Sunday 16 October 2011

भगवा लहर के वो लाल दिन

                                                            एसके सहाय 

                         भाजपा नेता लाल कृष्ण अडवानी के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के तहत जन चेतना यात्रा शुरू करने के पूर्व इनके मुखार विंद से यह उच्चरित होना कि "अगले लोक सभा में प्रधान मंत्री का चयन पार्टी करेगी "  का राजनितिक निहितार्थ अब साफ है कि खुद उनको भरोसा  नहीं है कि 
भाजप उनको उस पद पर रखकर चुनाव लड़ेगी |
                               उम्र के अंतिम पहर  में अडवानी के अवचेतन मन में  आज भी प्रधान मंत्री के पद की ललक है ,सो, इन्होने स्पष्ट कर दिया है कि वह आसानी से मैदान छोड़ने वाले नहीं हैं ,बल्कि अपने रणनीतिक कौशल पर पूरा भरोसा है ,तभी तो पत्रकारों दो टुक शब्दों में बताया कि  फिलवक्त उनका मकसद भ्रष्टाचार के प्रति देशवाशियों को जागरूक करना है ,जिसके लिए जन चेतना  रथ की   पहिया देश के तेईस राज्यों में अपने विचार रखेगी |
                              वास्तव में , जब अडवानी को यह कहना पड़ा कि     --       पार्टी ही तय करेगी कि      प्रधान मंत्री कौन होगा ? तब यह जाहिर है कि वह नब्बे के दशक  से अभी उबरें नहीं है ,और इस मुगालते में है कि उनकी चिर -परिचित रथ यात्रा से एक बार फिर उनके पक्ष में भाजपा के लिए माहौल बनेगा ,जो कि  ,तब और अब के बीच के फर्क को समझ पाने के फेर में है | इस यात्रा का सन्देश पहले कि भांति लोगों के बीच जायेगा या इसके उलटे परिणाम सामने आयेंगे ,यह कह पाना थोड़ा मुश्किल है |
                           वैसे , व्यावहारिक तौर पर आज की सामाजिक -राजनितिक फिजां में गुणात्मक परिवर्तन पिछले नब्बे के दशक से है , जिसका भान शायद अडवानी को नहीं है ,तब उदारवादी चेहरा के तौर पर भाजपा में अटल बिहारी बाजपेयी थे , जिनको नेता घोषित करने में इन्होने कोई गुरेज नहीं की ,बल्कि कई बार जोर   देकर घोषणा किए कि भाजपा के प्रधान मंत्री बाजपेयी ही होगें |इसका असर यह था कि उस काल में इस स्वयंमेव घोषणा के विरूद्ध दलीय आवाज कभी नहीं उठी ,लेकिन अडवानी के साथ कभी वैसी स्थिति नहीं रही  
,खुद बाजपेयी भी सक्रिय राजनीति नसे हटे तो अडवानी के नाम पर खुलकर बातें कहने से बचते रहे ,जबकि हकीकत में जब भाजपा की उगाई फसल में अडवानी के ही मेहनत थे ,जिसे बाजपेयी काट ले गए |
                            अतएव ,अडवानी के पुन: रथ पर सवार होकर देश व्यापी भ्रमण का मतलब दल के अंदरूनी शक्तियों को अपनी ताकत का इजहार कराना है ,ताकि उनकी स्वीकार्यता भाजपा में बनी रहे |ऐसा इसलिए भी कि हल में भाजपा के राष्टीय कार्य समिति की बैठक में गुजरात के मुख्य मंत्री नरेन्द्र मोदी भाग नहीं लेने को लेकर " नेतृत्व " पर काबिज होने की होड़ के रूप में देखे जाणे की प्रवृति राजनितिक हल्कों में है | यह हालात  अडवानी को उस स्वंयसेवक से देखने की विवशता है ,जिसे अपनी अध्यक्षता में मोदी को महासचिव  बनाया था और इनके ही बूते केशु भाई और शंकर सिंह बाघेला के बीच हुए झगडे के हल में नरेन्द्र मोदी को मुख्य मंत्री बनाने में योग दिए थे |
                               दरअसल ,भाजपा का वर्तमान परिदृश्य पिछली  सदी के अंतिम दो दशकों से बिल्कुल भिन्न है | जनता पार्टी  से नाता तोड़कर पूर्व जनसंघ के नेताओं  ने भाजपा का गठन जब 1980  में किया था ,तब इसके गिनती के ही सांसद थे ,ऐसे में बाजपेयी के नेतृत्व में " गांधीवाद और एकात्म मानववाद " के मिश्रण से बनी अवधारणा के तहत पार्टी को आम लोगों के बीच ले जाणे की बातें पूरे जोर -शोर से हुई ,लेकिन यह देश वाशियों के बीच परवान नहीं चद्ग सका और इसके नतीजे १९८५ के  लोक सभा के चुनाव में सिफर रहे 
.इसका फल यह था कि इसके दो उम्मीदवार ही लोक सभा में पहुँच सके और बाजपेयी स्वयं चुनाव हार  गए |
                             भाजपा की यह दुर्गति त्रासदपूर्ण थी कि ऐसे ही जीर्ण  -शीर्ण  सांगठनिक हालातों के बीच लालकृष्ण अडवानी अध्यक्ष के रूप में अवतरित हुए और इसे संयोग कहें या दुर्योग ,उसी काल में तलक सबंधी शाहबानों प्रकरण का मामला राष्टीय राजनितिक क्षितिज में उछल गया ,जिसमें राजीव गाँधी के प्रधान मंत्रित्व में कांग्रेस सरकार ने उच्चतम न्यायालय के निर्णय को पलटते हुए संसद से 
वैसा विधेयक पारित करवा दिया ,जिससे बहुसंख्यक समाज काफी आहत था ,इसी को शामित करने के उदेश्य से कांग्रेस कि तत्कालीन सरकार ने 46  वर्षों से टला लटके अयोध्या में श्रीराम मंदिर के दरवाजे खोल दिए ,जिसका नतीजा यह था कि इस विषय को विश्व हिन्दू परिषद् ने लपक लिया और वहां पर भव्य मंदिर निर्माण किये जाने की घोषणा कर डाली , जिसे इस बढती शक्ति को भाजपा का मौन समर्थन प्राप्त तो था, लेकिन इसका खुला समर्थन 1989  इसने किया ,तबतक बोफोर्स ,फेयर फैक्स जैसे मामले  देश की राजनीति में  गरमा चुकी थी और कांग्रेस   सरकार बुरी तरह से प्रतिपक्ष के बिछाए व्यूह में घिर चुकी थी | 
                                    इन्हीं ,राजनीतिक -सामाजिक स्थितियों के बीच आडवानी का  करिश्माई नेत्रित्व चमक गई ,जिसमे राम मंदिर के मुद्दे इसके कार्य सूचि में सबसे ऊपर  थे | इस काल में अडवानी ही एकमात्र व् एकछत्र भाजपाई नेता थे जिनके खुला विरोध की हिम्मत किसी में नहीं थी |इस क्रम में छः दिसम्बर 1992  को विवादित राम मंदिर - बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ | इसके पूर्व 1090 में   अडवानी ने सोमनाथ मंदिर से  इस राम मंदिर आन्दोलन को गति देने के लिए रामरथ के नाम पर ठीक उसी तरह दौरे किये ,जैसा की अब सिताबदियारा से एक बार फिर इन्होने भ्रष्टाचार के विरूद्ध अलख जगाने की शुरूआत की है लेकिन तब पूरा भाजपा में विभ्रम की स्थिति नहीं थी ,जैसी कि इस बार परिलक्षित है |
                       यह ,वह काल था ,जब पुरे देश में भगवा की लहर थी और इसमें सवार अडवानी का दमकता   चेहरा की टूटी बोलती थी ,जिसका असर यह हुआ कि भाजपा के संग गलबहियां करने को मध्यमार्गी और क्षेत्रीय दल उतावले थे ,जिसमे जनता दल से जुड़े कई दल अलग -अलग नाम वाले,  बसपा,  अकाली दल, एडीएम के लोकदल असम गण परिषद् और बाद में तृणमूल कांग्रेस -बीजू जनता दल ,तेलगु देशम ,शिव सेना,  नॅशनल कांफ्रेंस सरीखी पार्टियों में होड़ थी |इस कड़ी में बाजपेयी के छ वर्षों का कार्यकाल (1998 -2004  )स्थायित्व को प्राप्त करता रहा |
                               कालांतर   में अडवानी का  पाकिस्तान जाना और वहां के कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्ना  के सम्मान में कसीदे पढ़ा जाना इनको  भाजपा में अपच बना दिया | जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष व् उदार के साथ महान घोषित करना इनके लिए मंहगा पड़ गया और यहीं से इनकी चमक खोती गई  ,जिसका प्रभाव यह रहा कि पार्टी के अध्यक्ष के पद से भारी मन से हटना पड़ा और यही बात आज संघ विचार धारा के उग्र भाजपाई  को  रह -रह कर चिढाती रही है \ऐसे में इनकी मौजूदा यात्रा का क्या हस्र होगा ,वह देखने लायक होगी |