Monday 31 March 2014

चुनावी परिदृश्य पलामू संसदीय क्षेत्र के

                     (एसके सहाय)
   झारखण्ड के उग्रवाद प्रभावित पलामू लोक सभा के चुनाव भले ही देश में १६ वीं स्वरूप में रेखांकित हो, मगर इस क्षेत्र के लिये यह चुनाव १७ वीं के तौर पर अभिलेखित होगा | यह इसलिए कि सामान्य आम चुनावों के मध्य इस सीट पर एक उप चुनाव भी हुआ है ,जो सामान्य चुनावी स्थिति से अलग है |
   उस उप चुनाव की की नौबत इस वजह से उत्पन्न हुई थी कि राजद के लोक सभा सदस्य मनोज कुमार भुइयां भ्रष्टाचार के जुर्म में निम्न सदन से निष्काषित कर दिए गए थे | भुइयां पर 'सवाल पूछने के एवज में धन' लेने के अभियोग थे ,जिसे जांचोपरांत सही पाए गए थे और तत्कालीन लोक सभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने इनको सदन से बहिष्कृत करते हुए अयोग्य घोषित कर दिया था |
  वैसे, एक बार फिर भुइयां ,राजद के टिकट पर चुनाव जितने के जद्दोजहद कर रहे हैं | इनका मुख्य मुकाबला भाजपा प्रत्याशी विष्णु दयाल राम और झाविमो (प्रजातान्त्रिक) के उम्मीदवार घुरन राम से है | घुरन राम ,वही हैं ,जिन्होंने २००७ के उपचुनाव में राजद के बैनर तले पार्टी के जीत का परचम फहराने में में कामयाब हो गए थे | बदलते दौर में अब , वह झाविमो के टिकट पर पुन: भाग्य आजमाने मैदान में उतरे हैं |
   देश - विदेश में अपने सूखे ,पिछडेपन और उग्रवाद को लेकर चर्चित पलामू में अबतक हुए चुनावों में कांग्रेस छ दफे , भाजपा चार , राजद दो और बाकी दलों के एक -एक प्रत्याशी सफल हुए हैं ,जिसमे स्वतंत्र पार्टी , जनता पार्टी , जनता दल और झामुमो के उम्मीदवार चुनाव जीते हैं |
    अभिलेखित रूप में दर्ज सूचना के अनुसार १९५२-१९५७ में कांग्रेस के गजेन्द्र प्रसाद सिन्हा (पन्ना बाबू) , १९६२ में स्वतंत्र पार्टी के शशांक मंजरी देवी , १९६७ -१९९७१ में कांग्रेस की कमला कुमारी , १९७७ में जनता पार्टी के रामदेनी राम , १९८० -१९८५ में पुन: कांग्रेस के कमला कुमारी ,१९८९ में जनता दल से जोरावर राम ,१९९१ में भाजपा के रामदेव राम , १९९६-१९९८-१९९९ में भाजपा के ही ब्रजमोहन राम ,२००७ में राजद के मनोज कुमार भुइयां , २००७ के उप चुनाव राजद के ही घुरन राम और २००९ में झामुमो के कामेश्वर बैठा अकस्मात पलामू संसदीय क्षेत्र से लोक सभा के लिये निर्वाचित हो गए | अकस्मात इसलिए कि इनकी पृष्ठभूमि भूमिगत संगठनों से जुडी थी और जितने पर इनको पहली 'माओवादी' सांसद के तौर पर परस्पर बातचीत में देशवासियों ने निरूपित किया है या कहिये चर्चित हुए |
   पलामू सीट आजादी के बाद १९६२ तक अर्थात तीन संसदीय चुनावो तक सामान्य श्रेणी का था ,लेकिन १९६७ से इस क्षेत्र को अनुसूचित जाति के लिये यह आरक्षित वर्ग में है | अबतक हुए चुनावों में मात्र दो ही महिला उम्मीदवार यहाँ से लोक सभा में पहुंची | इसमें एक स्वतंत्र पार्टी एक शशांक मंजरी देवी और कांग्रेस के कमला कुमारी हैं | इतफाक से दोनों सांसद मूल रूप से पलामू के नहीं थे | इसमें एक क्रमश: हजारीबाग और दूसरा रांची के रहने वाले थे |
   इस दफे हो रहे चुनाव में इस क्षेत्र से तेरह प्रत्याशियों के बीच चुनावी संघर्ष है | इसमें मुख्य मुकाबले में भाजपा ,झाविमो और राजद के उम्मीदवार हैं | ऐसे , सांसद कामेश्वर बैठा दल बदल कर तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर किस्मत आजमा रहे हैं ,जिसके अब कोई मतलब मौजूदा चुनावी जंग में नहीं प्रतीत है |
   पलामू में १९२८ मतदान केन्द्रों के बीच १६ लाख १८ हजार ९४७ मतदाताओं के समक्ष प्राय सभी प्रत्याशी "वोटो के भिक्षाटन" में  भिड़े हैं | इसमें पहली बार राज्य के पूर्व पुलिस महानिदेशक विष्णु दयाल राम भाजपा की तरफ से चुनाव मैदान में हैं | इन्हें अपनी जीत का झंडा गाड़ने के लिये चार पूर्व सांसदों से कड़ी चुनौती है | इसमें घुरन राम , मनोज कुमार भुइयां , कामेश्वर बैठा और जनता दल (यूनाइटेड) के  जोरावर राम हैं | पलामू लोक सभा क्षेत्र में छ विधान सभा के इलाके समाहित हैं | इसमें डालटनगंज , भवनाथपुर  और विश्रामपुर में कांग्रेस के क्रमश: कृष्णानंद त्रिपाठी , अनंत प्रताप देव और चंद्रशेखर दुबे( अब तृणमूल कांग्रेस) काबिज हैं| साथ ही , हुसैनाबाद  में राजद के विधायक संजय सिंह यादव की शक्ति है | इससे परिलक्षित है कि संप्रग खेमे से राजद उम्मीदवार का पलड़ा अन्य से भारी है | इस सन्दर्भ में सबसे दिलचस्प हालात भाजपा की है ,जहाँ पलामू में एक भी विधायक किसी भी सीट पर मौजूद नहीं हैं ,बावजूद सभी का मुकाबला भाजपा के उम्मीदवार से ही है | अपवाद यह कि विश्रामपुर के विधायक चंद्रशेखर दुबे ,कांग्रेस से इस्तीफा देकर खुद धनबाद लोक सभा क्षेत्र में टीएमसी के उम्मीदवार हैं जिससे इस क्षेत्र के बैठा की

 उलझन बढ़ गई हो तो आश्चर्य नहीं | छत्तरपुर से जड़(यू) की विधायक सुधा चौधरी और गढ़वा में झाविमो के विधायक सत्येन्द्र तिवारी के ताकतों का सहारा इनके पार्टियों के प्रत्याशियों को प्राप्त तो है ,मगर यह शक्ति कितने दूर तक जा पाती है ,इसका खुलासा तो १६ मई को ही हो सकेगा | 

Sunday 16 March 2014

न लहर, न पहर ,सब बेअसर

                (एसके सहाय)
   देश में १६ वीं लोक सभा के चुनाव परिणाम क्या होंगे , फ़िलहाल , दो माह के गर्भ में है,सो इसके नतीजे किस रूप में निकलेंगे ,यह केवल कयास भर है | ऐसे में , मानवीय संवेगों को पूर्णत: वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मूल्याकन करना व्यर्थ है | इसलिए इससे जरूरी है कि भारतीय समाज का "मुड" कब -कब किस तरीके एवं मुद्दे से प्रभावित हुआ है ,उसकी पड़ताल की जाये ,तभी  १६ मई को परिणाम के बारे में सही -सही अंदाज निकाल सकता है |सिर्फ आंकड़ों के माध्यम से वहुविध भारतीय सामाजिक / राजनीतिक ,सांस्कृतिक और आर्थिक नजरिये से आकलन करना उचित नहीं होगा ,क्यों कि बहु प्रचारित स्थितियों के आधार पर कोई निष्कर्ष सही न हुए हैं और न ही भविष्य में भी सटीक होंगे |
    इस सन्दर्भ में याद करें , अटल बिहारी बाजपेयी के प्रधान मंत्रित्व में २००४ में चमकते भारत अर्थात शाइनिंग इण्डिया की
 बात प्रचार तंत्रों के जरीये राजनीतिक फिंजा में गूंजी थी और जब नतीजे सामने आये तब तस्वीर काफी हद तक बदली हुई थी , भाजपा के साथी ,राजग को छोड़ रहे थे और कांग्रेस के नेतृत्व में नया गठबंधन 'संप्रग" तैयार हो रहा था , जो १० सालों तक लंगड़ाते हुए निर्विध्न रूप में बरक़रार है | ऐसे में , प्रमुख विपक्ष भाजपा के लिये तारणहार के तौर पर नरेन्द्र मोदी कितना कारगर इस वक्त के चुनाव में कामयाब होंगे ,यह अभी देखना है |
     देखना इसलिए कि भाजपा और इसके साथ के अनुदारवादी / दक्षिणपंथी सहयोगी अपने प्रचार अभियानों में बार -बार 'नमो' के लहर की बात हवा में उछाल रहे हैं और इतफाक से समाचार माध्यमों का एक हिस्सा इसे स्वीकार भी कर रहा है | यह काफी हद तक १९९६ के चुनाव की तरह है , जिसमे भाजपा की सशक्त दावेदारी की बात की गई थी लेकिन यह सफलता  भाजपा को १९९८ और १९९९ में ही हासिल हो सकी थी |
     अतएव , जब 'लहर' की बातें हो रही है ,तब यह जाना जाये कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात कब -कब लहर जैसे हालात भारतीय राज व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में पैदा हुए ? चुनावी नतीजे के ज्ञात इतिहास में १९७७ ,१९८५ और कुछ हद तक १९८९ और १९९१ के लोक सभा के चुनाव के समय लहर जैसी स्थितियां उत्पन्न हुई | इन चुनाव परिणामों के भूतकालीन हालातों का जायजा लें ,तब अनुभूत होगा कि सचमुच में खास दल या दलिये समूह के पक्ष में सामाजिक /राजनीतिक परिस्थितियां पैदा थी |
   मसलन - आपातकालीन स्थिति और तानाशाही के संक्रमण काल में १९७७ में लोकशाही बनाम तानाशाही के मुद्दे लोगों के दिलो -दिमाग में छाये हुए थे ,तब लोकनायक जयप्रकाश नारायण सरीखे विराट स्वरूप वाले 'व्यक्तित्व' मौजूद थे | इस चुनाव में पहली बार कांग्रेस केन्द्रीय सत्ता से च्युत हुई थी | इसी तरह , १९८५ में इंदिरा गाँधी के मारे जाने के बाद उत्पन्न हुई देश व्यापी 'सहानुभूति' लहर में कांग्रेस को तीन चौथाई बहुमत मिल गया था ,जो आजादी के बाद सर्वाधिक आंकड़े  थे | बाद में कांग्रेस की राजनीतिक शक्ति सिकुड़ती चली गई ,जो १९८९ में बोफर्स जनित अन्य भ्रष्टाचार के किस्से के बीच 'राम मंदिर-बाबरी मस्जिद' प्रकरण का ध्यावधि चुनाव भी था | कालांतर में कांग्रेस के कमजोर होते जाने और मुद्दा लहर के तौर पर प्रभावी रहा ,जिसके चपेट में १९९१ के म क्षेत्रीय दलों के उभार की कहानी है ,जिसमे बसपा, सपा,राजद, शिव सेना , समता पार्टी ,जनता दल एवं जद (यु) ,तृणमूल कांग्रेस ,बीजद ,झाविमो ,जैसे कई पार्टियां हैं ,जो अपनी सुविधानुसार केन्द्रीय सत्ता का अनुगमन करते रहे और छोड़ते रहे |
     इस परिप्रेक्ष्य में मौजूदा लोक सभा के चुनाव के अंदाजे की बात करें ,तब जाहिर होगा कि 'भ्रष्टाचार और उससे पैदा हुए मंहगाई' से लोगों को कोफ़्त है ,लेकिन यह इतना भी असरकारक नहीं कि प्रतिपक्ष अर्थात भाजपा की तरफ लहर पैदा करे | इनके राह में स्थानीय एवं क्षेत्रीय दल भारी रोडें की तरह हैं ,जहाँ पार्टी                    के साथ ही उम्मीदवार के " वैक्तिक " का अपना ही एक अलग महत्त्व है | भाजपा /कांग्रेस के लिये यह समस्या टिकट बंटवारे में ज्यादा रेखांकित है | नरेन्द्र मोदी खुद को 'चाय बेचने वाला, पिछड़ा अर्थात वणिक के साथ मध्य वर्ग के सपनो का सौदगर ' के रूप में "मतों" के धुर्वीकरण को धार देने की पुरजोर कोशिश में है |
    इस दफे अबतक ,जो गतिविधि राष्टीय राजनीतिक दृष्टिकोण से परिलक्षित है ,उसमे भाजपा हमलावर की भूमिका में है ,तो कांग्रेस रक्षात्मक मुद्रा में ,इसी से भाजपा को कुछेक बढ़त हासिल होती प्रतीत है ,मगर यह कामयाबी इसके कुनबे अर्थात राजग के बढ़ने से ही संभव है ,अन्यथा दिल्ली का ख्वाब ,ख्वाब ही रह जायेंगे  |
     स्पष्ट है कि इस चुनाव में लहर जैसी कोई बात नहीं है | सुरक्षित क्षेत्र की खोज में भाजपाध्यक्ष राजनाथ सिंह व अन्य का जहाँ -तहां भटकने का क्या मतलब है ? गाजियाबाद के बजाय अब लखनऊ से किस्मत तलाशने की जरूरत क्यों पड़ी ? बिहार में गिरिराज बेगुसराय पर जोर लगाये रहे लेकिन नवादा भेजे जाने पर आक्रोशित क्यों हुए ? लाल कृष्ण आडवानी गाँधी नगर को छोड़कर अन्य स्थान से राजी क्यों नहीं हुए ? शत्रुहन सिन्हा पटना साहिब के अलावा कहीं अन्य पर जाने को तैयार क्यों नहीं हुए ? इस तरह के कई टिकट के मगजमारी के किस्से भाजपा के हैं | ऐसे में सवाल है कि नरेन्द्र मोदी अर्थात नमो, भ्रष्टाचार/मंहगाई को लेकर 'लहर' कांग्रेस के विरूद्ध 'लहर' है ,तो सुरक्षित सीट की तलाश में वरीय से कनीय भाजपाई नेता क्यों हैं |क्या इसके जाहिर नहीं है कि विपक्ष खुद आश्वस्त नहीं है कि उसे आसानी से बहुमत मिल ही जायेगा |इसमें 'आम आदमी पार्टी' के उदय ने भाजपा को भीतर से हिलाए हुए है ,आखिर इससे भी तो मध्य तबके का एक वर्ग मोहित है ,जो इसमें अन्दर से कंपकंपी पैदा की है | 

        कुल मिलाकर १६ वीं लोक सभा के चुनाव पूर्व के अपेक्षाकृत स्थिर माहौल में होने की उम्मीद है | लहर अथवा पहर जैसी कोई परिस्थितियां अबतक उत्पन्न नहीं है |इस दफे पार्टी के जगह पर उम्मीदवारों को ध्यान में रखकर अच्छे प्रतिशत में वोटों के समीकरण नई हालात पैदा करेगें | स्थानीय दलों .क्षेत्रीय दलों की चांदी रहने की संभावना बलवती है | काफी समझदारी भरा यह चुनाव होगा ,आसार इसी बात के हैं |   

Wednesday 12 March 2014

सुकमा:जन विश्वास के अभाव में मारे गए बेचारे

                    (एसके सहाय)
   तक़रीबन डेढ़ सौ की संख्या में नक्सलियों का हथियारबंद दस्ता छतीशगढ़ के सुकमा के जंगल में राष्टीयकृत मार्ग पर विचरण कर रहा है और इसकी भनक स्थानीय प्रशासन एवं आस-पास के निवासियों को नहीं है ,इस स्थिति में अर्ध सैनिक बल/राज्य पुलिस समेत बीस " जाने " चली जाती है | इसे क्या समझा जाये ?
      स्पष्ट है कि "जन विश्वास" की कमी ही वह वजह है ,जिसके अभाव में भूमिगत संघटनों के क्रियाविद अपने मकसद में कामयाब हो जाते रहे हैं | यह विश्वास क्यों नहीं है ? इसके जवाब ढूढेंगे,तब लोकतान्त्रिक सत्ता के असली चेहरे से रूबरू होंगे ,जिसमे "भ्रष्ट तत्वों" के शिनाख्त और दण्ड के अभाव से लोग "व्यवस्था उन्मुखी" के स्थान पर तटस्थता का भाव ओढ़ लियें हैं ,जो पूरे राजकीय तंत्र को कमजोर किये हुए है और नक्सली/उग्रवादी कामयाब हो जाते हैं | इसके लिये दोषी कौन है ?
      ऐसा नहीं है कि नक्सलियों की यह पहली वारदात है ,जिसे नजरदांज किया जा सके | पिछले साल ही दस मई को कांग्रेस जनों के जत्थे पर हमला करके उस इलाके में माओवादियों ने तीन दर्ज़न जानें ली थी ,इसके बावजूद सरकार/ प्रशासन/ पुलिस / नागरिक / राजनीतिक- सामाजिक क्षेत्रों में इसके प्रति लापरवाही बनी रही ,जिसके नतीजा यह निकला कि कल पुन: नक्सलियों ने बड़ी हिंसक घटना को अंजाम देकर संकेत दे दिया है कि ,वह जब चाहे ,तब अपने मंसूबों को पूरा कर सकते हैं |
       वैसे, सब जानते हैं कि आतंकवादी /उग्रवादी या अन्य माओवादी सरीखे भूमिगत संघटन हिंसक वारदात को प्राय: "दहशत" फ़ैलाने और क्षेत्र विशेष में अपना "वर्चस्व" स्थापित करने के लिये अंजाम देते हैं ,जिसमे प्रतिक्रियावादी कदमों को प्राथमिकता प्राप्त है |
 संसदीय अर्थात जनतंत्रीय चुनाव इन्हें पसंद नहीं और इस नापसंदगी को नक्सली " हिंसा" के जरीये जाहिर करते हैं और इस वक्त देश में १६ वीं लोक सभा के चुनाव को लेकर प्रक्रिया चल रही है ,ऐसे में वे चुप कैसे रह सकते हैं ?
    हकीकत में नक्सली समस्या व्यवस्थागत प्रणाली में दोष के वजह से है और जब यह पिछली शताब्दी के सत्तर के दशक में पश्चिम बंगाल से शुरू हुई ,तब इसके विस्तार के चपेट में सबसे पहले बिहार आया ,फिर धीरे -धीरे इसके शक्ति में इजाफा होता गया और आज देश के नौ राज्यों में संकट पैदा करने की ताकत इसने अपने में पैदा कर ली है |शुरूआत में ही इसके भयावह चेहरे को बंगाल के मुख्य मंत्री सिद्धार्थ राय ताड़ चुके थे ,नतीजतन इन्होने अपने मुख्य मंत्रित्व काल में नक्सल तत्वों को कठोरता से कुचल दिया ,जो बाद में एकीकृत बिहार , एकीकृत मध्य प्रदेश ,एकीकृत आंध्र प्रदेश और ओडिसा में जड़ ज़माने में सफल हो गया , जो अब उत्तर प्रदेश , महाराष्ट जैसे कुछेक प्रान्तों में भी अपनी मौजूदगी का 'भान' जब -तब कराती रहती है |
         ऐसे हालात में छत्तीसगढ़ में हुई नक्सली वारदात की उपेक्षा नहीं की जा सकती | यह घटना अर्थात इस सरीखे वारदात इसलिए हुई कि स्थानीय लोगों का प्रशासन/ सरकार पर से "भरोसा" उठ चूका है | यह विश्वास इसलिए उठा है कि 'उसके जरूरत पर किये गए आरजू को स्थानीय अधिकारी बिना चढावा के पूर्ण नहीं करते . मतलब रिश्वत /भ्रष्टाचार से है , पुलिस इनसे सभ्य व्यवहार नहीं करती ,तब 'सूचना' देने की जोखिम कौन क्यों उठाएगा ? सरकार अर्थात प्रशासन के संगठित समूह के आगे 'लोक' बेबस हैं | लोकतान्त्रिक तरीके एवं मुलभूत आवश्यकता से आम जन वंचित हैं | प्रखंड हो यह तहसील ,पंचायत दफ्तर ,इनके लिए ,खासकर कमजोर तबके के वास्ते कोई अर्थ नहीं रह गए हैं और इसी का फायदा भूमिगत संगठन के तत्व उठाते हैं और सरकार कहती है कि ' वह जन हितों को पूरा करने के प्रति दृढ संकल्पित है |'
    यहाँ समस्या यह है कि नक्सल समस्या को सरकार अर्थात सत्ता "शक्ति" के दृष्टिकोण से देखती है ,इसके लिये पुलिस बलों को आधुनिकतम हथियारों से युक्त करने एवं प्रशिक्षण देने जैसे कवायद करती है ,जिसमे ख़ुफ़िया तंत्र को मजबूती प्रदान करना इसके कार्य सूची में सबसे प्रमुख होता है | यह कौन नहीं जानता कि सरकारी नौकरी करने वाला राज कर्मचारी हो या पुलिसकर्मी ,वह अपने को औरों से अलग समझने की मनोवृति से ग्रस्त होता है ,ऐसे में उसकी  दुर्गम /सुदूरवर्ती इलाके में पद स्थापना हो ,तो वह क्या 'राजकीय कर्तव्यों' की पूर्ति कर पायेगा ?
    राज्य और जिला मुख्यालय में बैठ करके आम लोगों के दुःख दर्द , समस्या ,जरूरत जैसी बातों को समझने के वजह से उग्रवादी तत्व सिर उठा पा रहे हैं , इसे समझना /बुझना होगा | स्थानीय प्रशासन से सहानुभूति के स्थान पर फटकार /घुस की मांग ,उपेक्षा ,तिरस्कृत जैसे बर्ताव जमीनी स्थल पर लोगों के साथ हो ,तब कैसे "नक्सल समस्या" से निजात मिलने की उम्मीद हो सकती है ? सुकमा हो या अन्य राज्य ,हर स्थान पर प्रशासनिक विफलता अर्थात लोक प्रशासन के लोक की उपेक्षा से यह स्थिति देश भर में उत्पन्न है | विश्वास की कमी ने नक्सल शक्ति को विस्तार देने में योगदान दिया है | सोचें - चालीस की संख्या में पुलिस बल है और उसके पीछे घात लगाये माओवादी चहल कदमी अर्थात लुका -छिपी का खेल कर रहे है और इलाके के बारे पुलिस को कोई भी स्थानीय व्यक्ति तैयार नहीं है | माहौल घटना स्थल का वारदात के पूर्व सामान्य है और मार्ग पर आवा -जाही भी नित्य दिन की भांति है ,ऐसे में नक्सली अपनी योजना को अमलीजामा पहना देते हैं ,तब इसके लिये कसूरवार कौन है ?

       दरअसल ,नक्सली समस्या "लोगों से तालमेल" से जुडी है | यह रिश्ते आज के माहौल में इस कदर बिगड चुके हैं कि इसका निदान केवल राजकीय प्रयास से संभव नहीं है | सरकार सिर्फ फौरी तरीके अपनाती है , ठोस धरातल पर इसमें जन भागीदारी का अभाव ही प्राय: रहता है | ताकत के भरोसे "शांति" के प्रयास स्थायी नहीं हो सकते | प्रशासनिक तंत्र में लोगों के विश्वास ही विध्वंसकारी तत्वों के मंसूबों को ध्वस्त कर सकती है | इस परिप्रेक्ष्य में सरकार को चाहिए कि  उग्रवादिक/ नक्सल शक्तियों को पृथकतावादी और अन्य के फर्क को समझें | बारीकी से अगर इसके अध्ययन करके रणनीतिक तौर पर जनोन्मुख विकासगत योजनाओं को सही स्वरूप में क्रियाविंत किये  जाएँ ,तब काफी हद तक 'जन विश्वास' सत्ता/ सरकार/ प्रशासन को हासिल हो सकती है अन्यथा सुकमा जैसे हृदय विदारक घटनाएँ बराबर होती रहेंगी और सरकारे पूर्व की भांति चिल्लाती रहेगी कि' कुचल देंगे / ढिलाई बर्दाश्त नहीं करेंगे |  

Tuesday 11 March 2014

अदालती निदेश में राजनीतिक सुधार के बढे कदम

               (एसके सहाय)
    देश के सर्वोच्च न्यायालय ने कल एक महत्वपूर्ण निर्णय में निचली अदालतों को दिशा निर्देश देते हुए आदेश दिया है कि "विधायिका के सदस्यों के आपराधिक मामलों की सुनवाई एक वर्ष के भीतर करके फैसले दें |"  सचमुच में यह अपने आप में चुनाव सुधार की दिशा में क्रांतिकारी कदम है , जो काम सरकार और निर्वाचन आयोग को करना चाहिए था ,वह कार्य आज अदालत ने किया है |इसका भारतीय लोकतंत्र में स्वागत योग्य पहल के रूप में देखने की प्रवृति परिलक्षित है |
     अबतक चुनाव सुधार में मात्र एक हो ठोस पहल सामने थे और क्रियान्वित थे ,वह दो और इससे ऊपर की सजा पाए नागरिकों को संसदीय चुनाव में भाग लेने पर ,तबतक प्रतिबन्ध घोषित है ,जबतक कि ऊपरी न्यायालय उसे सबंधित जुर्म से मुक्त न कर दे | इस कड़ी में ३६५/३६६ दिनों की बाध्यता अब सांसदों /विधायकों के लिये अहम है | यह इसलिए कि व्यवहार में देखा गया है कि संसद/विधान मंडल के सदस्य पर आपराधिक मामले अदालतों में लंबी अवधि तक विचाराधीन रहते हैं और इसका बेजा इस्तेमाल अपनी शक्ति को परोक्ष/प्रत्यक्ष तौर पर सार्वजनिक / व्यक्तिगत फायदे के लिये उपयोग करते हैं ,इससे 'जन प्रतिनिधि' की आदर्श छवि खंडित होती है ,जिसे लोकतंत्र के संसदीय प्रणाली की सत्ता में मंजूर किया जाना नैतिक सिधान्त के विरूद्ध मान्यता प्राप्त है ,सो देर आयद -दुरूस्त आयद वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए उच्चतम न्यायालय ने एक जन याचिका की सुनवाई करके उक्त महत्वपूर्ण फैसले दे दिए हैं ,जिसका भविष्य में सकारात्मक प्रभाव से राज प्रेक्षक इंकार नहीं कर रहे |
        यह फैसला इसलिए भी महत्वपूर्ण रूप में रेखांकित है कि दो वर्ष पूर्व ही चुनाव आयोग को चुनाव/राजनीतिक सुधार के लिये नियमावली बनाने के निर्देश सर्वोच्च नयायालय ने दिए थे ,यह निर्देश उस स्थिति में दिए गए थे ,जब सरकार अपनी तरफ से जन प्रतिनिधित्व अधिनियम में जरूरी संशोधन करने को उत्सुक नहीं दिखी ,तब विवश होकर अदालत ने आयोग को ही ठोस कदम उठाने के निर्देश देने पड़े , जिसका संरक्षण अदालत करने को खुद तैयार था |
  वैसे ,देखें तो प्रतीत होगा कि यह निर्देश् फिलवक्त के राजनीतिक हालात में पूर्ण भी नहीं है ,बल्कि एकांगी है | एकांगी इसलिए कि निर्देश का असर केवल सांसद/ विधायक पर है .लेकिन इससे एक दूसरी कड़ी जुदा है | अलग इसलिए कि सजायाफ्ता चुनावी राजनीति से अलग तो है ,लेकिन दलगत राजनीति में वह सक्रिय भी है ,यह विरोधाभास क्यों ? भारतीय संविधान के अध्येता के रूप में अबतक यही यह लेखक शुरू से अवगत है कि ' कोई भी सजा याफ्ता नागरिक विधायिका के योग्य नहीं हो सकता |' स्पष्ट है कि एक बार सजा घोषित होने और उसके बरक़रार रहते कोई भी नागरिक को "राजनीतिक अधिकार" प्राप्त नहीं हो सकते , मगर उदाहरण स्वरूप राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव सरीखे आज भी दलगत राजनीति में सक्रिय हैं | आखिर क्यों?
     हालाकिं , इस संवैधानिक/वैधानिक क्रियाविधियों के नेपथ्य में संक्षिप्त तौर पर जाये ,तो विदित होगा कि दो दशक पूर्व तक सजा याफ्ता भी जमानत पर रिहा होने के बाद चुनाव में सहभागी होते थे ,लेकिन कालांतर में १९९१ में टीएन शेसन के मुख्य चुनाव आयुक्त के पद पर हुई नियुक्ति ने शनै: शनै: चुनाव सुधार की ओर कदम बढ़ाना शुरू किया , इसी क्रम में कई आपराधिक मामले उच्च और उच्चतम न्यायालय में आते गए ,फैसले दर फैसले के बाद यह तय हुआ कि दो या इससे अधिक साल तक की सजा पाए नागरिक चुनाव में शिरकत करने का अधिकार नहीं रखता |
    बहरहाल , जो कुछ भी हो , शीर्ष अदालत का यह आया फैसला दूरगामी बदलाव के संकेत हैं ,इससे इंकार नहीं किया जा सकता | देश के विधायिकाओं में कैसे गाली -गलौज ,मारपीट और अन्य अशोभनीय कृत्य होते हैं ,यह अब छिपा / रहस्य नहीं रह गया है , सामाजिक रूप से त्याज्य नागरिक कैसे धनबल /बाहुबल के इस्तेमाल करके 'माननीय' हो जाते हैं और फिर अपनी कुत्सित प्रवृति से सार्वजनिक जीवन को प्रभावित कर जाते हैं ,यह सामने हैं , हाल के सालों में घटित मामलों को देखें ,तो काफी वीभत्स सामाजिक/राजनीतिक जीवन से अवगत होंगे | अदालतों से सजा प्राप्त हैं , पुलिस/ कानून से भागे -भागे फिर रहे हैं और फिर भी इनसे ताल्लुकात बनाने में ' व्यक्ति ' को शर्म/ लज्जा नहीं अनुभूत होती ,जो दर्शाती है कि भारतीय सामाजिक जीवन मरणासन्न है | पिता ,पुत्र ,पुत्री , पत्नी ,भाई ,बहन ,दोस्त -यार या अन्य रिश्ते-नातेदार एक दूसरे को ग्लानी महसुस नहीं करते , बल्कि जितने बड़े अपराध ,उतने बल से गौरवान्वित दीखते हैं |प्राचीन काल में जो चोरी करता था ,भ्रष्ट आचरण में लिप्त होता था ,उसे समाज बहिष्कृत किये रहता था ,मगर आज दुर्योग से स्थिति ऐसी सामाजिक /राजनीतिक क्षेत्रों में उत्पन्न है कि लोग 'भ्रष्टाचार ,वह भी सार्वजनिक रूप ' में करते हुए दांते निपोरते हुए दीखते है ,इससे  क्या जाहिर है ?

        कुल मिलाकर , फिलवक्त के राजनीतिक जीवन में 'माननीयों' के प्रति अदालत ने जो पहल की है ,वह परवर्ती समय में दलगत राजनीति में सक्रिय राजनीतिज्ञों के लिये सबक भी है | सबक इसलिए कि कल वो भी अधिकृत जन प्रतिनिधि होंगे, इसलिए जरूरी है कि उनके आचरण 'सदाचार' और आपराधिक कृत्य/षड्यंत्र से मुक्त रहे | ऐसे में सर्वोच्च अदालत के निर्देश को अभी से ही चेतावनी के तौर पर ग्रहण किया जाना चाहिए | निचली न्यायालयों की भूमिका अब बढ़ गई है , इसके सुनवाई के तरीके /प्रक्रिया अब दैनिक क्रियाविधियों से निर्धारित होगी ,ऐसा इसलिए कि फैसले में अगर समय में छुट चाहिए ,तब न्यायाधिकारी को उच्च नयायालय को इसके वजहों से संतुष्ट करना होगा | जाहिर है कि विधायक/सांसद अपने किये कुकृत्य/भ्रष्टाचार समेत अन्य मामलों में बराबर खतरे के रास्ते में रहेंगे |

Friday 7 March 2014

वामपक्ष से अचानक दक्षिणपंथ की ओर

                                  (एसके सहाय)
    अति वामपंथी विचारों से लैस यदि कोई शख्स सीधे धुर दक्षिणपंथी दिशा की तरफ कदम बढ़ा दे अर्थात सशस्त्र आंदोलन में रत नेता भूमिगत जीवन का परित्याग करके अचानक संसदीय राजनीति में विश्वास प्रकट करके सार्वजनिक क्षेत्र में सक्रिय योगदान देने लगे ,तब आप क्या समझेंगे ? जी हाँ, ऐसा ही परिवर्तन सांसद कामेश्वर बैठा के चाल-चलन से इन दिनों जाहिर है ,जो संकेत किया है कि 'मानसिक रूप से कमजोर' व्यक्ति से आम लोग "विशेष" की उम्मीद करते हैं ,वह व्यर्थ है |
       जैसा कि खबर है , बैठा अब झारखण्ड मुक्ति मोर्चा को परि त्याग करके भाजपा की शरण में हैं , इसके लिये बकायदा उन्होंने राज्य विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता अर्जुन मुंडा (भाजपा)को भाजपा की सदस्यता के लिये दरख्वास्त भी दिए हैं ,इस बात की पुष्टि उन्होंने इस पंक्तियों के लेखक से बातचीत में की है |
      ऐसे में यह जानना समीचीन होगा कि आखिर 'वो' कौन सी परिस्थिति रही,जिसने बैठा को महसूस हुआ कि उनके लिये घोर दक्षिणपंथी विचारधारा के लिये प्रसिद्ध भारतीय जनता पार्टी उनको अपने लिये ज्यादा मुफीद प्रतीति हुई , जबकि वह ,जब चुनावी राजनीति में दिलचस्पी लेना शुरू किये थे ,तब थोड़ा मध्यमार्गी राजनीतिक दल का अनुगमन उन्होंने किया था ,जिसका पहला पड़ाव बहुजन समाज पार्टी था |
       इसलिए जरूरी है कि सशस्त्र क्रांति के जरीये अपनी खास पहचान स्थापित करने वाले बैठा के रूख में यह बदलाव कहाँ तक स्थिरता बनाये रखता है | यह कई उन उग्रवादी / नक्सलपंथी तत्वों के लिये भी महत्वपूर्ण है ,जिन्होंने हथियार छोड़कर समाज की मुख्य धारा में आने के यत्न में भिडे हैं | सांसद कामेश्वर ,वैसे उन वाम चरमपंथियों के लिये ' प्रतिमान ' हैं ,यह इसलिए कि वह पहले माओवादी क्रियाविद हैं ,जिन्होंने चुनाव के माध्यम से संसद में कदम रखा है और यह भारत ही नहीं , शेष दुनिया के लिये अजूबे राजनीतिक प्रयोगशाला के लिये 'शोध' के विषय/वस्तु बने |लोक सभा के लिये निर्वाचित होने की प्रक्रिया तक इनके ऊपर ५५ आपराधिक/ उग्रवादिक मामले अलग -अलग अदालतों में विचाराधीन थे और यह बिहार ,उत्तर प्रदेश के अलावा झारखण्ड में लंबित रहे | इसमें हत्या, वह भी पुलिस/अधिकारी क़त्ल समेत और मुठभेड़ , विध्वंसक कारवाई सहित अन्यान्य मामले इनपर अभियोग के तौर पर रहे | इसमें बिहार में भारतीय वन सेवा के अफसर संजय कुमार सिंह की हत्या काफी चर्चित रही |
     पलामू जिले के विश्रामपुर थाना क्षेत्र के ढांचाबार गांव से ताल्लुकात रखने वाले बैठा पिछली सदी के अंतिम दशक के शुरू में नक्सल आंदोलन में सम्मिलित हुए और यह शुरूआत भी दृढ़ता से तब हुई ,जब इनके गांव के निकटवर्ती गांव मलवरिया में ११ दलितों को सामंती प्रवृति के आतताइयों ने आग में क्रूरता पूर्वक जला कर मार दिया था ,जिसमे इनके घरों को भी जलाकर राख कर दिए गए थे |यह क्रूर कारनामा तब 'सनलाइट सेना' के कथित हथियारबंद दस्ते ने अंजाम दिया था | इसमें गिरफ्तारियां हुई ,जेलों में अभियुक्त कैद रहे ,समय बदलते के साथ आरोपित लोग अदालत से रिहा भी हो गए और यह आग बता के सीने में संसदीय राजनीति में कदम रखने तक धधकती रही |
       बाद में , भागमभाग और पुलिस की लुका छिपी के खेल से बता तंग होते गए ,शरीर भी पहले की भांति फुर्तीला नहीं रहा ,हालाँकि आवाज की हनक अब भी पूर्व की तरह बरकरार है | इन हालातों में एक दिन  वह बिहार के डेहरी ऑन सोन में रहस्मय स्थिति में पुलिस के गिरफ्त में आ गए और सासाराम जेल में कैद हो गए | पुलिस के पकड़ में कैसे माओवादी सब जोनल कमांडर आ गए , यह भी अबतक रहस्य है | कहते हैं ,वह नक्सल गतिविधि से थक चुके थे और सुनियोजित ढंग से अपने को पुलिस के हाथों गिरफ्तार करवाए | यह नौटंकी सच के पास इसलिए भी प्रतीत है कि नक्सली संगठन अपने बीच के किसी भी साथी को अपने से अलग होने पर उसे अपना 'शत्रु' मानती है और इसी को ध्यान में रखकर यह प्रचारित है कि बिहार पुलिस ने अपने ख़ुफ़िया सूचना पर उन्हें गिरफ्तार किया |
      खैर , कारा में रहते हुए बैठा की राजनीतिक महत्वकांक्षा धीरे -धीरे संसदीय राजनीति की ओर उन्मुख होने लगी ,तभी प्रश्न पूछने के लिये रिश्वत लेने के जुर्म में लोक सभा से निष्काषित मनोज कुमार भुइयां से रिक्त हुई पलामू क्षेत्र में उप चुनाव की घोषणा २००७ में हो गई और वह पहली बार बसपा के टिकट पर चुनावी संघर्ष में कूद गये , मगर दुर्योग से तक़रीबन २० हजार मतों से राजद के घुरन राम से पिछड गए |
       बदलते समय के साथ १५ लोक सभा के लिये २००९ में बैठा ने पाला परिवर्तन करते हुए झामुमो का झंडा थाम लिया और उतने ही मतों से जीत का किला फतह कर लिया ,जितने वोटों से वह पहली दफा हारे थे | दोनों चुनाव बैठा ने जेल में रहते ही लड़ा था | इस जीत में झारखण्ड के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री भानु प्रताप शाही की अहम भूमिका थी |
      बहरहाल , अब जब लोक सभा के चुनाव सामने हैं और झामुमो ने अपने जीते हुए पलामू संसदीय क्षेत्र से आँखे मुंद ली है ,तब बैठा के लिये " दल " की जरूरत अनुभूत हुई है ,इसके लिये अपने तरीके से उन्होंने राजद वगैरह समेत अन्य पार्टियों के दरवाजे "टिकट" के लिये खटखटा दिए मगर टिकट मिलने की ठोस गारंटी के अभाव में भाजपा के सामने माथा टेक दिए हैं | ललाट में लाल रंग के टिके और हाथों में हिंदू परम्परा के रक्षा सूत्र बांधे , बैठा अब अन्य सामान्य भाजपाइयों से खास दीखते हैं | ऐसे में एक अति उग्र वाम विचार के नेता का ह्रदय परिवर्तन में " अभिनय" की झलक लोग देखते हैं ,तब आश्चर्य नहीं लगता ,कलतक वह बसपा/ झामुमो के झंडे तले मध्यमार्गी राजनीति का आरोहन कर रहे थे और अब एक झटके में ही कथित उग्र दक्षिणपंथी पार्टी के रूप में पहचान रखने वाली भाजपा के शरण में जाने को आतुर इस सांसद के चेहरे पर "म्लान" के भाव हैं ,जहाँ टिकट मिलने , न मिलने की बैचेनी झलकी है | वैसे ,पलामू के अतिरिक्त बिहार के सासाराम लोक सभा क्षेत्र  भी दलित वर्ग के लिये आरक्षित है ,जिसे लेकर भी झारखण्ड/बिहार के राजनीतिक हल्कों में बैठा को अभियोजित करने पर भाजपा का एक वर्ग विचार कर रहा है ,भले ही थोड़ी देर के लिये पार्टी को अपनों का विरोध झेलना पड़े |

    साफ है कि ,बैठा को किसी विचारधारा से कोई विशेष मतलब नहीं है ,वह खुद के राजनीतिक शक्ति के लिये संघर्ष में हैं | इसके लिये कभी राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव ,तो कभी भाजपा प्रमुख राजनाथ सिंह के दरवाजे हो आये हैं | यहाँ यह भी जानिए कि राजनाथ सिंह का ससुराल ,पलामू संसदीय क्षेत्र में ही है और राजनीतिक प्रेक्षक को प्रतीत है कि बैठा को भाजपा कहीं न कहीं 'ठोर' अवश्य देगी | 

Saturday 1 March 2014

चुनावी बजट के राजनीतिक प्रभाव

                 (एसके सहाय)
    कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के केन्द्रीय वित्त मंत्री पी चिदम्बरम ने लोक सभा के सोलहवीं चुनाव के परिप्रेक्ष्य में बजट रखा ,वैसे ही स्पष्ट हो गया कि दस साल तक देश में हुकूमत करने वाली पार्टी की अब "इच्छा शक्ति" मर गई है ,तभी तो वह पूर्णकालिक वार्षिक बजट प्रस्तुत करने के बजाय 'अंतरिम' तौर पर ही लेखा -जोखा पेश की, ताकि चुनाव बाद बनने वाली 'सत्ता' ही वर्ष भर के अर्थकीय गतिविधियों को नियमन करे ,दूसरे शब्दों में इसे 'जिम्मेदारी' से भाग निकलने वाली कदम के रूप में रेखांकित कर सकते हैं |
   पुनश्च्य, अब जब बजट सामने आ चूका है ,तब स्वाभाविक है कि इसके लाभ-हानि के प्रभावों को अर्थशास्त्र के पंडित गंभीरता से समझे ,मगर इसके असर का फिलवक्त आकलन तो राजनीतिक दल और राजनीतिज्ञ करने में जुट गए हैं ,जिसे वह अपनी -अपनी समझ के अनुसार चुनाव में भुना सके | सो , प्रतिक्रिया भी प्राय: हर दल के नेताओं का अपने -अपने हिसाब से आया है ,जिसका आम भारतीयों के लिये कोई मतलब नहीं | इससे चुनाव बाद काफी विकट स्थिति आर्थिक जगत में उत्पन्न होने की संभावना बढ़ गयी है | गोलमोल अंदाज़ में सामाजिक ,कृषि ,स्वास्थ्य ,चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में बात होने से साफ है कि बजट में लओके सभा अर्थात निम्न सदन के निर्वाचन के बाद तब्दीलियाँ आने निश्चित हैं | यह किस रूप में सवा अरब आबादी के समक्ष आएगा ,यह मौजूदा समय में सपष्ट तो नहीं हैं ,मगर जिस तरह से 'राज' अर्थात सरकार को १९९१ से संचालित करने की मनोवृति का उदय हुआ है , वह भविष्य में तीखी आन्दोलन के संकेत इसमें छिपे हैं |
      मतलब यह कि, लोकतान्त्रिक समाज की सत्ता अर्थात सरकार में राज-काज का दृष्टिकोण यदि "व्यावसायिक" हो जाये ,तब अधिसंख्य लोगों को उसका शिकार होना उसकी नियति बन जाती है और पिछले २३ सालों में देश की सरकारों ने 'कल्याणकारी संकल्पना' से इत्तर नजरिये का ही परिचय दिया है ,चाहे वह पीवी नरसिंह राव की सरकार हो ,या फिर देवगोडा, गुजराल , बाजपेयी या मौजूदा मनमोहन की सरकार , सभी ने मुलभूत जरूरत के विषयों/ क्षेत्रों को 'व्यापार/उद्योग की तरह ही देखा है और नागरिकों को बरगलाने के ही यत्न किये हैं | ऐसे में , चिदंबरम ने चुनाव को ध्यान में रखकर वार्षिक बजट को अधूरे मन से "ललो -चपो" के साथ स्वरूप दिया हो तो आश्चर्य नहीं | इसके पहले भी देश के वित्त मंत्रियों ने काफी कुछ इसी तरह के बजट देश में प्रस्तुत किये हैं |
    वैसे ,भी राजनीतिक चर्चा -परिचर्चाओं के बीच "अर्थ नीति" के मामले में कहा जाता है कि भाजपा और कांग्रेस कम से कम उस क्षेत्र में एक -दूसरे के साथ हैं अर्थात कार्बन कॉपी हैं | उदाहरण देखिये - रिलायंस कंपनी के प्रमुख मुकेश अंबानी पर दिल्ली के तत्कालीन सरकार (अरविन्द केजरीवाल) ने गैस के दामों में हुए भ्रष्टाचार को लेकर आपराधिक मुकदमे दर्ज करने के निर्णय लिये और वह दर्ज भी हुआ ,तब उस चर्चित मामले में दोनों पार्टियां दम साधे चुप रही | यह बताता है कि ,आर्थिक प्रगति ,उन्नयन और विकास को लेकर देश की दो बड़ी राजनीतिक दलों में आपसी परोक्ष समझदारी है | कहने का मतलब कि 'विकास' के तथाकथित रास्ते को तय करने में दोनों के मध्य आपसी रिश्ते हैं |
      अतएव , मौजूदा बजट को 'यथास्थितिवाद' का द्योतक के रूप में ही लेना चाहिए ,जिसमे परवर्ती काल में अर्थात चुनाव बाद परिवर्तन के पूरे आसार हैं |अर्थ विज्ञानी ,जो फिलवक्त इसके चिर -फाड में जुटे हैं ,वह निरर्थक है | मोबाइल,  वाहन , फ्रिज जैसे वस्तुओं के सस्ते होने के फायदे और शिक्षा में मिले कर्ज के ब्याज में अनुदान के लाभ सतही होने के साथ ही यह सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने की कोशिश भर है ,जिसके स्थायी राहत के कोई संभावना नहीं है | तब इससे खुश किसे होना है ?
        हकीकत तो यह है कि मनुष्य अर्थात भारत जैसे विकासमान देश के लिये भोज्य पदार्थ , ईंधन ,कपडे -लते , स्वास्थ्य ,शिक्षा ,परिवहन आजादी के ६३ साल बाद भी अहम है और सरकारें है कि इन सभी मामलों में "लाभ -हानि" अर्थात व्यावसायिक तरीके से विचार करती है ,जो बराबर " असंतोष " को जन्म देने वाली प्रक्रिया के तौर पर सामने आई है | १९७७ में तानाशाही व मंहगाई को लेकर जनता पार्टी का प्रयोग , १९८९ में बोफ़ोर्स जनित भ्रष्टाचार की गूंज के अतिरिक्त १९९६/१९९७/ १९९८/१९९९ / २००४-२००९ के सत्ता परिवर्तन के "मुड' अर्थात मन:स्थिति आम भारतीयों की क्या थी ? क्या यह सच नहीं प्रतीत है कि भाजपा और कांग्रेस के साथ गुंथे प्राय: हर दलों की सोच एक -दूसरे से प्रभावित है ,भले ही इसके आख्यान धूर्त नेता अपनी -अपनी जरूरत एवं विचारधारा के चश्में में करते हों |   
       देश में अब मध्य वर्ग का विस्तार  काफी मात्रा में है |इससे तदर्थ नीतियों का अवलंबन करने का साहस सरकारें करती है और इसी में असंतोष /विद्रोह/ विग्रह के भाव अकस्मात जन्म लेते हैं और उसी का प्रस्फुटन आज 'आम आदमी पार्टी' में हुआ है , जिसके शक्ति का अंदाज वर्तमान सत्ता के शीर्ष पर काबिज तत्वों को नहीं है | पहले सत्ता के बारे में ज्यादा समझ लोगों को नहीं हो पाती थी, परम्परागत सोच ही हावी मन -मस्तिषक में रहते थे ,लेकिन कम से कम लगातार सत्ता के बदलाव से अच्छे -बुरे का पहचान भी लोग करने लगे हैं ,जो कम बड़ी उपलब्धि नहीं है |
     सामाजिक क्षेत्रों के हालात को समझें ,तब काफी भयावह चेहरे नजर आयेगें ,जिसमे बजट के सारहीन होने की अनुभूति होगी | सरकारी स्कूलों में कौन बच्चे पढते हैं ? सरकारी अस्पतालों में कौन इलाज करता है ? उत्तर है -कमजोर तबके के लोग/परिवार ,फिर इन क्षेत्रों पर भारी-भरकम रकम खर्च करने का क्या ओचित्य ?  जवाब है ,लोकतान्त्रिक सत्ता के लोक कल्याणकारी अवधारणा के तहत ,यह प्रबंध जरूरी है | सुनने ,पढ़ने और समझने में यह काफी लोक -लुभावनी प्रतीत है ,जैसा पेश बजट को लेकर जन चर्चा है ,मगर यथार्थ यह है कि इसके आड़ में व्यापारिक नजरिये का ही पक्ष -पोषण सरकार कर रही ,जो इस बजट में 'खानापूर्ति' के स्वरूप में है अर्थात बाजारवाद को बढ़ाने वाली बजट समझा जाये ,तो कोई गलत नहीं होगा |
     निष्कर्षत: यह कि आकडों के जरीये देश -दुनिया को बरगलाने की प्रवृति बराबर रही है ,जो मौजूदा पेश बजट में सलीकेदार ढर्रे पर मौजूद है , असल बात यह है कि आखिर देश को कोटा /परमिट और लाइसेंस /इन्स्पेक्टर राज से कब मुक्ति मिलेगी ?इस सन्दर्भ में मोरारजी भाई देसाई के प्रधान मंत्रित्व काल को जाने ,तब मालूम होगा कि कैसे उनके वित्त मंत्री एचएम पटेल ने एक झटके में मंहगाई को नियंत्रित कर लिया था | इंदिरा गाँधी के प्रधान मंत्रित्व काल में सरसो तेल ३०/३५ और चीनी १५/२० रूपये प्रति किलोग्राम थी , वह नई बजट पेश होते ही क्रमश: ८/९ व २-३०/२-३५ रूपये के दर से खुले बाज़ार में सहज तौर पर उपलब्ध हो गई थी, कहने का तात्पर्य कि रोजमर्रे के सामानों के दामों में स्थिरता पहली आवश्यकता जनतांत्रिक समाज को रहती है ,यह नहीं कि गैस के दामों को मोबाइल फोन की तरह हर पखवारे बदलते रहे , अनुदान देने में कंजूसी का मतलब "आम" समस्या को निमंत्रण देने जैसा है | इस मूल जरूरत को पहचान करने में मौजूदा सत्ता चूक गई है ,इसलिए इसके अवसान की प्रक्रिया भी शुरू है , मेरे ख्याल से इसमें दो मत नहीं |

 जैसा कि यह आज के भारतीयों को मुलभूत जरूरत है ,

Sunday 16 February 2014

केजरीवाल : सबक में इतिहास

               (एसके सहाय)
      कहते हैं , इतिहास कभी नहीं मरता ,जब भी स्थितियां इसके अनुरूप होती है ,वह अपने को दोहराता है ,काफी कुछ यही बात अरविन्द केजरीवाल के मुख्य मंत्री के पद से इस्तीफे दिए जाने की है ,वह दिल्ली विधान सभा में सदन की हालात से खिन्न होकर त्याग पत्र दिए जाने की घोषणा कर रहे थे ,ठीक उसी क्षण दिल्ली कांग्रेस के अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली ,पार्टी विधायको का समर्थन मौजूदा सरकार को जारी रखने की बात कर रहे थे,यह विरोधाभास बता रहा था कि, कांग्रेस २४ साल बाद भी नहीं बदली है ,इसकी रणनीतियां ठीक उसी तरह की आज भी है ,जैसे प्रधान मंत्री चंद्रशेखर काल के समय थी , उस वक्त भी कांग्रेस राजीव गाँधी के नेतृत्व में इसी तरह की नाटकबाजी कार रही थी , लोक सभा में तत्कालीन सरकार अपने पहले 'विश्वास मत' पर बहस कर रही थी और कांग्रेस के निम्न सदन के सदस्य ,उससे बाहर आकर चंद्रशेखर सरकार को अपना समर्थन दिए जाने की बात कर रहे थे ,जिससे आजिज होकर चंद्रशेखर ने लोक सभा में ही अपने त्याग पत्र दिए जाने की घोषणा कर डाली थी और राष्टपति को उसे जाकर सौंप दिए थे |यही दुहरा अर्थात "दुरंगी नीति" का अनुसरण एक बार फिर कांग्रेस ने 'आप' अर्थात केजरीवाल सरकार के साथ की है |
      घटना देखिये , 'आप' की दिल्ली सरकार , केन्द्रीय पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोईली , उद्योगपति मुकेश अंबानी समेत अन्य पर " गैस " के दामों पर सुनियोजित भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आपराधिक प्राथमिकी दर्ज किये जाने के आदेश दे चुकी है और अपने घोषित "जन लोकपाल" के लिये विधान सभा में विधेयक रखने वाली है ,जिसका कांग्रेस / भाजपा विधायकों ने इतने जबर्दस्त अशोभनीय तरीके से सदन में खिलाफत की, कि वह पेश ही नहीं हो सका | पिछली सदी के अंतिम दशक के शुरूआत में भी यही हुआ हुआ था , कांग्रेस ने अपने चिर-परिचित अन्दाज में तिकड़मी रणनीतिक योजना के तहत चंद्रशेखर को प्रधान मंत्री की कुर्सी दिला तो दी थी ,मगर इसके मंशा कुछ और थे ,जिसमे यह था कि इसे ज्यादा दिनों तक न टिका कर ,कोई बहाने से गिरा दिया जाये ,जिससे जनता दल और इससे मिलते -जूलते पार्टियों के चेहरे इस कदर लोगों में 'लालची व अवसरवादी'  के रूप में स्थापित कर दिया जाये कि वे मध्यावधि चुनाव में कांग्रेस के आगे धराशायी हो जाएँ |इतफाक से कांग्रेस को एक हल्का मौका भी मिल गया , हरियाणा के दो पुलिसकर्मी राजीव गाँधी के आवास पर टहलते हुए दबोचे गये ,जिसे कांग्रेस नेताओं ने यह कहकर प्रचारित और ब्लैकमेल करना शुरू किया कि दोनों सिपाही पार्टी नेता के "जासूसी" कर रहे थे | इसी को मुद्दा बनाकर कांग्रेस ने चन्द्रशेखर से 'राजनीति के मोल -भाव' करने शुरू किया ,जिसे अपमान समझ ,प्रधान मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिये थे  |
     उस वक्त भी, कांग्रेस ने अल्पमत सरकार को अपना समर्थन दिया था और इस बार भी अल्पमत केजरीवाल सरकार को बिना शर्त समर्थन दिए जाने की बात की थी ,मगर विधान सभा में इतने विद्रूप ढंग से इसके विधायकों ने हरकत किये की ,कि जन लोकपाल विधेयक प्रस्तुत ही नहीं हो सका , जिसे मुद्दे बनाकर केजरीवाल ने पद त्याग की घोषणा ही कर डाली ,हालाँकि इसमें "आप" के रणनीतिक कदम भी नेपथ्य की राजनीति के लिये छिपे थे |
     जाहिर है , भारतीय राजनीति का चेहरा अब भी वही पुरानी "साजितन" है ,फर्क केवल "मुद्दे" को लेकर है और इस तरह की पैतरेबाजी करने में कांग्रेस को महारथ हासिल है | मामला ,दो पुलिसकर्मियों के कथित जासूसी का हो या अब संवैधानिक/ उप राज्यपाल के निर्देशों का , यह ऐसा विषय नहीं था कि उसके लिये विधायिका में हंगामे /जोर जबरदस्ती के हालात पैदा किये जाएँ , जन लोकपाल विधेयक " देश की संप्रभुता को चोट पहुंचाने वाली एवं पृथकतावादी "  विचारों से जुड़ा नहीं था ,बल्कि इसमें ' लोकतान्त्रिक व्यवस्था के मूल  का 'प्रस्फुटन' होना था ,जो वर्तमान में देश को शिद्दत से जरूरत है |
              वैसे ,भी इन दिनों देश में "काम' की राजनीति का करीब -करीब अभाव है ,जो रचनात्मक / सकारात्मक करने की राह में हैं ,उनके रास्ते में कांटे बिछाए जाने के प्रयास हैं , उप राज्यपाल  जंग केन्द्रीय सत्ता के एजेंट भर हैं , वह सीधे किस आधार पर विधायिका को निर्देशित कर सकते हैं कि --यह करो ,वह मत करो , यह संसदीय पद्धति के शासन के लिये गंभीर विषय है| गलत या सही इसका निर्णय संघ सरकार अपने मान्य व्याख्या के अनुरूप लेने की अधिकारिणी है ,इतना ही नहीं ,इसमें राजनीति घुस जाये तब और प्रवेश कर भी गया है ,इसका फैसला स्वतंत्र देश की स्वतंत्र अदालत करेगी कि क्या वैध/ अवैध और उचित /अनुचित है | दलगत राजनीति में डूबे राजनीतिज्ञ को यह हक कदापि नहीं दिया जा सकता कि ,वह डग-डग पर रोडे अटकाए ,जैसा कि कांग्रेस और भाजपा ने किया है |
    दरअसल ,सार्वजनिक जीवन में नियमों /परिनियमो का महत्त्व अब तत्कालीन लाभ /हानि से जुड़ा है | कोई किसी के प्रति निष्ठावान,प्रतिबद्ध , वचनबद्ध ,समर्पित नहीं है ,झाल -झपट की भेंट राजनीति मौजूदा समय में है ,जहाँ -लाज -शर्म के लिये कोई जगह नहीं , रिश्वत लेते पकडे जाएँ ,तो दांत निपोड़ते भ्रष्ट तत्व दिख जायेंगे , इसमें राज कर्मचारी से लेकर मंत्री ,मुख्य मंत्री रह चुके कई नामों की फेहरिस्त है |
        एक बात और ,वह यह कि अरविन्द केजरीवाल के इस्तीफे को कतिपय राज प्रेक्षकों ने फिलवक्त गैर जरूरी समझा है ,जो अधकचरी विश्लेषण है, जब अपने समर्थक विधायक (कांग्रेस)ही प्रतिपक्ष अर्थात भाजपा के साथ मिलकर सदन में अराजक माहौल कायम करने में योगदान दे रहे हों ,तब क्या रह जाता है सरकार का ,कुछ भी विधायी कार्य करने को ,ऐसे में एकमात्र रास्ता "सत्ता" के मार्ग से हट जाना ही श्रेयकर है ,जिसका अनुकरण केजरीवाल ने किया है | यह  सब जानते थे कि दिल्ली सरकार कांग्रेस के रहमो -करीब पर आश्रित थी  , केजरीवाल ने भी विवशता में इस चुनौती को स्वीकार किया था , कांग्रेस पहले ही उप राज्यपाल को अपना बिना शर्त वाली समर्थन का पत्र दे दी थी ,तब "आप" संसदीय प्रणाली के मान्य तकाजे को मंजूर करते हुए तख़्त पर बैठना स्वीकार किया , मगर चौकन्ना के साथ , इसमें अपनी राजनीति के मकसद भी अंतर्निहित हों ,तब कैसा अचरज ? 

Thursday 13 February 2014

गहरे अर्थ हैं मोदी-पावेल मुलाकात के

                (एसके सहाय)
    अमरीकी राजदूत नैंसी पावेल और गुजरात के मुख्य मंत्री नरेन्द्र मोदी के बीच हुई मुलाकात के अपने एवं खास अर्थ हैं | यह विशेष इसलिए है कि देश में चुनावी वर्ष का मौसम है ,दित्तीय यह कि संयुक्त राज्य अमेरिका को प्रतीत है कि अगले प्रधान मंत्री मोदी हो सकते हैं और तृतीय यह कि इस 'भेंट' का विश्व राजनय अर्थात कूटनीतिक हल्कों में प्रभाव पड़ना अवश्यम्भावी है | सो , भारतीय लोक सभा अर्थात निम्न सदन के निर्वाचन में इस "बातचीत" का मनोवैज्ञानिक असर होना भी तय है ,जिसके आसार अभी से दिखने लगे हैं |
        पावेल-मोदी मुलाकात और वह भी अमरीका की पहल/आग्रह पर होने का मतलब काफी साफ है ,जो इंगित कर रहा है कि यूनाइटेड स्टेट अब भारत में बढते दक्षिणपंथी शक्तियों अर्थात भाजपा समूह के साथ वाली राजनीतिक ताकतों को स्वीकार करने के मन:स्थिति में है ,जिसके खास वजह भी हैं ,जो दो देशों के आपसी रिश्ते ही नहीं ,वरन पूरे दुनिया के लिये विशेष अर्थ रखते हैं |इसलिए इस बातचीत को मौजुदा परिप्रेक्ष्य में नजरन्दाज नहीं किया जा सकता |
      इस तथ्य से प्राय: सभी अवगत हैं कि अमरीका ने मोदी को 'वीसा' देने से सार्वजनिक तौर पर इंकार किया था | यह इंकार इसलिए था कि उसे मोदी एक 'धर्मांध' व्यक्ति नजर आये थे | इसके मूल में गोधरा दंगे के बाद प्रतिक्रिया में भडके राज्य व्यापी दंगे थे ,जिसके नियंत्रण कर पाने में असमर्थ मोदी को इसके लिये उसने जिम्मेदार माना था ,जिसे अल्पसंख्यक समाज के दुश्मन के रूप में एक राज्य के मुख्य मंत्री को रेखांकित करके वीसा देने से मनाही कर दी थी |
        ऐसे में ग्यारह साल बाद अमरीका को लग रहा है कि जिसे वह 'लोकतान्त्रिक समाज' के लिये घातक और अछूत समझ रहा था ,वह अब " भारत जैसे वहुविध समाज " के शिखर अर्थात प्रधान मंत्री के पद पर आरूढ़ होने वाला हैं ,तब यह इंकार कहीं उसे कूटनीतिक झटके न दे जाये ,सो समय से पहले " संबंधों' को सुधारने की प्रक्रिया को शुरू कर देना ही उसके लिये बेहतर है | वैसे भी ,भारत संसार का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक व्यवस्था वाले देश के रूप में स्थापित है,जिसकी खूबियों से संसार परिचित भी है |
 सोवियत संघ के बिखरने के बाद अमरीका की छवि विश्व "दारोगा" की स्वत: उभर गई है ,जिसमे उसके खुद के योगदान भी कम नहीं है , ऐसे में विश्व के समक्ष उत्पन्न एक नये तरीके के "आतंकवाद" से निपटने के लिये भारत जैसे राष्ट को साथ में रहना उसके लिये मज़बूरी है ,जो "शक्ति" के साथ ही आर्थिक क्षेत्र में बज्ज़र भी आसानी से उपलब्ध करवाने की सामर्थ्य रखता है ,जिसे किसी भी कीमत पर वह खोना नहीं चाहता है | थोड़े देर के लिये चीन, अमरीका के लिये बाज़ार दे सकता है ,लेकिन यह टिकाऊ होगा ही ,इसकी कोई गारंटी नहीं , ऐसा इसलिए कि यह देश भूमंडलीकरण, उदारवाद , बाजारवाद जैसे प्रक्रिया को बढ़ावा देता तो है ,लेकिन यह अब भी "बंद" व्यापार से पूरी तरह मुक्त नहीं है ,जिसके नेपथ्य में सत्ता का सर्वाधिकार वादी स्वरूप के शासन /सत्ता का खतरा निहित हैं | ऐसे में , एशिया ही नहीं पूरे जगत में भारत ही उसके लिये महत्वपूर्ण एवं भरोसे का सतही हो सकता है ,जिसकी मित्रता बदलते विश्व में वह खोना नहीं चाहता |
       इतना ही नहीं , फिलवक्त अमरीका इस्लामिक कट्टरवादियों के आतंक से जूझता देश है और इसका शिकार भारत लंबे अरसे से है ,इसका ज्ञान उसे है, इसलिए भविष्य के सामुदायिक बहुधुर्वीय दुनिया में वह अलग -थलग नहीं पड़ना चाहता , इस साल के अंत में वह अफगानिस्तान से बाहर होगा ,वैसे अमरीका राष्टपति हामिद करजई से १० हज़ार सैनिक बल रखने की गुजारिश भी की है ,ताकि यहाँ उसके अमरीकी हित सुरक्षित राह सके और इसे अफगानिस्तान मानने से इंकार भी कर रहा , जो उसे विवश कर रही कि भारत का साथ उसे एशिया में मिलना अपरिहार्य है |इन हालातों में बराक हुसैन ओबामा (अमरीकी राष्टपति)का परिवर्तित रूख मोदी -पावेल मुलाकात के जरीये आने वाले दिनों के लिये आश्वस्त करते दीखते हों ,तब इस भेंट वार्ता के उपयोगिता को समझा जा सकता है |
       बहरहाल , इस मुलाकात को अमरीका ही नहीं ,वरन संपूर्ण यूरोप के देश अब आँख फाड़कर अपने -अपने हितों के सन्दर्भ में आकलन अर्थात लेखा -जोखा करने में भीड़ गए हैं | ग्रेट ब्रिटेन तो पहले ही मोदी के संग "पेंगे" बढ़ा चूका है ,फ़्रांस भी कतार में खड़ा है ,इसके अलावे कई देश जल्दी -जल्दी अपने कूटनीतिक रिश्ते को सहज करने में जुट गए हैं ,जो बता रहा कि भाजपा को शेष विश्व भविष्य का "शासक पार्टी' मानने के लिये अभी से तैयारियां शुरू कर दिए हैं |
       राजदूत -मुख्य मंत्री के इस मुलाकात का लब्बो -लुआब क्या रहा ? यह खुलकर सामने नहीं आ पाया है ,यदि आया भी है ,तो वह ढंके-तोपे हैं ,जिसका लोक सभा चुनाव के परिणाम आने तक कोई अर्थ नहीं | इसके मतलब ,बदलते सत्ता के साथ ही आने प्रारंभ होंगे | अभी केवल इतना हुआ है कि , इस बातचीत नुमा भेंट ने देश में " भाजपा " को सत्ता में आने के करीब सा मनोवैज्ञानिक आधार मतदाताओं के मध्य तैयार करने अनजाने में मददगार बन गई हैं ,जिसमे बुधि के जरीये चिढ -फाड करके अपने नजरिया कायम करने वाले बुद्धिजीवियों की संख्या में इजाफा हो गई है और इसमें यह तर्क कि "अमरीका ने मोदी के साथ अपने घोषित रूख पर विचार किया है, तब निश्चित है कि उसे अपने ख़ुफ़िया रिपोर्ट अर्थात चुनावी परिणाम का आकलन हो गया होगा |"

   और अंत में यह कि मोदी .भाजपा के घोषित प्रधान मंत्री के दावेदार हैं ,जिनकी महत्त्व को अधिक समय तक संसार के कोई भी देश उपेक्षा नहीं कर सकता ,विशेकर उस स्थिति में जब यह सत्ता लोकतान्त्रिक तरीके से हस्तांतरित होकर अधिशासी "व्यक्ति अर्थात नेता" के पास खुद चलकर पहुंचे | 

Monday 10 February 2014

तीसरा मोर्चा अर्थात अराजक समूह

                                           (एसके सहाय)
    देश में इन दिनों राजनीतिक हल्कों में तीसरे मोर्चे को लेकर बहस -मुबाहिसों का दौर तेज है और इस सन्दर्भ में जब भाजपा के घोषित प्रधान मंत्री के पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ,कोलकाता में यह कहे कि 'थर्ड फ्रंट का मतलब थर्ड ग्रेड है' तो सरसरी तौर पर प्रतीत हुआ कि यह 'शब्दों की तुकबंदी' है , सो, इसे कतिपय क्षेत्रों में हल्के ढंग से लिया गया ,मगर जब इसके "गहराई" में ताक-झांक की गई ,तब काफी चौकाने वाले बातों और स्थितियों के 'भान' हुए हैं | इसलिए इसपर खुले दिल -दिमाग से विचार किया ही जाना चाहिए कि १६ वीं लोक सभा के चुनाव परिणाम आने के बाद कैसी "संघीय" सत्ता की स्थापना जरूरी है ,ताकि एक स्थायित्व वाली सरकार नागरिकों को मिल सके |
       सर्व प्रथम यह जानना आवश्यक है कि तीसरे मोर्चे अर्थात तीसरा मोर्चा की अवधारणा क्या है ? यह मौजूदा राजनीतिक /सामाजिक परिस्थिति में कैसे उपयोगी है ? क्या यह स्थायी सरकार के हित में है ? इसके पूर्व के प्रयोग देश में कैसे रहे हैं ? और इससे आगे यह कि कहीं यह अराजकता उत्पन्न करने वाली 'सत्ता' तो नहीं है ?
      इन प्रश्नों के तह में जाने के पहले ,जरा उस परिप्रेक्ष्य को समझने -बुझने की जरूरत है ,जब यह संकल्पना सबसे पहले अस्तित्व में आई थी ,विशेषकर देश के राजनीतिक सन्दर्भों में , यह इसलिए कि तीसरे मोर्चे के गठन की कवायद उन राजनीतिक हालातों में अबतक हुई है ,जब लोक सभा में किसी दल या दलिय समूह को स्पष्ट बहुमत नहीं थे , तब देश की दो बड़ी पार्टियां संख्या बल में अधिक होने के बावजूद सत्ता के हासिये पर रहने को विवश थी | ऐसे में तीसरे मोर्चे में शामिल पार्टियों के चांदी ही चांदी थी ,भले ही यह कालावधि अल्प समय के लिये ही हो |
      अतएव , एक बार फिर तीसरे मोर्चे की गूंज चुनाव पूर्व सुनाई पड़ रही है ,तो आश्चर्य नहीं | फिर भी ,इसमें दिक्कत इस बात पर हैं कि जिस मोर्चे की बात कुछेक दिन पहले ग्यारह पार्टियों के प्रमुख नेताओं ने की है ,वह पहली नजर में ही अंतर्विरोध से भरा है ,जिसमे आपसी समन्वय एवं सामंजस्य का घोर अभाव है | यह सैन्धान्तिक तौर पर टिकाऊ तो परिलक्षित नहीं लगता ,साथ में विचारधारात्मक स्तर पर भी इनके बीच टकराव के बिन्दू अधिक हैं ,जो इसकी खास कमजोरी को इंगित कर रहा |
     मसलन , तीसरे मोर्चे में भाजपा और कांग्रेस अर्थात राजग एवं संप्रग से अलग राह तलाशने वाली पार्टियों के लिये जगह सैन्धान्तिक तौर पर होनी चाहिए ,तो उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी , बहुजन समाज पार्टी तथा अन्य , बिहार में राष्टीय जनता दल , लोकजनशक्ति पार्टी , जनता दल (यूनाइटेड) व अन्य , पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के संग वाम दल , तमिलनाडु में एआईडीएमके , डीएमके और अन्य ,आंध्र प्रदेश में जगनरेद्दी कांग्रेस , तेलगु देशम व अन्य समेत देश के तमाम वैसे छोटे -बड़े दलों के इसके छाते के नीचे आने चाहिए , मगर व्यवहार में क्या यह संभव है ?
     जाहिर है कि सिन्धांत ,विचारधारा और नेतृत्व के वैक्तित्व के स्तर पर इनके बीच एका नहीं है और कभी इनके बीच पूर्व में गठित मोर्चे में भी नहीं रही | ऐसे में यह निष्कर्ष निकाला जाये कि तीसरा मोर्चा अराजक शक्तियों का प्रतिनिधित्व करता है ,जो विविधता से पूर्ण एकबद्ध देश के लिये अराजक हो सकती है ,तो गलत नहीं होगा | इसके तीन मौकों को संदर्भित किया जा सकता है |
   फिलवक्त ,जिस मोर्चे की बात है ,वह सबसे पहले गैर कांग्रेस सरकार के सन्दर्भ में ही सबसे पहले आई थी ,तब यह राष्टीय मोर्चा के शक्ल में थी, बात १९८९ में जनता दल के नेतृत्व वाली सरकार की है , उस काल में वाम एवं भाजपा बाहर से विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधान मंत्रित्व को सहारा दिए थे | इस सरकार का बाद में कैसे पतन हुआ , यह किसी से छिपा नहीं है | फिर मोर्चा १९९६ और १९९७ में संयुक्त मोर्चा के रूप में अवतरित हुई ,जिसमे एचडी देवगोडा और इन्द्र कुमार गुजराल क्रमश: प्रधान मंत्री के तौर पर देश के सामने आये ,तब यह कांग्रेस के बल पर सत्ता में एक -एक साल के लिये टिकी रही |
      इन स्थितियों में मौजूदा तीसरे मोर्चे के गठन की पहल होती है ,तब इसके नतीजे कितने अराजक होंगे ,शायद कल्पना ही की जा सकती है | इस मोर्चे का एक मतलब साफ है कि भाजपा और कांग्रेस को "केन्द्रीय सत्ता" से दूर रखने की प्रयास के रूप में यह कवायद है | देश को फ़िलहाल ठोस बहुमत से गठित एवं स्थायित्व से लबरेज सरकार की जरूरत है ,इसे मौजूदा दल के नेताओं को बोध नहीं है , यही नहीं ,इनमे विरोधाभास चुनाव पूर्व ही प्रदर्शित है , मायावती /मुलायम - लालू /नीतीश - नायडू / रेड्डी -करूणानिधि/जयललिता तथा अन्य प्रदेशों में कई ऐसे विपरीत समीकरण मौजूद हैं कि इनके स्वार्थ एक -दूसरे से बराबर टकराते रहे हैं , फिर कैसे मजबूत नेतृत्व देश को तीसरा मोर्चा देगा ? यह यक्ष प्रश्न देश के प्रबुद्ध जन इसकी बात करने वाले नेताओं से पूछ रहा है |
    दरअसल ,बात केवल मोदी के सोच की नहीं है | उनके तुकबंदी में भविष्य के सार छिपे हैं | समाज वैज्ञानिकों ने यह शुरू से मान्यता स्थापित कर रखा है कि " पुरूष तीन तरह के विचार एवं व्यक्तित्व वाले होते हैं , जिनमे प्रथम पुरूष वह है ,जो खुद विचरता है और तदनुरूप निर्णय लेकर व्यव्याहर /आचरण करता है | दितीय पुरूष वह है , जो प्रथम पुरूष के बताये मार्ग /नीति सिन्न्धंत / विचार /निर्णय को अपने विवेक से तौलता है ,तब उचित /अनुचित व लाभ /हानि की ओर कदम बढ़ाता  है , लेकिन तृतीय पुरूष बगैर विचारे अर्थात समझे -बुझे बगैर सीधे घोषित /प्रतिपादित बातों को क्रियान्वित कर डालता है | काफी कुछ यही बात मुलायम सिंह यादव , शरद यादव ,नीतीश कुमार सरीखे नेताओं का है ,जिसे "ताल" देने में वाम दलों की अहम भूमिका रेखांकित है |

    कुल मिलाकर यह कि तीसरे मोर्चे में जब संपूर्णता का अभाव है और यह चुनावी दंगल में भी विरोधाभासी स्वरूप में शिरकत करेगी ,तब इसके महत्त्व को चुनावी नतीजे के बाद कौन स्वीकार करने को तैयार होगा ? भाजपा और कांग्रेस को परस्पर विरोधी मानकर हो रही १६ वीं लोक सभा के चुनाव वैसे भी अब दिलचस्प मोड पर हैं ,जिसमे नई पीढ़ी अपने तरीके से मैदान में पैतरेबाजी करने को उतावला है | पूर्व में जिस कथित राष्टीय मोर्चा और संयुक्त मोर्चा का गठन हुआ हैं ,वह परिणाम आने के पश्चात ही "आकार" ले सका है ,ऐसे में इस मोर्चे को "हताशा में उठाये गए कदम" के तौर पर राज प्रेक्षकों ने समझा है ,जो आने वाले दिनों में अराजक राजनीति को जन्म देने में सहयोगी होगी |

Sunday 9 February 2014

राहुल का यह नाटकीय अंदाज

                                    (एसके सहाय)
     कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गाँधी तीन दिन पूर्व झारखण्ड के एक दिवसीय दौरे पर जिस अंदाज़ से अपने निर्धारित कार्यक्रमों में भाग लेकर वापस लौट गए, उससे स्पष्ट है कि वह अभी " चुनावी राजनीति के मैदान " में अपरिपक्व हैं| इनका अवतरण जिस अंदाज में राज्य के तीनों जिलों में हुआ , मानों वह कोई "फिल्म सितारा" हों , जिस तरह १६ वीं लोक सभा के घोषणा पत्र तैयार करने के निमित्त ' आदिवासी महिलाओं एवं अल्पसंख्यक समाज ' से रूबरू हुए , यह बता गया कि अब भी वह पार्टी के चतुर खिलाडियों के फैलाये जाल में फंसे गैर राजनीतिक प्राणी हैं और साथ में चुनिंदे पत्रकारों से हुई विमर्श इनके खोखले रणनीति की ओर इशारा किया है |
      इस दौरे में राहुल के मुख्य फोकस में 'रोड शो' था ,इतफाक से उस दिन माओवादियों का राज्य व्यापी बंद आहूत थी ,जिसमे कार्यक्रम में परिवर्तन करके सुरक्षित तरीके से कांग्रेस ने अपने प्रिय नेता के चेहरे को सड़क पर प्रदर्शित की | यह चेहरा प्रदर्शन हजारीबाग ,कुजू और रांची की सडकों पर कम दूरी में हुआ ,अन्यथा तय कार्यक्रम में १०० किलोमीटर की दूरी निर्धारित थी | अलबत्ता , यह ऐसा रोड शो की झलक थी ,जिससे लोगों को आभास मिले कि वह किसी अन्य ग्रह के जीव हैं ,जिसे आम नागरिक "ग्लैमर" को देखकर अभिभूत ठीक उसी तरह हो जाये ,जिस तरह अभिनय के क्षेत्र में पारंगत अभिनेता को देखकर अक्सर जन साधारण प्राय: हो जाया करते हैं |   
        इतना ही नहीं , राजनीति के दूसरे चरण को देखें - राहुल गाँधी जिस आदिवासी महिलाओं -अल्पसंख्यक समाज से बातचीत किये ,उसमे कौन शिरकत कर रहे थे ? यह जानने का प्रयास भी इन्होने नहीं किया , थोड़ी कोशिश की होती ,तब जाहिर होता कि उसमे मौजूद लोग 'कांग्रेस' के ही नेता -कार्यकर्ता'  शामिल हैं , जो उनको सर्व जन साधारण से किनारे होने का अनुभूत कराती और पार्टी के ज्ञानी एवं तिकड़मी नेताओं के रूख से परिचय कराती |
      इसी तरह ,जब वह रांची के वरिष्ठ एवं चयनित पत्रकारों से बंद कमरे में मुखातिब थे ,तब इनका आग्रह था कि "इस बातचीत" को ऑफ द रिकार्ड ही समझा जाये | साफ है कि इसके मतलब क्या थे ? यह कोई बहुत अबूझ पहेली अब भारतीय राजनीति में नहीं रही ,जिसके लिये कांग्रेस के इस नायक को चिरौरी करना पड़े |
   अब जरा ,राहुल के इस दौरे के प्रयोजन और प्रभाव को देखें ,तो प्रकट होगा कि इस आगमन से कोई नई उर्जा कांग्रेस को मिली हो ,ऐसा प्रतीत नहीं होता | सुरक्षा के ताम-झाम से पार्टी के इस नेता को मीडिया में प्रचार मिला ,मगर इसके निहितार्थों को कोई भी पकड़ नहीं पाया | राहुल अपने दौरे में १६ वीं आम चुनाव के लिये स्थानीय स्तर पर 'जन समस्याओं -संकटो' को समझने के कथित बातों को लेकर झारखण्ड पधारे थे और इनके पास समय इतने काफी कम थे कि चंद घंटों में राज्य की प्रमुख समस्याओं को निकट से जान जाया जाये ,जो कभी सहज नहीं हो सकती |
     वैसे, यह सभी अवगत हैं कि इस दफे के लोक सभा के चुनाव में कांग्रेस के मुख्य स्टार प्रचारक वहीं हैं और वही चुनावी रणनीति तय करेंगे , फिर इस जैसे दौरे का एक अर्थ यह भी निकला है कि पार्टी के इस राष्टीय उपाध्यक्ष को किसी पर 'भरोसा' नहीं ,तभी तो " घोषणा पत्र " के लिये इनके देश व्यापी दौरे हो रहे हैं | देश की परिवर्तित राजनीति में यह पहली बार हो रहा है कि कोई राष्टीय पार्टी का स्वयमेव नेता अपने दम पर आम भारतीयों के नब्ज टटोलने को निकला है | काफी हद तक ,यह मोहन दास करमचंद गाँधी की तरह का अधुनातन दौरा है ,जिसमे महात्मा गाँधी ने सक्रिय राजनीति में भाग लेने के पहले अपने तरीके से देश की सुदूरवर्ती इलाकों का दौरा किये थे और यह जानने के प्रयास किये कि मौजूदा सामाजिक -राजनीतिक मांग और जरूरत क्या है ?
   मतलब यह नहीं कि राहुल के इस झारखण्ड दौरे अर्थात देश व्यापी गमनागमन को राजनीति के आदर्श सूत्र की ग्रहण किया जाये | यह इसलिए कि इस दौरे का मतलब 'सत्ता' पर पुन: काबिज होने के प्रयास से जुड़ा है ,जैसा कि इस नेता ने कई बार कहा है | कांग्रेस के चुनावी घोषणा पत्र तैयार करने के लिये पार्टी में एक से एक धुरंधर प्रकांड विद्वान है ,ऐसे में कांग्रेस अर्थात राहुल का यह स्टंट अपने को अन्यों से श्रेष्ठ बताने को लेकर है ,जो अन्य कांग्रेसियों के लिये नई सबक है कि ' वे ' भावी राजनीति के लिये तैयार /सतर्क हो जाएँ अन्यथा कूड़ेदान में जाने के लिये विचार कर लें |

     यह सर्व विदित है कि कांग्रेस अब व्यवहार में एक कारपोरेट कंपनी की तरह आचरण करने वाली "कार्य शैली" के राजनीति करने की हिमायती पार्टी है ,इसके पसंद -नापसंद  आलाकमान अर्थात सोनिया गाँधी /राहुल गाँधी के इच्छा /अनिच्छा पर निर्भर है , सत्ता के शिखर पर जो चेहरे दिख रहे हैं ,वो केवल मोहरे भर हैं ,जिनकी अपनी कोई अभिलाषा / मनोकामना नहीं , यह दिक्दर्शन आज से नहीं ,वरन राजीव गाँधी के काल से है ,फिर भी यह अन्य से ज्यादा लोकतान्त्रिक दल होने का ढोंग करती प्रतीत है , तब यह नाटक कर रही होती है ,जैसा कि राहुल ने झारखण्ड में किया है | 

Tuesday 4 February 2014

मोर्चेबंदी में झामुमो

               (एसके सहाय)
    झारखण्ड से दो परदेशियों के राज्य सभा के चुनाव में निर्विरोध चुने जाने के बाद सरकार का नेतृत्व कर रही पार्टी झामुमो इन दिनों मोर्चेबंदी का शिकार हो गई है | यह मोर्चा दल के ही तीन विशेष विधायकों ने सामाजिक रणनीति के आधार पर तैयार किया है ,जिसके लिये झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन जिम्मेदार हैं |इसमें किसी तरह के संशय नहीं है |
     अतएव , पार्टी के मौजूदा संकट में सरकार के स्थायित्व पर खतरा स्वभावगत है ,जो आने वाले लोक सभा के साथ विधान सभा के चुनाव में असर करने की दिशा में अग्रसर है |यह इसलिए की झामुमो की राजनीतिक शक्ति में शुरू से ही दो जातियों का योगदान इसके जन्म काल से है ,इसमें एक आदिवासी और दूसरा कुरमी समाज का , इनके बूते ही यह पार्टी अबतक एकीकृत बिहार के वक्त से प्रभावी रही है ,जिसकी अनदेखी का असर चुनावी राजनीति में अब दल देखने को अभिशप्त है |
      फ़िलहाल ,जो संकट झामुमो में पसरा है ,वह उच्च सदन अर्थात अर्थात राज्य सभा के लिये निर्वाचित प्रेमचंद गुप्ता से जुड़ा है ,जिन्होंने अचानक राजद के प्रत्याशी बनके सभी को अपनी ताकत का अहसास कराकर चल दिए और पार्टी के घोषित उम्मीदवार साबित महतो हाथ मलते रह गई जिसमे तुर्रा यह कि इनके लिये नामाकन पत्र तक खरीद लिये गए थे और यह गृहणी अपने दिवंगत पति सुधीर महतो के श्राद्ध कर्म किये बगैर जमशेदपुर से रांची डेरा डाल दी थी कि उसे सांसद बनने के अवसर मिलने वाले हैं ,लेकिन ऐसा नहीं हुआ ,जिससे कुरमी जाति से ताल्लुकात रखने वाले पार्टी के तीन विधायको ने क्रोधित होकर विधान सभा से ही इस्तीफा दिए जाने की सार्वजनिक घोषणा कर दी है ,जिससे झामुमो और सरकार सकते में है |
     इस पटकथा के नेपथ्य में झारखण्ड की राजनीति में दबदबा  को स्थापित करने की प्रक्रिया है ,जिसमे सत्ता पक्ष के साथ ही प्रतिपक्ष के अपने -अपने केन्द्रीय नेतृत्व के सहारे अपनी -अपनी दुकानदारी चमकाने की कोशिश जैसी है | कहानी देखें - 'वो (विधायक) ,उन्हें जानते नहीं ,मगर राज्य सभा के चुनाव में विधायकों के वोटों पर कब्ज़ा उनके ही रहा , नतीजतन "सत्ता" बचाने के समीकरण ऐसे उत्पन्न हुए कि उनके चयन निर्विरोध हो गया |' मतलब ,प्रेमचंद गुप्ता और परिमल नथवानी से है , जो मूल रूप से क्रमश: हरियाणा और गुजरात के वासी हैं लेकिन अब उच्च सदन में वे सूबे का प्रतिनिधित्व करेंगे |वैसे , नथवानी इसके पूर्व भी इसी राज्य से उक्त सदन की शोभा बढ़ा चुके हैं ,तब झामुमो और भाजपा में अनचाहे मतैक्य थे |
    इतफाक से इस दफे स्थितियां विचित्र एवं भिन्न थी , झामुमो ,राजद और कांग्रेस में राज्य सभा में उम्मीदवार संयुक्त रूप से खड़ा करने का विग्रह चरम पर था ,कांग्रेस ने फुरकान अंसारी ,तो झामुमो ने दिवंगत सुधीर महतो की पत्नी साबित महतो को अपना प्रत्याशी खड़ा करने का निश्चय कर लिया था अर्थात सत्तासीन हल्कों में एका का अभाव के बीच राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव की घुड़की ने सबको सरकार के अस्तित्व की चिंता में डुबो दिया ,जिसमे झामुमो ने बिना लाग -लपेट के घुटने टेक दिए ,जो वर्तमान में झामुमो में समस्या पैदा की है |
      विधायक जगन्नाथ महतो ,विद्युत चरण महतो और मथुरा महतो ने संयुक्त तौर पर इस परिघटना को कुरमी जाति के लिये अपमान समझा है | इनके अपमान के पीछे ,जो तर्क है ,वह यह कि सुधीर महतो के बेवा सबिता महतो को पार्टी ने बैठक करके सर्सम्मत से अपना उम्मीदवार घोषित किया था ,फिर झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन ने बिना राय -मशविरा के कैसे राजद के दबाव में आना स्वीकार कर लिया ? 
       साफ है कि झामुमो में अधिनायकवादी प्रवृति के विरूद्ध पहली बार आवाज नेतृत्व के प्रति उच्चे आवाज में गूंजी है ,जिसका असर अभी नहीं ,लेकिन आने वाले समय में काफी नुकसानदेह साबित होने जा रहा है ,जिसका शायद गुरूजी के नाम से मशहूर शिबू सोरेन को अंदाज अब होने को है | सबिता  महतो ,उस परिवार से सबंधित है ,जिसने पृथक राज्य के संघर्ष में अपना बलिदान देने में कभी कोई हिचकिचाट नहीं प्रकट की है  अर्थात स्वर्गवासी निर्मल महतो के भाई सुधीर महतो थे जिनकी पत्नी सबिता महतो हैं | निर्मल महतों को कुरमी समाज में बलिदानी शख्स के तौर पर नमन किया जाता रहा ,जिनकी हत्या १९८५ में जमशेदपुर के मजदुर आंदोलन में सक्रिय रहने की वजह से हुई थी , उस वक्त निर्मल महतो ही झामुमो के केन्द्रीय अध्यक्ष थे ,तब गुरूजी कहे जाने वाले शिबू सोरेन की हैसियत पार्टी में दूसरे दर्जे की हुआ करती थी |
       इस प्रतिशा को ठेस पहुँचने पर आज कुरमी समाज उद्वेलित दीखता हो ,तो इसे मानव सुलभ सामाजिक ताने -बाने अस्वाभाविक भी नहीं कहा जा सकता |इसी शक्ति के बदौलत झामुमो को सिंहभूम के साथ उत्तरी झारखण्ड में दृढ़ता प्राप्त है ,जिसकी उपेक्षा से यह समाज मर्माहत है |इस अपमान जनित चोट से मंत्री जय प्रकाश पटेल फिलवक्त चुप्पी साधे हुए है | इससे पार्टी के राजनीतिक शक्ति में क्षरण होने की संभावना बलवती है | यह संभावना इसलिए भी स्वाभाविक प्रतीत है कि स्थानीय पार्टी के रूप में आजसू का भी विस्तार राज्य में शनै -शनै पिछले कुछ सालों से हुआ है और इसका नेतृत्व भी कुरमी समाज से जुड़ा शख्स सुदेश महतो के हाथों में है ,जो झामुमो के भीतरी विग्रहों पर नजर रखे हुए है |यह पार्टी भी काफी हद तक जातीय गोलबंदी की जुगत में है और यह मौजूदा समय में कामयाब भी दिखती है | उदाहरण सामने है ,हजारीबाग में लोकनाथ महतो - देवीदयाल कुशवाहा ,चार /पांच बार भाजपा के विधायक रह चुके हैं ,मगर इनमे जातीय चेतना हाल में इस तरह जगी कि दोनों अब इससे किनारा कर चुके हैं और आजसू के दामन थाम चुके है | वैसे भी ,
धनबाद ,गिरिडीह ,बोकारो, हजारीबाग , कोडरमा , जमशेदपुर और रांची के इलाकों में कुरमी समाज का अपना प्रभाव क्षेत्र है ,जहाँ इसकी अनदेखी करने का साहस तभी संभव है ,जब इनमे विग्रह के सूत्र तारतम्य में नहीं हों |
   संक्षिप्त में यह कि झामुमो को आकार देने में स्वर्गीय बिनोद बिहारी महतो(पार्टी संस्थापकों में अग्रणी) की शुरूआती भूमिका नकारने की दिशा में शिबू सोरेन आगे बढ़ चुके हैं ,सत्तालिप्सा ने इन्हें बेटे हेमंत सोरेन को ताज पहना दिया ,मगर यह ताज कितने दिनों तक रहेगा ,यह संदिग्ध है |शिबू -हेमंत अब सबिता को खुश करने के लिये निगमों /बोर्डों के अध्यक्ष और समय आने पर राज्य सभा में भेजे जाने के 'लालीपाप' दिए जाने के बात की है ,यह वैसे भी गिरते राजनीतिक स्तर की ओर इशारा की है , भ्रष्ट राजनीति के संकेत हैं |

    बहरहाल ,झारखण्ड अस्मिता ,संस्कृति और स्थानीय पहचान को नजरंदाज करके अब प्राय: सभी दल अपनी विश्वसनीयता पर कुठाराघात किये हैं ,इसमें प्रमुख झामुमो तो है ही ,साथ में झाविमो (प्रजातान्त्रिक) भाजपा ,राजद व आजसू भी शामिल हैं , इनमे झाविमो ने बिकाऊ स्थिति की जमीन इस एलान के साथ तैयार कर दी थी कि वह चुनाव में शिरकत ही नहीं करेगा | इससे बाहरी खिलाडियों को खेलने के पूरे अवसर मिल गए ,जिसमे झामुमो को तत्काल स्वर्गवासी हुए नेता सुधीर महतो का "माइलेज " नहीं मिल सका | इसमें भी संदेह है कि झामुमो का इसमें अपना वैक्तिक स्वार्थ के तार न जुड़े हों | पूर्व के इतिहास से ऐसे कयास  पूरे जोर -शोर से झारखण्ड में चर्चा का विषय बन गई है |
   कुल मिलाकर ,झारखण्ड बाहरी राजनीतिज्ञों के प्रयोगशाला के रूप में सामने है ,राजद के मूल आधार वाले बिहार में एक भी सीट उसे नसीब नहीं है ,मगर पांच विधायकों के बल पर अपने पसंदीदा उम्मीदवार को जीता ले जाना उसकी खास 'धौंस -पट्टी' के रणनीतिक पहलू है ,जिसमे कांग्रेस भी नतमस्तक है ,तो उसकी वजह आसन्न लोक सभा के नज़ारे हैं | पहले भी सूबे से बाहरी तत्व राज्य सभा में जा चुके हैं और इस बार भी उच्च सदन में गए हैं ,तो आश्चर्य कैसा ? इस खेल में कोई एक भी अछूता हो ,तब तो ---