Tuesday 24 December 2013

sksahayjharkhand: मौजूदा "सत्ता" के मूल

sksahayjharkhand: मौजूदा "सत्ता" के मूल:                     (एसके सहाय) नवोदित "आम आदमी पार्टी" के महज डेढ़ साल के जन संघर्ष में राष्टीय राजधानी "नई दिल्ली&quot...

मौजूदा "सत्ता" के मूल

                    (एसके सहाय)

नवोदित "आम आदमी पार्टी" के महज डेढ़ साल के जन संघर्ष में राष्टीय राजधानी "नई दिल्ली" की सत्ता में काबिज होने की परिघटना ने राज प्रेक्षकों को अचरज में डाला है , जो स्वाभाविक भी है , मगर अचरज जैसी कोई बात नहीं | आश्चर्य इस बात का है कि यह किसी ठोस सिन्धांत , विचारधारा , नीति की घोषणा किये केवल "कार्यक्रम" के बल पर इतना समर्थन प्राप्त किया है कि इसे कैसे संगठित राजनीतिक दल या समूह में निरुपित किया जाये , जो भविष्य में इस जैसे अन्य उदीयमान संघटन को राजनीतिक शक्ति के तौर पर प्रस्थापित किया जा सके |
ऐसे में एक शब्द इसके लिये उचित प्रतीत हो सकती है और वह :तदर्थवाद" से उपजी मानसिकता का परिचायक के रूप में जाना जा सकता है | इसमें वर्तमान सत्ता के कार्यशैली ,भ्रष्टाचार और लोक विरोधी क़दमों का समावेश मुख्य है |कार्यशैली से तात्पर्य पारदर्शिता का अभाव , भ्रष्टाचार से मतलब कई घपले -घोटाले का सामने आना और लोक विरोधी से अर्थ "लोकपाल" के पार्टी दुराभाव का मौजूदा केन्द्रीय सत्ता में होना से है |
इन तत्वों से दिल्ली के लोगों ने सीधा साक्षात्कार पिछले काफी अरसे से करते आ रहे थे और इसमें कोई सीधा अर्थात विकल्प ने देखकर सिरे से भाजपा एवं कांग्रेस को नकार दिया , जो अब एक बड़ी चुनौती के तौर पर इनके समक्ष खड़ी है |
अतएव , भविष्य की चुनावी राजनीति की तस्वीर कैसी होगी ? इस विषय पर बहुत तेज़ी से विचार -मंथन का दौर राजनीतिक -सामाजिक हल्कों में गतिमान है और उम्मीद किया जाना चाहिए कि जल्द ही पुरातन पंथी राजनीतिक टोटकों से अब देश की राजनीति से छुटकारा मिलने वाला है , इसकी शुरूआत "आप" प्रमुख अरविन्द केजरीवाल के जज्बे से परिलक्षित है | इसमें कांग्रेस एक बार फिर चक्करघिन्नी की तरह जन वेग में हवा होने की रह पर है | झलक देखें . "आप" को बिना शर्त समर्थन दिए जाने की घोषणा दिल्ली कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष लवली ने चुनाव परिणाम आने के दो दिन बाद खुद की थी और अब जब "आप" ने सरकार बनाने की ओर कदम बढ़ाने शुरू किया , तब कार्यवाहक मुख्य मंत्री शिला दीक्षित ने बिना शर्त समर्थन को ख़ारिज करते हुए बयान जारी किया है कि जन कल्याणकारी कार्यक्रमों के लिये कांग्रेस का समर्थन है , इससे इत्तर नहीं | जाहिर है कि कांग्रेस की दोमुंही बातों से एक बार फिर "आप" को दिल्लीवासियों का विश्वास प्राप्त होगा | यह कोई कहने की बात नहीं कि जन मुद्दे क्या हैं ? इस बारीकी की समझ कांग्रेस के पंडितों को शायद नहीं है कि राष्टीय राजधानी क्षेत्र में रहने वाले लोगों की समझ देश के सुदूरवर्ती इलकों से ज्यादा होती है , इसमें किसी तरह के काइयांपन का प्रदर्शन किसी भी जमे -जमाये पार्टी की लुटिया डुबो सकती है |
बहरहाल , "आप" के सत्ताधारी वर्ग में सम्मिलित होने से प्रकट है कि चरित्र के साथ जन मुद्दों पर अगर संघर्ष करने की मादा हो , तब लोकतान्त्रिक राजनीति में बदलाव को कोई भी ताकत नहीं रोक सकता ,बशर्ते इसमें विश्वास को चुनौती नहीं मिल सके | भाजपा , कांग्रेस ,वामपंथी दल के साथ- साथ क्षेत्रीय दलों में मौजूदा परिवेश में "चरित्र" का संकट है, इसलिए इनको जाति, समुदाय , धर्म , क्षेत्र और अवसरवादी गठबंधन का सहारा लेने की मज़बूरी रहती है |ऐसे में नवोदित 'आप` ने दिखला दिया है कि वह कांग्रेस को पसंद नहीं करती , इसके बावजूद संसदीय राजनीति के तय मापदंडों के तहत सरकार बनाने में उसे गुरेज़ भी नहीं है |गुरेज इसलिए नहीं कि वह `सत्ता` की भूखी है , यह इसलिए कि मध्यावधि चुनाव का तोहमत उसके माथे पर नहीं लगे , इसलिए वह अपने तरीके से दिल्लीवासियों का मनटटोल कर सरकार बनाने को तैयार है , करना तो वही है , जो दिल्लीवासियों के प्राथमिक हित में है और जब सरकार जनापेक्षी और पूर्ववर्ती सरकार के घपलेबाजी उजागर करेगी और दंडात्मक कारवाई होंगे तो कांग्रेस तिलमिलाएगी, कालांतर में वह समर्थन वापसी के तौर पर सामने आएगी  , जो एक बार फिर `आप` को जन समर्थन देने पर गंभीरता से लोगों को उत्प्रेरित कर सकती  है |
पुनश्च , अब राज विश्लेषकों को `आप` के भविष्य को लेकर भ्रम का शिकार होना वाजिब प्रतीत है | यह भ्रम भी इसलिए कि यह उस तरीके से अस्तित्व में नहीं आई है , जैसे अन्य राजनीतिक दल आते हैं , अर्थात येन-केन-प्रकारेण सत्ता हस्तगत करना किसी भी दलगत राजनीति से उत्पन्न पार्टियों का मुख्य उद्देश्य इसके प्रथम रहे हैं | ऐसे में `आप` को समझने के लिये नए दृष्टिकोण की जरूरत है , जिसमे विचारधारात्मक विभेद की जगह "मौके पर उत्पन्न" जन समस्या -संकट ही इसके सिन्धांत ,विचार ,सूत्र ,नीति और कार्यक्रम गढते हैं और यह मौजूदा वक्त में किसी के आयामी शब्दावली का मोहताज भी नहीं है| इसका परिचय कई मरतबे केजरीवाल ने अपने खास लहजे में दे भी दिया है | मतलब यह कि जो मुलभूत आवश्यकता हैं , उसकी परिपूर्ति इसके मुख्य एजेंडे में स्वत: शामिल है , यथा बिजली-पानी के अलावे भ्रष्टचार में लिप्त प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के साथ ही इसमें दोषी पाए गए तत्वों को कठोरतम सजा मुकरर करना , ताकि समाज में राज्य अर्थात सरकार के होने का स्पष्ट सन्देश जाना निश्चित हो |
इतना ही नहीं ,`आप` को जो फिलवक्त कामयाबी दिल्ली में मिली है , इसका यह अर्थ नहीं कि इसकी सफलता के गाथे अन्य राज्यों में भी इसी तरह दुहराएँ जा सकने की संभावना बढ़ गई है | इसमें इतना जरूर तब्दिली आई है कि इस नवोदित पार्टी से जुड़ने की ललक आम लोगों में बढ़ गई है , जिसका उदाहरण है कि `आप` के केन्द्रीय नेताओं को मालूम भी नहीं है और कई राज्यों में इस नाम से पार्टी का गठन भी क्षेत्रीय -स्थानीय तौर पर हो चूका है और इससे संबद्धता के लिये आवेदन भेजे जाने लगे हैं | यह परम्परागत राजनीति जैसा ही है, जिसका अभी ठोस स्वरूप नहीं  |
खैर , `आप` के विस्तार का असली परीक्षा मेट्रो पोलिटन सिटी में होना है , यथा मुंबई ,चेन्नई , कोलकाता, अहमदाबाद , लखनऊ , पुणे , नागपुर , बैंगलोर, जयपुर जैसे  महानगरों में इसकी ताकत का परीक्षण होगा , जहाँ जात -पात से एक अलग दुनिया ही बस्ती है |बिहार , उत्तर प्रदेश ,झारखण्ड , छतीशगढ़ जैसे अन्य प्रान्तों में इसकी अभी सीमित सफलता की ही गुंजाइश है, जिसमे गांव -कस्बे वाली मानसिकता से लोग आजादी छियासठ साल के बाद भी उबर नहीं पाए हैं |

और अंत में एक बात -- देश में उपभोक्तावादी संस्कृति मौजूदा प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की देन है और यही मनोवृति ने दिल्ली में कांग्रेस की कब्र खोद दी , जिसमे मध्य वर्ग में शुमार होती जनसँख्या ने तात्कालिक आवश्यकता को ही पहली जरूरत समझा है , जिसमे "सपाट राजनीति" की अहम भूमिका अन्तर्निहित है , आखिर इस कपटी राजनीति के अगुवा भी तो सिंह ही थे ,जब वह नरसिह राव के प्रधान मंत्रित्व(१९९१-९६) में वित्त मंत्री थे |

Tuesday 10 December 2013

भारतीय राजनीति के बदलते चेहरे

                                            ( एसके सहाय )
देश के पांच राज्यों के चुनाव नतीजों का सबक यह है कि मौजदा राष्टीय एवं क्षेत्रीय दल अब अपने को परिवर्तित दौर में राजनीति के नये "टूल्स" से लैस करें , नहीं तो आने वाले कल् के राजनीतिक बियाबान में खो जाने के लिये तैयार रहें | ऐसा मध्य प्रदेश ,राजस्थान ,छतीशगढ़ , दिल्ली और
मिजोरम के संकेत हैं | यह चुनाव कल् के लोक सभा चुनाव का पूर्वाभ्यास था | स्थानीय मुद्दे के साथ राजनीतिक हल्कों में आर्थिक भ्रष्टाचार ने समूचे समाज को भीतर तक झकझोर दिया है और पारम्परिक पार्टियां इनपर अट्टहास करती दिखी है , जिसका परिणाम है कि "आप" सरीखी नवोदित पार्टी ने एक साथ भाजपा और कांग्रेस का मान -मर्दन कर दिया है और यह अब और उफान पर आने वाला है , जिसमे भाजपानीत राजग गठबंधन को मुश्किलों में डालने की कुव्वत है |
         भारतीय राजनीति में तेज़ी से नये नायकों का प्रवेश हुआ है , इसमें दो मत नहीं कि अरविद केजरीवाल महज डेढ़ साल के राजनीतिक जीवन में वह कर दिखलाया है , जिसकी कल्पना तक शीर्ष पार्टियों के नेता नहीं कर सके थे |इसमें राहुल गाँधी बौने नजर आये ,तो कोई आश्चर्य नहीं | संघर्ष क्या होती है और क्या कहलाती है , यदि राहुल को सीखना हो ,तो केजरीवाल से सीखें |वैसे ,राहुल ने अपनी इन चुनावी प्रतिक्रिया में "आप" के राजनीतिक ओजारों को परोक्ष रूप से स्वीकार कर लिया है , तभी तो उनका कहना था कि दिल्ली के सन्देश को वह ग्रहण कर लिये हैं और कांग्रेस को उसी के तर्ज़ पर आने वाले चुनौतियों के लिये तैयार किया जायेगा |
इस प्रसंग में १९४७ के पूर्व स्वाधीनता संघर्ष को जानने की जरूरत है , मोहनदास करमचंद गाँधी के भारतीय भूमि में दक्षिण अफ्रीका से अवतरण के पहले देश में बाल, पाल और लाल अर्थात बाल गंगाधर तिलक , बिपिनचंद्र पाल और लाला लाजपत राय की तिकड़ी अंग्रेस सरकार से लोहा लेने की थी , इसमें उग्र तेवरों का जलवा भी काफी कुछ अहिंसक तरीके से मौजूदा हाल में "आप" जैसा ही था और तीनों उस काल में अपने -अपने क्षेत्रों में क्रमश: महाराष्ट , बंगाल और पंजाब में आजादी की अलख जगा रहे थे और इनके आन्दोलनों में जन भागीदारी भी कम नहीं थी | इनके ओजस्वी भाषणों में में वह जाज्वलयमान विचार थे , जो अब केजरीवाल में दिख रहे हैं | एक अर्थों में इसे इतिहास का दुहराना भी कह सकते हैं |यह स्थिति उन तीनों नेताओं के रहते देश में राजनीतिक आंदोलन तीखा काफी अरसे से  था |
ऐसे समय में जब गाँधी जी का स्वदेश में वापसी हुआ ,तो शनै ; शनि: आजादी की लड़ाई के तरीको अर्थात ओजारों अर्थात टूल्स में बदलाव आने लगा , ऐसा इसलिए कि एक ही तरह के रास्ते से स्वाधीनता की लड़ाई से लोगों में "अनमना " से हालात उत्पन्न हो गए थे और गाँधी अपने तरीके से सत्य एवं अहिंसा से उपजे सिन्धान्तों के बल पर सविनय ,अवज्ञा जैसी प्रक्रिया को राजनीति को नई धार प्रदान कर रहे थे और यह तब के भारतीयों के लिये एक प्रकार का अलग ही अनुभूति थी , जो बाद के दिनों में आजादी के मतवालों के बीच सिर चढ कर बोला और हम गुलामी के जंजीरों से मुक्त हुए |
फिर आजादी बाद की स्थिति दूसरी थी , जिसमे तपे -तपाये नेताओं का प्रभाव उनके खुद के चरित्रों से चलायमान थे | ऐसे में, पंडित जवाहरलाल नेहरू , लाल बहादुर शास्त्री तक राजनीतिक संघर्ष में कोई खास परिवर्तन नहीं था ,मगर इंदिरा गाँधी और इनके पुत्र संजय गाँधी के कार्यकाल में इन हथियारों में बदलाव हो चूका था और अधिनायकवादी प्रवृति भारतीय राजनीति को भीतर से लोकतान्त्रिक व्यवस्था को खोखला करने में आमादा थी , तब वैसे दौर में नेहरू युग के ही लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने दृढ़ता से जन संघर्ष की अगुवाई की , नतीजा १९७७ में सामने था | इस तानाशाही बनाम लोकशाही लड़ाई में सात साले लगे थे और आज जब केजरीवाल ने महज डेढ़ वर्ष के संघर्ष में भाजपा के विजयी घोड़े को दिल्ली में रोक दिया , तब भी बुजुर्वा राजनीति के विश्लेषक इसे हल्के में लेते प्रतीत हैं | यह काफी कुछ वैसा ही है , जब मर्यादा पुरूषोतम राम के घोड़े को लव -कुश ने थामकर कुछ क्षण के लिये उनके समक्ष चुनौती दे डाली थी |यह हल्कापन भाजपा के लिये काफी गंभीर है और उसे संघ अर्थात केंद्र की सत्ता पर काबिज होना है , तो दृढ़ता के साथ राजनीति में ईमानदारी का परिचय उसे देना ही होगा, जिसमे चारित्रिक पुट की खास अहमियत होगी लेकिन उसमे तिकड़मी बुधिबाजी का स्थान नहीं होना होगा  |
यह वास्तव में , भ्रष्टाचार से निसृत शक्ति है , जिसकी आवाज को दिल्ली के लोगों ने करीने से पहचाना -जाना है | इसने अपने नई पहचान अन्ना हजारे के जरीये कायम की और नेक इरादों के साथ अपने मकसद में पिल पड़ गए , कामयाबी भी पहले चरण में इनकी कम नहीं है , इसीलिए तो आज युवाओं के प्रेरणा स्रोत के तौर पर राहुल के जगह पर अरविन्द केजरीवाल के नाम हैं |
बहरहाल , इन पांच प्रान्तों के इशारों को समझें ,तो विदित होगा कि आनेवाले लोक सभा के चुनाव में पशिचम ,मध्य और उत्तर का इलाका भाजपा के लिये विशेष होगा और कांग्रेस के लिये जीवन -मरण सा होगा | इसे ऐसे समझें , पश्चिम में राजस्थान , उत्तर में दिल्ली और मध्य में मध्य प्रदेश -छतीशगढ़ के विधान सभा चुनाव में भाजपा को अपेक्षित सफलता तो मिली लेकिन दिल्ली का महत्त्व इनमे अन्य से पृथक है , अलग इसलिए कि बहुमत के रास्ते इसी मार्ग से लोक सभा में अधिसंख्य जाते हैं , जिसमे उत्तर प्रदेश की उपयोगिता किसी भी राष्टीय दल के लिये  खास है | ऐसे में दिल्ली उत्तर भारत का आइना दिखती हो तो ताज्जुब नहीं | मिजोरम जैसे सूबों का इस्तेमाल चीथड़े बहुमत में पैबंद जैसा है , इसलिए इस प्रदेश को चुनावी परिदृश्य से अलग चश्मे में देखने -आंकने के प्रवृति समीक्षकों को है |
इन चुनावों का हकीकत तो यह है कि राजनीति के बाज़ार में पारम्परिक लटके -झटके -टोटके का जमाना लद चूका है | लोग अपेक्षा पाल रहे है कि कैसे भ्रष्टाचार से निजात मिले | यह देश -समाज को अन्दर से खाई जया रही है | जन लोकपाल एक वैसा टूल्स रहा , जिसमे लोकतान्त्रिक व्यवस्था के तहत चोरों को अर्थात भ्रष्टाचारियों को दंडित करने की पद्धति विकसित हो सकती थी , बावजूद विपक्ष में रहते भाजपा इसके महत्ता को भांप नहीं पाई और कांग्रेस को नंगा करने के चक्कर में यह खुद के लिये भी सवाल खड़ी कर गई , इसी का नतीजा है कि दिल्ली में इसके रथ बहुमत के नजदीक आते रुक गए और "आप" ने अपनी उपयोगिता सिद्ध कर डाली | अन्ना हजारे ,  राजनीति में सक्रिय नहीं नहीं थे और हैं भी नहीं , लेकिन इनकी मांग के साथ पूरा देश का "अवचेतन मन"  हमेशा रहा , क्योंकि यह ऐसी मांग थी , जिसे एक लोकतान्त्रिक समाज में बराबर आवश्यकता बनी रहती है |इस मुद्दे को केजरीवाल ने ठीक उसी तरह लपका यह कहिये कि आत्म -सात किया ,जैसे अमरीकी समाज विज्ञानी डेविड इस्टन ने कभी यह कहा था कि "जानने का क्या अर्थ है , इसका मतलब है कि उसे करने के लिये अपने को उसमें जोत देना और यह जोतना क्या है , तो इसका तात्पर्य यह कि समाज के हित में अपने को लगा देना , यह लगा देने का क्या मतलब , तो यह कि वैसा कर्तव्य जो समाज के लिये जरूरी है , तो कैसा कर्तव्य , जो सद हो और उसकी रचनात्मक उपयोगिता हो |"
ठीक, यही दिल्ली की राजनीति में "आप" ने किया है , जिसका प्रतिफल सामने हैं और यह डर अब सभी को खाए जया रहा है कि चरित्रगत विशेषताओं के बिना उनके राजनीतिक कांरवा कैसे आगे बढे ?संघर्ष के साथ राजनीतिक ईमानदारी अब भारतीय राजनीति के चेहरे बदलने के लिये आतुर हैं | इसमें , नौकरशाह , किसान , व्यवसायी , कर्मचारी , विद्यार्थी , सामाजिक कार्यकर्त्ता , मजदुर अर्थात हर वर्ग -समुदाय -क्षेत्र के उग्र विचारों का समावेश होगा और यह खास पहचान की मोहताज नहीं होगी , अदना सा दिखने वाला भी कल हमारा भाग्य -विधाता होगें , दिल्ली के "आप" के निर्वाचित विधायकों से ऐसा ही आभास है | यह नई चुनौती है , परम्परागत राजनीति को , जिसमे नई सोच के साथ बदलते समय में नई चेहरे राजनीति के मौजूदा स्वरूप को पलटते दिखे , तब अचरज कैसा ?

दिल्ली विधान सभा के चुनाव परिवर्तित समय में एक अलग तरह का "अभिनव प्रयोग" है , जिसमे विरोध करता स्वर , वर्तमान व्यवस्था को चुनौती देने में देश का ध्यान इसलिए बरबस खिचने में कामयाब है कि बिना विचारधारा ,सिन्धांत एवं  नीति के इसने सिर्फ "कार्यक्रमों" को ही अपने क्षेत्रीय घोषणा पत्रों में जगह दी , जिसमे लफ्फाजी नहीं ,केवल क्रियान्वयन ही इनके मुद्दे रहे |क्या इस मर्म को अरसे से राजनीतिक दल में सक्रिय नेता -कार्यकर्त्ता समझने के लिये तैयार हैं ?