Wednesday 4 May 2011

लादेन मामले पर अमरीका कभी कमजोर नहीं था

                                                               एसके सहाय
अमरीका और ओसामा बिन लादेन के सन्दर्भ में इन दिनों कूटनीतिक क्षेत्रों में शक्ति और इसके तीखे उपयोगिता को लेकर चल रही बहस में गुमराह होने वाली बातों को ज्यादा प्रमुखता से तवज्जो दिया जा रहा है | इससे भारत सहित कई उदीयमान महा शक्तियों को अमरीका के तर्ज़ पर अपने राष्टीय हितों के संवर्धन को लेकर बहस -चर्चा काफी तेज़ है |इसलिए जरूरी है कि "भारत भी अपने दुश्मनों को साफ करने के पूर्व यह भली भांति समझ ले ,कि राष्ट हित से बड़ा और महत्वपूर्ण चीज किसी भी राज्य -देश के लिए कुछ भी नहीं होती |"
सर्व प्रथम यह आप याद करें कि ९/११ उस काल में उआ था ,जब बराक ओबामा के स्थान पर जार्ज डब्ल्यू . बुश वहां के राष्टपति थे, तब इनकी गर्जना कि खौफ से पूरी दुनिया दहशत जादा था ,इनकी पहली घोषणा  थी कि विश्व अपना -अपना मित्र चुन ले ,और हमसे युद्ध के लिए तैयार हो जाय तथा आतंकवाद कि लड़ाई में जो हमारे साथ नहीं हैं ,वे हमारे शत्रु है और दूसरी मुख्य घोषणा थी कि "लादेन" जहाँ भी होगा ,उसे हम खोज निकालेंगे ,चाहे वह किसी भी "बिल " में छुपा हो |
मतलब स्पष्ट था कि अमरीका के लिए लादेन का पकड़ा जाना या इसके मारे जाने का खास अर्थ था और इसके लिए उसने हर उस कूटनीतिक  प्रक्रिया का अवलंबन किया जो उसके राष्टीय हितों के लिए जरूरी था ,लेकिन  ठीक वैसा ही भारत के लिए संभव क्यों नहीं ? इसी बिंदू पर भारत कोई ठोस कदम उठा पाने में चुकता रहा है अबतक , जिसे लेकर अब भी संप्रग और राजग सरकारों की आलोचना होती आ रही है |
इन सारी स्थितियों को जानने के लिए थोड़ा देश की राजनीतिक माहौल को भी देखना होगा ,तब जाकर स्थिति साफ होगी | पहला यह  है कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था का लुफ्त तो हम लेते हैं लेकिन राष्टीय सवालों पर येन मौके पर "वोट " दायें -बाएं हमारी सोच हो जाया करती है ,जिसका लादेन के मारे जाने के बाद इसके अंतिम संस्कार किए जाने के तरीकों पर कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने धार्मिक प्रश् खड़ा करने कि जुर्रत कि ,हालाकिं समय रहते सोनिया गाँधी ने इनको फटकार लगाने में जरा भी देर नहीं की, लेकिन वोट पिपासु व्यवस्था का इससे अच्छा चित्रण देखने को देशवाशियों को मिल ही गया | इसे नहीं समझ पाने का ही आलम है कि "आजादी के बाद से ही हम लगातार आतंकवाद को झेल रहे हैं ,इसके लिए "मत " कि उपयोगिता को ही सबसे मुख्य उपकरण समझा गया है ,ऐसे में यदि कोई ठोस कारवाई भारत नहीं कर पाता, तब  स्पष्ट है कि हमारे जन प्रतिनिधियों में  "इच्छा शक्ति " का घोर अभाव है और जिनके पास दृढ इच्छा शक्ति है ,भी वे शासन सत्ता से कोसो दूर है ,यही भारत की सबसे बड़ी कमजोरी है |
 भारत एक जन तांत्रिक व्यवस्था वाला राष्ट है लेकिन यहाँ "राष्ट हित को पहचान करने वाले राजनेताओं का घोर अभाव है और यदि वे सत्ता में हैं ,तब उनकी कोई पूछ भी नहीं है| " केन्द्रीय मंत्री मंडल में प्रणव मुखर्जी एवं एके अंटोनी की समझ अन्य की तुलना में काफी अधिक है लेकिन इनकी बातों को कोई तवज्जो नहीं ,जब तक कांग्रेसके आलाकमान उसकी इजाजत नहीं दे |लेकिन अमरीका के साथ वैसा नहीं है | लादेन को मजा चखाना था और अपने शक्ति का प्रदर्शन करके दुनिया को जाताना भी था ,सो अमरीका ने बखूबी अंजाम दिया |उस देश में रंग भेद ,नस्ल भेद ,जातिगत भेद या अन्य किसी तरह के अंदरूनी बातें जब तब सामने आती हैं लेकिन कानून के समक्ष जिस ठोस एवं विधिक तरीके से कारवाई होती है ,उसका जरा सा भी अनुकरण हम करने को तैयार नहीं दिखते ,कारण वही दुराग्रही विचार  का होना है ,ऐसे में फिर मुंबई जैसी घटना की पुनरावृति होती है ,तब आश्चर्य नहीं होना चाहिए |
जब अमरीका में अल कायदा ने ९/११ को अंजाम दिया था तब ,पूरे विश्व की जान सांसत में थी लेकिन ऐसे में भी मानवाधिकार का सम्मान उसने काफी धैर्य पूर्वक किया ,लादेन को पकड़ने या मारने में उसने लबे समय का इंतजार भी इसलिए किया की कि   यदि वह चाहता तो लाखों लोगों के बीच बमवारी कर उसे ख़त्म कर सकता था ,ऐसी क्षमता उसके पास थी भी ,लेकिन उसने समय का इंतजार किया और जब मौका आया भी तो कूटनीतिक तरीके को दर किनार करके सीधे लादेन को मार डाला ,यही उसकी कामयाबी के सकेंत को काफी बारीकी से राजनीतिक -कूटनीतिक हल्कों में अन्य देशों से अलग पहचान दिलाने में मददगार हुई ,जिसका फल भी वह भविष्य में कटेगा भी तो अपनी शर्तो पर ,क्या भारत भी वैसा कदम उठा सकता है ? मौजूदा समय में यही यक्ष प्रश्न है |
   पाकिस्तान पर दबाव ,मदद और फटकार के साथ चेतावनी की बरसात करते अमरीका ने दिखा   दिया है कि जब वह कुछ ठान लेता है तब ,उसे पूरा करके दम लेता है ,इसके लिए वह किसी के मदद की इंतजार नहीं करता  ,अपने राष्टीय हितों को ही ध्यान में रखना उसकी उच्च प्राथमिकता सूची में शामिल है | आपरेशन लादेन में उसने अपने  प्राविधिक तकनीकी इजादों को परख भी लिया है फिर वह शक्ति "गुमान क्यों नहीं करे | लोकतंत्र ,वैक्तिक स्वतंत्रता जैसी मूल भूत मानवाधिकारी बातों पर इसके जोर दिए जाने की प्रक्रिया ऐसे ही नहीं है ,भले ही अमरीका इसकी आड़ में अपने राष्टीय  हितों  का संवर्धन करता हो और आप भी करें तो इसके लिए किसने आपको रोक रखा है ?
 

Tuesday 3 May 2011

परवर्ती समय में आतंकवाद :परिप्रेक्ष्य ओसामा बिन लादेन

            एसके  सहाय  
संयुक्त  राज्य  अमरीका  का  सबसे   बड़ा  मुजरिम  ओसामा  बिन  लादेन  के  मारे  जाने  के  बाद  स्वाभाविक  प्रतिक्रिया  में  अहिंसक  जगत  में  ,खास  कर  एक  लोकतान्त्रिक  व्यवस्था  वाले  राष्ट  -राज्य  में  ख़ुशी  की  लहर  है  ,लेकिन  यह  हर्ष  कितने  दिनों  तक  बरकरार  रहेगा  ,इसमें  संदेह  है  ,यह  शक  इसलिए  पैदा  हुआ  है  कि  "दुनिया  को  कोई  भी  बलशाली  कितना  बड़ा  क्यों  न  हो  , वह  संगठित  शक्ति  याने  राज्य  शक्ति  के  आगे  बोना  ही  है  और  ओसामा  बोना  ही  था , जिसे  मार  कर  बहुत  बड़ा  तमगा  पा  लेने  की  कल्पना  यदि  अमरीका  एवं  पश्चिम
   जगत  कर  रहा  है  तो  यह  ख़ुशी  उनके  लिए  क्षणिक  ही  है
 .
इन  बातों  को  समझने  के   लिए  आपको  "व्यक्ति  और  राज्य  शक्ति  के  बीच  के  भेद  को  जानना  होगा  ,तभी  यहाँ  लिखी  शब्दों  के  अर्थ   आप  समझ  सकेंगे . सबसे  पहले  तो  यह  अनुभूत  करें  की   जब  9/11 हुआ  था  ,तब  लादेन  कि  शक्तियों  का  बखान  इस  तरीके  से  तब  किया  गया  कि  वह  सचमुच  पाशविक  शक्तियों  में  अत्यधिक  बलशाली  है  ,मतलब  कि  जो  दुनिया  के  सबसे  ताकतवर  देश  में  अपने  खूंखार  वारदातों  को  अंजाम  दे  सकता  है  ,वह  वाकई  में  काफी  मजबूत  शक्ति   का  स्वामी  है  , न  जाने  किस - किस  तरह  कि  बातें  तब  फिजां  में  तैरती    नजर   आई  .इससे   काफी  कुछ   भ्रम   भी   विश्व  में  फैले  ,जो  सच्चाई  से  कोसों  दूर  तब भी  थे  और  आज भी   है  .
पहले   तो  यह  जानिए  कि  ओसामा  कोई  राज्य  नहीं  था  ,यह  मुठ्ठी  भर  के  धर्मांध  लोगों  का  जनूनी   शक्तियों  का  गिरोह  का  नेतृत्व   कर्त्ता  था  ,जिसमे  इस्लाम  एक  बहाना  था  अपनी  निजी  शक्ति  के  विस्तार  करने  के  लिए ,  ऐसे  में  सिर  -फिरे  लोगो  कि  सम्मिलित  ताकत  इसे  बल  दे  गई  तो  उसे  नायकत्व   प्रदान  उन  हलको  में  कर  दिया  जो , किसी  भी  सूरत  में  इस्लाम  से  इत्तर  कुछ  भी  सोचने  को  तैयार  नहीं  होते  ,जो  प्राय : हर  क्षेत्र - देश  दुनिया  में  मिल  ही  जाया  करते  हैं  .इसमें  जो  ध्यान  देने  लायक  बात  यह  कि  ,ओसामा  को  आखिर  इतने  दिन  तक  कौन  टिकाये  रखा  ,यह  किसी  देश  के  सरक्षण  में  ही  हो  सकता  है  ,इससे  अलग  नहीं   ,ऐसे  में  पाकिस्तान  का  नाम  स्वाभाविक  तौर  पर  सामने  है  ,जो  आज  भी  चिल्ला  कर  कह  रहा  है  :उसकी  व्यवस्था  में  आतंकवादियों -अपराधियों  के   लिए  कोई  जगह  नहीं  है  ,उनके  यहाँ  कानून  कि  सत्ता  है   ,इसलिए  किसी  भी  आतंकवादी को  पनाह  देने  का  सवाल  ही  नहीं  उठता है  " ऐसा  खुद  वहां  के  स्वराष्ट  मंत्री  रहमान  कई  दफे  कह  चुके हैं  . लेकिन  बात  जमती  नहीं  .
बहरहाल , ओसामा  बिन  लादेन  यदि  दस  सालों  तक  दुनिया  की  आखों  में  धुल  झोकने  में  सफल  रहा  तो  वह  इसलिए  की  उसके  सिर  पर  राज्य  शक्ति  का  वरदहस्त  था  ,जिसका  नाम  पाकिस्तान  है  ,भले  ही  अमरीका  या  इसके  पिछलग्गू  देश  इसे  khuleaam स्वीकार  करने  से  हिचकें .
साधारण  सी   बात  है  - समाज  का  उन्नत  रूप  ही  राज्य  -राष्ट  का  होता  है  ,भारत , अमरीका  पाकिस्तान  जैसे  ही  राष्ट  कम - अधिक  मात्रा   में  अलग - अलग  स्वरूपों  में  पूरे  दुनिया  में  "सह  अस्तित्व " के  तौर  पर  स्थापित  हैं , ऐसे  में  एक  आतंकी   कैसे  इतने  दिनों  तक  अपने  को  बचा  सकता  है  ,जब  विश्व  की  तमाम  पुलिस  उसकी  तोह  में  भिड़े  हों , जिसमें  खुद   उसके  आका  अर्थात   पाकिस्तान  भी  शामिल  हो  ,साफ   है  की  "बिना  राज्य  शक्ति  के  कोई  भी  ताकतवर  प्राणी  लंबे  काल  तक  अपने  को  नहीं  छिपा  सकता  "
ऐसे  में  लादेन  के   9.11 के  पश्चात    गुमनाम  तरीके  से  रह  कर  आतंकी  कारवाई  को  अंजाम  दिए  जाने  की  बात  पचती  नहीं , इसलिए  अमरीका  के  बढ़ते  दबाव  में  पाक  सरकार  झुक  कर  भविष्य  को  ध्यान  में  अपने  को  सुरक्षित  करने  की  कोशिश  की   है  ,तब  ताज्जुब  नहीं  कर्म  चाहिए , आखिर  पाकिस्तान  एक  वैध  सत्ता  ही  तो  है  ,जिससे  एक  राज्य  की  तरह  ही  कूटनीति गत  तरीके  से  व्यवहार  किए  जाते  रहें  हैं , ऐसे  में  अमरीका  हो  या  अन्य  कोई   देश   के  सरक्षण  के  बिना  कोई  भी  आतंकी  ज्यादा  समय  तक  अपने  को  दुनिया  से  छिपा  कर  नहीं  रह  सकता  .
   ऊपर  लिखित  बातों  को  यदि  आप  नहीं  समझ  पायें  तो  एक  उदाहरण  से   इसे   समझने  की  चेष्टा  करें , एक  थानेदार  को  अमूमन  अपने  इलाके  की  पल  -पल  ki जानकारी  होती  है  ,यदि  सूचना  मिलने  में   देर  है   ,तब  समझें  की  वह  जन  बुझ  कर  नौटंकी  कर  रहा  है  या  
नाकाबिल   है  या  वह  अपराध  जगत  से  उपरी  कमाई  करने  की  जुगत  में  है  , और  यदि  वह  ईमानदारी से   अपने  कर्तव्यों  का  निर्वाह  करने   शुरू   कर  दे   तब , उस  क्षेत्र  में  कोई  भी  अपराधी  लंबे  समय  तक  नहीं  शरण  ले  सकता  और  यदि  वह   है  तो साफ  मानिये  की  उसकी  अपनी  कमजोरियां  हैं  ,जिससे     वह  अपनी  डयूटी  नहीं  कर  रहा  है  ,जिसमें  रिश्वत , जातिगत  मामले  या  एक  के  लिए  दूसरे  को  छुट  देने  की  विवशता  जैसे  अपनी  -लाभ  -हानि  के  विराग   काम  करते  हैं , लेकिन  अगर  यह  ठान  ले  की  उसके  इलाके  में  अपराध  या  अन्य  कोई  गैर  क़ानूनी  काम  नहीं  हो  तो  क्या  कोई  उसे  ऐसा  करने  से  रोक  सकता  है  ,कदापि  नहीं , व्यावहारिक  तौर  पर  देखें  तो  मालूम  होगा  की  उसे  तबादले  झेलने  होंगे  ,वह  भी  अन्य  के  हितों  के  लिए  .यह  एक  मामूली  सी  एक  पुलिस  अधिकारी  का  रूख  हो  सकता  है  .
अतएव  लादेन  जब  10 वर्षों  से  टिका   रहा  ,तो  साफ   है  कि  उसके  पीछे  राज्य  शक्ति  का  ही  हाथ  है  ,इसके  इत्तर  कुछ  भीं  नहीं , लादेन  की  उपयोगिता  पाकिस्तान  के  लिए  ख़त्म  हुई  तब  इसे  पाक  ने  ठिकाने  लगा  दिया अमरीका  के  हाथों , इसमें  आश्चर्य  करने  वाली  कोई  बात  नहीं  है  , जिस  जगह  पर  लादेन  के  मारे  जाने  कि  बात  हो  रही  है  ,क्या  उसके  बारे  में  पाक  सरकार  या  सेना  या  इसके  ख़ुफ़िया  तंत्र  को  वाकई  में  कोई   जानकारी  नहीं  थी ?ऐसा  हो  ही  नहीं  सकता  ,पाक  अब  भी  लगातार  झूठ  पर  झूठ  बोले  जा  रहा  है  और  भारत  सिर्फ  अपने  ऊपर  हुए  आतंकी  हमले  की  बात  कर  रहा  है  .ऐसे  में  यदि  फिर  कोई  बड़ी  हिंसक  घटना  होती  है   तब  भी  कोई   आश्चर्य  नहीं  .
पूरे  विश्व  के  आपसी  रिश्ते  कूटनीति  से  या  दौत्य  सबंध  से  परिचालित  होते  हैं  ,जैसे  अमरीका  और  भारत  या  इससे  स्वभाव  वाले  राज्य  केवल  कुटनीतिक   तरीके  से  रिश्ते  बनाते  और  बिगड़ते  है  लेकिन  भारत  -नेपाल  ,पाकिस्तान  श्रीलंका  बंगला   देश,  Bhutan  या  अन्य  से  रिश्ते  का  आधा r "दौत्य " ही  है  ,जिसमे  हर  वक्त  कूटनीति  ही  प्रभावी  नहीं  होती  ,यदि  इसे  समझ  लेन  तो  फिर  लादेन  का  मामला  भी  आसानी  से  समझ  सकते  है  अन्यथा  नहीं .
अब  जब  लादेन  मारा  जा  चुक्का  है  तो , आने  वाले  दिनों  में  और  अधिक  सावधानियां  बरतने  की  जरूरत  hai  .यह  तो  स्पष्ट  हो  चुक्का  है  कि  एक  राज्य  भी  आधिकारिक  रूप में  अपराधी  -आतंकवादी  को  शरण - सरक्षण   दे  सकता  है  ,ऐसे  में  अस्थिरता  का  दौर  जारी  रहे  और  मार - काट  होती  रहे  ,यही  आज  संसार  कि  मुख्य  त्रासदी  है  ,जिसके  चपेट  में  भारत  लगातार  आजादी  से  जूझता  आ  रहा  है  और  अमरीका  व्  पशिचम  देश  तो  हल  में  उसके  चपेट  में   आये  है  ,फिर  वह  क्या  जाने की  'अराजक  स्थिति  में  आतंकवाद  का  दर्द  कैसा  होता  है  किसी  व्यवस्थागत  देश  में  जहाँ  कानून  की  सत्ता  सिर्फ  दिखावे   भर  की  होती  है  और  आम  नागरिक  घूंट  कर  रहने  को  विवश  होता  है   "
यहाँ  एक  बात  और  जरूरी  है  ,वह  यह  की  लादेन  की  दुनिया  के  ख़त्म  होने  का  भ्रम  विश्व  नहीं  पाले  , अब  छोटे  -छोटे  समूहों  में  उससे  भी  अधिक   खतरनाक  आतंकवादी  गिरोह  पाकिस्तान  अफगानिस्तान  जैसे  दुनिया  में विचर  रहे  है  ,जो  मौका  मिलते  ही  अपनी  ताकत  का  अहसास  कराने  से  नहीं  चुकेंगे  और  इसके  पीछे   भी  कोई  राज्य  की  शक्ति  निहित  हो  तो  उसे  अब  कुटनीतिक  तरीको  से  हल  करने  की  सोचना  बेवकूफी  भरा  ही  होगा  ,इसलिए  सख्ती  का  इल्म  ही  शांति  का  बड़ा  स्रोत  हो  सकती  है  ,जिसे  अमरीका  ने  लादेन  के  परिप्रेक्ष्य  में  दिखा  दिया  है  ,जिसे  सबक  के  तौर  पर  भारत  जितना  जल्द  ग्रहण   कर  ले  उतने  ही  हितकर  होगा   .