकारी  के  पुन  सेवा  में  लौट  आने  की  आशंका  है    .यह  स्थिति  राज्य  सरकार  के  अस्थिरता  का  परिणाम  है  कि  पीएस  नटराजन  नाम  का  अधिकारी   न्याय  के  उचित  प्रकिया    का  अवलंबन  करके  सरकार  को  मजबूर  करने  कि  कोशिश  किया  है  कि  उसे  वह  फिर  से  नौकरी  में  नियमित  तौर  पर  बहल  करे , अन्यथा  न्यायालय  कि   तौहीन  को  झेलने  के  लिए  तैयार  रहे .इससे  इन  दिनों  राजनितिक  क्षेत्रों   के  अलावा  प्रशासनिक  ,सामाजिक  हल्कों  सहित  हर  वर्ग  में  सरकार  कि  हालात  काफी  कमजोर  दिखी   है  ,जो  इसके  सेहत  के  लिए  ठीक  नहीं  है .
                            यहाँ  पर  जिस  पुलिस  अधिकारी  की    चर्चा  की  जा  रही  है , वह  पुलिस  महा  निरीक्षक  (आईजी )स्तर  का  है  ,जो  २००५  से  निलबिंत   है  और  जमानत  पर  करा  से  निकलने  पर  कानून  ki  तकनीकी  सीढियों  का  सहारा  लेकर  सरकार  को  विवश  करने  की  मुद्रा  में  ला  दिया  है  .अतएव   इस  पूरे  प्रकरण  को  जानने  के  लिए  २००५  की    उस  घटना  को  याद  कर्म  होगा  " जिसमे  नटराजन  एक  आदिवासी  युवती  के  साथ  अय्यासी   करते  पूरे  देश  में  देखे  गए  थे  . यह  तस्वीर  एक  निजी  टीवी  चैनल  के  द्वारा  प्रसारित  हुआ  था  ,जिसके  बाद  सरकार  ने  इस  अधिकरी   को  मुअतल  करके  अपने  कर्तव्य  की  इतिश्री  समझ  कर  इसे  पांच  सालों  तक  लगातार  अनदेखा  करती  रही  .
                 अब  ,जब  झारखण्ड   उच्च  न्यायालय  ने  सरकार  की  उस  याचिका   को  ख़ारिज  कर  दिया  है  ,जिसमे  इस  पुलिस  अधिकरी  को  निलंबन  में   रखने  के   मांग  की   गई  थी  ,तब  सरकार  को  लोक -लाज  की  याद  सताने  लगी  है  ,ऐसे  में   राज्य  की  सामाजिक  ताना -बाना  में  भरोसा   कैसे  हो  ,इसके  संकट   पैदा  हो  गए  हैं  .इसलिए  यदी    पीएस  नटराजन  जैसे  चरित्रहीन  अधिकारी  फिर  से  कुर्सी  पर  बैठ  जाएँ  ,तब  इंसाफ  का  क्या  होगा   ,इस  बारे  में  सहज  hi  सवाल  खड़े  हो  जाएँ  ,तो  आश्चर्य  नहीं   .
                 यहाँ  पर  महज  नटराजन  का  सवाल  नहीं  है , यह  चिंता  लोक  व्यवस्था  से  जुडी  है  ,जिसमे  "संवैधानिक  तौर  पर  यह  साफ  रेखांकित  है  की  "राज  कर्मचारी  अपने  पद  पर  तभी  तक  रह  सकता  है   ,जब   तक  वह  सदाचारी  है   " .लेकिन  इस  मामले  में  तो  पूरी  बात  ही  उलटी  दिख  रही  है  ,जिससे  अंदेशा  है  कि  क़ानूनी -दांव  पेंच  से   नटराजन  को  मत  देना  उतना  आसान  नहीं  है  जितना  अमूमन  समझ  लिया  गया  है  ,ऐसे  में  सरकार   हर  जाय  और  एक  कदाचारी  को  पुन :  नौकरी  पर  बुलाने  के  लिए  बाध्य  होना  पड़े  ,तब  कैसा  शासन  -प्रशासन  का  रूप  दिखेगा  ,इसकी  सहज  कल्पना  की  जा  सकती  है  .
         इस  पूरे  प्रकरण  को  समझने  के  लिए  थोड़ा  नटराजन  के  ही   बोटों  पर  विश्वास  करें ,-जिसमें  उन्होंने  कहा  था   -सुषमा  के  साथ  जो  कुछ  भी  हुआ  .उसमे  उसकी  रजा  मंदी  थी    अर्थात  परस्पर  सहमती  thi  ,इसके  लिए  उनको  दोषी  नहीं  ठहराया  जा  सकता  .
                      जाहिर  है    कि  वे  सदाचार  के   मतलब  से  अपने  को   अलग  रख  कर  सोचते  है   ,ताकि " सेवा"  का  लाभ   मिलता  रहे  ,ऐसे  में  अदी  हर  कोई  कर्मचारी  व्यक्तिगत  बात  करके  किसी   अश्लील  हरकत  को  सहज  बताने  लगे  तब  क्या  होगा  , तब  तो  हर  वक्त  अनाचार -कदाचार  कि  स्थिति  होगी   ,ऐसे " सभ्य    समाज " की  कल्पना  ही  मुश्किल  होगी   जैसी  कि  संवैधानिक  तौर  पर  सभी  नागरिकों  को  बताया  जाता  रहा  है .
              आइपीएस  नटराजन  का   मामला  सरकार  के  अनदेखी  का  है   ,यह  उस  काल  का  है    ,जब  राज्य  में  स्थायित्व  को  लेकर  राजनितिक  दलों  के  भीतर  जोड़ -तोड़  की  राजनीति  चरम  पर  थी  ,ऐसे  में  खानापूर्ति  के  लिए  आनन्  -फानन  में  इस  अधिकारी  को  निलंबित  किया  गया  और  "इस  तथ्य  को  भुला  दिया  गया  ki  निलंबन  के  बाद  की   प्रक्रिया   बर्खास्तगी   की  होती  है  |" लेकिन  यहाँ  पर  उदासीनता  ka  ऐसा  ज्वर  चढ़ा  की  सरकार  और  प्रशासक  भूल  ही   गए  की  उनके  यहाँ  एक  अय्यास  अधिकारी  भी  है  जिसे  दंडित   किया  जाना  लोक  हित  में  इसलिए  जरूरी  है  कि  लोगों  का  विश्वास  सरकार  और  प्रशासन  पर  बनी  रहे  . कानून   -व्यवस्था  को  हानि   नहीं  पहुंचे  .
                 दरअसल ,  इस  मामले  में   नटराजन   का  कोई   दोष  नहीं  है  कि   व्यवस्था  कैसी  है  ,तभी   तो  अराजक  सी  स्थिति  में  उस  पुलिस  अधिकारी  ने  कानूनों  का    पूरा  इस्तेमाल  अपने  हित  के  लिए  किया  और  यह  अहसास  करा  दिया  कि  यदि  तिकड़म  और  नियम -परिनियम  कि  थोड़ी  भी  जानकारी  हो  तो  किसी  भी  सरकार  को  अपने  अनुकूल  कारवाई  करने  के  लिए  बाध्य  किया  जा  सकता  है ,   इस  मामले  में  काफी  कुछ  ऐसा  ही   है  , नटराजन   निलबिंत  हुए  ,जेल  गए  ,फिर  जमानत  में  बाहर  आये   ,इसके  बाद  केन्द्रीय  प्रशासनिक  न्यायाधिकरण  (कैट )  में  दरखाव्स्त  किए  कि  उनके  साथ  अन्याय  किया  जा  रहा     है  ,सो  कैट  ने  इनके  पक्ष  में  फैसला  दे  दिया  ,यहाँ  पर  सरकार  इसलिए  मात  खा  गई  कि  वह  अपनी  बातों  को  ठीक  से  रख  नहीं  सकी  . ढीले -ढले  तरीके  से  किसी  मामले  को  अंजाम  तक  पहुचाने  की  प्रवृति   ने   राज्य  को  काफी  नुकसान  पहुँचाया  है  ,जिसका  इसमें  एक   झलक  है  .
   कैट  के  आदेश  के  तहत   नौकरी  पर  रखे  जाने  की  बात  पर  सरकार  ने  झारखण्ड  उच्च  न्यायालय  से  इसमें  रोक  लगाने   की  गुहार  की  ,तब   यहाँ  पर  भी   सरकार  को  मात  खानी  पड़ी  .ऐसे  में  आसार  इसी  के  है   कि  पतित  समझे  जाने  वाले  नटराजन  एक  बार  फिर  पुलिस  की  लाठियां  भांजते  नज़र  आवें .
           इस  घटना  से  जाहिर  है  की  कानून  --संविधान  का  कोई  मतलब  नहीं  है   . व्यावहारिक  स्तर  पर  तो  यही  फिलवक्त  दिखा  है  ,वैसे  राज्य  सरकार  अब  उच्चतम  न्यायालय  में  एक  बार  फिर  इस  मामले  में  जाने  को  सोच  rahi  hai . लेकिन  प्रश्न  है  कि    जब  खुद  को  अपने  शक्तियों  के  बारे  में  पता  नहीं  हो  ,तब  कैसे  ऐसे  मामले  को  संभाल  सकते  है   ,झारखण्ड  का  यही   मूल  संकट  है