Friday 31 January 2014

'सत्ता' का बचकानापन

                (एसके सहाय)
   कुछेक दिन पूर्व दिल्ली के मुख्य मंत्री अरविन्द केजरीवाल ने दिल्ली पुलिस के कार्य पद्धति के विरूद्ध धारणा दी थी और इस आंदोलनात्मक कदम की राजनीतिक,प्रशासनिक एवं संवैधानिक हल्कों में जबर्दस्त अनुगूँज सुनाई पड़ी थी ,जिसका असर यह है कि अब उच्चतम न्यायालय इस पर सुनवाई जनित विचार करने को विवश है | यह देखने ,सुनने में सामान्य सी परिघटना है ,मगर वैसा वास्तव में नहीं है ,जिसे नजरंदाज कर दिया जाये | विशेष कर, उस बयान के बाद ,जब केजरीवाल कहते हैं कि "उन्होंने दो -दो बार संविधान को पढ़ा है ,जिसमे एक मुख्य मंत्री को धरना देने पर रोक /मनाही नहीं है |"
         अतएव , इस विषय पर गहन मंथन की आवश्यकता है |जरूरत इसलिए कि अगर एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सत्ता पर विराजमान शख्स खुद सामाजिक मुद्दे पर आंदोलनात्मक रूख अख्तियार करने लगे ,तब शासन के ' चलायमान' पर खतरे मंडराने लगेंगे ,फिर समाधान आखिर कौन करेगा ? इस स्थिति में अराजकता उत्पन्न होना स्वाभाविक है ,जो कि किसी भी वैध शासन के लिये नुकसानदेह साबित होने निश्चित हैं | ऐसी परिस्थिति में लोगों में किकर्तव्यविमूढ़ के हालात पैदा होगें ,जो सत्ता को ही खाक में मिला देगा, जो कमोबेश जंगल राज से कम नहीं होंगे|
    केजरीवाल जिस मुद्दे को लेकर धरना पर बैठे थे , उस मुद्दे को लेकर उनकी पार्टी आंदोलन करती ,तब बात कुछ समझ में आती ,लेकिन यहाँ तो सरकार ही आंदोलनरत है ,फिर समाधान कैसे होगा ? यह प्रश्न आज भी राज प्रेक्षक तलाश रहे हैं ,किन्तु निदान अबतक सामने नहीं आ पाया है ,जो बौद्धिक चिंतकों के लिये गंभीर बात है |
      घटना क्या थी , कानून मंत्री सोमनाथ भारती , दिल्ली पुलिस को अपने जाँच -पड़ताल के बाद निर्देश देते हैं कि वह काले धंधे में अंतर्लिप्त विदेशी महिलाओं के खिलाफ कारवाई करे ,जिसे वह मानने से इंकार कर देती है और इसी को अपना अपमान समझ मुख्य मंत्री केजरीवाल क़ानूनी रूप से वर्जित स्थल पर धरना देते बैठ गए , जो निषेधाज्ञा का खुल्लम खुल्ला उल्लंघन था |इनकी मांग थी कि मंत्री के बात नहीं मानने वाले पुलिसकर्मियों को दंडित किया जाये |
      यह सब जानते हैं कि दिल्ली अर्ध राज्य है ,जिसके दायरे में पुलिस महकमा नहीं आती है ,सो तत्काल पुलिस ने मंत्री के निर्देश को कानून सम्मत नहीं मानते हुए भारती के निर्देश को मानने से इंकार कर दिया ,जो अपरिहार्य भी था ,ऐसा इसलिए कि मामला विदेशी महिला और कूटनीतिक मामलों से जुड़ा था |सो, कम से कम ऐसी अल्प जानकारी भी सत्ता पर काबिज मंत्री को होना चाहिए ,वह भी एक कानून मंत्री को ,इतफाक से भारती खुद भी एक अधिवक्ता रहे हैं|
       कायदे से दिल्ली सरकार को पुलिस के बारे में केंद्र सरकार को पूरे वाक्यान्त से रूबरू करते हुए उसके विरूद्ध कारवाई की अनुशंसा करने चाहिए थी ,मगर सस्ती और टुच्ची लोकप्रियता अर्जित करने के लोभ में स्वंय ही धरनारूपी आंदोलन पर उतर गई ,जो इसके दायित्व बोध से इत्तर था और इसे किसी भी सभ्य राज्य में मंजूर नहीं किया जा सकता | यह हो सकता था कि केंद्र उसके सिफारिश को मानने से इंकार करती ,तब 'आप' आंदोलनात्मक गतिविधियों को संचालित करती ,तब दल एवं सरकार के भेद से शासन व्यवस्था में साम्य बैठती , मगर दुर्योग से हठी राजनीति ने साफ कर दिया कि अभी देश में योग्य सत्ता के सूत्र मजबूत नहीं हैं ,केवल आंदोलन करना ही अभी भारत ने सिखा और जाना है |
     स्पष्ट है कि यदि सत्तासीन व्यक्ति खुद आंदोलन/क्रांति जैसे विरोध/प्रदर्शनों पर सक्रिय रहे ,तो आखिर आम लोग अर्थात जन साधारण किस्से समस्या के संधान की अपेक्षा करे ! भारत जैसे लिखित संविधानवाले देश में दिल्ली की सरकार के क्षेत्राधिकार में पुलिस अर्थात कानून -व्यवस्था के अंग नहीं आते ,यह सबको मालूम है ,फिर उसे मुद्दा बनाकर धरना देना कभी उचित नहीं हो सकता ,यह राजनीतिक मांग हो सकती है वह भी दलगत राजनीति के एक उपकरण की तरह , परन्तु एक सरकार को उसे लेकर सड़क पर उतरने और अगुवाई करने से व्यवस्था में क्षरण होगा ही ,जैसा कि कई मौके पर बातों ही बातों में केजरीवाल ने अपने को "अराजकतावादी" कहने से भी नहीं चुके हैं ,जो इशारा करता है कि वह अपनी जिद के लिये तर्क-वितर्क और उचित -अनुचित के साथ संवैधानिकता का भी ख्याल करने को तैयार नहीं है ,ऐसे स्थिति में संवैधानिक संकट सा दृश्य उत्पन्न होता हो ,तो आश्चर्य नहीं |
        संविधान पढ़ने के दावे करना और उसमे "धरना" जैसे शब्द की तलाश करना और जब वह मुख्य मंत्री के सन्दर्भ में कहीं उल्लेखित नहीं होना का मतलब यह नहीं कि अरविन्द केजरीवाल संविधानविद हैं | यह उनकी 'अधकचरी' दिमाग की उपज है ,जो संविधान में 'शब्द' खोजते हैं और फिर थेथर की भाषा में यह कहते हैं कि संविधान में धरना देने में कोई पाबंदी नहीं है |
      वैसे, संक्षिप्त में जाने कि भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार का जिक्र है और उसमे ही एक परिच्छेद में स्वतंत्रता एवं अभिव्यक्ति के तहत विरोध जतलाने का उपखंड उल्लेखित है ,जो सामान्य स्थिति में आम भारतीयों के लिये है ,न कि सत्ता पर बैठे मंत्रियों के लिये | धरना दिया ही जाना जरूरी है ,तब पहले संवैधानिक पदों पर आरूढ़ नागरिक को इस्तीफा देना चाहिए ,ताकि अर्थ शास्त्र की तरह मांग एवं पूर्ति के सिन्धांत की तरह राजनीति में भी साहचर्य एवं समन्वय स्थापित किया जा सके | इसी बात को सर्वोच्च न्यायालय ने पकड़ लिया है और केजरीवाल ,संघसरकार और अन्य को धरना के बाबत जवाब तलब किया है |यह अलग बात है कि फ़िलहाल न्यायालय ने दिल्ली पुलिस के रूख की सराहना की है | अंतिम टिप्पणी क्या होता है ,इसका देश को इंतज़ार है |
     आजादी के बाद शायद यह पहला मौका था ,जब एक सरकार का मुखिया कानून व व्यवस्था को लेकर आंदोलन कर रहा हो | १९७७ में जानता पार्टी कई घटक दलों के मिलन से अस्तित्व में आई थी ,इनमे काफी तीखे अंतर्विरोध थे , चौधरी चरण सिंह एवं राज नारारायण के नेतृत्व में प्रधान मंत्री मोरारजी भाई देसाई के खिलाफत जारी थे ,इसके बावजूद इन सबों ने मंत्री के पद पर रहते अपनी सरकार के विरूद्ध सड़क आंदोलन नहीं किया ,किया भी तब वह मंत्रिमंडल से अलग हो गए | यही हाल १९८९ में गठित विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधान मंत्रित्व काल का था ,चंद्रशेखर असंतुष्ट थे और उप प्रधान मंत्री देवी लाल इनके करीब थे मगर देवी लाल ने कभी सत्ता में शामिल रहते आंदोलनरत नहीं हुए | यहाँ यह ध्यान में रखना जरूरी है कि प्रधान मंत्री राजीव गाँधी के वक्त हरियाणा में मुख्य मंत्री देवी लाल ही थे और बोफोर्स ,फेयर फैक्स जनित भ्रष्टाचार को लेकर देश में आंदोलन काफी तेज थे ,जिसमे देवी लाल की भूमिका विपक्ष की हैसियत से काफी महती थी और जन सभाओं में इनकी मौजूदगी होती थी ,मगर सड़क पर इन्कलाब करते इनकी उपस्थिति कभी नहीं रही ,जो इनके एक सरकार के दायित्व बोध को प्रकट किया था ,इनकी पार्टी आंदोलनरत रही ,मगर सीधे उसमे कभी हिस्सा नहीं लिये | ऐसे में ,केजरीवाल में यदि इतिहास भूगोल के ज्ञान का अभाव झलकते हैं ,जो सत्ता के बचकानापन के संकेत देते हैं |

   दरअसल ,केजरीवाल अपने जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ते नजर आये हैं , कम से कम यह फर्क समझ में आनी ही चाहिए थी कि सरकार और दल ,दोनों अलग -अलग प्रक्रिया है | क्षेत्राधिकार का बोध उनमे होता ,तब वह कारवाई के लिये केंद्र को ठेठ भाषा में काहे तो ,लिखा -पढ़ी करते और साथ ही आम आदमी पार्टी सीधे आंदोलनरत होती ,जिसके पीछे दिल्ली सरकार के नैतिक ताकत काम करती ,तब नज़ारा ही कुछ और होता ,संयोग कहें या 'आप' पार्टी के दुर्योग कि उसके मंत्री भारती के कारनामे एवं बयानबाजी उन सभी के लिये निकट भविष्य में गल्ले की हड्डी बनने की जमीन तैयार कर दी है |

Thursday 23 January 2014

न्यूज सेंस की चिंता

                (एसके सहाय)
      वैसे तो राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव अपने "मसखरेपन" के लिये मशहूर हैं ,मगर अपनी हास्य-विनोद की शैली में कभी -कभी ऐसी बातें कह जाते हैं कि वह बुद्धिजीवी जमात के लिये समझ पाना टेढ़ी खीर प्रतीत होते हैं, जैसा कि जैसा कि उस दिन (१८ जनवरी)पटना में दैनिक भास्कर के लोकार्पण के वक्त अपने विचार व्यक्त करने के क्रम में कहा था -" मुजफ्फरपुर के समाचार को सिवान के लोगों को मालूम नहीं है और पटना के पाठकों को छपरा में घटित मामले की जानकारी नहीं है , पत्रकारिता में ऐसे प्रयोग जन सामान्य के हित में नहीं हैं |"
     सचमुच ,आज समाचारों की आपाधापी में इसके महत्त्व अर्थात उपयोगिता से अधिसंख्य लोग वंचित है ,इसके तह तक जाएँ ,तब कई चौकाने वाली जानकारियां हासिल होगी ,जो समाज हित में कदापि नहीं हैं ,मगर बाज़ार को लुभाने के लिये प्रतिस्पर्धी वातावरण का जो निर्माण ,विशेषकर हिंदी पट्टी में हुआ है , वह काफी गैर जिम्मेदाराना है | अतएव , एक दृष्टि हिंदी पत्रकारिता के  बहाने  'समाचारिक समझ' की पड़ताल जरूरी है |
      यह बात किसी से छिपी नहीं है कि १९९१ में आर्थिक खुलेपन की वजह से आज का भारत सामने है ,इसमें अन्य क्षेत्रों की तरह मीडिया जगत में भी अपने प्रभाव पड़े हैं ,सो प्रिंट या इलेक्ट्रोनिक्स समाचार माध्यम ,प्राय: सभी हल्कों में गलाकाट प्रतिस्पर्धा का नज़ारा है , जिसमे मुनाफा सिर्फ मुनाफा ही ध्येय है ,ऐसे में पत्रकारिता में "संकुचन" होना आश्चर्य पैदा नहीं करता | इन स्थितियों में यदि 'क्षेत्रवार' खबर दिकदर्षित होना स्वाभाविक है | मालिक अर्थात प्रबंधक अर्थात संपादक का जोर इस बात पर है कि वह इलाकाई हल्कों में अव्वल रहे ,इसके लिये प्रचारात्मक बातों को भी 'खबर' के शक्ल में पैदा करना पड़े ,तो कोई हर्ज नहीं ,इसलिए आजकल अखबारी दफ्तरों में 'समाचार की गुणवत्ता'  नहीं देखी जाती ,बल्कि संख्या गिनी जाती है कि कितने मात्रा में समाचार छपे |
    इस स्थिति के उत्पन्न होने में एक -दो कारण नहीं ,बल्कि दर्ज़नों वजहें हैं ,जिसमे रोजी-रोटी से लेकर साक्षर -निरक्षरता जैसे कई पहलू हैं ,जो विज्ञापन को लेकर नजरंदाज हैं |कभी कस्बाई पत्रकारिता में वकील -प्रोफ़ेसर या लिखने -पढ़ने वाले लोग जुड़े होते थे ,समय के साथ परिवर्तन हुआ ,तो अब पत्रकार भले ही अपना आवेदन तक नहीं लिख सके , उसे 'पैसा' वसूलने की कला आना चाहिए ,जिसे व्यावसायिक लफ्जों में विज्ञापन कहते हैं |
     खैर, जाने दें ,इन बातों को ,यहाँ विचार हो रहा था कि आखिर क्या कारण है कि 'समाचार' सभी क्षेत्रों के सभी पाठकों को एक साथ मिल सके ? लालू प्रसाद के कहने का परोक्ष मतलब यह था कि न्यूज सेंस वाले अर्थात समाचारिक समझ वाले पत्रकारों का घोर अभाव के वजह से यह हालात उत्पन्न हैं | यह काफी हद तक सही भी है | कोई भी सेठ , नफा -नुक्सान को जेहन में रखकर पत्रकारिता के क्षेत्र में पूंजी निवेश करता है , उसे यह मतलब नहीं रहता कि अखबार का स्तर कैसा हो और कैसा होनी चाहिए , उसमे काम करने वाले पत्रकार ही पत्रकारिता के स्वरूप तय करते हैं , जिन्हें न्यूज सेंस अब प्राय: नहीं होती ,किसी तरह 'ड्यूटी' के तहत कार्य किये जाने की प्रवृति प्रभावी है और यदि निचले श्रेणी के कोई पत्रकार ने किसी खबर को फालतू अर्थात समाचार मानने से इंकार कर दिया ,तब उसकी छुट्टी तय है , योग्यता का परिमापन के अभाव ने यह हालात पैदा करने में योगदान दी हो ,तो यह असहज भी नहीं कहा जा सकता |
      आखिर समाचार है क्या ? कभी इसका तात्पर्य मौसम से होता था, फिर परिवार-समाज-स्थल से जुडी बातों में बदलाव हो ,तब खबर मानी जाती थी ,इसके बाद थोडा पत्रकारितारुपी समाचार माध्यमों का उन्नयन हुए ,तब कहा गया कि कुत्ता आदमी को काटे , तो वह सामान्य बात है लेकिन मनुष्य कुत्ते को काटे ,तव वह 'खबर' है | थोडा परिवर्तन हुए सामाजिक और अन्य क्षेत्रों में तो  "घटना" समाचार के तौर पर समझा गया और यह घटना किस स्तर की है ,इसके आकलन के तरीके विभिन्न मीडिया इकाइयों के अपने -अपने हैं ,जिसमे समाचार के लिये समझ की शक्ति भी अपनी -अपनी हैं ,जिसमे बहुधा अब कथित पत्रकार नाकामयाब ही रहने को अभिशप्त हैं और इसी तथ्य को लालू प्रसाद ने पकड लिया है ,जो एक पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिये चुनौती भी है |
       इससे थोड़ी अलग स्थितियां समाचार एजेंसियों की है ,कम से कम उनके खबर का खास अर्थ होता है ,जहाँ ग्राहकों को परिहार्य सूचनाओं अर्थात घटनाओं अर्थात परिवर्तनों  से वाकिफ कराने की चुनौती गुणवत्ता के साथ ही भाषागत आवश्यकताएं महत्वपूर्ण अब भी बनी हुई हैं | इन्हीं के बूते ही दुनियां में अधिकृत एवं पुष्ट खबरों का परिमापन प्राय: होता है, जिसमे समाचार के स्रोत की अपनी भूमिका खबर को विश्वसनीयता प्रदान करती है ,जो पाठकों के लिये बराबर 'शोध' का विषय प्रस्तुत करती है | दुनिया की तमाम मीडिया इन्हीं पर निर्भर है और विश्ववास इस रूप में है कि यह औरों की अपेक्षा "सच के निकट" ज्यादा है |
       विश्व में अंग्रेजी पत्रकारिता को सबसे ज्यादा 'आमिर' एवं 'समृद्ध' समझा गया है ,जो काफी हद तक हकीकत भी है ,भाषा भी और अधुनातन समय में "कंटेंट" प्रस्तुत करने के मामले में भी ,यह नहीं कि एक खबर के विस्तार में कई कंटेंट ,जिससे समाचार प्रस्तुति में विद्रूपता दिखती है ,जो भाषा की दरिद्रता का परिचायक पाठकों को प्रतीत कराती है |यह हिंदी में ज्यादा आजकल दिख रहे हैं | समाचार के विस्तार को पेश करते वक्त यह भी नहीं झलकता कि कौन तथ्य महत्वपूर्ण हैं और कौन नहीं , यही नहीं हिंदी अख़बारों के पृष्ठों की संख्या बढ़ गई लेकिन देश -विदेश की वर्गीकृत पेज ढूढें ,तो मालूम होगा कि इसे प्रस्तुत करने के तमीज से हिंदी पत्रकार काफी दूर हैं | इसलिए आज भी देश के भाषाई पत्रकारिता में बंगला ,मलयालम जैसे पत्रकारिता से हिंदी पिछड़ी है ,भले ही फ़िलहाल कमाई के ख्याल से इसके सुन्चांक में अभी उछाल आया दीखता हो ,लेकिन यह लंबे समय के लिये टिकाऊ होगी ही ,यह निश्चय के साथ नहीं कहा जा सकता |
     हकीकत में हिंदी अखबारों का यह हाल इसलिए है कि इनके आधार अपने दफ्तरों के मुख्यालय तक सीमित है ,क्षेत्रीय कार्यालयों अर्थात जिला मुख्यालयों या चिन्हित शहर में पत्रकार विज्ञापन एजेंट की भूमिका में हैं ,थोड़े -बहुत हैं भी तो बाज़ार की मांग में इनके बातों का कोई मूल्य नहीं | खबर खास हो ,इससे मतलब नहीं , मतलब केवल इतनी है कि उनकी रपट प्रकाशित हो जानी चाहिए ,भले ही उसमे गुणवत्ता का पुट हो या नहीं | अभी दौर हिंदी में "फटे बांस की तरह समाचारों को प्रस्तुत करने की होड़ है ,जिसमे कोई रस नहीं " यह भाषा के स्तर पर दरिद्रता को इंगित करता है ,फिर भी निकट भविष्य में परिवर्तन के आसार नहीं | ऐसे में लालू प्रसाद की चिंता वाजिब है | कभी मीडिया इकाइयों में दो -तीन ऐसे पत्रकार ड्यूटीवार होते थे ,जो केवल भेजी गई रपटों में न्यूज खोजते थे ,फिर कई सामग्रियों में से उसे छांट कर मातहत पत्रकार को संपादन के लिये देते थे ,लेकिन अब ठीक उल्टा है ,जो भी डेस्क पर पहुँच गया 'वह खबर बन गई ' ऐसे में घटियापन का होना लाजिमी है |

      इतना ही नहीं , स्वतंत्र देश में पत्रकारिता निजी क्षेत्रों में ही अधिसंख्य खुलापन लिये होती है ,जहाँ योग्यता का फैसला सेठ या उसके चुनिदें प्रबंधक /संपादक करने के लिये अधिकृत है ,यह कारपोरेट होने के बावजूद भी है ,जहाँ नियम तो हैं ,लेकिन उसपर एतबार तभी तक ,जब तक आपकी उपयोगता बनी हुई है |इस सन्दर्भ में दो माह पहले एक सर्वेक्षण सामने आया था ,जिसमे कहा गया था कि देश में स्नातकधारियों की तायदाद काफी है लेकिन वह उसकी अहर्ता नहीं रखते सिर्फ कागजों में ही स्नातक हैं ,उसके योग्य नहीं | ठीक पत्रकारिता में भी यही है ,जहाँ तकनीकी डिग्रीधारी हैं तो ठीक हैं मगर उसके अनुरूप कार्य के परिपूर्ण करने की क्षमता भी होनी चाहिए , वैसे भी निजी क्षेत्रों के कारोबार में पेशेगत विशिष्टता ही अनिवार्य है डिग्री नहीं ,ऐसा इसलिए कि उसमे निजी पूंजी निवेश का मामला होता है ,जिसमे काम अर्थात लाभ प्यारी होती है चेहरे नहीं |ऐसी स्थिति में क्षेत्रीय संस्करण में स्थानीय बातें होगी ,जो अर्थवान ही हो जरूरी नहीं ,  वह इसलिए कि मुनाफे की भेंट जो पत्रकारिता चढ गई है |वाकई में न्यूज सेंस देश में सिविक सेंस की तरह है ,जिसका अभाव पूरा भारत झेलने के लिये विवश है |

Monday 20 January 2014

पिछडों में तक़दीर तलाशती भाजपा

                (एसके सहाय)
    पहले कांग्रेस और अब भाजपा पूरी तौर पर लोक सभा चुनाव के मन:स्थिति में है | संयोग ऐसा कि कांग्रेस ने अपनी कार्य एवं      राष्टीय समितियों के बैठक में अपने लिये एक अदद संभावित प्रधान मंत्री के नाम का खुलासा करने से परहेज़ किया ,वहीँ भाजपा के राष्टीय परिषद में गुजरात के मुख्य मंत्री नरेन्द्र मोदी ने पार्टी की ओर से घोषित प्रधान मंत्री के हैसियत से "मतदाताओं" के बीच खुद और भारतीय जनता पार्टी के लिये "वोट बैंक" की आधारशिला तैयार करने की पृष्ठभूमि पैदा उत्पन्न करने के हरचंद कोशिश की है | इतफाक ऐसा कि सत्ता में आने के पूर्व अपने कार्यक्रम दोनों पार्टियों ने देश की राष्टीय राजधानी "दिल्ली" में किये हैं ,जिसका असर कितना राष्ट्व्यापी होगा ,उसका थाह चुनाव परिणाम आने के बाद ही चलेगा |
        अतएव , इन दोनों राष्टीय पार्टियों के रणनीति का आकलन क्या होंगे ,इन दिनों राज प्रेक्षकों के बीच यह माथा-पच्ची का विषय बन गया है ,जिसमे भाजपा को फिलवक्त बढ़त के आसार दीखते हो ,तो अचरज नहीं , यह स्वभाविक भी है |  विधमान सत्ता के विरूद्ध जनतंत्र में आक्रोश का प्रतिफलन ज्यादा चमकदार होता है , काफी कुछ कांग्रेस पर भाजपा के हमले इसी तरह के हैं ,जो अतिरंजित प्रतीत नहीं होते |
       यह तो आम धारणा आजादी के काल से रही है कि भाजपा (पूर्व में जनसंघ) दक्षिणपंथी शक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाली राजनीतिक समूहों का "समुच्चय" है , जिसमे अगड़ों -पिछडों में विभेदकारी तत्वों का समावेश होना कोई खास मायने नहीं रखता | धर्म ,संस्कृति ,परम्परा ,इतिहास जैसे तत्व इसके जीवाणु हैं , जिसमे समुदाय -जाति की अहम भूमिका है ,जिससे यह पीछे हट नहीं सकती | अनुदार और कट्टरता इसके खास पहचान हैं ,जिसे लेकर बार -बार भाजपा को अपने में हुए परिवर्तन के बारे में सफाई देने की जरूरत जब -तब पड़ती रही है | ऐसी स्थिति में जब मोदी यह कहते हैं कि " कांग्रेस का नेतृत्व अपने को उच्च और संभ्रांत समझता है ,जिसे पिछड़ा ,निर्धन तथा चाय बेचने वाले को प्रधान मंत्री बनना गंवारा नहीं ", तब इसके चुनावी मौसम में गहरे अर्थ है |
       वैसे, पूर्व में अपने को राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव और सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव अपने को परोक्ष तौर पर पिछड़ा घोषित करके क्रमश; बिहार और उत्तर प्रदेश में गत शताब्दी के अंतिम दशक में सफलता के परचम फहरा चुके हैं ,तब मंडल आयोग जनित "आरक्षण" का मुद्दा गरम था ,जिसके राह में हिंदुत्व अर्थात राममंदिर-बाबरी मस्जिद का आकर्षण कम तो नहीं था ,लेकिन इसमें इष्ट की भक्ति में "रोजगार" के ललक ने अवरोध उत्पन्न किये , जिससे भाजपा जीत करके भी वह मंजिल नहीं पा सकी ,जिसकी वह वास्तव में अधिकारिणी थी |
      काफी हद तक नरेन्द्र मोदी का राम लीला मैदान में दिए गए भाषण का लब्बो -लुआब यही है | पिछड़ा ,चायवाला का जिक्र बार -बार करके भाजपा के इस नेता ने जाहिर कर दिया है कि चुनावी जंग जितने के लिये हर उस हथकंडे/फंडे का इस्तेमाल करने से पार्टी नहीं हिचकेगी | विशेषकर ,हिंदी पट्टी वाले राज्यों में सामाजिक समीकरणों में पिछड़े तबके में शुमार जातियों का अपना महत्त्व शुरू से रहा है | यूपी -बिहार इसके सबसे बेहतर उदाहरण हैं ,जहाँ स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही सवर्ण शक्तियों का प्रभाव राजनीतिक ,सामाजिक और प्रशासनिक क्षेत्रों में इसलिए रहा कि अधिसंख्य आबादी के पास "राजनीतिक समझ" नहीं था और थोड़ी समझ भी था ,तब इनके नुमाइंदे सत्ता में "पिछलगू" ही थे ,जिन्हें राजनीति के शिखर नसीब नहीं थे ,यह हाल कांग्रेस काल में ज्यादा रहा है |
       बाद में जब "आरक्षण" के बहाने पिछडों में राजनीतिक जाग्रति अपने हकों को लेकर आई ,तब कांग्रेस -भाजपा हवा हो चुकी थी ,जहाँ मुलायम ,लालू  एवं मायावती अपने -अपने जातीय आग्रहों -विग्रहों के बीच सशक्त धुर्वीकरण स्थापित करके "सता का स्वाद चख रहे थे | ऐसे में इन दोनों प्रान्तों के सवा सौ से अधिक सीटों की उपयोगिता से कैसे मोदी अपरिचित रह सकते हैं | बिहार में भाजपा की रणनीति देखें  , तो जाहिर होगा कि प्रतिपक्ष के नेता नंद किशोर यादव हैं ,जिनके समक्ष पूर्व उप मुख्य मंत्री सुशील मोदी को पार्टी ने वरीयता प्रदान की है | इसमें एक खेतिहर समुदाय से ,तो दूसरा व्यापारिक वर्ग से ताल्लुकात रखते हैं | काफी कुछ उत्तर प्रदेश में संख्या को कल्याण सिंह के काल में भाजपा ने इसी तरह चुनावी गणित को ब्राह्मणों के साथ साधा था ,जिसमे कल्याण खुद एक पिछड़े समुदाय से जुड़े थे | यह अलग बात है कि परवर्ती काल में कैसे यूपी में सभी समीकरण भाजपा के उलट हो गए |
     बहरहाल ,मोदी ने अपनी मंशा जाहिर कर दी है | यह संख्या के अनुपातिक लिहाज से काफी प्रभावी भी है | देश में कुल आबादी में पिछड़े समुदायों की सहभागिता बावन फीसदी है , जिसमे पैंतीस प्रतिशत के हिस्सेदार केवल बणिक वर्ग हैं ,जो हर गांव में किसी न किसी रूप में हल्दी -नमक से लेकर बड़े -बड़े कारोबार में संलिप्त हैं | अगर यह एक बार "मन" बना ले कि "प्रधान मंत्री" की गद्दी पिछड़े नेता को नसीब हो ,तब केन्द्रीय सत्ता में बदलाव होने में तनिक भी देर नहीं होगी | मोदी के पिछड़े थ्योरी के नेपथ्य में यही योजना /कहानी है |
   फ़िलहाल में देश के राजनीतिक फिजां में कोई भावनात्मक मुद्दे नहीं कौंधे हैं | यह स्थिति किसी के लिये भी लाभप्रद -हानिप्रद हो सकती है | मंहगाई ,भ्रष्टाचार जैसे मसले कांग्रेस और इसके नेतृत्व में सक्रिय संप्रग के लिये गंभीर हैं ,तो दस वर्षों तक विपक्ष की राजनीति करते आई भाजपा के लिये नई अवसर भी २०१४ के लोक सभा चुनाव ने दिया है | कांग्रेस हताश है ,तो भाजपा हौसलों से लबालब भरी है | इसमें क्षेत्रीय दलों की मौजूदगी ही इनके ताकत को कम या अधिक कर सकती है | इसमें देखना ज्यादा दिलचस्प होगा कि इस दफे के चुनाव में स्थानीय मुद्दे कितने असरकारक होते हैं और राष्टीय मुद्दे कहाँ -कहाँ आम भारतीयों को कौन -कौन नजरिये से प्रभावित करते हैं |

     और अंत में यह कि पोंगापंथी चोले को उतार कर अधुनातन प्रवृति से लैस होने की प्रक्रिया में भाजपा किस तरह नरेन्द्र मोदी को "आत्मसात" करती है ,यह भी नतीजे आने के बाद स्पष्ट होंगें | मोदी ने तो अपनी तरह से लौहपुरूष सरदार बल्लभ भाई पटेल को प्रतिमान बनाकर खेतिहर जातियों को गोलबंदी के लिये उकसा ही दिया है ,जिसमे यदुवाशियों , कुर्मी ,कोइरी ,लौध , धानुक सरीखे उत्तर-पूर्व-मध्य भारत के इन समुदायों के बीच अपने बणिक वर्गों को समाहित करके नये प्रयोग कर डाले हैं और हमेशा सवर्ण समुदायों के हितचिन्तक समझी जाने वाली भाजपा  को भी बदलाव के देहलीज पर ला खड़ा किया है ,इसका फायदा किस रूप में होगा ,इसके लिये तीन माह के इंतजार करने होंगे |

Saturday 18 January 2014

कांग्रेस जनों के भावावेश में राहुल का भविष्य

                                     (एसके सहाय)
     कांग्रेस कार्य समिति और अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की हुई बैठक के खास अर्थ हैं | विशेष इसलिए कि लगभग एक स्वर से कांग्रेस के प्रांतीय एवं राष्टीय नेताओं ने राहुल गाँधी को पार्टी की तरफ से प्रधान मंत्री के पद के लिये उम्मीदवार घोषित करने की मांग केन्द्रीय नेतृत्व से की ,मगर पार्टी ने वैसा कदम नहीं उठा कर या यह समझे कि उस मांग को दरकिनार कर वह अब "प्रचार अभियान समिति" के प्रमुख के तौर पर सक्रिय योगदान देंगे |यह पहल दो माह बाद होने वाली लोक सभा के चुनाव के लिये है | मतलब कि राहुल सीधे उक्त पद के प्रत्याशी  घोषित नहीं होकर भी परदे के पीछे वही प्रधान मंत्री पद के दावेदार हैं | यह काफी कुटिल और सुविचारित योजना अपने चहेते नेता के लिये चुनाव की बिसात पर कांग्रेस ने बिछाई है |
       यहाँ भारतीय राजनीति के सन्दर्भ में इस लिये चुनावी उपयोगिता सामने खड़ी है कि कांग्रेस ने अर्थात इसके अधिकृत प्रवक्ताओं ने बार -बार प्रतिदंदी भाजपा से "प्रधान मंत्री" के नाम घोषित करने की रट लगा रखे थे और जब नरेन्द्र मोदी के नाम भारतीय जानता पार्टी ने सार्वजनिक तौर पर एलान कर दिया ,तब अब बारी कांग्रेस की थी कि वह अपना भी संभावित नाम को उदघोषित करे और यह संभावना राहुल गाँधी के लिये थी ,लेकिन ऐसा नहीं करके इसने "दब्बुपन" का ही परिचय दी है और यह भी संकेत कर दिए हैं कि एक बार फिर २००४ और २००९ की तरह कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता के बूते चुनावी समर में उतरने के मन:स्थिति में है ,जो इसकी और इसके समान कई दलों का सत्ता के लिये प्रचार का ठोस संबल है और यह रणनीति कितना कारगर हो सकती है ,यह तो कुछेक दिनों बाद ही स्पष्ट हो सकेगा , जब राष्टीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) और संयुक्त प्रगतिशील गंठबंधन (संप्रग) के इर्द -गिर्द क्षेत्रीय पार्टियां परिक्रमा करने शुरू करेंगे | इसके लिये बस ,चुनावी तिथियों का इंतज़ार है |
       राहुल गाँधी को पार्टी के तरफ से अगला प्रधान मंत्री घोषित करने में आखिर हर्ज क्या थी ? इसे पार्टी अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने क्यों नहीं तवज्जो दी ? इसके गुढ़ निहितार्थों में जाएँ ,तब प्रतीत होगा कि "दूरगामी भविष्य की चिंता" को इसमें ध्यान रखा गया है | यह एक माँ का बेटे के प्रति दूरंदेशी भरा सकारात्मक सोच हो सकती है ,लेकिन एक पार्टी के लिये यह नकारात्मक पक्ष ही के तौर पर यह रेखांकित हो सकता है ! तब भाजपा से प्रधान पद के लिये नाम बताने की बार -बार चिल्लाहट का क्या मतलब था ? क्या इससे कांग्रेस को नुक्सान का अहसास नहीं है ? यह राजनीतिक हल्कों में ,खासकर गैर राजनीतिक वर्ग में पिछे हटने जैसा ही समझने की स्थिति है |
       यह सर्वज्ञात है कि राहुल गाँधी को पार्टी में ,जो भी शक्ति प्राप्त है , वह 'विरासत' की देन है, जिसमे चतुर किस्म के कांग्रेसी नेताओं की अहम भूमिका है | इस परिप्रेक्ष्य में १९९६ की वह घटना है ,जब पार्टी अध्यक्ष के पद पर सीताराम केसरी विराजमान थे , तब इनसे ईर्ष्या-जलन रखने वाले तत्कालीन पार्टी के कई नेता सोनिया गाँधी को इस कदर बरगलाये कि केसरी कप अध्यक्ष पद से च्युत करने के लिये एक दोपहर इनको लेकर २४ ,अकबर रोड धमक गए और केसरी को बलात धकेल करके रोड पर कर दिए , फिर सोनिया की सदारत में कांग्रेस की बैठक हुई ,जिसमे उनको पार्टी अध्यक्ष घोषित किया गया , जो किसी भी कांग्रेस नेता को आजादी के बाद इतने लंबे अरसे तक उक्त पद नसीब नहीं हो सका है | उधर ,केसरी रोड पर ही प्रेस कांफ्रेंस करते रहे और अपने को अधिकृत अध्यक्ष बताते रहे , जिसमे बार -बार सोनिया गाँधी के प्रति अपनी अंध भक्ति के बोल थे , वैसे भी इनको नेहरू -गाँधी परिवार का वफादार ही माना जाता रहा था , लेकिन जीवन के अंतिम समय में अपनों ने ही इनको बेदर्दी के साथ पार्टी से निष्कासित करने  में थोडा भी बुजुर्गियत का ख्याल नहीं रखा |
        सोलह और सतरह जनवरी को कांग्रेस की हुई बैठक के नतीजों एवं फैसलों के भविष्य में पड़ने वाले प्रभावों को समझना और जानना है ,तब दो अन्य घटनाओं को भी जेहन में रखना होगा कि पार्टी नेतृत्व अर्थात सोनिया गाँधी क्या पसंद करती हैं? पिछले दो दफे के चुनाव में कांग्रेस को सरकार बनाने के अवसर मिले ,तो दोनों बार पार्टी को मनमोहन सिंह ही योग्य प्रधान मंत्री लगे , इसी तरह जब महिला राष्टपति का मुद्दा उच्छा .तब उसके लायक प्रतिभा सिंह पाटिल ही मिली , जो जाहिर कर रहा कि "जन मानस में अमिट छाप" वाले कांग्रेस नेता सोनिया गाँधी को पसंद नहीं हैं ? प्रणव मुखर्जी ,अब राष्टपति तो हैं ,लेकिन कैसे राष्टपति बने और इसके लिये कहाँ से दबाव बने कि सोनिया गाँधी असर में आ गई ,जिसकी एक लंबी कहानी है |
      इस तरह की मानसिकता अर्थात सोच का कितना बड़ा खामियाजा देश को विगत सालों में सामाजिक -राजनीतिक-वैदेशिक  -आर्थिक -प्रशासनिक -न्यायिक क्षेत्र के स्तर पर भुगतना पड़ा है ,शायद कांग्रेस प्रमुख को अनुभूत नहीं है ,अन्यथा लोकतान्त्रिक देश के कथित जनतांत्रिक पार्टी (कांग्रेस) में बहुसंख्यकों की आवाज /मांग को इस तरह नजरदांज करने की हिम्मत पार्टी नेतृत्व को नहीं होती|    
    चुनाव में हार -जीत होते रहते हैं ,लेकिन यहाँ  कांग्रेस नेतृत्व का व्यवहार एक जागीदार की तरह है ,जिसे अपने पुत्र की चिंता है ,इसके भविष्य का ख्याल है , इसके ताजपोशी में विलंब हो ,मगर उसमे सीधे कोई रूकावट नहीं हो ,ऐसी कामना /विचार सोनिया गाँधी रखती है | इन हालातों में यदि सोनिया को लोकतंत्र विरोधी निरूपित कर दिया जाये ,तो सैन्धान्तिक तौर पर गलत भी नहीं होगा ,आखिर बहुमत के आवाज थे-राहुल गाँधी ,जिसे प्रधान मंत्री के पद के लिये कांग्रेस जनों का बड़ा समूह पसंद किये हुए था ,मगर इनके आशाओं पर तुषारापात हो गया |
       वैसे भी ,कांग्रेस में सोनिया ,राहुल और प्रियंका से इत्तर नेतृत्व की कल्पना करना सहज नहीं है , यह इंदिरा गाँधी युग से ही चला आ रहा है , जिसमे वह नारा काफी चर्चित हुआ था ,जब आपात काल में पार्टी अध्यक्ष देवकांत बरुआ हुआ करते थे और इनके जुबान से बार -बार यह बोल निसृत होते थे ,जिसमे कहा जाता था ,"इंदिरा ही भारत है और भारत ही इंदिरा है " अर्थात यह चाटुकारिता का इन्तहा थी ,बावजूद किसी कांग्रेस के लोक पसंद नेता उस तरह के नारेबाजी के खिलाफत करने के हिम्मत नहीं जुटा सके |

    अतएव , कांग्रेस दूसरों के भरोसे बाजी मारने के फ़िराक में है , राहुल के नाम को नेपथ्य में डालकर क्षेत्रीय दलों को पटाने की यह पुरानी चाल है ,जिसमे एक बार फिर कथित  " धर्मनिरपेक्षता     " को गंभीर विषय चुनावी बेला में बनाने के यत्न हैं |देखना है कि इस जाल में कौन -कौन फंसते हैं ? कांग्रेस के लिये भावना का कोई कद्र /मूल्य नहीं , कांग्रेस जन मायूस भी हैं ,तो इसके कोई मतलब नहीं , कांग्रेसी बैठक का महत्व केवल चापलूस पसंद राजनीतिज्ञों के लिये है ,जो उनके हित में होने की संभावना लिये हो सकता है |    

Friday 17 January 2014

ब्लू स्टार: दौत्य रिश्ते में भारत-ब्रिटेन


               (एसके सहाय)
       लोकतान्त्रिक व्यवस्था वाले दो देशों की दोस्ती के मध्य कब कौन सा मसला किसके लिये महत्वपूर्ण हो जायेगी , यह थाह पाना मुश्किल एवं जटिल प्रक्रिया है |ऐसे में , लौह महिला के रूप  में विश्व प्रसिद्ध ब्रिटेन के स्वर्गवासी प्रधान मंत्री मार्ग्रेट थैचर के  भूमिका की जाँच उस सन्दर्भ में किये जाने की जरूरत वर्तमान प्रधान मंत्री डेविड कैमरन अपरिहार्य समझा है ,ताकि असलियत सामने आ सके |
     संक्षिप्त कहानी यह है कि जून १९८४ में सिक्ख आतंकवादियों के विरूद्ध अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर कारवाई में ब्रिटेन की सहभागिता को लेकर ब्रिटेन में विवाद उत्पन्न है | यह मसला इसलिए तूल पकड़ गया है कि हाल में इस देश में गोपनीयता सूची से इत्तर जुड़े दस्तावेज सार्वजनिक किये गए हैं | इसी में एक बात सामने आई है कि थैचर ने ब्लू स्टार आपरेशन में अपने देश की विशेष वायु सेवा का उपयोग भारत के अंदरूनी आतंकी अभियानों में करने के आदेश दी थी |
    बस ,इसी मुद्दे को लेबर पार्टी के सांसद टाम वाटसन एवं सिक्ख लार्ड्स इन्द्रजीत सिंह ने लपक लिया है और इससे जुड़े सभी मामलों पर तत्कालीन प्रधान मंत्री थैचर की भूमिका को बेनकाब करने के लिये अपने देश की सरकार पर दबाव बढ़ा दिया और कैमरन ने भी बिना विचार - विमर्श किये तत्काल इसकी जाँच की जिम्मेदारी कैबिनेट सचिव को तथ्य के साथ पेश करने के आदेश दिए | यहाँ ,ध्यान रहे थैचर कंजर्वेटिव पार्टी से ताल्लुकात रखने वाली राजनीतिक थी और इसके तह में जाकर मुद्दे खड़े करने वाले इन्द्रजीत नेटवर्क ऑफ सिक्क संघठन के निदेशक हैं, जिन्होंने इसकी जाँच की वकालत " स्वतन्त्र अंतराष्टीय एजेंसी " से की है | जाहिर है कि ऐसे अंत हो चुके मामले के ढाई दशक से अधिक गुजर जाने के बाद तूल देने के क्या मतलब हैं ?
    यह मामला ऐसे वक्त सामने आया है ,जब भारत में कुछेक माह बाद आम चुनाव होने हैं और इसमें एक सिरा तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी के कांग्रेस से जुड़ा हैं , जो मौजूदा केन्द्रीय सत्ता का नेतृत्व कर रही है तथा गाँधी के ही वंशज राहुल -सोनिया-प्रियंका इसकी अगुवाई कर रहे हैं , वहीँ दूसरी तरफ कांग्रेस के प्रतिद्न्दी भाजपा का गठजोड़ अकाली दल के साथ है , जो कथित तौर पर सिक्ख समाज के निकट मानी जाती है | इन परिस्थितियों में यह मामला फिलवक्त ब्रिटेन के लिये कम लेकिन भारत के लिये ज्यादा महत्वपूर्ण प्रतीत है |
      अतएव , ब्रिटेन में बवाल बने ब्लू स्टार के छींटे से भारत को बच पाना मुश्किल है | वैसे , जग जाहिर है कि सिक्ख आतंकवाद के खिलाफ भारत के सैन्य कारवाई में किसी विदेशी शक्ति का उपयोग सीधा कभी नहीं हुआ | इतना जरूर उस कालखण्डों में हुआ और दिखा कि सिक्ख आतंकवाद का पोषण पाकिस्तान , कनाडा , आस्ट्रेलिया या कहें यूरोप के कई देशों में छिपे और गुप्त तरीके से होता रहा था | कनिष्क विमान विस्फोट कांड इसकी एक झलक थी , जिसे लेकर काफी उलझन पूर्ण जाँच की प्रक्रिया रही | यह कनाडा से प्रत्यक्ष जुड़ा अपराध था | इसमें तक़रीबन चार सौ यात्री मारे गए थे |इनके गुनहगारों को सजा भी ठीक से अबतक नहीं हो पाई है | जो गिरफ्त में हैं , वे सभी चार इतफाक से सिक्ख आतंकवादी ही चिन्हित हैं |ऐसा लोकतंत्र के लचीले व्यवस्था के वजह से है |
     इन कूटनीतिकयुक्त हालातों को देखें , तब दो परस्पर देशों के दौत्य संबंध को समझना आसान होगा | दोनों प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में विश्वास करने वाले देश हैं | इनके रिश्ते ओपनिवेशिक काल से जुड़े हैं , स्वाभाविक बात है कि एक -दूसरे के अंदरूनी खतरे के तौर पर मौजूद विखंडनखारी ताकतों से निपटने की बातें होती रहे | यह ठीक उसी तरह की बातें हैं ,जब चीन ने भारत पर १९६२ में हमला किया और तेज़ी से परभूमि पर कब्जे करने शुरू किये और तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने अमेरिका से मदद मांगने में देर की ,तब अमरीकी राष्टपति जान एफ कैनेडी को कहना पड़ा था , कि " वह भारत के याचना का इंतज़ार नहीं करेंगे कि वह चीन से लड़ने के लिये सहयोग करे ,बल्कि अमरीका खुद मोर्चा संभालेगा |" इस बेबाक विश्व कूटनीति की बात इतनी प्रभावकारी सिद्ध हुई कि अमरीका, भारत के हित में चीन के विरूद्ध मोर्चा लेता कि युद्ध बंद हो गए |
      प्रश्न यह नहीं कि "ब्लू स्टार" में कितने मारे गए , सवाल यह है कि स्वर्ण मंदिर में हुआ सैन्य कारवाई देशहित में था या नहीं | इस कारवाई की योजना में विदेशी सहयोग हो या नहीं ,यह भारत के लिये कोई मायने नहीं रखता | ऐसे में ,भाजपा के अरूण जेटली का यह कहना कि " तथ्य सामने रखे जाने चाहिए ,का क्या अभिप्राय: है ?" यह तो एक विशेष समुदाय की भावनाओं के साथ खेलने जैसा है , जैसा कि ब्रिटेन ने गुजरात के मुख्य मंत्री एवं भाजपा के प्रधान मंत्री के पद के घोषित उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को "वीजा " देने से इंकार करना ,फिर भारत में भाजपा के केन्द्रीय राजनीति में प्रभावकारी तौर पर उभरने की संभावना देखकर "रंग" बदलने के आसार से यह विवाद उभरा प्रतीत है , जो दोनों देशों के दौत्य संबंध के लिये दूरगामी तौर पर उचित नहीं परिलक्षित होती |
    बहरहाल , अब जब ब्रिटेन में ब्लू स्टार को लेकर आंतरिक राजनीति में चर्चा -परिचर्चा तेज है ,तब सरसरी तौर पर विगत सदी के आठवें दशक को थोडा याद करने की जरूरत है | पाक सरकार के साथ कुछेक यूरोपीय देश जम्मू -कश्मीर और खालिस्तान को लेकर जब -तब भारत विरोधी बयानबाजी करते रहते थे , इसका असर देश में इस कदर क्षेत्रीय रूप में खौफजदा था कि प्रसार -प्रचार के माध्यमों में राष्ट विरोधी तत्वों को क्रमश: जंगजू एवं खाड़कू शब्दों से विभूषित करने की बाध्यता स्थानीय तौर पर थी | इस गंभीर स्थिति का आकलन केंद्र सरकार ने अपने तरीके से किया ,तब हालात काफी बिगड चुके थे | इस विषम परिस्थिति में दुनिया के समक्ष अपनी अखंडता को सुरक्षित रखने की चुनौती थी और इसमें विश्व राजनय का अपने अनुकूल कूटनीतिक स्थितियां पैदा करना जरूरी था , जिसमे प्रधान मंत्री इन्दिरा गाँधी तत्कालीन ब्रिटिश प्रधान मंत्री मार्ग्रेट थैचर को अपने लिये अर्थात देश हित में जरूरी समझी ताकि विश्व में यह सन्देश स्पष्ट जा सके कि " एक संप्रभुता संपन्न राष्ट " को अपने अंदरूनी विद्रोह को शांत /दमित करने का नैसर्गिक अधिकार है | 
        इस परिप्रेक्ष्य में ब्लू स्टार अभियान में ब्रिटेन का उपयोग भारत ने अपने हितों के लिये जिस प्रकार भी किया हो , इसे लेकर मतभिन्नता नहीं होनी चाहिए | ऐसे में ,ब्रिटेन में इसे लेकर उठा तूफान का कोई मतलब नहीं कि उसमे हज़ार मारे गए हों या उससे कम -अधिक | गड़े -मुरदे को उखाड़ कर ब्रिटेन को क्या हासिल होगा ? भारत में तो लोक सभा के चुनाव नजदीक है , इसमें धन -जन की हुई क्षति को कांग्रेस विरोधी पार्टियां सिक्खों को प्रदर्शित करके लाभ लेने की जुगत में हो तो , कोई विशेष बात नहीं |

     वैसे भी दौत्य रिश्ते में कई मामले अलिखित होते हैं , इसका केवल अहसास होता है , ऐसा प्राय: सभी देश अपने -अपने तरीके से गोपनीय ढंग से परिपालन करते हैं ,तब ब्रिटेन का साथ भारत के लिये हो भी ,तो इसका बेजा इस्तेमाल " भावनाओं " के दोहन के लिये किया जाना उचित प्रतीत नहीं है ,विशेष कर उस अवस्था में ,जबकि भारत -ब्रिटेन लोकतान्त्रिक व्यवस्था वाले देश हैं ,जहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ व्यक्ति की आजादी नागरिकों को प्राप्त हो |

Monday 13 January 2014

इन दौरों से क्या

                      (एसके सहाय)
    केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश गत दिन झारखण्ड के मेदिनीनगर में डेढ़ घंटे के लिये कदम रखे और एक 'आँख जाँच शिविर' का उदघाटन करके वापस लौट गए | इस कार्यक्रम में उनके भाग लेने के क्या निहितार्थ थे , वही समझें कोई अन्य इसके मतलब जानने की कोशिश के झमेले में पड़ने की जरूरत नहीं समझा | अतएव , इस आगमन को यों ही आसानी से पचने वाली मामले की तरह सहज तौर पर नहीं लिया जा सकता |
      पहली बात तो यह कि रमेश का पलामू जिले के मुख्यालय में दूसरा आगमन था | इसके पूर्व वह पिछले साल के अप्रैल में यहाँ कदम रखे थे , यही नहीं चैनपुर प्रखंड के बसरियाकला में एक जन सभा को ताम -झाम के साथ संबोधित किया था | साथ ही ,काफी संजीदगी का प्रदर्शन करते हुए जिला मुखिया संघ द्वारा आयोजित "पंचायत प्रतिनिधियों" के सम्मेलन में भी अपने सत्ता के विकेन्द्रीकृत लाभों की विस्तार से चर्चा की थी | मगर इस दफे ,वैसा कोई बात नहीं हुई , वह सीधे कार्यक्रम स्थल पहुंचे और जल्द ही अपनी बात रखकर एक नजर से शिविर का निरीक्षण करते हुए चलते बने |
       इस वापसी ने ही उनके आगमन के मकसद की झलक थोड़ी सी बाहर निकली है | इसे राजनीतिक एवं सामाजिक हल्कों में इस रूप में ग्रहण किया गया है | दूसरी बात यह कि रमेश अपनी विकास परक क्रिया -कलापों के लिये जाने जाते हैं | यहाँ उनसे उम्मीद थी कि वह अपने पूर्व घोषणाओं के बारे में जिला प्रशासन एवं विकास एजेंसियों से उनके क्रियान्वयन के बारे में जानकारी लेते , मदद करने के लिये उनके दल के ही स्थानीय विधायक कृष्णानंद त्रिपाठी उनके साथ थे ही , मगर इनकी रूचि इसमें नहीं थे , जो इनके मुख मंडल से प्रतीत भी हो रहा था | मसलन , उन्होंने नौ माह पूर्व बसरियाकला में चैनपुर के ग्यारह आदिवासी बहुल पंचायतों को " सरयू कार्य योजना " में शामिल किये जाने की बात उदघोषित की थी ,मगर यह आज तक वैसा नहीं हो सका | यही नहीं उक्त योजना का शुभारंभ भी अबतक नहीं हो सका है , जो इनके अपने ही बातों का कोई एतबार नहीं |
             यहाँ यह भी जाने , जिस कार्यक्रम में रमेश शरीक हुए , उसमे आँखों के जाँच का दायित्व रांची स्थित पब्लिक - प्राइवेट मोड पर संचालित अस्पताल का था , इसे कई एजेंसियों ने पलामू में प्रयोजित किया था | प्रकट है कि  इसमें सरकारी धन का निवेश समझौते के तहत है | सरकार के अपने हॉस्पिटल हैं ,पर इनमे विश्वास नहीं है , यह काफी हद तक आम लोगों को बरगलाने जैसी  ही प्रक्रिया है , जिसमे "निजी" सेवा उपलब्ध कराकर लोगों को अपनी उत्कृष्ट कामों से सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने की मंशा छिपी है | इसमें एक केन्द्रीय मंत्री के "मन" में क्या थे , वह ठीक बता सकते थे , यह काम वह बिना आये भी कर सकते थे |
         रमेश को देश , अपने ही अंदाज़ वाले मंत्री के रूप में जानता है | ऐसे में चुपचाप आने ,फिर कार्यक्रम में भागीदारी निभाने भर से "बात" पल्ले नहीं पड़ती | विशेष बात यह कि वह केंद्र सरकार के ग्रामीण क्षेत्रों के विकास का जिम्मा वहां किये हैं और इस कार्य्रक्रम में राज्य के ग्रामीण विकास मंत्री चंद्रशेखर दुबे ही नदारद थे | यह इसलिये महत्व की बात है कि दुबे कांग्रेस के ही विधायक हैं ,साथ ही इनके साथ एक विशेषता यह भी चस्पां है कि वह पलामू के ही विधायक हैं और अपने ही पार्टी के केन्द्रीय सरकार के मंत्री के समारोह में शिरकत नहीं करने का प्रयोजन क्या हो सकता है ? इसे लेकर राजनीतिक गलियारों में चर्चा तेज हो गई है |
        जयराम  की अभिरुचि झारखण्ड में उग्रवाद को लेकर है , वह मानते हैं कि विकास के जरीये इसे खत्म किया जा सकता है और इसके लिये सारंडा में इनके पहल से ग्राम -वन विकास /योजनाओं के माध्यम से कार्य भी शुरू हुए , जिसके बहुप्रचारित बाते भि८ सामने आई , मगर यहाँ तो सरयू एक्शन प्लान की चर्चा बहुत जोर से की गई ,मगर इसका फलाफल कुछ नहीं निकला है ,जबकि इसके लिये २०१२ में ही रमेश ने लातेहार में कदम रख दिए थे | यह क्यों नहीं सुरू हो सका , इसका उलेख तक नहीं हुआ |इस जिले के चार प्रखंडो के चुनिदे गांवों में सड़क , इंदिरा आवास , पुल -पुलिया , बिजली , स्वास्थ्य , कृषि , सिंचाई ,पेयजल ,शिक्षा , रोजगार परक योजनाओं के लिये कार्य किये जाने थे ,इसके ;इये जिला प्रशासन ने बृहद रूपरेखा तैयार कर रखें हैं ,मगर चार सौ करोड के घोषित राशि के अनुलाब्ध रहने से यह ठंडे बस्ते में पड़ा है ,आखिर इसकी जिम्मेदारी किस पर है ?
      सस्ते सपने दिखाकर पीछे हट जाना भारतीय राजनेताओं की फितरत रही है , गंभीरता से विकास से जुडी बातों को नहीं लिये जाने का ही नतीजा है कि पलामू के परिक्षेत्रों में उग्रवाद और इससे जुडी कई समस्याए सुलझ नहीं पाई है | राज्य की राजनीतिक गतिविधियों में अपने निराले अंदाज़ में ग्रामीण विकास के बूते कदम रखने वाले जयराम क्या कांग्रेस को मौजूदा सामाजिक -राजनीतिक- आर्थिक उन्नयन में थोड़ योगदान दे पाए हैं , यह यक्ष प्रश् उठ खड़ा हुआ है |

   केवल दौरों के सतही पहल से रोजी-रोटी के संकट हल नहीं होते , उसमे तांक -झांक करने की जरूरत होती है , इसमें जयराम खुद अपने वायदे से पीछे मुड़ते दीखते हों ,तो आश्चर्य नहीं |

Friday 10 January 2014

अपराध तो हुए मगर कसूरवार कौन ?

                      (एसके सहाय)
    भारतीय न्यायिक पद्धति में ,यदि थोडा पीछे और जाएँ ब्रिटिशकालीन तो ,एक धारणा काफी प्रचलित है , वह यह कि ' सौ कसूरवार छूट जाये ,लेकिन एक भी निर्दोष को सजा नहीं हो ' मतलब कि दोष सिद्ध होने पर ही अभियुक्त को दण्ड मिलनी चाहिए |
       यह देश में कहने -सुनने में अच्छी लगती है और यह एक सभ्य एवं सुसंस्कृत समाज के लिये बेहतर प्रक्रिया के रूप में स्थापित भी है , मगर परिवर्तित समय में इसके कितने खौफनाक नतीजे सामने आ रहे हैं , उसकी सहज कल्पना करना नामुमकिन है | इसलिए उस अवधारणा को समझने की जरूरत आ पड़ी है और अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस दिशा में सक्रिय पहल के संके दिए है |
        उच्चतम न्यायालय ने गत आठ जनवरी को दिए एक अहम फैसले में संघ और राज्य सरकारों को उन आपराधिक मामलों  जाँच करने का निर्देश दिया है , जिसमे अपराधी ,आरोपित होकर भी अदालत से बरी हो गए | इसके लिये छः माह में एक अलग व्यवस्था करके जाँच एजेंसी और जाँच अधिकारी के दायित्व निर्धारण की बात भी अदालत ने की है |
    वैसे ,अक्सर खबरे, खासकर फौजदारी मामले में आती हैं कि अपराध हुए , अपराधी पकडे गए , फिर संदेह के लाभ या फिर साक्ष्य के अभाव में अभियुक्त बने अपराधी को न्यायालय ने रिहा कर दिया | आखिर ,यह कैसे होता है कि आरोपित व्यक्ति या व्यक्ति समूह को पुलिस अर्थात जाँच अधिकारी अपने द्वारा लगाये गए तथ्यों को अदालत में साबित नहीं कर पाता ? क्या आरोप पत्र में ही गडबडी होती है ? क्या जाँच अधिकारी , जाँच में निपुण नहीं है ? क्या इसके प्रशिक्षण में त्रुटि है ? या पूरी जाँच प्रक्रिया ही दोषपूर्ण है ? या फिर जान बुझकर आरोप पत्र , जो अदालत में समर्पित होते हैं ,उसमे कमजोर बिंदुओं को ही रखा जाता है ,ताकि अभियुक्त क़ानूनी नुक्ता -चीनी के फायदे लेकर दोष मुक्त हो सके |
      देखा गया है कि देश में आपराधिक मामलों में ज्यादातर मुकदमों में गवाह और गवाही पर फैसले की डोर निर्भर रहती है | सामाजिक स्थितियां , व्यक्ति के मानसिक दशा ऐसी है कि लोग आसानी से फौजदारी मामलों में गवाही देने को तैयार नहीं होते और अगर तैयार होते भी हैं , अनजाने -जाने दबाव में अदालत के समक्ष पूर्व में दिए अपने पुलिस बयान से मुकर जाते है | ऐसी अवस्था में ,मौजूदा न्यायिक पद्धति के सामने गंभीर चुनौती खड़ी है और इसी को सर्वोच्च अदालत ने ठीक करने की दिशा में पहल की है |
        कल्पना करें ,हत्या या इस जैसी अन्य जघन्य अपराध हुए , जाँच अफसर ने अपनी तफ्तीश में दोषी पाए गए व्यक्ति /व्यक्तियों को उसके लिये आरोपित अदालत में किया | क्या इतना भर ही जाँच अधिकारी /जाँच एजेंसी का कर्तव्य है ? या अपने रिपोर्ट के मुताबिक अपराधी को सजा दिलवाना भी उसके कर्तव्य में है ?
  फिर सोचें , आरोपित व्यक्ति अदालत से रिहा हो जाते हैं , तब फिर आखिर उक्त जैसे अपराधों को अंजाम देने वाला कौन है ? आखिर ,अपराध तो हुए , फिर किसी निर्दोष को कैसे जाँच अफसर ने आरोप पत्र में आरोपित कर दिया ?
     यह सवाल इसलिए गंभीर है कि देश के मौजूदा समय में साढ़े तीन करोड मामले अदालतों में सुनवाई के लिये लंबित हैं | इसके जल्द निपटारे की समस्या न्यायपालिका के लिये चुनौती बन गई है | दिवानी , राजस्व के मामले में देरी थोड़ी देर के लिये समझ में आ सकने वाली हो सकती है ,मगर फौजदारी मामलों में घटना के हिसाब से कसूरवार होने वालों की संख्या काफी कम है | इस मामले में ,सजा तब ही प्राय: हो पाती है , जव मुदई चुस्त - गवाह दुरूस्त होते हैं |
       भारतीय न्याय व्यवस्था की संकल्पना परम्परागत है , जिसमे अंग्रेज हुकूमत की छाया है , यह तब के लिये लाभप्रद हो सकती थी , जब देश के आम लोग अपने "नागरिक कर्तव्यों" के प्रति जागरूक एवं संवेदनशील होते | गवाही के नाम से ही जहाँ लोग पुलिस -अदालत में सामान्य ढंग से बात कहने -रखने में हिचकते हों , वहां न्याय की सुनवाई लचर होना स्वाभाविक होगा ही | व्यवहार में तो यही परिलक्षित है और इसी को उच्चतम न्यायालय ने गंभीर माना है |

        अदालत के निर्देशों में स्पष्ट किया गया है कि जाँच अधिकारी /जाँच एजेंसी, अपनी कही गयी बातों को सिद्ध करने की जिम्मेदारी लें , अगर यह अपने आरोप पत्र के अनुसार मामले को अदालत में सिद्ध नहीं कर सकें , तब इसके लिये उनको दंडित किया जाये , यह दण्ड इसलिए कि वह बेवजह निर्दोष को फंसाया ,इसलिए नयायालय ने उसे रिहा के लाभ का अवसर प्रदान किया | ऐसे में , प्रश्न  उठाना स्वाभाविक है कि आखिर दोषी कौन है ? इसे महत्वपूर्ण मानते हुए सर्वोच्च अदालत ने 'दायित्व' का निर्धारण किये जाने पर सरकार को जोर दिया है | 

Thursday 9 January 2014

पारिस्थितकी -पर्यावरण अदालत के आसरे

                 (एसके सहाय)
   देश की सर्वोच्च अदालत ने जल ,जंगल और जमीन के सन्दर्भ में पर्यावरण एवं पारिस्थितकी को लेकर गंभीर चिंता प्रकट की है | इसके उपाय के तौर पर उसने एक राष्टीय "नियामक" प्राधिकार का गठन करने के निर्देश केंद्र सरकार को दिया है ,ताकि वन नीति को ठोस एवं कारगर तरीके से क्रियान्वित किया जा सके | यह बात उच्चतम न्यायालय के तीन सदस्यीय पीठ ने पिछले छ जनवरी को अपने दिए गए आदेश में की है |
      इस आदेश -निर्देश के परिप्रेक्ष्य में विचार करें , तो मालूम होगा कि वास्तव में वनों को लेकर संघ एवं राज्य सरकार शुरू से लापरवाह रही हैं | सारे उपक्रम कागजी खानापूर्ति तक सीमित हैं | वन अधिकारियों -कर्मचारियों के भारी -भरकम मौजूदगी के बावजूद वन योजनाओं को धरती पर उतारने में कोताही बरते जाने के कई मामले सामने हैं | जैसे कि जंगलों की सुरक्षा मे परम्परागत हथियारों के बदले रायफल ,अत्याधुनिक शस्त्र, वन रक्षियों को उपलब्ध कराना, जंगली उत्पादों को संरक्षण प्रदान करना , निषिद्ध क्षेत्रों में  वृक्षों की कटाई कठोरता से रुकवाना , जल संचय के लिये पहल करना , पर्यावरण में संतुलन स्थापित रहे ,इसके लिये पारिस्थितकी के विकास के लिये सतत हरियाली के कार्यक्रमों को प्रोत्साहित करने जैसे कई विषय हैं , जिनमे गंभीरता की कमी है |
       इतना ही नहीं , देश के संपूर्ण जिले में १९९५ -९६ जल छाजन कार्यक्रम कार्यान्वित है | यह योजना गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से लागु की गई है | इसपर अबतक हज़ार करोड रूपये से अधिक राशि खर्च कर दी गई है ,मगर वास्तविक धरातल पर क्या हकीकत में जल के साथ हरियाली उत्पन्न हो पाई है ?
        एक बेहतर उदाहरण झारखण्ड के सन्दर्भ में है | यह वन प्रदेश के तौर पर प्रसिद्ध है | इस राज्य में एकमात्र ब्याघ्र रिजर्व पलामू है | इसके सुरक्षा के साथ आस-पास के वनों की देखभाल का प्रश्न अरसे से सरकार के पास गौण है | वन कर्मियों के जिस हिस्से को जंगलों की रखवाली करनी हैं ,उनके पास केवल लाठी ही हैं ,जबकि पूरा इलाका नक्सली गतिविधियों के साथ आपराधिक घटनाओं से प्रभावित है | वन्य जीवन के साथ मनुष्य के ऊपर खतरे अक्सर विधमान हैं और पूर्व में हत्या जैसी वारदात भी हो चुके हैं | यही जाने कि कभी पिछली सदी के नब्बे के दशक तक देश विदेश से तीस से पच्चास हज़ार तक सैलानी रिजर्व के केंद्र 'बेतला राष्टीय उधान' में वन्य प्राणियों के जीवन का आनंद उठाने आते थे ,लेकिन अब यह संख्या मुश्किल से दस से बारह हज़ार तक ही रह गई है | पेड़ों की अवैध कटाई से उजड़ा दृश्य अब काफी दूरी तक इस क्षेत्र में दृश्यमान हैं , जो वनों की होती पतली हालात का बयां खुद करती है |
     इस जैसी परिस्थिति सिर्फ झारखण्ड में नहीं है ,बल्कि उतराखंड ,असम , हिमालय के तराई वाले इलाके , आंध्र प्रदेश , कर्नाटक ,छतीशगढ़ , मध्य प्रदेश के अतिरिक्त प्राय: हर जगह है , जहां जंगल मौजूद है | ऐसे में उच्चतम न्यायालय ने खुद पहल करते हुए पर्यावरण में संतुलन और पारिस्थितकी विकास की दिशा में सरकार को निर्देशित किया है , तो उसमे हर्ज जैसी कोई बात नहीं है | यदि सरकार स्वयं प्राकृतिक संपदा एवं वातावरण को अक्षुण्य बनाये रखने और विकास के प्रति सचेष्ट रहती तो आज अदालत को उक्त दिशा निर्देश देने की जरूरत नहीं पड़ती | इस निर्देश से जाहिर है कि 'वन नीति' को लेकर सरकार उदासीनता बरतते रही है , तभी अदालत को पहल करने के लिये बाध्य होना पड़ा |
   सचमुच ,आज पर्यावरण को लेकर विश्व व्यापी चिंता है | विज्ञान के अत्यानुधिक तकनीक ने यह सपष्ट कर दिया है कि संसार में अब कुल क्षेत्र का मात्र ३० फीसदी हिस्से में ही 'वन' हैं | इसमें भारत की भागीदारी दो तिहाई से कम हैं , उसमे भी घने जंगलों के परिमापन में यह केवल १२-१८ फीसदी ही ठहरता है | ऐसे में एक सशक्त नियामक की आवश्यकता जरूरी थी , जो केवल वन नीति के तहत आने वाली योजनाओं के क्रियान्वयन पर निगरानी रख सके और उचित -अनुचित में अंतर करके कारवाई कर सके |
        दरअसल , वन नियामक के अस्तित्व से "वन्य जीवन" की सुरक्षा भी जुडी है | अवैध शिकार को रोकना आज के विविधतापूर्ण वन्य जीवन के महत्त्व को उपेक्षा नहीं की जा सकती | सिकुड़ते वनों की वजह से पूरे संसार में चिंता व्याप्त है |प्रकृति में छेड़छाड़ का संकट जलवायू परिवर्तन का जलवा विश्व में जहाँ -तहां विध्वंसक रूप में दिखा है |ऐसा पर्यावरणविद कहते आ रहे हैं , फिर भी इस ओर सरकारों का विशेष ध्यान नहीं गया है | इसी तथ्य को न्यायमूर्ति एके पटनायक , सुरिंदर सिंह निज्जर और एफएमआई कलीफुल्ला ने अपने दिए संयुक्त फैसले में सरकार के समक्ष रखा है | इतना ही नहीं , अगले मार्च २०१४ तक सरकार को उसके दिए गए निर्देश के तहत क्या कदम उठाये गए , इसकी शपथ भी दाखिल करने को कहा है | स्पष्ट है कि वन नीति को कितना उपयोगी अदालत मानती है |
       ग्रीन गैसों के उत्सर्जन से मनुष्य के स्वास्थ्य पर पड़ते घातक प्रभाव के बीच उच्चतम न्यायालय के इस निर्देश विशेष तौर पर भारतीयों के लिये रेखांकित है | वन्य जीवों का सड़क पर आना और दुर्घटनाओं का शिकार होना , पर्यावरण में आई तब्दिली से बिमारियों के संक्रामक प्रहार से जंगली जानवरों की मौत होने में वन नीति के प्रति उपेक्षा ही है | राष्टीय बाघ संरक्षण प्राधिकार के अधिकृत रिपोर्ट पर विश्वास करें , तब विदित होगा कि विगत साल में ६३ बाघों की मौत गैर प्राकृतिक स्वरूप में हुई है जिसमे केवल ४८ बाघ शिकारियों के हाथों मारे गए हैं |बाकी प्रकृति जन्य वजहों से मौत के शिकार हुए |इसमें बीमारी प्रमुख है | साफ है कि अधिसंख्य मौत मनुष्यकृत कारणों से हुई है |इसमें वाहनों के चपेट में होने वाली मौतें भी शामिल है | यह केवल बाघ का ही मामला नहीं है | झारखण्ड में ही पलामू परिक्षेत्र में दो सालों के बीच बाघ प्रजाति के लकडबग्घा(हायना) की कई मौते वाहन के टक्कर में हुई है , इसी तरह हाथियों के भी मौत के मामले दृष्टव्य है | वनों के उजड़ते जाने से नीलगाय तक को खतरे हैं | इसे जंगल के बाहर और भीतर खतरे हैं | वैसे ,प्रकृति अपने में आहार -विहार के बीच संतुलन बनाये रखने के यत्न भरसक करती है |

        अतएव , वन नीति के प्रति जागरूकता पैदा करना अपरिहार्य है | सामान्य लोगों को अहसास होना चाहिए कि वन्य जीव कोई अलग दुनिया के प्राणी नहीं है | इसमें मनुष्य और जंगली जानवरों के बीच मित्रता के भाव तभी सार्थक हो सकेंगे ,जब इनके मध्य वनों का विस्तृत दायरा पर्यावरण के अनुकूल होगा तथा पारिस्थितकी विकास पर जोर होगा | ऐसे में अदालत की पहल का स्वागत किया जाना चाहिए ,इसलिए कि उसने सरकार के इस तर्क को नामंजूर कर दिया गया है कि वनों की सुरक्षा के प्रति पर्याप्त कदम क्रियाशील हैं |

Wednesday 8 January 2014

हेमंत : युवा मुख्य मंत्री और यह अवसान

                                           (एसके सहाय)
     झारखण्ड में झामुमोनीत सरकार का गठन हेमंत सोरेन के नेतृत्व में  हुआ , तब कल्पना थी कि युवा मन की हिलोंरे लेती तस्वीरों को  राज्य में उतरने के लिये माकूल मौका मिलेगी ,ऐसा सोचने के पर्याप्त वजहें भी थी ,लेकिन कुछेक माह गुजरने के बाद प्रतीत है कि निकट भविष्य में वैसा कुछ भी नहीं होने वाला है , जिससे लगे कि शिबू सोरेन का यह बेटा बदलाव करने की तमन्ना भी रखता है |बस ,जैसे -तैसे सत्ता को बचाए रखने में ही समय , श्रम और शक्ति जाया हो रही है , गोया उन्हें लगता है कि उनके अपने टोटके से ज्यादा दिनों तक सत्ता सुख मिल सकेगा |  
      यहाँ यह बात इसलिए प्रासंगिक है कि हेमंत ने कहा है कि 'विकास के लिये गठबंधन की जगह स्पष्ट जनादेश की जरूरत है , इस सरकार में वह विवश हैं ,इसमें समझौते की मज़बूरी है, अपेक्षाकृत कदम नहीं उठा सकते हैं |' यही नहीं वह कहते हैं कि अरविन्द केजरीवाल जैसे ही लालबत्ती एवं रोब -दाब का प्रदर्शन नहीं करेंगे , अच्छे कामों का "नक़ल" करने में कोई दिक्कत नहीं है |
           यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि जिस नेता को नक़ल और अनुसरण में फर्क पत्ता नहीं और जिसकी अपनी मौलिक सोच नहीं हो , उससे आम लोगों का क्या भला हो सकता है ? 'आप' के प्रभाव हेमंत पर दिखा तो है ,मगर यह वैसा ही है , जैसे  पानी का बुलबुला, यह इसलिए कि इनमे राजनीतिक जोखिम उठाने का मादा नहीं है और यह दृढ़ता होती , तब तीन माह में राज्य के भीतर दिख जाती , लेकिन ऐसा कुछ भी खास नहीं है ,जो हेमंत के व्यक्तित्व में चार चाँद राजनीतिक तौर पर  नजर आते | यह ताज उनकी लोलुपता का नतीजा है ,यही नहीं अपने पिता शिबू सोरेन की सोची -समझी योजना का फल है , बीमार शिबू को यह मालूम है कि उनके जीवित रहते पुत्र की ताजपोशी होने से पार्टी में अगले कतार में यह स्वत: रहेगा | इसीलिए अपने जीवित अवस्था में ही हेमंत को मुख्य मन्त्री बना देना इनकी शातिर दिमाग की उपज माना गया है |
     काफी हद तक यह सच भी है , शिबू सोरेन के गैर मौजूदगी में हेमंत आसानी से सत्ता की बागडोर नहीं संभाल पाते , दल में ही उनके कई कद्दावर नेता हैं ,जो जब -तब झामिमो के नेतृत्व को खरी -खोटी सुनाने में जरा भी देर नहीं करते रहे हैं और शिबू भी दबाव में आते रहे हैं |
      खैर , आज जिस स्वरूप में हेमंत सोरेन है , उसमे सत्ता में बने रहने और कांग्रेस -राजद के आगे नत -मस्तक रहना ही है | सत्ता इनके लिये इतनी प्यारी है कि केंद्र में कांग्रेसनीत सरकार की योजना के तहत २०१४ में होने वाली लोक सभा में मात्र चार सीटों पर  झामुमो को  लड़ने के लिये कांग्रेस ने रजामंद कर लिया और झारखण्ड में इन्हें कमान सरकार सौंप दी ,ताकि केन्द्रीय सत्ता को अक्षुण्य बनाये रखने में मदद मिल सके |
                  यह बातें इसलिए रेखांकित है कि वक्त किसी का मोहताज नहीं होता , मौका मिला है ,तो अल्प अवधि में ही जन हितों की दिशा में सख्त एवं जोखिम उठाते हुए पहल करने की , यह अवसर हेमंत को मिला है ,मगर हिचक क्यों ? वह वैसे भी झामुमो के सबसे काबिल नेताओं में कभी शुमार नहीं रहे , पिता की तिकड़मी एवं तदर्थ राजनीति का फल है कि उन्हें मुख्य मंत्री के पद पर आसानी से ताजपोशी हो गई | झामुमो का अपना इतिहास उतना उजाला नहीं है कि इसके लार्टी लाइन को लोग सहज ढंग से मंजूर कर लेंगे | यह प्राय: सभी झारखण्ड वासी जानते हैं कि झामुमो जब दक्षिण बिहार अब झारखंड  में गठित हुई तो , उसके सिरमौर बिनोद बिहारी महतो और निर्मल महतो थे ,इसमें तीसरे पायदान में शिबू सोरेन थे | इस जानकारी के पीछे और जाएँ ,तब विदित होगा कि शिबू को इस लायक बनाने में धनबाद के कभी उपायुक्त रहे केबी सक्सेना और बिनोद बिहारी महतो का अहम योगदान रहा है | इतना ही नहीं , निर्मल महतो की हत्या (१९८५) के बाद ही धीरे -धीरे शिबू की खास पहचान झारखण्ड की राजनीति में  हुई |
       इतना ही नहीं , जब ३ सितम्बर १९९३  को तत्कालीन गृह राज्य मंत्री एसवी पाटिल ने झारखण्ड निर्माण सबंधी बयान दिया ,तब मौजूदा मुख्य मंत्री के पिता शिबू कांग्रेस के साथ गलबहियां कर रहे थे , उम्मीद बनी कि जल्द ही राज्य का गठन हो जायेगा , गृह मंत्री के बयान में ऐसा ही संकेत था ,लेकिन बाद में सार्वजनिक हुआ कि पीवी नरसिंह राव के विश्वास मत के दौरान झामुमो रिश्वत कांड हुए थे | जाहिर है कि राजनीति को जैसे -तैसे मनमाफिक हांकने के यत्न ही पिछले दो दशक से इस पार्टी ने किया है और अब जब इनके आशाओं पर तुषारापात की झलक मंडराने लगी है ,तो झामुमो प्रमुख के इस लाडले ने साफ बहुमत के भाव का रोना रोया है |
        ध्यान रहे , गृह मंत्री ने पुणे में कही अपनी बात को दूसरे दिन गौहाटी में दुहरा दिया था , तब दक्षिण बिहार में आशा बांध गई थी शीघ्र ही अलग प्रान्त की विधिवत घोषणा हो जायेगी | मगर ,उस वक्त यह मृग मरीचिका ही साबित हुई |
       यह कई दफे प्रकट हो चूका है कि सत्ता के लिये झामुमो का कोई साफ -सुथरा नीति -सिन्धांत कभी नहीं रहा | यह राज्य बन रहा था , तब यह राजग के साथ थी , भाजपा ने शिबू को मुख्य मंत्री बनाना नहीं गंवारा ,तब यह कांग्रेस के खेमे में चली गई | यह सिलसिला इसके काफी लंबे हैं | ऐसे में हेमंत सोरेन की बात बेमानी परिलक्षित हो तो कोई आश्चर्य नहीं |
         झारखण्ड में हेमंत सोरेन को मुख्य मंत्री बनने का अवसर मिल गया ,मगर इनके मंत्रिमंडल में इनके मंत्रियों के बीच इतना अंतर्विरोध -तीखा मतभेद है कि इसके होने न होने का कोई मतलब ही नहीं है | नतीजतन ,राज्य राजनीतिक अस्थिरता और अराजकता के दौर में है लेकिन इसके सुधरने के लिये हेमंत के पास फिलवक्त कोई सख्त योजना नहीं है |
       कम उम्र के मुख्य मंत्री अरविन्द केजरीवाल भी हैं , इनकी भी सरकार कांग्रेस के रहमो -करम पर टिकी है , मगर इनको फिक्र नहीं है कि सरकार रहे यह जाये , इसके बावजूद जिस दृढ़ता से जनोपयोगी निर्णय दिल्ली की सरकार ने लिया है , वह सराहनीय एवं स्वागत योग्य है |  आखिर सरकार है किसके लिये ? "जनता" के लिये ही न , फिर जन कल्याण के मामलों में गुणा-भाग कैसा ? वह भी लोकतंत्र में नफे - नुक्सान को लेकर , कम से कम बुनियादी जरूरतों के मामले में लाभ -हानि को दरकिनार होनी ही चाहिए |

       लोक सभा चुनाव हेमंत सोरेन के लिये अहम है | इसमें राजनीति की चतुरंगी फांस को कैसे तोडा जाये , यह फिलवक्त मुख्य सवाल है |१०-४ के बीच सीटों के बंटवारे की बात ठीक उसी तरह सामने आई है ,जैसे भाजपा के संग में २८-२८ माहों के सरकार के कार्यकाल का कथित तय होना कहा जाता था , यह अविश्वसनीयता क्या एक बार फिर खंडित होगी ? 

Tuesday 7 January 2014

मोदी बनाम राहुल बराबर केजरीवाल

                (एसके सहाय)
      २०१४ में होने वाले लोक सभा चुनाव के विधिवत घोषणा में अभी देर है, इसके बावजूद देश में अगले प्रधान मंत्री को लेकर बहस-मुबाहिसों का दौर तेज हो गया है , ऐसे में नवोदित दल  'आम आदमी पार्टी' के अचानक धीर -गंभीर तरीके से राष्टीय राजधानी दिल्ली में काबिज होने से नये समीकरण एवं धुर्वीकरण की संभावना उत्पन्न है , जिसे लेकर भाजपा में धीमी स्वर से ,तो कांग्रेस खुलेआम चिंता के स्वर दिखने लगे हैं और इस कड़ी में जब केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश अपनी पार्टी ,कांग्रेस को सचेत करते हुए कहते हैं कि ' कांग्रेस को अभी से अपने में परिवर्तन करना होगा ,अन्यथा ---तो गंभीर बात होगी , का खास मतलब है | यह इसलिए भी चिंतनीय है कि दिल्ली में "आप" के उदय पर राहुल गाँधी ने तूरत साफ तौर पर इसके क्रिया -कलापों को स्वीकार किया है और सीखने की बात कही है |
      ऐसे में अरविन्द केजरीवाल को अगले प्रधान मंत्री के तौर पर 'आप' के रणनीतिकार एवं विचारक योगेन्द्र यादव घोषित करते हैं , तब इसके मायने काफी गुढ़ होते हैं , जिसे मौजूदा राजनीति में प्रभावकारी कारक के तौर पर देखा जा रहा है |
     यों तो , भाजपा के घोषित प्रधान मंत्री के उमीदवार नरेन्द्र मोदी हैं और कांग्रेस के लिये नाम अबतक सामने नहीं आये हैं ,फिर भी परदे के पीछे की बातों पर भरोसा करें ,तो राहुल गाँधी ही इसके दावेदार होंगे | चर्चा भी इसी नाम की है |मनमोहन सिंह ने प्रेसवार्ता  करके स्पष्ट कर दिया है कि वह तीसरे पाली के लिये प्रधान मंत्री के पद पर विराजमान नहीं होगें , इनकी माने तो , राहुल ही पार्टी के 'आदर्श उम्मीदवार उक्त पद के लिये हैं |
   बहरहाल , अब जो नाम देश के फिजां में तैर रहा है ,उसमे राहुल ,मोदी और केजरीवाल का है | इनके नाम पर मुहर कैसे लगेगी ,यह तो चुनाव परिणाम आने के बाद ही तय होगा | वैसे , नतीजे सामने आने पर १९९६ की तरह भी अचानक लाटरीनुमा नाम अचानक सामने आ सकते हैं , फिर भी इसकी संभावना कम ही है |
     तुलनात्मक दृष्टि से देखें , तो जाहिर होगा कि मोदी बनाम राहुल के मध्य ही मुख्य जोर होगा | इसमें भाजपा को लगातार प्रतिपक्ष में रहने का लाभ है ,तो कांग्रेस को सत्ता में रहते भ्रष्टाचार ,मंहगाई और अन्य समस्याओं को लेकर दरपेश होने की विवशता है | मुख्य मुकाबले में यही दो किनारों के बीच  "केन्द्रीय सत्ता " के लिये होड़ होगी |ऐसा राज प्रेक्षक मानते हैं | इसमें अरविन्द केजरीवाल की भुमिका को लेकर कतिपय राजनीतिक हल्कों में संदेह के बदल हैं , जिसमे मुख्य वजह सांगठनिक शक्ति का सीमित स्वरूप , चरित्रवान सामाजिक क्रियाविदों के चयन का झमेला , पैसे -सादगी के बीच आम लोगों के बीच पहुँच के अलावा अन्य कई ऐसे तथ्य हैं ,जिसका परीक्षण होना अभी बाकी है |
      यह इसलिए कि भारतीय समाज कई कोणों से विभाजित हैं , जिसमे जातीय ,धार्मिक क्षेत्रीय ,सामुदायिक समूहों के अपने -अपने आग्रह -विग्रह हैं , इस अवस्था में अभी सीधे कोई निष्कर्ष निकाल लेना जल्द बाजी होगी कि भारतीय मतदाता आजादी के बाद पूर्णत: परिपक्व हो गई है और अपना -बुरा -भला समझने में सक्षम है |यह इसलिए कि अबतक भावावेश में ही 'सत्ता' परिवर्तन देश में हुए हैं और जहाँ राजनीतिक चुनाव के प्रति उदवेग नहीं हैं , वहां खंडित 'जनादेश' ही सामने आये हैं ,यथा - १९९१ ,१९९६ ,२००४ और २००९ के नतीजे को विश्लेषित कर सकते हैं | हालाँकि सरकार गठित हुई लेकिन इसमें कई दल , दलीय समूह ऐसे से ,जो एक -दूसरे के विरूद्ध ख़म ठोक कर चुनाव मैदान में थे | इनमे साहचर्य तभी बना ,जब सत्ता की मलाई में हिस्सेदारी मिली |१९७७ में तानाशाही बनाम लोकशाही ,१९८९ में बोफोर्स से उपजे भ्रष्टाचार की छाया तो १९९८-९९ में पस्त कांग्रेस एवं अन्य कथित तीसरे मोर्चे की स्थिति | इन चुनाव परिणामों को देखें ,तो साफ होगा कि भारत जैसे विविधता वाले देश में अब स्पष्ट जनादेश निकट भविष्य में किसी पार्टी या पार्टी समूह को आसानी से मिल जायेगी ,यह मुमकिन प्रतीत नहीं होती |
       याद करें , परतंत्र भारत में अंग्रेजी हुकूमत में भी केन्द्रीय एसेम्बली के लिये चुनाव हुए थे , इसमें कांग्रेस और मुस्लिम लीग ही प्रभावी भूमिका में थे , जिसका असर इस रूप में प्रकट हुआ कि जिस समुदाय की जहाँ बहुमत था ,वहां उसी को मतदाताओं ने पसंद किया ,बंगाल इसका सुन्दर उदाहरण है | तब कांग्रेस को हिंदू पार्टी और लीग को मुस्लिम के प्रतिनिधित्व करने वाली समझा गया था | ऐसे में , यदि केजरीवाल के 'आप' को कितना जन समर्थन मिल पाता है , यह देखने लायक होगा , प्रधान मंत्री के ख्वाब देखें ,यह अच्छी बात है लेकिन यह सहज होगा , यह अभी काफी लंबा सफर की मांग करती है |
     'आप' का प्रादुर्भाव स्थानीय जन समस्या/संकट से उत्पन्न है |अलबत्ता , यह दीगर बात है कि लोकतंत्र के अनुरूप जन अधिकार की लड़ाई में इसके कर्ता-धर्ताओं की अहम योगदान है ,जैसे सूचनाधिकार और लोकपाल | मगर यह भी फिलवक्त काफी नहीं है | सिन्धान्तों का गढना , विचारधारा को अंगीकृत करना यों कहें कि एक जो राजनीतिक दल के लिये मौलिक स्वरूप होती है , उसे तैयार करना ,इसके लिये जरूरी है | नहीं तो विनोद कुमार बिन्नी के असंतोष , प्रशांत भूषण के अति बुधिवादी बातें और कुमार विश्वास के बडबोलापन के जरीये से सत्ता पर काबिज होना इसके बूते की बात नहीं |
     अतएव , मोदी संघर्ष की उपज हैं ,तो राहुल विरासत की देन है ,इसमें केजरीवाल मध्य वृति के परिचायक हैं | कांग्रेस और भाजपा को अपनी सांगठनिक शक्ति पर भरोसा है , तो 'आप' को अपने तेज वैक्तित्व एवं चरित्र पर अडिग रहने का जज्बा | मोदी को लेकर चुनाव परिणाम आने पर संशय -संदेह उक्त पद के लिये हो सकते है लेकिन राहुल को लेकर कांग्रेस में कोई चुनौती देने को तैयार नहीं | केजरीवाल केवल 'पूरक' की भूमिका में वर्तमान राजनति में हो सकते हैं ,मगर उक्त दोनों के साथ ऐसा संभव नहीं , जब भी भाजपा -कांग्रेस होंगे एक -दूसरे के खिलाफ ही होंगे ,बाकी इनके हाथों के  खिलौने होंगे |

       इन परिप्रेक्ष्य में प्रकट है कि आनेवाले चुनाव पूर्व की अपेक्षा ज्यादा दिलचस्प होंगे , जिसमे 'आप' का तड़क कितना कारगर होगा , वह देखने वाली चीज होगी |

Saturday 4 January 2014

ऐसे हों यार तो कैसे हो बेड़ा पार

                        (एसके सहाय)
        इन दिनों अगले लोक सभा चुनाव को लेकर देश में बहस तेज है |क्या पक्ष और क्या विपक्ष सभी अपने -अपने हित -अनहित को लेकर चिंतित और व्यूह रचना में मशगुल हैं | खासकर ,केंद्र की सत्ता पार काबिज होने कि बेकरारी बढ़ गई है |इसमें राष्टीय एवं क्षेत्रीय दलों की  भूमिका अपने नफे -नुक्सान को लेकर आकलन में क्या होगी ? इसपर ज्यादा राज प्रेक्षक जोर दिए हैं और इसके केंद्र में भाजपानीत राष्टीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) के अलावे तीसरे मोर्चा की चर्चा प्रबल है |इस संभावित मोर्चे पर बल इसलिए है कि 'कहीं बिल्ली के भाग्य का छींका फिर १९९६ की तरह टूटे और हलदन हल्ली डोडेगौड़ा देवगौड़ा एवं इन्द्र कुमार गुजराल की तरह किस्मत चमक उठे' इस प्रत्याशा में वैसे खुलकर कोई नाम नहीं आया है ,लेकिन दबे जुबान राजनीतिक गलियारों में समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव वैसी लालसा पाल बैठे है , यह चर्चा भी बहुत है |
कहते हैं ,राजनीति संभावनाओं का खेल है , फिर मुलायम या अन्य क्यों नहीं अपने को 'प्रधान मंत्री' बनने के सपने पालें ?इनकी इस मनोभाव को वामपंथी दलों के नेताओं ने ताड़ लिया है और जब -तब अपने अंदाज़ में इनके ख्वाब को हवा तीसरे मोर्चा के लिये देते रहे हैं और मुलायम भी बार -बार तीसरे मोर्चे के रट लगाते दिखे हैं ,ताकि जीवन के अंतिम पहर में सत्ता के शिखर पद पर आरूढ़ हो सके | इसके लिये क्षेत्रीय दलों के बीच तालमेल बिठाना काफी मुश्किल एवं दुष्कर सा है |यथा -बिहार में राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव , जद (यु) के शासन वाली बिहार के मुख्य मंत्री , बसपा प्रमुख मायावती , बंगाल में तृणमूल कांग्रेस प्रमुख व मुख्य मंत्री ,उडीसा में बीजू जनता दल प्रमुख व मुख्य मंत्री नवीन पटनायक , तो आंध्र प्रदेश में तेलगु देशम , जगन रेड्डी वाली कांग्रेस के अलावा तमिलनाडु में डीएमके -एडीएमके सरीखे पार्टियों के बीच सामंजस्य एवं समन्वय बिठाना किसी पहाड तोड़ने जैसा ही है | फिलवक्त मुलायम -मायावती एक मंच में एक -दूसरे को देखने को तैयार नहीं हैं और कांग्रेस दोनों को कैसे मौजूदा स्थिति में साध रही है , यह कलाबाजी सीखने को तैयार भी नहीं है , नीतीश -लालू एक -दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाते |इससे इत्तर क्षेत्रो में भी कमोबेश यही हालात हैं |करूणानिधि ,जयललिता को पसंद नहीं , तो चंद्रबाबू नायडू -जगन रेड्डी की अपनी -अपनी सीमा है | इसके अतिरिक्त , महाराष्ट में नवनिर्माण राज ठाकरे , असम में अगप और हरियाणा में अलग -अलग परिस्थितियां हैं और इनके बीच समय स्थापित करना टेढ़ी खीर जैसी प्रक्रिया है |
         दरअसल , अपनी - अपनी महत्वकांक्षा को साकार करने में ठिगने से पार्टियों में स्पंदन को बढ़ावा इसलिए मिल पाई है कि देश में पहले भी तीसरे मोर्चे अर्थात राष्टीय मोर्चे अर्थात संयुक्त मोर्चा के नाम पर गठबंधन की सरकार केंद्र की सत्ता में आ चुकी है | १९८९ में जनता दल की अगुवाई में विश्वनाथ प्रधान मंत्री तीसरे मोर्चे की तरह प्रधान मंत्री हुए ,तो उस सरकार को बाहर से परस्पर धुर विरोधी भाजपा और वाम दल समर्थन दे रहे थे | परवर्ती काल में १९९६-९८ के मध्य देवगौड़ा और गुजराल सरकार  को कांग्रेस भाजपा के रास्ते रोकने या कहिये खेल बिगाड़ने के लिये इस मोर्चे को बाहर से अपना समर्थन देकर टिकाये रखने के काम किये और मतलब नहीं सधते देख दोनों से अपना हाथ एक -एक वर्ष के अंतराल में खींच लिया | इसके बावजूद भी उम्मीद के परवान चढ़ने की उम्मीद कथित तीसरे मोर्चे के कल्पनाशील नेताओं को इसमें अपना भविष्य दीखता हो ,तो कोई आश्चर्य नहीं |
           इन राजनीतक परिस्थितियों के मध्य भाजपा और कांग्रेस की पैतरेबाजी २०१४ के लोक सभा चुनाव में क्या रंग भरती है , वह भी कम दिलचस्प नहीं है | कांग्रेस ढलान पर है , इसे प्राय: सभी राजनीतिक पर्यवेक्षक किन्तु -परन्तु के साथ स्वीकार कर चुके हैं |अब कोई करिश्माई हरकत ही इसमें निस्तेज होती शक्ति में प्राण फूंक सकता है |फिलवक्त, १२८ वर्ष पुरानी  इस पार्टी का ही कुनबा अर्थात गठबंधन ,भाजपा से बड़ा है ,इसके बावजूद इसके कुनबा दरकने की ओर अग्रसर है | सो , संकट इस बात का है कि कांग्रेस अपना भविष्य जोड़े तो किस क्षेत्रीय दल से , जो डूबती नैया को बेड़ा पार कर सके |
          उत्तर प्रदेश में बसपा -सपा के बीच दांत कटी दुश्मनी है , अभी दोनों मज़बूरी में दांत पीसकर  कांग्रेस के केन्द्रीय पतवार को खेवने में सहायक हैं और दोनों के साथ कांग्रेस भी भ्रष्टाचार जनित घपले -घोटाले को लेकर तर -बतर हैं | यही हाल बिहार में हैं ,जहाँ सजा याफ्ता व्यक्ति लालू प्रसाद यादव (राजद) अपनी  रणनीति में कांग्रेस के साथ सकून अनुभूत करते हैं और सोनिया गाँधी भी दागदार लालू को मुलाकात का अवसर देकर आने वाले चुनौतियों से भिड़ने का मंसूबा बनाती है | झारखण्ड में देखें तो सत्ता में शामिल होकर भी राजद ,झामुमो और कांग्रेस के मध्य इतना अंतर्विरोध है कि मंत्री सार्वजनिक रूप से अपनी ही सरकार के बखिया उखाड़ने में जरा भी संकोच नहीं करते ,जबकि १०-४ के बीच क्रमश: कांग्रेस -झामुमो के बीच लोक सभा के सीटों पर समझौता सरकार बनाने के पहले ही संयुक्त रूप से कर चुके हैं , जिसमे राजद के लिये कोई स्थान नहीं हैं | इसे लेकर विवाद भी इनके बीच शुरू हो चूका है |
       कांग्रेस के दो प्रयोग सत्ता में टिके रहने के लिये कितना खतरनाक स्थायित्व को लेकर हो सकता है ,शायद इसका अहसास इसके केन्द्रीय नेतृत्व को नहीं है | राजनीतिक समीक्षक देख रहे हैं कि कैसे मुलायम -मायावती को सीबीआई का भय दिखा कर और झारखण्ड में सरकार का लालच देकर झामुमो के मुख्य मंत्री हेमंत सोरेन एवं इनके पिता व पार्टी प्रमुख शिबू सोरेन को मिलाये हुए है कि राज्य तुम्हारा और केंद्र हमारा | सीटों के बंटवारे की संख्या से जाहिर है | इतना ही नहीं , लालू प्रसाद यादव , उस हालात को कैसे भूल सकते हैं ,जब संप्रग के पहले कार्यकाल में उनकी महत्ता को कांग्रेस नेतृत्व स्वीकारती थी और उनके विचारों को महत्व देती थी , फिर बिहार से राजद के सांसद क्या कम हुए , समर्थन दिए जाने के बाद भी दूसरे कार्यकाल में 'मंत्री' तक नहीं बनाया गया राजद कोटे से , लालू के मन में यह कैसे कचोटता होगा , क्या इसकी समझ कांग्रेस को है ?
        वास्तव में ,यथार्थवादी राजनीति में आदर्शों का कोई मूल्य नहीं होता | कांग्रेस और भाजपा अपने -अपने तरीके से क्षेत्रीय क्षत्रपों को सहलाने एवं पुचकारने में जुटे हैं और कोई  अचरज नहीं कि  कल् के बिछड़े यार पुन: मलाई खाने को एक मंच पर अपनी -अपनी वजहों से आ जाएँ | नवीन पटनायक ,ममता बनर्जी , मायावती , प्रफुल कुमार महंत , फारूक अब्दुला , शिव सेना , ओम प्रकाश चौटाला , चंद्र बाबू नायडू , जयललिता ,नीतीश कुमार ,रामविलास पासवान सरीखे नेता और इनकी पार्टियां मौका मिलते ही भाजपा के साथ होने में जरा भी देर नहीं कर सकती | इन सबों ने कभी भाजपा के संग सत्ता की गलबहियां की है  ,इसलिए तोता रटंत की तरह बार -बार कांग्रेस का कथित धर्म निरपेक्षता के स्वर कुम्भ्लाते दिख सकते हैं |अब तो भाजपा से कभी नाता नहीं रखने वाले डीएमके के अध्यक्ष करूणानिधि ने खुले तौर पर नरेन्द्र मोदी को प्रधान मंत्री के लायक बताने में संकोच नहीं किया है और इसे देश के लिये बेहतर कहा है | साफ है कि " यारों के यारीपन " पर ही लोक सभा के चुनाव नतीजे निर्भर हैं , जिसमे कई उजले -काले चेहरों का नुमाइश दो माह बाद होने शुरू होंगे |
      कुल मिलाकर यह कि 'आम आदमी पार्टी ' ही एकमात्र राजनीतिक दल ऐसा होगा , जिसका परम्परागत दलों से कोई नाता -रिश्ता कम से कम चुनाव तक नहीं रहने के आसार प्रबल हैं 

Friday 3 January 2014

नौकरशाह प्रधान मंत्री के राजनीतिक बातें

                      (एसके सहाय)
         एक नौकर वृति अर्थात चित्त वाले व्यक्ति से क्या अपेक्षा हो सकती है ? जैसा कि आसन्न लोक सभा चुनाव के पूर्व प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने प्रेस प्रतिनिधियों से बातचीत में अपने विचार व्यक्त किये हैं , जिसमे अर्थकीय पहलुओं पर कम और राजनीतिक सन्दर्भों में अधिक बातें की है | इसलिए यह जरूरी है कि इनके व्यक्त विचारों पर गंभीर परिचर्चा हो |
           खासकर , गुजरात के मुख्य मंत्री नरेन्द्र मोदी और कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गाँधी के परिप्रेक्ष्य में सिंह के दिए गए बयानों पर विचार मंथन प्रमुख है | यह सर्व विदित है कि मनमोहन सिंह की पृष्ठभूमि किसी भी कोण से सामाजिक -राजनीतिक नहीं रही है , यह इतफाक कहें या सिंह की किस्मत कि वह देश-विदेश में एक गंभीर अर्थशास्त्री के रूप में अपनी लगन से लब्ध प्रतिष्ठित होने में कामयाब है , जो इनके व्यक्तित्व का विशेष पहलू है | इस स्थिति में इनके भारत जैसे नानाविध संस्कृतियों वाले देश भारत के सत्ता शीर्ष पर काबिज होना अचरज जैसा है | यह कैसे प्रधान मंत्री के पद पर पहुंचे , इसे यहाँ बतलाना कोई जरूरी नहीं | कांग्रेस की दलगत संस्कृति में एक परिवार अर्थात नेहरू -गाँधी वंश का विशेष महत्व रहा है और इसके प्रति एकनिष्ठ भाव ही किसी कांग्रेसी नेता -कार्यकर्त्ता के आगे बढ़ने के एकमात्र रास्ते हैं , जिसे मनमोहन ने करीने से अनुगमन किया और शासन के शिखर पर विराजमान होने में सफल रहे |
        इन परिप्रेक्ष्यों में नरेन्द्र मोदी की तुलना सिंह से किया जाना लाजिमी है | स्वाभाविक इसलिए कि वह भाजपा के प्रधान मंत्री के घोषित उम्मीदवार हैं , सो इनपर शब्दों के हमले कांग्रेस नेता बन के सिंह करने के लिये मजबूर हैं , वैसे स्वभाव से मनमोहन एक शांत चित्त मनोवृति के शख्स हैं , मगर नेता के गुणों से कोसों दूर हैं और अपनी पार्टी निष्ठ "लाइन" पर बोलने के लिये भी आवश्यक है ,अन्यथा वह कभी -किसी पर कोई आक्षेपात्मक बातें करते नहीं दीखते ,इसलिए दल भेद में नजर आना इनके पद के स्थायित्व के लिये अपरिहार्य है |
           मनमोहन की तरह विषयगत क्षेत्रों के मेधा क्षमता से मोदी कोसों दूर हैं , इनकी जमा कुल पूंजी इनके अपनी संघर्ष गाथा से जुडी हैं , जो एक अदने से कार्यकर्त्ता के अपने बूते आगे बढ़ने की कहानी बताता हैं | भाजपा के साथ इनकी माता जन्य राष्टीय स्वयंसेवक संघ विचार धारा में अपनी राजनीतिक सोच की अलग छटा ने २०१४ में इनको महत्वपूर्ण बना दिया है , सो मनमोहन सिंह ने साफ लफ्जों में कहा कि 'अगर मोदी प्रधान मंत्री होते हैं ,तो देश बर्बाद हो जायेगा |' इस बात ने इंगित किया है कि कांग्रेस एक बार फिर कथित धर्म निरपेक्षता को चुनाव का मुख्य मुद्दा बनाकर मैदान में उतरने वाली है | गुजरात दंगे का डर अल्पसंख्यक समाज में उत्पन्न करना और भाजपा को अन्य दलों से दूर रखने के यत्न सिंह ने प्रेसवार्ता में की है |
             सिंह ने दूसरी महत्वपूर्ण रेखांकन राहुल गाँधी को लेकर की है ,जिसमे अगले चुनाव परिणाम के बाद खुद को 'प्रधान मंत्री' की दौड़ से अलग रखने और राहुल को ताजपोशी में सहयोग करने की बात है | यह विचार उनके अंतरमन मन की है या भविष्य के नतीजे को देखकर , यह तय कर पाना थोडा मुश्किल है ,मुश्किल इसलिए कि वह खुद अपनी मर्जी से कांग्रेस के निर्णयों को दिशा देने में असमर्थ हैं , जो खुद पार्टी प्रमुख सोनिया गाँधी के हुक्मों का गुलाम हो , वह कैसे ऐसी बातें कर सकता है ? यह आश्चर्य जनक है |
             दरअसल , मनमोहन सिंह कभी राजनीतिक जगत के प्राणी नहीं रहे | बैंकिग और अर्थ के क्षेत्रों में इनके अप्रतिम योगदान को कांग्रेस ने अपने तरीके से भुनाया | तब पिछली सदी का अंतिम दशक की शुरूआत हो रही थी और वह कांग्रेस में 'पद' की चाह में शामिल हो गये थे और संयोग से कांग्रेस पीवी नरसिंह राव के मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री का दायित्व भी इस उम्मीद के साथ मिल गया कि पटरी से उतरी देश की अर्थ व्यवस्था को संभालने में मदद मिलेगी | यह जमाना , उदारवाद ,बाजारवाद , भूमंडलीकृत और खुलापन का था और पूरा विश्व, व्यापक 'गांव' में तब्दील होने के लिये जगह -जगह , अपने -अपने देश ,समाज ,राज्य में संक्रमणकालीन दौर से गुजर रहे थे |
          इन्हीं समय में सिंह को सोनिया गाँधी के साथ सटने अर्थात सामीप्य प्राप्त करने के लगातार अवसर मिले , जिसका पूरा सदुपयोग उन्होंने की | सोनिया से जब भी मिले एक स्वामी भक्त की तरह मिले और यही विश्वास सिंह को प्रधान मंत्री के पद पर आसीन् करवाने में सफल हो गया |बस , इतनी भर योग्यता ने पहली बार देश ने एक गैर राजनीतिज्ञ प्राणी को लोकतान्त्रिक सामाजिक -राजनीतिक सत्ता के शिखर पर पहुंचे देखा |प्रणव मुखर्जी ,एके अन्तोनी सरीखे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता को नजर अंदाज करके एक नौकरी करने वाले मानसिकता लिये व्यक्ति को प्रधान मंत्री जैसे पद पर बिठ्लाना के क्या मायने थे ?
      जाहिर सी बात है कि इसमें एक परिवार की ''जी हजूरी'' के लाभ सिंह को मिले और यह सब कांग्रेस में खूब चलता है | देखें , जब महिला राष्टपति को लेकर वाम दलों ने कांग्रेस पर दबाव बनाया , तब सोनिया कैसे अपने पसंद एवं सेवाभावी प्रतिभा सिंह पाटिल को उस पद पर निर्वाचित करवाने में सफल हो गई थी , जबकि उस समय एक से बढ़ कर एक महिला शख्सियतें देश में सार्वजनिक जीवन में पाटिल से अधिक सक्रिय थी | यानि 'यसमैन' ही देश के लिये लोकतंत्र के नाम पर पसंद किया गया , जहाँ योग्यता एवं सामाजिक -राजनीतिक योगदान का कोई 'मूल्य' नहीं |

          अंत में एक बात और , मनमोहन सिंह एक अर्थवेत्ता के तौर पर दुनिया में प्रसिद्ध हैं , फिर भी मौजूदा मंहगाई , बेरोजगारी , मुद्रा स्फीति , विकास दर जैसे मामलों में फिस्सडी ही दिखे हैं | इनके ज्ञानार्जन का फायदा आखिर देश को क्यों नहीं मिल रहा ? भ्रष्टाचार की अनंत कहानी क्यों चौक -चौराहों पर तीखी बहस का विषय बनी है ? केवल व्यक्तिगत 'ईमानदारी' ही देश को गतिमान नहीं बनाती , इस समझ के अभाव ने इनके प्रधान मंत्रित्व काल को इतना दागदार बना दिया है कि इनको इतिहास के काल खण्डों में "अकर्मण्य प्रधान मंत्री" के रूप में ही दर्ज होना है |इससे इत्तर इनकी खास विशेषताओं का कोई मोल नहीं , जिसमे सामाजिकता -राजनितिकता का समावेश न हो |