Monday 23 April 2012

पैसे का खेल बना राज्य सभा चुनाव


                  (एसके सहाय)
          कांग्रेस के विधायक चंद्रशेखर दुबे ने यह खुलासा कर झारखण्ड की राजनीतिक हल्कों में विस्फोट कर दिया है कि पिछले राज्य सभा चुनाव (२०१०) में खुद उनकी ही पार्टी के प्रत्याशी धीरज प्रसाद साहू ने उनसे और अन्य कांग्रेस के विधायकों को २५ -२५ लाख रूपये दिए जाने की पहल की थी ,जिसमें उन्होंने उसे लेने से इंकार कर दिया था | यह बात दुबे ने ऐसे समय की है ,जब अगले तीन मई  को उच्च सदन  के लिये मतदान होना है | साथ ही ,केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो की एक विशेष दल इन दिनों राज्य सभा चुनाव में हुए भ्रष्टाचार  के बाबत दर्ज प्राथमिकी के तहत जाँच -पड़ताल में जुटी है और इस सिलसिले में तीन विधायकों के आवासों पर छापामारी करके सबूत इकठ्ठा करने के प्रयास में भिडी है | ये तीन विधायक तीन अलग - अलग पार्टियों के हैं ,जिनके नाम कृष्णानंद त्रिपाठी (कांग्रेस),बिष्णु भैया (झामुमो) और सुरेश पासवान (राजद) हैं |
         इन तीनों विधायकों के यहाँ सीबीआई का दबिश होने का मतलब काफी साफ है ,जहाँ धुंआ होगी ,वहीँ आग होगी ,वाली तर्क के अंतर्गत ही यह छपा है ,जिसमे तस्वीर स्पष्ट है कि राज्य सभा के चुनाव में बराबर पैसों का खेल झारखण्ड में होता रहा है और इस बार ऐसा होगा ,इसकी कोई गारंटी भी नहीं है | ऐसे में , दुबे के खुलासे के मद्देनज़र यह मानना सही होगा कि कार्यकर्त्ता ,विचारधारा और निष्ठां विहीन हो गई है ,चुनाव प्रणाली , जिसमे तिकडम और धन का ही महत्त्व है ,जो दलगत राजनीती के मूलाधार के विपरीत है |ऐसे में ,एक बार फिर अधिक खर्च करने वाले प्रत्याशी राज्य सभा में चुनकर चले जाएँ ,तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए |
        वैसे दुबे की बात के अपने अर्थ हैं ,जिसमे उनकी राजनीती का साया है ,जिसमे एक कोण विधायक दल के नेता राजेंद्र प्रसाद सिंह हैं ,जिनसे मजदुर राजनीती में इनके छतीस के आकडें हैं | साथ ही ,प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रदीप बलमुचू का राजेंद्र सिंह से गलबहियां करके अपने लिये वोटों का जुगाड करने के प्रयास को दुबे कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं ? कभी .दुबे ने यह कहकर राज्य की राजनीती में बवाल खड़ा कर दिया था कि "आदिवासी" मुख्य मंत्री के स्थान पर गैर जन जातीय मुख्य मंत्री के होने से ही झारखण्ड का विकास होगा | फिलवक्त ,धीरज साहू ने यह कह कर अपना बचाव किया है कि "वह कैसे अपने पार्टी विधायकों को वोट के लिये पैसे का निमंत्रण दे सकते हैं ,क्योंकि उनके ही दल से तो वह उम्मीदवार थे |"
        इन आरोप और सफाई के बीच सच क्या है ,इसमें ज्यादा सिर खपाने की जरूरत नहीं है |यह बराबर से पैसे का खेल राज्य सभा के चुनाव में होता रहा है ,जिसमे पार्टियां "मालदार" को ही अपना उम्मीदवार  बनाती रही है और इनके लिये आसान रास्ते विधान सभा का वह चेहरा है ,जहां किसी दल के पास विगत बारह सालों में स्पष्ट बहुमत का अभाव रहा है |ऐसे में ,बाहरी चेहरे अपनी साम-दण्ड-भेद और अर्थ से हमेशा झारखण्ड में प्रभावी रहे हैं |हाल में .अंशुमान मिश्र के उम्मीदवारी को देखें ,जो भाजपाध्यक्ष नितिन गडकरी के आशिर्बाद से राज्य सभा के लिये नामाकन  कर दिए ,जिसमे पार्टी के ही विधायक उसके प्रस्तावक् बने लेकिन इनको लेकर  दल में जो . विवाद हुआ , उसके बाद वह नामाकन वापस लिये .लेकिन तबतक भाजपा की भद्द पीट चुकी थी ,बिना घोषित प्रत्याशी के मिश्र आखिर किसके बूते अपने को भाजपा प्रत्याशी कह रहे थे ?
       यह तो ,दो करोड १५ लाख रूपये के बरामद होना था कि चुनाव रद्द होने के पर्याप्त वजह बन गए और इसमें आरके अग्रवाल छना गए .नहीं तो दुबारा चुनाव होने की नौबत ही नहीं आती | अब जब सीबीआई चुनाव में भ्रष्टाचार के मामले की तहकीकात कर रही है ,तब कई खुलासे होना अभी बाकी है |
        अतएव , केवल तीन विधायक ही नहीं ,बल्कि दो दर्ज़न से अधिक विधायक सीबीआई के जद में आ चुके है और इसमें दलिये विधायकों के अतिरिक्त निर्दलीय विधायक भी शामिल है ,जिनपर जाँच का कड़ा जल्द गिरने वाला है ,इंतज़ार इस बात का है कि "साक्ष्य" की खोज में कई टीम जहाँ - तहां प्रत्यनशील है और इसमें काफी हद तक टुकड़े - टुकड़े में कामयाबी भी मिलती जा रही है ,देर केवल इनके बीच कड़ी जोड़ने में आ रही परेशानी का है ,जिसे वैज्ञानिक जाँच प्रविधि से क्रमबद्ध किया जा रहा है |
         अगले तीन मई को होने वाले चुनाव में सत्तापक्ष से दो उम्मीदवार और एक विपक्ष से है . इसमें एस एस अहलुवालिया (भाजपा), संजीव कुमार (झामुमो) और कांग्रेस से प्रदीप बलमुचू के भाग्य का फैसला होने वाला है |इस चुनाव में कांग्रेस की प्रमुख सहयोगी झाविमो ने अपने को अलग रहने की घोषणा कर रखी है अर्थात इसके विधायक राज्य सभा के चुनाव में किसी के लिये मतदान नहीं करेंगे |ऐसे में यह चुनाव काफी दिलचस्प मोड पर आ गया प्रतीत है | राज्य सभा के रद्द हुए चुनाव में भी संजीव व बलमुचू प्रत्याशी थे ,इनमें अहलुवालिया भाजपा के उम्मीदवार के तौर पर है ,जो पहले भी राज्य का प्रतिनिधित्व उच्च सदन में कर चुके है | यह किस हालात में पुन: चुनाव के लिये खड़े हुए ,इसकी एक अलग ही कहानी है |
           इन स्थितियों से प्रकट है कि झारखण्ड में बिना "धनबल" के चुनाव जितना कितना दुष्कर है ,जहाँ पार्टीगत उम्मीदवारी पर पैसे की चाहत हो ,निर्दलीय हैं तो भाग्य का छींका टुटा जैसे हालात हो , दलगत नेताओं -कार्यकर्त्ताओं का महत्त्व सिर्फ पैसे से नापी -खरीदी और आकलन की जाती हो , वैसे में ईमानदारी से चुनाव एक दुरूह सा होना स्वाभाविक है | आप मेरे पार्टी के हैं और उम्मीदवार भी है ,अच्छी बात है लेकिन जब जीत कर जायेंगे ,तब मेरे लिये क्या करेंगे ? ऐसी मनोभावना के बीच कार्यकर्त्ता बना राजनीतिज्ञ उम्मीदार से वोटों के बदले पैसे की मांग करता है ,तब पार्टी कहाँ ठहरती है ,जितने के बाद अक्सर विधायक -सांसद अपने कार्यकर्त्ता को भूल जाते हैं और यहीं से तात्कालिक लाभ की बातें शुरू होती है ,जो प्राय: हार पार्टी में रोग बन गया  है ,तो दलगत राजनीती का मरते जाना ही है अर्थात दल गिरोह में तब्दील हैं ,तब कैसे बिना पैसे के समाज सेवा करने के ठेकेदार आप  हो सकते हैं ?
        यह हालात केवल झारखण्ड भर की नहीं है ,राज्य सभा के सदस्यों के जीवनवृत को देखें ,इसमें कितने "जन्संघर्ष" से निकल कर पहुंचे हैं ? धीर -गंभीर सदन के रूप में चिन्हित यह राज्य सभा अब निकृष्ट तत्वों के जमावड़े के रूप में ही समझा जाता है |इनके अधिकांश सदस्यों को राष्टीय - अंतराष्टीय समझ का अभाव है .लोक चरित्र को भी आत्मसात करने में इनको दिक्कतें आती हैं , ऐसे ही परिस्थिति में अराजक तत्व देश के भाग्य विधाता बन जाते है ,तब जन -समस्या पर विचार और हल के तरीके कैसे  मूर्त रूप लेंगे ?  घूसखोरी में जो पकड़ा गए ,वह चोर और जो पकड़ में नहीं आया ,वह भ्रष्ट नहीं ,ऐसा मानना गलत होगा |
         इसलिए दुबे के बातों का एकतरफा अर्थ नहीं है ,वह स्वय भी एक संदेह से भरे जन प्रतिनिधि रहे हैं ,फिर भी जो खुलासे उन्होंने जाने या अनजाने में कर दिए हैं वह तो चिंता प्रकट करती है और इसे नज़रंदाज भी नहीं किया जा सकता | मबेलो ,नाथवानी ,केडी जैसे राज्य सभा के उम्मीदवार बन चुके और रह चुके सदस्य के बीच का राजनीतिक चरित्र का स्तर कैसा है ,यह सर्व विदित है और यह जानकर दलीय नेता -कार्यकर्त्ता कुंठा ग्रस्त होते दिखे तो यह लोकतान्त्रिक राजनीतिक व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगने का औचित्य एक बार फिर जन मानस को झकझोरे ,तब ताज्जुब नहीं !
  
        

विश्व राजनय में अग्नि बाण का प्रभाव


              (एसके सहाय)
        अग्नि -पांच के प्रक्षेपण से भारत की विश्व राजनीती में भूमिका को अब ज्यादा तरजीह दिए जाने की संभावना के मध्य यह स्पष्ट हो गया है कि "शत्रु देश" बातचीत के जरीये उलझे तार को सुलझाने की बात करने पर विवश हैं | मौजूदा अंतराष्टीय परिदृश्य में आर्थिक शक्ति और सामरिक ताकत ही वह सूत्र है ,जो किसी राशि -राज्य के संप्रभुता की गारंटी हो सकती है और यदि ऐसा नहीं है ,तब वह देश आर्थिक  गिरवी के भरोसे अपने किस्मत को चमकाने के झूठे भंवर में डोलते रहने को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानने की भूल कर जाता है |ऐसे ही दो पड़ोसियों के बीच ,भारत की विदेश राजनय के परीक्षण होने वाले हैं ,सो इस प्रेक्षपास्त्र प्रविधि का महत्व दक्षिण पूर्व एशिया के अलावे पूरे दुनिया के लिये है ,यह इसलिए कि अब संसार खुले तौर पर परमाण्विक शक्ति पर ज्यादा निर्भर होने की प्रक्रिया में है ,ऐसे में बदलते राजनय के बीच "हम" कहाँ हैं , की उपयोगिता का अर्थ यही अग्निवर्षा रेखांकित करेगी | ऐसा अबतक के प्रतिक्रिया से जाहिर हुआ है |
     इन परिप्रेक्ष्यों पर विचार करने के पहले सार - संक्षेप में यह जाने कि आजादी के बाद भारत असंलग्न अर्थात गुटनिरपेक्षता की नीति का अवलंबन किये रहा लेकिन १९५५ के बाद थोडा राष्ट हित के लिये सोवियत संघ से अधिक बंधा रहा ,जिसकी कई बार दूसरे देशों ने ,विशेष कर अमरीकी और पाश्चात्य देशों ने कटु आलोचना की | फिर भी अपनी स्वतन्त्र विदेश नीति पर किसी खास देश या देश समूह के गुट को हावी नहीं देने के लिये भारतीय राजनय कटिबद्द रही | अब जब ,१९९१ में सोवियत संघ के टूट जाने और बिखर जाने के पश्चाताप यह वैश्विक राजनीती में एक ध्रुवीयता (संयुक्त राज्य अमेरिका )के युग से निकलने की ओर देशों में होड है ,वैसे समय में मिसाइल की यह चमक कैसे भारत को दुनिया में प्रतिष्ठित करेगा ,यह जानना ज्यादा समीचीन है | यह इसलिए भी कि जब पांच हज़ार किमी के लक्ष्य को यह भेदा ,तब पाकिस्तान चुप्पी साधे रहा लेकिन चीन की मीडिया में हलचल रही और वहां के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता लिउ वेमिन ने कहा कि " भारत और चीन सहयोगी हैं ,यधपि भरत के इस प्रक्षेपण से इस क्षेत्र में हथियारों की दौड़ का एक और नया दौर शुरू हो सकता है |चीन ने भारत के इस प्रक्षेपास्त्र के प्रक्षेपण को गंभीरता से लिया है |"
        इन दो देशों के इत्तर देशों में इसे लेकर सामान्य प्रतिक्रिया रही ,जिसमे नाटो ,अमरीका ,यूरोप के देश ,अरब देशों का कोई खास नागवार लगने वाली बातें सामने नहीं आई ,जो भी प्रकट हुआ ,उसमें  चीन और पाक का ही महत्त्व था ,जो फ़िलहाल गंभीर मीमांसा के लिये है | हाँ ,इसमें यह बात  एक चीनी वैज्ञानिक ने किया है ,जिसने कहा है कि भारत के छोड़े मिसाइल पांच नहीं बल्कि आठ हज़ार किमी के लक्ष्य भेदन का है ,जिसे भारत ने छुपा कर "नपी -तुली" शब्दों में घोषणा की है ,ताकि यह अपने मित्र देशों से नाराजगी मोल नहीं ले सके |
        वैसे , अग्नि पांच का अंतराष्टीय राजनय में अपना महत्त्व है, परिवर्तित विश्व में अब अमेरिका ,भारत मुखापेक्षी है , चीन ,उसके लिये बाज़ार हो सकता है लेकिन लोकतंत्र और विश्वास के लिये उसे भारत को साथ देने ही पड़ेंगे | राजनय के तथाकथित लोकतान्त्रिक स्वरूप काम हो जाने के बाद भी इसकी उपयोगिता बनी हुई है | इस सन्दर्भ में हांस मर्गेन्थाऊ अपने लिखित पुस्तक "परमानेंट वैलू इन द ओल्ड डिप्लोमेसी के पृष्ठ संख्या १०- २० में कहते हैं -" यह युक्ति गलत है कि लोकतंत्र से शक्ति सुनिश्चित हो जाती है ओर पुरानी राजनय अनैतिक और अ -लोकतान्त्रिक है | यह रूख विदेश नीति का स्वतंत्र क्षेत्र होने के विचार का ही विरोधी है |" इसलिए साफ है कि - भारत के लिये अपने विदेश राजनय के रास्ते में लोकतंत्र , कुलीनतंत्र ,तानाशाही .एकाधिकारवाद या कोई भी वाद के स्वरूप में देश हो ,मामला केवल राष्ट हित  ही इनमे सबंध स्थापित कर सकने वाली प्रक्रिया हो सकती है ,इसलिए अमरीका अभी साथ है तो कल विरोधी भी हो सकता है |पूर्व के अनुभव सामने हैं |
           इस मिसाइल परीक्षण का महत्व अतीत कल से जुड़ा है ,जो अब भी प्रासंगिक है ,१९५५ से पहले के दस वर्षों में तीन महत्वपूर्ण राजनीतिक विशेषताएं सामने आई थी - अंतराष्टीय राजनीती की द्विध्रुवीयता , इस द्विध्रुवीयता की एक -दो गुट निकाय में परिवर्तित की प्रवृति और परिरोधन की नीति | उस काल में अमरीका और सोवियत  संघ में ही विश्व की शक्ति निहित थी और ब्रिटेन, फ़्रांस और चीन जैसी अन्य शक्तियों  को राजनीतिक ,सैनिक और आर्थिक मामलों में किसी एक प्रधान शक्ति का सहारा लेना पड़ता था और "आज" भी कमोबेश स्थिति ऐसी ही है ,पाक, चीन, भारत ,जापान ,अफ़्रीकी देश या ने कोई भी ब्राजील सरीखें देश हो .अमरीका या अन्य इनसे कमत्तर देशो की शरण लेना ही है , इस परीक्षण के बाद भी यही हाल भारत के रहने वाले हैं | फिर सवाल है कि "अग्नि पांच के परीक्षण के लाभ क्या ?"
               इस समझने के लिये सोवियत संघ के विघटन का इतिहास से शुरू करें ,जो अरब जगत में लोकतंत्र के प्रति लालसा , अरसे से सत्ता पर काबिज शक्तियों के खात्मे का होना जैसी प्रक्रिया हाल में दृश्यमान  हैं |इसी तरह ,जर्मनी -जापान का महान शक्ति तो नहीं लेकिन महाशक्ति बन जाने और परमाणु शक्ति के बहुत सारे राष्टों में फ़ैल जाने से शक्ति उन्मुखीकरण के राजनय में तब्दिली लाने में मददगार हुई है |तब भारत को इस परीक्षण से खुद तय रास्ते में चलने में सहायता मिलेगी ही ,विश्व राजनय का इतिहास तो ऐसा ही कहता है |
            मौजूदा दुनिया में विदेश नीति और राजनय के बीच सामरिक ताकत का ही पराक्रम अंतराष्टीय राजनीती में चलता है |वजह यह कि सब देशों के परस्पर कुछ न कुछ रिश्ते होते हैं ,चाहे वह कितने दुरी पर हों ,प्रत्येक देश का व्यवहार किसी न किसी रूप में अन्य देश पर प्रभाव डालता ही है ,चाहे वो मित्र हो या शत्रु देश और इसी परिप्रेक्ष्य में प्रतिकूल प्रभाव को न्यूनतम करने और अनुकूल प्रभाव को अधिकतम करने का अवसर अग्नि पांच के परीक्षण ने भारत को दिए हैं ,जिसमे चिंता की लकीरें अबतक सिर्फ चीन में दिखी है और अन्य देशों में है भी तो वो खुलकर भारत के विपरीत जा सकने वाली प्रतिक्रिया को फिलवक्त दबाए हुए है | इसी बात को जार्ज मौदेलसकी ने "विदेश नीति का काम या प्रयोजन " कहा है | (देखें - ए थ्योरी ऑफ फारेन पोलिसी ,लन्दन ,१९६२ ,पृष्ठ - ३)
        सो .मिसाइल परीक्षण के बहाने अपने दोस्त -दुश्मन की खोज करना भी विदेश नीति का एक लक्ष्य रहा है ,जिसमे भारत अभी उहा - पोह की स्थिति में है .ऐसा इसलिए कि आधुनिकतम वैज्ञानिक प्रविधि ने "राइ को भी पहाड  " बना देने की क्षमता प्रदान कर दी है , सो अभी इतराने की संभावना थोड़ी कम है |

Thursday 19 April 2012

व्यवस्थागत खामियों के मध्य कानून व व्यवस्था के प्रश्न


                       (एसके सहाय)
आंतरिक सुरक्षा के मुद्दे पर हाल में सपन्न मुख्य मंत्रियों के संग प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह के व्यक्त विचारों ने गंभीर सवाल कड़े किये हैं और उन अप्रत्यक्ष प्रश्नों के उत्तर खोजा ही जाना चाहिए कि "भारत राज्यों का परिसंघ है या इससे इतर' , यह विषय इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि प्रधान मंत्री ने रटे-रटाये शब्दावली में ही अपने प्रस्तावित नीतियों को रेखांकित किया है ,जो अक्सर बोल -चाल की भाषा में हर शासक वर्गों की नियति है ,उसे दोहराते रहने की ,क्योंकि इनके पास अपने कोई मौलिक विचार ,योजना होती नहीं ,सिर्फ यथा -स्थिति को बनाये रखने की चिंता ही इनके भीतर होती है ,सो मनमोहन सिंह ने कोई नई बात संघ की तरफ से नहीं की है ,यही सबसे गंभीर बात है |
              प्रधान मंत्री के पद पर बैठा व्यक्ति वही बात कहे ,जो आम लोग अर्थात सामान्य सत्तासीन व्यक्ति बोले ,तो चिंता होनी स्वाभाविक है ,मसलन मनमोहन सिंह ने कहा कि "जातीय ,धार्मिक ,सामुदायिक - सांप्रदायिक ,आतंकी जैसी भीतरी संकट काबू में है लेकिन इसके समूल नष्ट करने के लिये अभी और ठोस कदम उठाये जाने हैं |" स्पष्ट है कि इन्होने कोई विशेष बात देश की अंदरूनी हालात पर नहीं की ,जिससे इस समस्या को पूरे राज्यों के मुख्य मंत्री एक तरीके से हाल के प्रति अपनी -अपनी दृष्टिकोण का इजहार करते ,लेकिन सम्मलेन में वैसा कुछ भी नहीं था ,गुजरात के मुख्य मंत्री नरेन्द्र मोदी के विचार अलग थे ,तब तमिलनाडु के जयललिता के कुछ और पशिचमी बंगाल के मुख्य मंत्री ममता बनर्जी , ओडिसा के नवीन पटनायक  समेत हर मुख्य मंत्रियों के कानून व्यवस्था के प्रश्न पर शांति को लेकर भिन्न - भीं विचार थे ,ऐसे में मतभेद होना स्वाभाविक था और यह विवाद खुलकर सामने आया भी, इन्हीं परिप्रेक्ष्य में देखें तो अभी से ही आभास होता प्रतीत है कि अगले पांच मई को जब "राष्टीय आतंक रोधी केंद्र" अर्थात एन सी टी सी को लेकर एक बार फिर पखवारे बाद मुख्य मंत्री और प्रधान मंत्रियों के बीच विचारों का विनिमय होगा ,तब इसमें विवाद होना अभी से ही तय है ,जिसकी पृष्भूमि इस आंतरिक विषय को लेकर हुए बैठक में बन गई है |ऐसे में केंद्र के साथ राज्यों का मतैक्य होना कठिन है और इसके लिये संविधान वर्णित स्थितियों का इसमें मुख्य करक की भूमिका है |
         प्राय: इस बात से सभी अवगत है कि "कानून व व्यवस्था" राज्यों के जिम्मे है और ऐसा राज्यों से निर्मित "भारत संघ" के सवैधानिक प्रावधानों में स्पष्ट रूप  से उल्लेखित है ,फिर इसमें आमूल चूल परिवर्तन किये बिना केंद्र सरकार कैसे सीधे हस्तक्षेप करने की योजना बना लेती है ,यह समझ से परे की बात अबतक है | संघ, राज्य और समवर्ती सूची के तौर पर स्पष्ट विभाजन रेखा ,इन के मध्य है ,केवल समवर्ती सूची ही ऐसी है ,जिसपर दोनों या एक अपने - अपने ढंग से अपने क्षेत्राधिकार के तहत कार्य कर सकते हैं | विवाद होने की हालात में परस्पर मिलकर या न्यायालय के निर्णयों के तहत कुछ हद तक ,अथवा कानूनों के आपसी टकराहट की स्थिति में संघ के नियम ही मान्य होंगे , ऐसा ही  व्यवस्था भारतीय संविधान में है ,फिर विरोध के स्वर उठने पर इसके समाधान की प्रक्रिया का अवलंबन होना चाहिए लेकिन यहाँ तो गैर कांग्रेसनीत राज्यों के मुख्य  मंत्रियों ने सीधे आक्षेप  कर दिया  है कि संघ की सरकार राज्यों के सरकार को स्थानीय निकाय समझ जैसी बातें कर रही है ,जो वाकई में गंभीर बात है |
         दरअसल ,यह विवाद देश के इतिहास से गुंथा है ,जिसके अवचेतन मन के "प्रभाव से प्रभावी" होने की ललक सत्ता वर्ग को बराबर बैचेन किये रहती है | संवैधानिक स्थिति में राज्यों के मिलन से संघ बना ,जिसे भारत संघ कहा गया ,यह स्थानीय संस्कृति ,भाषा ,अस्मिता के आधार पर गठित है ,जिसमें व्यापक स्वरूप में जनहित के दृष्टिकोण से संघ अर्थात केन्द्रसरकार को संचालित करने का दायित्व भर है ,मगर पिछली सदी के यों कहें कि इंदिरा गाँधी के अभ्युदय काल से ऐसी प्रवृति राष्टीय राजनीती में उत्पन्न है कि संघ सरकार पर किसी भी दल या दलीय समूह की सरकार हो ,वह अपने को ज्यादा सशक्त करने और दिखने में प्रत्यनशील रहती आई है ,ऐसे में राज्य - संघ के बीच तनाव -विवाद नहीं होंगे तो क्या होंगे ?
         यह सदैव याद रखी जानी चाहिए कि भारत कई राष्टियता वाले देश का संघ है ,केंद्र नहीं , यह संवैधानिक प्रावधानों में साफ तौर पर अंकित है या जानें कि "राज्यों के संघ" उदबोधन से ही संविधान की शुरूआत  होती है और इसे नजरदांज किये जाने की प्रवृति से खतरनाक परिणाम निकल सकते हैं | सोवियत संघ का बिखराव हमारे सामने है | यहाँ इसलिए इसे याद करने की जरूरत है कि इस देश में संविधान में ही उल्लेख था कि राज्य चाहें तो अलग हो सकते हैं पर यथार्थ में वैसा नहीं था ,सोवियत संघ की जकडबंदी से पूरा विश्व परिचित रहा है | इस तुलनात्मक विवरण का मकसद भारत को भी सतर्क रहने की ओर इशारा करना है | ऐसे में राज्य संघ के रिश्ते को समय रखने की आवश्यकता है |
            केन्द्रीय सत्ता को अत्यधिक मजबूत करने पर जोर की प्रवृति ने राज्यों को संशकित किया है और इसमें  यह मान लेने की प्रवृति है का योगदान है ,जिसमें भारत को एक राष्ट सरीखी जैसी समूह समझा जाय | यह तो उप राष्टियताओं के मिलन से उत्पन्न राज्य है ,जिसकी सीमा भुगौलिक रूप  से निश्चित होने के बाद भी कई टुकड़े  हुए ,जिनमे पाक ,बंगला देश  सुंदर उदाहरण है |
              ऐसे में केंद्र - राज्यों के बीच संवाद में प्रभुता स्थापित करने वाली प्रवृति से बचा जाना चाहिए ,सत्ता का संचालन सदा एक सा नहीं होता ,मुगलकालीन ओरंगजेब शासन  में सबसे ज्यादा केन्द्रीयकरण का परिणाम थ कि उस वक्त देश के  अधिक भूभाग एक सता के अधीन रहे ,फिर इस श्ससक के इंतकाल .कमजोर पड़ने से कैसे सत्ता भरभरा का ढह गई ,यह इतिहास के पन्नों में देखा जा सकता है |  लालडेंगा , तमिल, राजनीती के स्वरूप  कश्मीर ,भाषाई संकट ,जातीय अस्मिता से पैदा हुए कई आन्दोलानो का इन सन्दर्भों में अध्ययन किया जा सकता है .जो पूर्व में कैसी -कैसी क्रिया कर्म से यह प्रभावित रहा है |
           व्यवस्थागत कठिनाइयों के बीच केंद्र को अब ज्यादा संघ जैसी मानसिकता से परिचालित होने का समय है | संविधान भी संघ सोच को मान्यता देता है ,शक्ति के अतिशय प्रयोग से मौजूदा संप्रभुता पर चोट पहुँच सकती है | चिदम्बरम ,सिब्बल जैसे नेताओं को केवल क़ानूनी तकनीकी आधारों पर बोलने के आदत से बाज आने चाहिए और प्रधान मंत्री को भी थोडा इतिहास के लेखों पर ध्यान देने चाहिए .तभी कानून -व्यवस्था पर सार्थक पहल संयुक्त रूप से हो सकती है ,जिसमे राज्यों का योगदान "समुच्चय" के रूप में केन्द्र बनी संघ को मिलने  की उम्मीद हो सकती है ,इससे इत्तर नहीं |
        वैसे भी, देखा गया है कि देश में दलगत व्यवस्था ने राज्य -संघ के संबंधों को काफी प्रभावित किया है और हार-जीत को लेकर होने वाली और बननेवाली राजनीतिक रिश्ते ने देश को काफी नुक्सान पहुँचाया है | द्रमुक -अन्नाद्रुमुक को लेकर संघीय सरकार के दृष्टि चाहे संप्रग या राजग केन्द्रीय सरकार में किस रूप में रही है ,यह खुद प्रत्यक्षमान है , वैसे इस तरह के कई उदाहरण भारितीय इतिहास में पड़े हैं , यहाँ तो अंदरूनी व्यवस्था पर होने वाली विचार -विमर्श पर सोचने के अवसर है | इसलिए दुराग्रही प्रवृति से मुक्त होकर ही केंद्र -राज्य एक बेहतर स्थिति ला सकते है केवल राजनीतिक चश्मे से समाधान नहीं संभव है | .

Monday 16 April 2012

समाज , कानून और निर्मल बाबा


                     (एसके सहाय)
             भारतीय समाज में इन दिनों ,खासकर, उत्तर भारत में नव चर्चित धर्म गुरू को लेकर जबरदस्त बहस का दौर है और इस लोक परिचर्चा में कई बातें ऐसी हुई हैं ,जिन पर विचार किया जाना लाजिमी है |सो , इस सतत सामाजिक प्रक्रिया को समझने के लिये सर्व प्रथम यह अनुभूत करने की जरूरत है कि देश का मन मिजाज की संस्कृति क्या रही है और जो इस समय निर्मला बाबा को लेकर बातें की जा रही है ,क्या उसमें तनिक भी व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में स्वीकारा जा सकता है |ऐसा इसलिए कि जो दिख रहा है ,उसकी जड़ें सामाजिक -सांस्कृतिक अवचेतना "मनों" में अति सूक्ष्म तरीके से स्थापित है ,फिर इस हाय -तौबा से क्या निष्कर्ष निकल सकते हैं ?
           इसी की खोज में यह कई बार सामने आया है कि भारत "धर्मभीरू" देश है, जहाँ नानाविध प्रक्रियाएं सामाजिक जीवन को प्रभावित करते रहे हैं और इसपर कभी व्यवस्था का रोक भी नहीं रहा और अब तो कदापि संभव नहीं ,क्योंकि संविधान प्रवृत जो अधिकार वैक्तिक स्वरूप में आम भारतीय को प्राप्त हैं ,उसमें आस्था ,विश्वास ,निष्ठां  और परस्पर सहयोग की प्रक्रिया पर बंदिशें नहीं है |ऐसे में ,निर्मल बाबा केवल एक प्रतिमान ही हो सकते हैं ,इन जैसे असंख्य बाबा इसी देश में हैं लेकिन उनपर नजर इसलिए नहीं जा पा रही कि उनके पहुँच अभी समाचार जगत से दूर हैं और यदि मौका मिले तो रोज -ब -रोज एक नई बाबाओं की नई कहानी सामने आ सकती है और पूरा मीडिया इसमें ही अपनी समाचार कथा के चटपटे सूत्र तलाश करने में अपने को धन्य मान सकती है और इसमें कोई हर्ज जैसी बात भी नहीं है |
         अतएव , निर्मल बाबा पर दोष देने से पहले खुद व्यक्ति को अपने को तौलने की जरूरत है | एक उदाहरण यहाँ पर है | देश के नागरिक सांसद -विधायकों या कहिये अन्य जन प्रतिनिधियों को अपने -अपने व्यक्तिगत "मत" देकर जन हितों के अनुरूप व्यवस्था को संचालित करने के लिये अधिकृत करता है लेकिन चुने जाने के बाद ,इनके नाज -नखरे आम हितों के विपरीत  प्रतीत होता है ,तब संवैधानिक प्रावधानों के तहत ही मामले को निपटाए जाने की प्रक्रिया सन्मुख उपस्थित होती है ,जिसमें "खीझ" जैसी भावनाओं का तूफान भी दीखता है ,जिसका सुन्दर उदाहरण ,अन्ना हजारे के नेतृत्व में खड़ा "लोकपाल" जन आंदोलन है ,जिसे कुछ लोग बेकार मानते हैं तो कुछ लोग भ्रष्टाचार के लिये अपरिहार्य मानते हैं और यह  मुकाम तक तभी पहुंचेगी ,जब संसद इस लोकपाल पर अपनी मुहर लगायेगी |
        ठीक .इसी तरह का मामला निर्मल बाबा के साथ हैं |वह खुद तय शुल्क को ग्रहण करते हैं ,जोर -जबरदस्ती इसमें नहीं है और यह है भी ,तो उनके अपने परिनियम हैं |साथ ही ,अपने आय के ज्ञात स्रोत को छिपा नहीं रखा है |आयकर वाले ही सही -सही इस विषय पर प्रकाश डाल सकते हैं और इसमें अगर खामियां हैं तो बाबा इसके परिणाम भुगतेंगे ही ,यह तो नियम - परिनियम की प्रक्रिया है ,जिमें ज्यादा बुद्दि लगाने की आवश्यकता नहीं है |
        इसलिए , दोष देने की जहाँ तक बात है ,तब वह दोष सामाजिक प्रक्रिया के उन जड़ों की हैं ,जहाँ से अन्धविश्वास ,श्रधा जैसी प्रक्रिया उत्पन्न होती है |वैक्तिक स्तर पर किसी के प्रति निष्ठां पर क्या सवाल खडें हो सकते हैं |निर्मल बाबा तो एक नमूने भर है ,जो बलात किसी से रूपये तो नहीं झटके हैं ,जो कुछ भी है ,वह तो इनके ही नियोजित हैं या कहिये कथित भक्तों के हैं ,फिर इसमें कानून की खिल्ली उड़ाने जैसी बाते नहीं है |लोग खुद अपने मर्जी से जाते मुर्ख बनने ,तब कोई कैसे उसे रोक सकता है |अज्ञानता ,अशिक्षा के अभाव ने अभी भारतीयों को तर्कशील अर्थात वैज्ञानिक सोच से दूर कर रखा है तो इसके लिये व्यवस्था ही  न दोषी है ,इसमें निर्मल बाबा जैसे कई नये बाबाओं के उत्पन्न होने के सूत्र स्वाभाविक रूप से छिपे हैं .जिसपर कोई भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था के कानून प्रतिषेध नहीं कर सकते | इसके उपाय एक ही हो सकते हैं ,जागरूक व्यक्ति की अपनी मौलिक सोच या तर्कशीलता का प्रभाव ,समाज में है तो खुद -ब -खुद निर्मल बाबा समाज से कट जायेंगे ,तब इतनी आलोचनाओं - प्रतिआलोचनों  के लिये मीडिया या समाज के पास समय कहाँ होगा !
        थोडा इस पर भी विचार करें ,जो निर्मल बाबा और सांसद इन्दर सिंह नामधारी ने अलग -अलग अंदाजों में एक दूसरे को साला - बहनोई के रूप में स्वीकार किया है ,सार्वजनिक बातों में ,जो एक रिश्ते की हकीकत भी है ,इसे इंकार नहीं किया जा सकता ,लेकिन जो बातें नामधारी ने की है ,क्या उसे मंजूर किया जा सकता है ? बात हो रही है ,उस जन प्रतिनिधि की ,जो २५ -३० सालों से एकाध अवसरों को छोड़कर बराबर विधायिकी में रहा है और अब निर्मल बाबा के सन्दर्भ में कहता है कि " वह हमारे निकटतम रिश्तेदार हैं ,उनपर मुझसे कुछ नहीं पूछिए अन्यथा संबंधों में दरार हो सकते हैं " यह उस शख्स के विचार हैं ,जिसे लोगों ने व्यवस्थापिका में शासन सूत्र को ठोस बनाये रखने की जिम्मेदारी कई अरसे से डालटनगंज और अब चतरा के लोगों ने दे रखी है और जब स्वयं की बरी आई ,तब अपना नजरिया अभिव्यक्त करने भाग गए | वह भी तब, जब कथित धर्म गुरू ने अपनी बातों को नामधारी के सन्दर्भ में "इनके बंद मुठ्ठी"  का इशारा किया ,जिससे मजबूर होकर इस मुकाम तक पहुँचने में अनपेक्षित कामयाबी मिली | समाचार चैनल "आजतक" को दिए साक्षात्कार में  निर्मल बाबा ने इसी तरह के संकेत दिये है , यह संकेत भी बाबा ने तब दिए जब नामधारी ने अपनी आदत के मुताबिक पिछले कई दिनों से साले होने की बात स्वीकार करते हुए अपने गोल - मोल  बातों से बताया कि "इनके "  कार्यों से उनके मतभेद हैं और कई बार ऐसा नहीं करने के सुझाव भी उन्होंने दिए हैं लेकिन निर्मलजीत सुनता है नहीं | इसकी प्रतिउत्तर में ही बाबा ने एक अनजाने से प्रश्न के जवाब में एक सामाजिक प्राणी ,जो राजनीतिज्ञ भी है, के नकाब उठाये दिए , जो भारतीय सामाजिक जीवन को समझने के एक सूत्र इन दिनों दे दिया है और इसे किस रूप में व्यवस्था के नेतृत्व कर्त्ता लेते हैं ,उसका भी परीक्षण के बाद निष्कर्ष आने वाला है |
         कुल मिलाकर देखें तो ,निर्मल बाबा प्रचलित सामाजिक विकृति की उपज हैं ,जिसमें नियम -परिनियम की भूमिका का कोई महत्त्व नहीं है और जो प्रश्न वैयक्तिक सोच से प्रभावित है अर्थात भावनाओं से परिचालित है ,उसे कैसे रोक पायेगें ? यह सवाल ही इस सन्दर्भ में मौजूं हैं |
            

Friday 13 April 2012

निर्मल बाबा के प्रारंभिक दास्तान


                 (एसके सहाय)
       निर्मलजीत से निर्मल बाबा बने नव चर्चित इस धर्म गुरू की कहानी किसी तिलिस्म से कम प्रतीत नहीं है ,जिसमें रहस्य के पुट है ,तो एक कर्मठ एवं गंभीर व्यक्ति के अदम्य साहस की गाथा भी है ,जो और धर्म गुरूओं से इनको अलग पहचान देती है | ऐसे में , इनके जीवन के शुरूआती गतिविधियों को जानना काफी दिलचस्प होगा , जिसमें एक कारोबारी वृत्त के सामान्य व्यक्ति का आर्विभाव ,कुछ ठहराव के बाद अचानक विशिष्ट स्वरूप में होती है ,फिर संदेहात्मक विवादों के घेरे में आकर बहस का केन्द्र बन जाती है और आजकल, इनके साथ यही देश व्यापी चर्चा का विषय लोगों के बीच बन गए हैं |सो ,इनके जीवन के शुरूआती सफर की ओर तांक-झांक करना स्वाभाविक है |
          निर्मल बाबा के जीवन की शुरूआती पल झारखण्ड के डाल्टनगंज में गुजरी है ओर इसके लिये निर्दलीय सांसद इन्दर सिंह नामधारी का सहारा इनके वैशाखी को डोर प्रदान करती है ,जो कि रिश्ते के धागों में साला -बहनोई के रूप में है ,लेकिन इन संबंधों का मूल्य अब वैसा नहीं रहा ,जैसा की शुरू में था ,जिसमें निर्मलजीत एक कर्मचारी के तौर पर ही अपने जीजा के व्यापारिक कामों में हाथ बंटाते थे ,जिसमें असंतुष्ट रहना ही इनकी नियति बन गई थी | इस कारोबारी जीवन में निर्मल को जब ठौर नहीं मिला ,तब वह अचानक अपना बोरिया बिस्तर बांध कर देहली के लिये कूच कर गए ,जहाँ  फिर अपने तरीके से जीवन यात्रा की शुरूआत की ओर इसमें संबल बना इनकी पत्नी सुषमा कौर की लगन एवं मेहनत, जिसमें वह घर खर्च के लिए खुद राष्टीय राजधानी में टुयुशन करके आजीविका अर्जित करने में इनको मदद करने में सहायक बनी |
   निर्मल बाबा जीवन के अमूल्य शुरूआती बसंत डालटनगंज में गुजारे और इन दो दशकों में किसी लफड़े में नहीं पड़ें ,जबकि इनके जीजा और खुद का कारोबारी धंधा ही जीवन का मूल आधार थे | यह बात गत सदी के अस्सी एवं नब्बे दशक की है ,जिसमें बालपन के वह साल भी समाहित है ,जब इनकी उम्र मात्र तेरह साल की थी और इनके पिता का देहांत हो चूका था लेकिन तबतक नामधारी के साले के रूप में रिश्तेदारी कायम हो चुकी थी . जो बाद के दिनों में इनके तजुर्बे निर्मल को आगे बढ़ने के लिये प्रेरित की | नामधारी के संग निर्मलजीत सिंह उनके तेल व्यवसाय के कामों में सहयोग देते थे और यहीं से कारोबार के गुर सीखकर बाद में अपना ठेकेदारी का काम अलग होकर करने लगे ,जिसमें बराबर इनको क्षति ही झेलने की स्थिति से गुजरते रहना पड़ा ,जो परवर्ती काल में इन्होने डाल्टनगंज से हमेशा के लिये विदा ले ली और अब जब "निर्मल बाबा" के रूप में अवतरित हैं ,तब इनके बालपन एवं युवापन के कई किस्से पलामू में चर्चा के विषय बन गए है | वह इसलिए कि डाल्टनगंज ,गढ़वा ,रांची और बहरागोड़ा में अपने को एक कारोबारी के तौर पर स्थापित करने के जीतोड परिश्रम इन्होने किया लेकिन कामयाबी नहीं मिली और जब सफलता मिली भी तो अब नव चर्चित धर्म गुरू के रूप में ,जो विवादों के बीच इनका देश के कानून से दो -चार होने के हालात है और यह स्थितियां भी इनके द्वारा स्व उत्पन्न है ,जिसकी अनुभूति शायद इनको खुद नहीं है |
           बहरहाल , निर्मल बाबा खुद पाकिस्तान से आये एक शरणार्थी रहे और जब इनकी बहन की शादी इन्दर सिंह नामधारी के साथ हुई तब वह अपने माँ के साथ पंजाब के पटियाला में थे ,बाद में नामधारी के  परामर्श के तहत डालटनगंज में व्यवसाय करने आ गए |यहाँ नामधारी के तेल व्यवसाय में इनकी भूमिका एक हिसाब -किताब रखने वाले मुंशी की थी |यहीं इनकी दिलीप सिंह बग्गा की बेटी सुषमा कौर से विवाह हुआ \इनके ससुर  की परिवहन व्यवसाय में काफी नाम थे ,जो कभी "बी  डी मोटर्स" के तौर पर पहचान रही |अभी एक वर्ष पहले ही इनके ससुर दिलीप बग्गा का जयपुर में इंतकाल हुआ है |
         निर्मल बाबा के ससुर  डालटनगंज से जयपुर अपने धंधे के लिये १९८९ में गए थे | इनके दो अन्य सालों  के नाम संतोष सिंह बग्गा और संतोष सिंह बग्गा है |इसमें संतोष बग्गा फ़िलहाल जीवित हैं |
         डालटनगंज में जब निर्मलजीत ने अपना स्वतंत्र व्यवसाय "मोटर्स पार्ट्स" की शुरू की थी ,यह कारोबार १९८४ तक यहाँ था लेकिन जब उस वर्ष सिख दंगे के चपेट में आने पर इनकी दुकान लुट ली गई और फिर इन्होने इस शहर को छोड़ दिया
इनके पडौसी विजयकांत शुक्ल बताते है " वह काफी धीर गंभीर प्रवृति के व्यक्ति थे " शुक्ल के बगल में ही डालटनगंज के रेडमा में आज के बाबा की दुकान थी | इसी तरह की बातें रांची एक्सप्रेस के वरिष्ष्ठ संवाददाता सुरेन्द्र सिंह रूबी कहते हैं "वह तो अंतर्मुखी व्यक्तित्व वाला इंसान था ,काफी काम बोलना उसके आदत में शुमार थी " रूबी के बगल में ही निर्मलजीत १९७०-७५ के बीच रहा करते थे और ये दोनों ही पश्चिमी पाकिस्तान से आये शरणार्थी परिवार थे ,स्वाभाविक है कि इनके भी परस्पर छनती हो |
        निर्मल बाबा की पत्नी सुषमा कौर के फुफेरे भाई मदन मोहन सिंह डालटनगंज में एक वरिष्ठ अधिवक्ता है | वह बताते हैं कि " सिख दंगे के बाद वह डालटनगंज से विदा हो चुके थे और देहली में रहकर जीविकोपार्जन की कोशिश में थे ,इस दौरान मेरी  ममेरी बहन सुषमा (बाबा की पत्नी ) से मिलने १९८६ में  वह देहली गए थे ,तब बहन अपने घर के आस -पास के बच्चों को पढाकर घर के खर्चे जुटाती थी और बहनोई साहब अपने ही कक्ष में अंतरध्यान लगाये रहते थे ,जिसमें सुषमा सहयोग करती थी |" वैसे, इनके ससुराल के लोग अच्छे -खासे ,स्थापित व्यवसायी रहे हैं ,परिवहन और खदान के कामों में इनकी अपनी साख रही है |
         ऐसे में, निर्मलजीत सिंह कब निर्मल बाबा हो गए ,यह डालटनगंज के लोगों ने तब ही जाना ,जब उनके किस्से  - कहानी मिडिया के माध्यम से चर्चित हुए | कहते है कि सिख दंगे ने इनको  मानसिक रूप से काफी विचलित किया और उसी आघात ने इनको धर्म गुरू के तौर पर स्थापित  किया ,जो इन दिनों चर्चा का विषय बन गया है,जिसमें कई तरह की बातें निकल कर सामने आ रही है ,जिसमें सर्वाधिक चर्चा के मुद्दे अकूत सम्पति अर्जित करना ,अध्यात्म के नाम पर व्यापारिक गतिविधियों को संचालित करना तथा भावनाओं के दोहन के मुद्दे ज्यादा प्रचारित -प्रसारित हैं  |
            इन सब चर्चित विषयों से अलग अबतक यह प्रकट नहीं है कि क्या निर्मल बाबा ने किसी को धोखा दिया , जोर जबरदस्ती से रूपये वसूले ,मतलब कि वस्तुगत प्रत्यक्षमान साक्ष्यों के अभाव में न्यायिक प्रक्रिया के क्या हस्र होते हैं ? फ़िलहाल, इसका इंतजार देश को है |



Wednesday 11 April 2012

इन मुठभेड़ों में छिपी स्थितियां


                           (एसके सहाय)
        झारखण्ड के एक ही क्षेत्र में पांच दिनों के अंतराल में सशस्त्र माओवादियों और सुरक्षा बलों के बीच हुए मुठभेड़ों ने यह साफ कर दिया है कि भूमिगत संगठनों के प्रति सरकार और जिला एवं स्थानीय प्रशासन गंभीर नहीं है और यदि ऐसा नहीं है ,तब इतने कम अवधि में तुरत मुठभेड़ होना और केवल पुलिस को ही नुक्सान होने के क्या मत;लैब है ? पहले चार अप्रैल और अब नौ अप्रैल को पलामू परिक्षेत्र में ही मुठभेड़ इतने कम अंतराल पर होने से यह भावना ग्रामीण क्षेत्रों में घनीभूत होने को है कि जान - माल की सुरक्षा अब उग्रवादियों के ही हाथों में है ,इसलिए इनसे पंगा लेना गांव वालों  को मंहगा हो सकता है | वैसे ,पलामू प्रमंडल के तीनों जिलों में यथा -पलामू ,गढ़वा और लातेहार में माओवादियों के अतिरिक्त अन्य कई चरमपंथी संगठनों के हथियारबंद दस्ते सक्रीय हैं ,जिसमे आपसी एकता तो नहीं लेकिन सरकार को चुनौती देने में सभी तरह के उग्रवादी सक्रीय रहते दिखे है |
             यह दोनों मुठभेड़ इसलिए भी महत्वपूर्ण तौर पर रेखांकित है कि दोनों मुठभेड़ स्थलों के बीच की दुरी महज कुछेक किलोमीटर है ,जो कहने को दो अलग -अलग जिलों में पड़ता है लेकिन यह दोनों जिला पुलिस के लिये आपसी तालमेल को दर्शाने के लिये भी प्रयाप्त है ,फिर भी दोनों मुठभेड़ों में सुरक्षा बलों के ही सतही हत् हुए ,यह कम चुन्ताजनक स्थिति नहीं कही जा सकती | सर्वप्रथम लातेहार जिले के बरवाडीह थानांर्गत कर्मडीह में माओवादियों ने केन्द्रीय सुरक्षा बल के एक जवान को मार डाला और एक, झारखण्ड आर्म्स पुलिस के जवान को गंभीर रूप से घायल कर दिया .फिर नौ अप्रैल को गढ़वा जिले के भंडरिया थाना क्षेत्र के चेमु स्नाय इलाके में मुठभेड़ करके अर्ध सैनिक बलों के छ जवानो को जख्मी कर दिए ,जो माओवादियों के बढते हौसले को प्रदर्शित कर रहे और सरकार की तरफ से कोई जवाबी कारवाई के संके तन नहीं मिल रहे है ,जो आमजान में भरोसे को तोड़ते प्रतीत है और यह कोई स्वस्थ लक्षण के तौर पर नहीं लिया जा रहा ,इससे निकट भविष्य में पुन: हमले होने की आशंका से इंकार नहींकिया जा सकता |
           सबसे ताजुब की बात है कि दोनों मुठभेडें दिन के उजाले में हुई और पुलिस -सुरक्षा बलो के पास इतने समय थे कि अगर वे चाहते तो इन अतिवामपंथियों को आराम में घेर कर अपनी कब्ज़ा में ले सकते थे लेकिन इन व्यूह रचनाओं को अमली जमा न पहनाकर पुलिस आत्म रक्षार्थ हो गई ,जिसे माओवादियों के हौसले में इजाफा हो गया और जब कर्मडीह मुठभेड़ के बाद दूसरे दिन "आक्टोपस" अभियान चरम पंथियों के विरूद्ध छेड़ा गया ,तब नौ अप्रैल को दिन के दस बजे छ जवान उग्रवादियों के चपेट में चेमु स्नाय के निकट  गंभीर रूप से घायल हो गए और एक बार फिर पुलिस मुहीम, आत्म रक्षार्थ मन: स्थिति में आ  गयी |
         इन हालातों में कैसे उग्रवादियों पर झारखण्ड में काबू पाया जा सकता है |यह प्रश्न एक बार फिर पुलिस महकमें में उठ गया है | राज्य पुलिस को मदद के लिये केन्द्रीय सुरक्षा बल कि कंपनियां प्राय: हर जिले में प्रतिनियुक्त है |खासकर , उग्रवाद प्रभावित जिलो में ,जिनकी संख्या अठारह हैं ,में लगातार अभियान चलाये जाने की बात सरकार और पुलिस महानिदेशक गौरीशंकर रथ करते रहे हैं ,फिर भी नतीजे कोई विशेष सामने नहीं आ पा रहे | आखिर क्यों ?
         दरअसल , भूमिगत संगठनों के उग्रवादियों  के प्रति सरकार की कोई स्पष्ट नीति अबतक सामने नहीं आ पाई है और न ही पुलिस को वो खुली छूट प्राप्त है ,जैसा कि पूर्वोत्तर  के राज्य पुलिसों को है ,सिर्फ  "हवाई फायर " ही इनकी घोषणा दिखी है ,जिसे जन विश्वास भी खत्म होता परिलक्षित है | गांव में यदि ग्रामीण उग्रवादियों के रहम - करम पर है ,तो इनके उनके साथ सुरक्षा की गारंटी भी है ,यही वजह है कि राज्य के उग्रवाद प्रभावित इलाकों में अपराध की मात्रा घट गई है ,जिसके कारण यह रहा कि ,चोरी ,डकैती ,लुट ,छिनतई ,बलात्कार ,हत्या जैसी मामले उग्रवादियों के भय से नहीं हो पाते ,क्यों कि इनके बीच फरियाद होने या जानकारी मिलने पर तुरत अपनी कथित "जन अदालत" में फैसले  कर दिए जाने की  बात रहती है |और तो और शाम हुआ नहीं कि पुलिस या अन्य कोई भी सुरक्षा बल गांवों की मुंह नहीं करते तथा मुख्य सड़क से उतरने की तो सोचीय ही नहीं , यह हालात है झरखंड की ,जहाँ माओवादियों के अलावे अन्य कई दर्जन भर उग्रवादिक संगठन अपनी सरकार के सामानांतर प्रभाव स्थापित किये हुए हैं ऐसे में ,जब -तब कथित लेवी वसूलने की बात सामने आती है ,तब वह हकीकत है ,बिना इनके अनुमति के कोई भी निर्माणात्मक काम हो ही नहीं सकते और इसे देखना -जानना हो तो पुलिस मुख्यालय ,ख़ुफ़िया रिपोर्ट या जिला पुलिस के फाइलों को देखने ,जहाँ हजारों की संख्या में उग्रवाद के साथ अन्य गठजोड़ की बाते पढ़ने को मिल जायेगी |
               झारखण्ड में हकीकत तो यह है कि यदि ग्रामीण उग्रादियों को थोडा खाना खिला दें ,तब पुलिस उन्हें तंग करती है और अगर पुलिस कोई बात गांववाले सूचित करें ,तो माओवादी सहित अन्य उग्रवादी सताते हैं ,जिसके कारण पूरा ग्रामीण जन -जीवन तबाह है |ऐसे  में ,कोई कारगर नीति इन चरम पंथियों से लड़ने के लिये पिछले १२ सालों में नहीं बनी , जिसके वजह से आज आये दिन मुठभेड़ ,मौत ,घायल जैसी लोमहर्षक घटनाओं का सिलसिला बदस्तूर जारी है | इस राज्य में ,पूर्व मंत्री ,सांसद ,विधायक ,भारतीय पुलिस सेवा ,राज्य पुलिस सेवा या अन्य अधिकारी ,- कर्मचारी समेत असंख्य लोगों की मौत उग्रवादियों के हाथों हो चुकी है ,इसके बावजूद सरकार ,सामाजिक जीवन ,आर्थिक -राजनीतिक समूह या कहे अन्य वर्गों में केवल "वैक्तिक " रूप से बैचेनी है ,कुछ कर गुजरने की भावना का सर्वथा अभाव है ,जो पुरे  झारखण्ड को लकवा ग्रस्त किये हुए है |यही इस राज्य की फ़िलहाल सबसे बड़ी त्रासदी है |
 
         

Monday 9 April 2012

सरदा-जरदा मिलाप के कूटनीतिक अध्ययन


                        (एसके सहाय)
   पाकिस्तानी राष्टपति आसिफ अली जरदारी के निजी दौरे पर भारत आने और इस मौके पर भारतीय प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह से एकांत में पच्चास मिनट बातचीत करने को लेकर ,इधर देश -विदेश के कूटनीतिक क्षेत्रो में जबरदस्त मीमांसा किये जाने की होड है ,जिसमे भारत के राजनीतिक गलियारों में ,इन मुलाकातों के सन्दर्भ में तरह - तरह के अनुमानों का दौर है और इन अनिश्चित स्थितियों के बीच राष्ट हित का सवाल गौण होता प्रतीत है ,जो कि भारत के लिये अब भी आतंकवाद  को लेकर कोई ठोस  वायदे -आश्वासन पाक की ओर से  संकेतित नहीं है | यही इन भेंट -मुलाकातों का सार है ,जिसके कोई यथार्थ मायने नहीं है |
 फिर भी इन दो शाख्सियतों का मूल्याकन किया ही जाना चाहिए ,ताकि यह तो पता चाल सके कि इन दो गैर राजनीतिज्ञों के मान में क्या विचार अपने - अपने देश के प्रति है ? ऐसा इसलिए कि मनमोहन सिंह और आसिफ अली में ज्यादा का फर्क नहीं है ,दोनों की शक्तियां एक -दूसरे की तरह पराश्रित हाथों में है और काफी हद तक दोनों अपनी -अपनी जरूरतों के हिसाब से ही डगर भर सकने के हालात में है ,ऐसे में कोई यथार्थ परक रिश्ते की बात इन दोनों के बीच हुई होगी ,कोरी कल्पना होगी |
   अतएव , भारत -पाक के सबंध सीमित दायरे में ही फिलवक्त बने रहने की है ,जिसमे अमेरिका को दुश्मन नंबर एक मान लेने की प्रवृति इन दिनों पाक में जोर पकड़ रही है ,जो जरदारी ,गिलानी परवेज कयानी और पाक मुख्य न्यायधीश चौधरी के झूले में अटका है , जिसमे परस्पर अहम ही इनके बीच एक -दूसरे को शंकालु बाये हुए है |मतलब यह कि पाक में अभी स्थिरता के अभाव का दौर है और इस बचने की जो भी कोशिश वहां दिखती है , समष्टिगत न होकर व्यष्टिगत है ,ऐसे में जरदारी के सामूहिक या फिर व्यक्तिगत मुलाकतों का भारत के लियेकोई अर्थ नहीं है |
     इतना ही नहीं , जरदारी की मनोदशा व्यापारिक बुद्दि से प्रभावित है ,जो लाभ -हानि के नजरिये से खुद और अपने देश पाक को तौलने की प्रवृति से लाचार हैं ,तभी तो उनको पाक में  "मि टेन परसेंट " के संबोधनों से अक्सर बातचीत में लोग नवाजते हैं ,लेकिन भारत में सरदार जी के प्रति इस मामले में कोई आपति देश के लोगों में नहीं है ,आपति है तो सिर्फ यह कि राजनीतिक -कूटनीतिक निर्णयों में इनके असमंजस में रहना और दूसरों के मुखापेक्षी होना ही इनके अतिरिक्त दोष है ,जो किसी भी मुल्क के सेहत के लिये ठीक नहीं माना जाता | ईमानदारी में इनके स्तर के खोजने से भी जल्द व्यक्ति मिलने मुश्किल है , इन सब के बीच जो खामिया है ,वह इनके पेशेगत नजरिये  से जुड़ा है ,जिसमे अर्थकीय विशेषज्ञता ही हर राजनीतिक -कूटनीतिक मसलों पर इनसे झलकती है ,जिसमे सपाटपन ज्यादा है और तकनीकी बातें
कम होती है |
       इन सब अलग -अलग सोच वाले व्यक्तित्वों के बीच जब देश के परस्पर हित साधने के मसले पर विचारों का आदान -प्रदान होता है ,तब इनके बीच बातों की मौलिकता नहीं होती ,बल्कि दूसरे के सलाह पर ही इनके फैसले होते है .इसलिए एकांतवास की यह मुलाकात का कोई माने -मतलब नहीं दीखता | जरदारी और सरदारजी इतफाक से ही अपने -अपने पद पर हैं | मनमोहन  ईमानदार होने के साथ ,नौकरशाही संस्कृति के बीच से एक नेत्री के पसंद के बाद अपने मुकाम तक पहुंचे है,जिसमें सीधे निर्णय  लेने की क्षमता का सर्वथा अभाव अबतक के कार्यकाल में उनमें दिखा है और देश के बाहर भी यदि कुछेक मामलों में फैसले करने तक पहुंचे तो उसमें सोनिया गाँधी के साथ वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के मन्त्र रहे है | ऐसा कई बार दिखा है और इसका सबसे सुन्दर उदाहरण मुंबई कांड के बात मुखर्जी के कूटनीतिक पूर्ण बयानों में साफ परिलक्षित हुआ और पाक शेष विश्व से अलग -थलग होने की स्थिति में आ पहुंचा है |
    इसलिए जरूरी है कि भारत -पाक के रिश्ते को समझने के पूर्व दोनों देशों के राष्ताध्यक्ष  और शासनाध्यक्ष के मनोवृतियों को समझा जाय | वैसे , जरदारी भी एक व्यवसायी ही हैं ,जो पूर्व  प्रधान मंत्री नवाज शरीफ के सोच वाले जैसे प्रतीत हैं ,इसका उदाहरण उनके कार्यकाल में व्यापार के तहत चीनी आपूर्ति का विषय काफी चर्चित था और अन्य क्षेत्रों में खुला बाज़ार की तरफ कदम दोनों देश द्वारा उठाये जाने वाले ही थे कि वहां सत्ता पलट हो गए और एक बार फिर दोनों देश जहाँ  से चले थे ,वही पहुँच गए |
  फिलवक्त ,भारत की सोच का दायरा एकमात्र आतंकवाद के इर्द -गिर्द घूम रहा है ,जिसकी कड़ी में मुंबई कांड और अपनी जमीं से पनाह देने वाली हरकतों का साया ,इनके बीच आगे बढ़ने से विचलित करती है और पाकिस्तान में कब ,कौन और कैसे संप्रभु के तौर पर अवतरित हो जाये ,यह थाह पाना भी मिश्किलों वाला है | इधर जब से अमेरिका ने पाक के कान ऐंठने शुरू किये है ,तब से पाक की बोलती में वह कड़क भारत के प्रति नहीं है ,जैसा कि पूर्ववर्ती  कालों में दिखती रही है |
        अभी के हालातों के मद्देनज़र पाक को ,भारत का सहारा चाहिए और यह सहारा ऐसा भी होना चाहिए कि वह लात भी मरे ,तब उसे बर्दाश्त करने में मददगार भारत को होनी चाहिए ,क्योंकि वहां के लोकतंत्र इन दिनों सेना के साये में गर्दिश  में है और यदि भारत दबाव बनाया ,तब एक बार फिर सैन्य शासन की ओर पाक लौट  जाएगा  ,जो भारत के लिये सिरदर्द ही होगा ,पहले की तरह ,यही इन मुलाकातों का लब्बों-लुआब है ,दोनों सरदा -जरदा के ,जिसमे देशीय चिंता कम वैयक्तिक चिंता के भाव ज्यादा झलकते हैं |
       

Sunday 8 April 2012

सड़क निर्माण में माओवादियों की रंगदारी


                        
                           (एसके सहाय)
             क्या झारखण्ड में माओवादी विकास के दुश्मन बन गए हैं ? सुनने में थोडा यह अटपटा लग सकता है लेकिन यह काफी सच के करीब भी है ,इससे खुद प्रतिबंधित भाकपा (माओवादी) के शीर्ष नेतृत्व अवगत हैं ,जो इनकी शुरूआती ध्येय से भटकाव का संकेत है | यहाँ  राज्य के दो जिले में काफी अरसे से निर्माणात्मक परियोजनाएं इसलिए ठप्प हैं कि माओवादी इनके निर्माण से जुड़े ठेकेदार कंपनियों से रंगदारी मांगने को अपनी प्राथमिक सूची में शुमार किये हुए है | वैसे, यह विषय सिर्फ दो जिलों तक सीमित नहीं है बल्कि यह २४ जिले के प्राय: हर दूरस्थ इलाकों तक "रंगदारी" के तौर पर विस्तृत है |अतएव ,उदाहरण के लिये ही इस रपट में केवल दो जिलों का उल्लेख है ,जो पूर्णत: वस्तुगत है और चिंता को बढ़ावा देने में योगदान कर रही है |चिंता इसलिए कि सरकार या प्रशासन इस संकट से निपटने के लिये अबतक कोई गंभीर प्रयास नहीं की है | अबतक जो भी कदम या कहिये पहल हुई है ,वह केवल कागजी खाना पूर्ति ही सिद्द हुए हैं |
            उग्रवाद प्रभावित पलामू और गढ़वा जिले में दो दर्ज़न से अधिक सड़क परियोजनाये विगत चार साल से अधिक समय से रुकी हुई हैं और इस सिलसिले में कोई पहल भी नहीं हुई कि कैसे , इनकी कार्य योजना समयबद्द तरीके से पूर्ण हो | निर्माणात्मक योजनाओं से रंगदारी वसूले जाने बात, कई मौके पर सार्वजनिक तौर पर उजागर हुई और हर बार इस विषय को नज़रंदाज़ कर दिया गया ,जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क निर्माण के विकास में अपेक्षित गति नहीं आ पाई है और जो कुछ भी पथ निर्माण की तस्वीर दिखती भी है ,वह ठेकेदार के स्वयं की जिम्मेदारी से मूर्त रूप में सामने है और लफड़ा भी इस बात का निर्माण किये हुए एजेंसी पर चस्पा होता रहा कि "बिना चढावा के आखिर सडक कैसे बन गया" और इस मामले में कतिपय ठेकेदार पुलिस के नज़रों में अनावश्यक रूप से चढ गए ,जो खुद तो माओवादियों पर नकेल कस नहीं सकते और उपरी कमाई के नये -नये रास्ते की तलाश में जुगत भिडाये रहने को कोशिश में भिड़ें दीखते हैं |ऐसे में ,विकास के निमित परियोजनाओं पर भूमिगत संघठनों ने उग्रवादी, अपने मनमाफिक "रंगदारी" की मांग करते हैं ,तो किस मुंह से उग्रवादिक - आपराधिक तत्वों के खिलाफ कारवाई करने के वैधिक- नैतिक अधिकार रखते हैं ?
        गढ़वा और पलामू जिले के पुलिस अधीक्षकों से सड़क निर्माण में उग्रवादी हस्तक्षेप के बाबत सवाल किये गए ,तब इनमें एक क्रमश: माइकल एस राज ने कहा कि "पुलिस ठेकेदारों को अपने कामों में सुरक्षा प्रदान करने के लिये तैयार है लेकिन दिक्कत यह है कि वे साफ -साफ यह भी बताने में हिचकतें हैं कि आखिर रंगदारी की मांग किस शख्स ने माओवादी बन कर उनसे की |" इसी तरह , के जवाब क्रांति कुमार गड़ीदेशी ने दिए ,जो बताते हैं कि रंगदारी या कथित लेवी वसूलने वालों के विरूद्ध पुलिस कटिबद् है और यदि एक निश्चित समय सीमा में परियोजनाएं पूर्ण करने का आश्वासन निर्माण कंपनियां दे ,तब सुरक्षा देने में कोई समस्या नहीं है मगर संकट यह है कि ठेकेदार भी ठेका ले लेते हैं और इसे तय समय में पूरा करने में रूचि नहीं लेते, ऐसे में पुलिस बल को केवल एक कार्य के लिये तो हमेशा तैयार नहीं रखा जा सकता क्योंकि अन्य कई मोर्चे पर भी बल की जरूरत होती है ,जिसका क्षेत्र सड़क निर्माण से अधिक व्यापक है |
             अब जरा , गढ़वा के एक प्रखंड की तस्वीर को देखें , जहाँ माओवादियों ने रंगदारी नहीं मिलने से नाराज होकर इसके निर्माण पर रोक लगा दी है ,जबकि जिले के सभी प्रखंडों का एक सा हाल है |ये सभी सड़क योजनाएं प्रधान मंत्री सड़क योजना के तहत लंबित हैं ,जो रंका प्रखंड के ग्यारह ग्रामीण इलाकों में निर्माण की प्रतीक्षा में है ,मगर माओवादियों ने अपनी तोड़-फोड हरकत से ऐसे स्थितियां उत्पन्न कर दी है कि पिछले तीन सालों से इसके निर्माण पर खर्च कि जाने वाली राशि २२२९.७८५ रूपये का कोई उपयोग नहीं है | इन सड़क  परियोजनाओं में लारकोरिया-सिरोइखुर्द पथ -लागत३६५.६०९ लाख रूपये ,लंबाई -१२.०७ किलोमीटर और अबतक खर्च रूपये लगभग दस लाख हो चुके है ,जो पूर्ण होने के इंतज़ार में हैं |
         इसी तरह , बांदू-दूधवालपथ - सड़क की लंबाई १० .८५ किमी ,लागत राशि -३२९.११ रूपये,
         =भंडरिया -मदगादी-चप्काली -रामर पथ , लंबाई -११.०२ किमी, प्राक्कलित राशि -४१४.३४५ लाख रूपये ,
        =चिनिया -चप्क्ली पथ - लंबाई सात किलीमीटर ,काम शुरू ही नहीं हुए  ,
        =कठौतिया -हेताद्कला पथ -लंबाई ३.६ किमी ,कार्य डर से शुरू नहीं हुए ,
        =मझिगँव -बरवाडीह पथ -लंबाई २.५ किमी, लागत राशि ४२२.३४५ लाख रूपये ,
                 =खुदवा मोड -करा पथ -लंबाई ४.५२५ किमी,राशि १.२५ लाख अर्थात सवा करोड रूपये ,
       =चिनिया - तहले पथ -लंबाई सात किमी ,लागत राशि २२१ लाख  रूपये ,
       =छातौलिया -डोल पथ -लंबाई ७.०५ किमी, .राशि २११.९९४ लाख रूपये ,
       =बर्वाही -चतरू पथ -लंबाई आठ किमी, राशि १५३.२५ लाख रूपये ,जिसमे खर्च ९२.९६ लाख रूपये,                        ,     और = बिरजपुर बलिगढ़ पथ -लंबाई १० किमी, राशि २०१.७७ लाख रूपये ,जिसमें खर्च राशि १३३.५१ लाख रूपये |
    इन वस्तुपरक जानकारियों में एक तथ्य यह है कि रंगदारी मांगे जाने और इसे अनसुना किये जाने पर माओवादियों  ने ठेकेदारों के निर्माण मशीनों को जला दिया और मारपीट की,इसमें चिनिया तहले सड़क निर्माण में इस्तेमाल हो रहे दो जेसीबी मशीन को जला दिया गया |यही हस्र लारकोरिया -सिरोइखुर्द पथ के निर्माण में हुआ | इतना ही नहीं , एक निर्माण कंपनी कलावती कंस्ट्रक्शन ने बकायदा पत्र लिख कर सरकार को सूचित भी किया है कि वह माओवादियों के सक्रीय रहने की वजह से काम करने में असमर्थ है | हालाँकि इन निर्माण कार्यों के माओवादियों द्वारा रोके जाने से गांव वालों के मध्य  आक्रोश है ,ग्रामीण भी चाहते हैं कि सड़कें बने ,ताकि विकास  के अन्य अवसर के मार्ग खुल सकें लेकिन स्थानीय प्रशासन सरकार की दृढ़ता के अभाव से उनके मनोबल बढ़ गए से प्रतीत हैं |
         यही दृश्य पलामू के हैं ,जहाँ टेंडर निकलते हैं ,ठीकेदार ठीक लेता है और जब वह निर्माण कार्य की शुरूआत करता है ,तब माओवादियों के एजेंट या वे खुद धमक कर कथित लेवी अर्थात रंगदारी टैक्स की मांग करते हैं | इससे ग्रामीण अंचलों में सड़क की सुविधा कैसे होगी ? आवा -गमन के रास्ते तंग होने से वैसे भी झारखण्ड पूरे देश में पहले से बदनाम है ,फिर इस दिशा में ठोस पहल की जरूरत अरसे से है लेकिन सिर्फ कागजी खाना पूर्ति और घोषणाओं के बूते ही विकास के सब्जबाग दिखाए जाने के नज़ारे हैं |
         वैसे भी ,पलामू सर्वाधिक उग्रवाद ग्रस्त जिले के रूप में चिन्हित है ,यहाँ ठेका हासिल कर लेना ही सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती है और यदि हासिल हो गई ,तब बिना माओवादियों के हुक्म से काम के प्रारंभ करना दुश्वार है और यदि अनुमति इनसे मिल जाती है ,तब वह सड़क दिखना भी मुश्किल है , ऐसा  इसलिए कि कागजों में ही पथों के निर्माण कर दिए जाने के मामले कई दफे सामने आये  ,जिसमे ठेकेदार ,अभियंता -अधिकारीयों  के मिलीभगत होने के साथ ही माओवादियों की भूमिका
 पकड़ में आई लेकिन अराजक सरकार की अराजक लोकशाही के कीकर्तव्यविमूढ़  हालात में होने से कोई ठोस परिणाम कभी सामने नहीं आये |
      मसलन ,पलामू के मनातू प्रखंड में दो सड़क निर्माण के लिये छ बार ठेके की घोषणा हुई लेकिन किसी निर्माण कंपनी इसमें भाग नहीं लिया ,इसकी वजह पूरे इलाके माओवादियों के प्रभाव के रूप में होना है |इसी तरह, मोहम्मदगंज -महुदंड मार्ग की है ,जहाँ २२ किमी सड़क के निर्माण के लिये प्रधान मंत्री ग्रामीण योजना के तहत पांच करोड रूपये खर्च किया जाना है ,जो इनके कारण ठप्प है |पांकी  प्रखंड के दारिका - केकरगढ़ और द्वारिका -पिपरातांड पथ के निर्माण जैसे ही शुरू हुए माओवादियों ने धावा बोलकर इसके निर्माण कार्य पर बलात रोक लगा दी |इसके अलावा ,नौडीहा -महुआरी-लक्ष्मीपुर के काम इन उग्रवादियों ने २००७ से ही रोके रखा है ,मगर इसके फिर से शुरू किये जाने पर जिला प्रशासन मौन धारण किये हुए है |सबसे आश्चर्य की बात है कि मनरेगा के पैसे से कव्वाल-लक्ष्मीपुर - मनदोहर और बारापुर-नासो तक लघु सिंचाई विभाग से सड़क निर्माण की पहल हिउ लेकिन माओवादियों के धमकी के बाद ,यह भी अधूरा पड़ा है |
      इन सड़क निर्माण में माओवादियों के अड़चन पैदा किये जाने के बारे में पलौम जिला पुलिस अधीक्षक अनूप टी मैथ्यू से बात की गयी तो उन्होंने बताया कि " कोई ठेकेदार या निर्माण कंपनी पुलिस की सहयोग मांगे ,तब न सुरक्षा प्रदान किया जाय ,यहं तो खुद ठेकेदार भूमिगत संगठनों से तालमेल करके सरकारी धन के लुट की योजना को अंजाम देते हैं ,ऐसे में पुलिस किसके बिना पर अपनी तरफ से कारवाई करे या कदम उठावे |"
        स्पष्ट है , निर्माण कार्यों में करोडो की राशि खर्च किये जाने से झारखण्ड के सुदूरवर्ती क्षेत्रों में माओवादियों जैसे भूमिगत संगठनों के प्रभाव से सड़क जैसी मुलभूत संरचना के निर्माण में बड़ी बाधा आ कड़ी हो गई है ,जिसका निकट भविष्य में कोई हाल नहीं दीखता ,जिसकी वजह दृढ़ता के अभाव से है और इसमें आमहित के महत्त्व के सवाल इन दिनों राज्य में गम हैं ,तब आश्चर्य नहीं करने चाहिए |
 
 
                          

Saturday 7 April 2012


भारत-चीन: विवादों में बीच के रास्ते


                            (एसके सहाय)
                बात १९९८ की है ,तब मई के माह में भारत, परमाणु विस्फोट कर चूका था और इसकी अनुगूँज पूरे दुनिया में हुई थी ,जिसमे पश्चिमी देश के साथ -साथ संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा एवं आस्ट्रेलिया प्रतिबंधों के बाबत देश को धमकी दर धमकी दिए जा रहे थे ,इधर देश में भी इस विस्फोट के बाद लाभ -हानि पर बहस तेज थी |ऐसे में रोज ब रोज केंद्र सरकार को किसी न किसी रूप में इन विस्फोटों को लेकर अपनी नीति स्पष्ट करने की मशक्कत से जूझना पर रहा था ,तब अचानक तत्कालीन रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाडीज ने संसार को यह बताकर स्तंभित कर दिया था कि " भारत का असली दुश्मन पाकिस्तान नहीं बल्कि चीन है |" यह कहने भर की देर थी ,इसे लेकर भारी नाराजगी तब चीन ने प्रकट किया था ,जिसे भाजपानीत राजग सरकार ने पूरी ताकत व क्षमता के प्रतिकार करने में सफल हो गई |बाद के दिनों में क्या हुआ ,इसे सभी जानते हैं |खुद अमेरिका की पहल पर अंतराष्टीय परमाणु क्लब की सदस्यता भारत ने ग्रहण की ,प्रतिबन्ध हटे या ढीले हुए ,इसकी गाथा से प्राय: अब सब परिचित हैं |
                  इस पृष्भूमि के आईने में देखें तब चीन की इन धमकियों का अर्थ समझने में सहायक हो सकती है ,जिसमें चीन सरकार के राष्टीय इंस्टीट्युट आफ साऊथ चाइना के अध्यक्ष वू सिचुन ने दक्षिण चीन सागर को लेकर सख्त चेतावनी वाले लहजे में कहा है कि " विवादित क्षेत्र से भारत ने तेल निकाला ,तब उसे भारी कीमत चुकानी पड़ेगी |" साफ है कि चीन अपनी कूटनीतिक चालों में पूर्व की तरह अंतराष्टीय राजनय के क्षेत्र में कर रहा है ,जिससे भारत को भयभीत होने की जरूरत नहीं है और इसकी प्रतिक्रिया में विदेश मंत्री एस एम् कृष्णा ने स्पष्ट लफ्जों में कहा कि "दक्षिण चीन सागर किसी की जागीर नहीं है बल्कि यह पूरे संसार की है "  और इस जवाबी हमले में कूटनीति के वे तार जुड़े हैं ,जिसकी प्रतीक्षा में अमेरिका समेत अन्य कई राष्ट इस इंतजार में हैं कि वे भी दक्षिण चीन सागर में आर्थिक दोहन अर्थात सामुद्रिक खनिजों के लाभ उठाने के मौके मिले | यह इसलिए भी यूरोप -अमेरिका ,जापान जैसे देशों के मुफीद है कि चीन का अपने सभी पडौसियों से "सीमा विवाद " शुरू से चला आ रहा है | यह उस तरह के विवाद नहीं है ,जैसा कि भारत के साथ पाकिस्तान को छोड़कर अन्य से है |ऐसे में ,चीन को शेष दुनिया से अलग - थलग करने में फिलवक्त सारी बातें मौजूद है ,इसके बावजूद ,भूमंडलीकरण ,बाजारवाद और उदारवाद जैसी संकल्पनाओ के व्यावहारिक स्वरूपों में यह संभव नहीं है |इसलिए अभी तो यही देखना
है कि चीन अपनी धमकियों के बाबत कौन सा कदम उठता है ?
            यह जग जाहिर है कि भारत, वियतनाम के सहमति और रजामंदी से दक्षिण चीन सागर में तेल की खोज में जुटा है और इन परियोजनो से दिपक्षीय संबंधों के आधारों को बल मिलने की नई उम्मीद है और इन आशाओं के मध्य यह भी एक तथ्य है कि वियतनाम के साथ चीन के रिश्ते शुरू से बिगड़े हुए है |इसकी झलक पिछली सदी के सत्तर के दशक में देखि जा सकती है | घटना १९७९ की है ,भारत -चीन अपने रिश्ते को पटरी पर लाने की अंतराष्टीय कूटनीतिक प्रक्रियाओ को आजमा रहे थे,आजमा इसलिए रहे थे कि १९६२ में हुए युद्द के बाद पहली बार जनता पार्टी की केन्द्रीय सरकार के विदेश मंत्री अटल बिहारी बाजपयी चीन दौरे पर थे और इनके बीजिंग में रहते चीन ने वियतनाम पर आक्रमण कर दिया था ,जिसके विरोध में बाजपेयी ने अपनी यात्रा को बीच में ही अधूरी छोड़कर वापस लौट गए और चीन की इस हरकत को नापसंद करने की प्रतिक्रिया व्यक्त की |
            प्रकट है कि चीन की नीति ,कूटनीति और कदम पहले से ही काफी सुविचारित एवं सुनियोजित रहते है ,जिसे लेकर भारत को अत्यंत ही सतर्क रहने के लिये आगाह रहना है | इसलिए जब वह चेतावनी दे रहा है ,तब उसके जेहन में आने वाली प्रतिक्रिया को लेकर पहले से रणनीति बन चुकी होगी |ऐसे में अमेरिका का दक्षिण चीन सागर को लेकर दिलचस्पी होना चीन को भी सावधानी बरतने के संकेत दे दिए है ,वह इसलिए कि यह इलाका प्रशांत महासागर से जुड़ा है ,जो अमेरिका एवं इससे प्रभावित देशो के लिये महत्वपूर्ण है क्योंकि यह क्षेत्र ३५ लाख वर्ग किलोमीटर में विस्तृत है ,जो चीनी सीमा से काफी दूर है लेकिन अब जब सामुद्रिक सम्पतियों की दोहन को लेकर मामले काफी आगे बढ़ चले हैं तब ऐसे में चीन नौनसा द्दीप में तेल ,गैस एवं अन्य खनिजों की तलाश शुरू कर सकता है और भारत को दिए चेतावनी के पीछे उसकी यही मकसद होने की संभावना हो सकती है |
           वैसे ,दक्षिण चीन सागर का विषय हाल में तब ही चर्चा में आया ,जब वियतनाम ने भारत को तेल परियोजनाओं के लिये आमंत्रित किया |इस आमंत्रण के साथ चीन के चौधराहट से बौखलाये देश यथा - फिलीपिंस, ब्रुनेई और ताइवान जैसे राष्ट खुलकर चीन के विरूद्ध सामने आ गए है | इअके अतिरिक्त अन्य पडौसियों में भी चीन की दादागिरी को लेकर चिंताएं बराबर रही है ,जिसका लाभ भारत उठा सकता है और फिलवक्त की स्थितियों में जब अमेरिका भी स्पष्ट कर चूका है कि वह मानता है कि दक्षिण चीन सागर अंतराष्टीय आवागमन के सार्वभौम रास्ते हैं ,तब चीन भी सतर्क हो चूका है ,ऐसे में शक्ति का इस्तेमाल करने की जुर्रत वह आसानी से नहीं कर सकता |अभी के विश्व राजनय के हालात तो ऐसे ही हैं |
        वास्तव में, चीन को अब एहसास है कि भारत वह नहीं है ,जो कभी १९६२ में  था | उसे यह भी पत्ता है कि १९८२ और १९९२ में जब भारत परमाणु विस्फोट करने की ओर अग्रसर था ,तब अमेरिका की चेतावनी से वह अपने बढे कदम पीछे हटा लिये थे और यह तब की बातें है ,जब क्रमश: अमेरिका में रोनाल्ड रीगन जैसे सख्त एवं अनुदार राष्टपति थे और इंदिरा गाँधी के प्रधान मंत्रित्व में यहाँ सरकार थी ,तब पी वी नरसिंह राव जैसे कमजोर शासनाध्यक्ष की क्या बिसात, जो उसके हुक्म को बे उदूली करे |
          लेकिन नहीं , समय ने करवट ली ,बाजपेयी की सत्ता भारत में स्थापित हुई और अपने कलम से जिस संचिका पर सरकार ने सबसे पहले जो निर्णय लिया वह परमाणु विस्फोट का ही था और इसमें ठीक -ठीक अंदाज में चीन को कूटनीतिक तरीके से संकेत दिए गए कि भारत वो नहीं है ,जो अबतक जाना जाता रहा ,बल्कि वो है ,जो हम चाहते है अर्थात विस्फोट के दिन बुद्द जयंती थी और तारीख थी ११ मई , यह इसलिए भी महत्पूर्ण रूप से रेखांकित है कि २४ साल पूर्व १९७४ में उसी माह में भारत ने पहला परमाणु परिक्षण किये थे और जब बाजपेयी काल में पुन: विस्फोट हुए ,तब दुनिया यह देख रही थी कि "बुद्द" मुस्करा रहे है |मतलब यह कि अहिंसक नीति को भारत त्याग रहा था और अपनी ताकत को विश्व मंच पर तौलने के लिये खड़ा हो रहा था ,जो चीन को विशेष तौर पर लक्षित किये गए थे और इसकी आवाज बने थे जार्ज फर्नाडीज जिन्होंने बेबाक तरीके से दुनिया को बताया कि उनके देश का प्रथम शत्रु पाकिस्तान नहीं  बल्कि चीन है और इसी में कूटनीति  के व्यापक सूत्र छिपे है ,जिसे अभी सहेजा जाना बाकी है ,जिसका थोडा दिग्दर्शन एस एम् कृष्णा के बयानों में है |
        और अंत में यह कि दक्षिण चीन सागर को लेकर जिस तरह चीन ने अपनी संप्रभु होने का दावा  किया है ,ठीक उसी अंदाज में पाक अधिकृत कश्मीर के वे भाग ,जो कराकोरम कहलाता है और इसे पाक सरकार ने अपनी दोस्ती को चीन के साथ प्रगाढ़ करने के निमित चीन को दे दिया है ,उसे लेकर भारत को चाहिए कि चीन को बातचीत के जरीये संपूर्ण तौर पर हल करे ,क्यों कि चीन ने भी अपनी उपस्थिति कराकोरम में भारतीय नाराजगी व्यक्त करने के बावजूद बनाये हुए है ,जिस पर भारत शुरू  से अपना हक जतलाते आ रहा है | राजनय के सिद्दांतो में  कूट चालों में एक सौदेबाजी भी तत्व हैं ,जिसे याद रखा जाना चाहिए और फिलवक्त चीन के पास पाकिस्तान -उत्तर कोरिया सरीखे एक -दो देश ही है .जो मित्र के
तौर पर अंतराष्टीय मंचों पर उसके साथ खड़े हो सकते है और इसकी काट के लिये अमेरिका ही काफी है ,जो इन दिनों दिन प्रति दिन भारत से सटने के करीब है, तब करारा झटका देने में हर्ज नहीं होनी चाहिए |मौके की उत्पन्न स्थितियां तो ऐसी ही हैं |

Thursday 5 April 2012

परराष्ट नीति में राष्टीय चिंता के मायने


                                                               ( एसके सहाय )
                      जो देश अपनी "राष्टीय चिंताओं" की परवाह नहीं करता ,उसकी दुनिया भी परवाह नहीं करती |अंतराष्टीय राजनय के इस अटल सत्य को समझने के लिये कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है ,बल्कि भारत ,पाकिस्तान ,अमेरिका और विश्व के अन्य देशों -क्षेत्रों के परिप्रेक्ष्य में आज चहुंओर  अपनी - अपनी "राष्टीय चिंता" के रूप में विधमान है ,सिर्फ उसे अनुभूत करने और प्रदर्शित कूटनीतिक व्यवहार को जानने की आवश्यकता है | अतएव, हाल में जब अमरीकी अंडर सेक्रेट्री आफ स्टेट वेन्डी शरमन ने नई दिल्ली में यह जानकारी दी कि उसके देश ने पाकिस्तान के मोहम्मद हाफिज सईद जैसे दुर्दांत आतंकवादी को जिन्दा या मुर्दा पकड़ने के लिये एक करोड डालर याने कारी पच्चास करोड रूपये के इनाम घोषित किया है ,तब भारतीय राजनय एवं कूटनीतिक क्षेत्र में इसे स्वागत करते हुए हर्ष व्यक्त किया गया ,जिसको विदेश मंत्री एस एम् कृष्णा ने रेखांकित भी किया |मतलब यह कि जो काम भारत को पहले ही मुंबई कांड के बाद तुरत कर देना चाहिए था ,वह अमरीका कर रहा है और हम तालियाँ बजा रहे हैं |है न सोचने वाली बात कि आखिर हमारी विदेह नीति का ध्येय क्या है ,यह भी आज के केंद्र सरकार को मालूम नहीं है ,ऐसे में रह -रह करके बाहरी चुनौती मिलने की आशंका बनी रहती है तो क्या ताज्जुब ?
        इस घोषणा के क्या निहितार्थ हैं ,इसे भी मौजूदा केंद्र समझने में चूक रही है और अपनी राष्टीय  राज्य की चिंता को भूलने की दिशा में अग्रसर है | वह इसलिए कि पाक राष्टपति आसिफ अली जरदारी के अजमेर शरीफ दौरे के लिये सरकार पलक - पांवड़े बिछाए इसके इंतजार में है ,ताकि रिश्ते को नई दिशा अपनी राष्टीय हितों के अनुरूप दिया जा सके ,जो अभी के पाक में व्याप्त स्थिति असंभव तो नहीं लेकिन बेहद मुश्किल सा है क्योंकि वहां के हालात में खुद जरदारी का महत्त्व इनदिनों जबरदस्त संदेह के घेरे में है ,फिर सेना -कट्टरपंथियों के बीच इनकी क्या हैसियत है ,यह विश्व बिरादरी को अच्छी तरह मालूम है |
         ऐसे में ,अमरीका ने सीधे विदेशी आतंवादियों के विरूद्ध में अपनी परराष्ट नीतियों को विस्तार देने के  कोशिश की है ,तो इसके मूल में उसके अपनी राष्टीय चिंता है  ,न कि दुनिया के हितों को सुरक्षित करने की पहल ,जैसा कि अमूमन अपनी हर बात - कारवाई के लिये वह लोकतंत्र ,मानवता ,सभ्य समाज वगैरह की करता रहता है | इससे भारतीय कूटनीति को सिखने की जरूरत है | मसलन , जब संयुक्त राज्य अमेरिका दूसरे देश के आंतकवादी को अपना शत्रु घोषित करता है ,तो वह अपनी राष्टीय चिंता को प्रकट करता है अर्थात ९/११ हमले के पश्चात वह अपने नागरिकों की सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दिए हुए है और इसके आधार पर हर उस दुश्मन को खत्म करने के प्रयास में है ,जो उसकी अस्मिता को चुनौती देते हों | यही वजह है कि एक तरफ पाकिस्तान को आर्थिक मदद की दुहाई  देता है ,तो दूसरी तरफ उसके घर में ओसामा बिन लादेन को मार डालता है और इसके लिये अंतराष्टीय मानक "संप्रभुता" को तोड़ने में तनिक भी हिचकिचाहट उसे नहीं होती लेकिन एक भारत है ,जो प्रतीक्षा करने में ही अपने को कूटनीतिक विजय और राष्टीय हित को सुरक्षित मान लेने के भ्रम में है | ऐसे में चिंता होना लाजिमी है |
             दरअसल , बदलते विश्व परिदृश्य में दुनिया अब सिमट गई है और इसे तेजी से शोधपरक जीवन शैली के देश उसके अनुरूप अपने को ढाल रहे है और इसमें यूरोप - अमेरिका सबसे आगे है ,जिसमे भारत के रणनीतिक तौर -तरीके बाबा आदम के ज़माने से चले आ रहे हैं ,जिसमें अब वह कोई सार्थक लाभ या हित परिलक्षित -दृष्टिगत नहीं है ,जो कभी हुआ करते थे |अब परराष्ट के नियम ,खुल्लमखुला राष्ट हित से जुड़ा है ,जिसमे "नैतिकता" नाम की कोई बात नहीं होती और इस सन्दर्भ में हाल के श्रीलंका के लिये मानवाधिकार पर हुए संयुक्त राष्ट संघ के मतदान में भारत के हितों को नज़रंदाज करने वाला और श्रीलंका को चिढाने वाला रहा है ,फिर इस पडौसी से दुरी बनती दिखे तो इसके लिये कौन जिम्मेदार होगा ? आखिर क्या देश की विदेश नीति ,अमरीका के नज़रिए से संचालित होगी ? इन दिनों तो ऐसा ही दिख रहा है | यही नहीं ,अमरीका साफ कर चूका है कि ईरान के रिश्ते उसके साथ नहीं तो और किसी के साथ नहीं मंजूर किये जा सकते और इसके लिये बहाना लिया है - परमाणु उर्जा के विकास की , जिस ओर यह कदम बढ़ाया है ,उसे प्रतिबंधित करने की कोशिश में वह है |
         इस मुद्दे अर्थात ईरान को लेकर ब्रिक्स देशों की रणनीति को विफल करने और इसके तहत पाक को आतंकवादी पनाहगाह के तौर पर चिन्हित करके अमेरिका ,भारत को अपने पक्ष में करने की कूटनीतिक प्रक्रिया को तेज किया है और इसी परिप्रेक्ष्य में उसके कदम बढे है ,इसे समझने की जरूरत ,देश के विदेश मामलों के संचालकों को होनी चाहिए | यह सदैव याद रखा जाना चाहिए कि लादेन या इससे मिलीजुली धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा देने में अमेरिका खुद संलिप्त रहा है और सोवियत संघ के अफगानिस्तान में घुसने की आड़ में कैसी- कैसी काली कारवाई इसने की है ,यह अब तक अंतराष्टीय राजनय के जानकारों के जेहन से उतरा नहीं है |
           इसलिए भारत के हित में दोस्त -दुश्मन की पहचान अवश्य होनी चाहिये | पाक का निर्माण का आधार धार्मिक कट्टरता है ,वह जबतक खुद के मौजूदा हालात में है ,तबतक यह प्रतिद्न्दी के स्थान पर प्रतिद्वेषी ही बना रहेगा ,यह इसके मुख्य लक्षण है ,जो आसानी से इसके राजनय के ओजारों से हटने वाला नहीं है और इसकी झलक कई बार भारत को पुष्ट साक्ष्य के तौर पर मिला भी है लेकिन आक्रामक विदेश नीति के अनुसरण के आभाव में वह बार -बार "राज्य" नीति के रूप में अंजाम दे रहा है और हम सिर्फ चिल्ला-चिल्ला कर थक गए लेकिन दुनिया के अन्य देश सुनने को तैयार नहीं हैं | ख़ुफ़िया तंत्र को सीधे भारत विरोधी गतिविधियों में इस्तेमाल किया जाना और भारतीय मुद्रा के जाली नोट को बढ़ावा देने जैसे कार्य पाक कर रहा है ,जो अंतराष्टीय नीतियों के खिलाफ है ,इसके बावजूद इस मामले में जैसे -तैसे नीतियों का ही प्रतिफल है कि वह अपनी अवैध राजनय और कूटनीतिक गतिविधियों को रोकने से बाज नहीं आ रहा |स्पष्ट है कि वह शक्ति की भाषा का इंतजार कर रहा है और हम हैं कि अपने राष्टीय हितों को उपेक्षा -दर- उपेक्षा किये जा रहे है ,जिससे उसके मनोबल बढते गए है |आखिर यह सिलसिला कबतक चलेगा ?
              इधर ,अमेरिका अपने "मुनरो सिद्दांत" का विस्तार किये जा रहा है और विना किसी के इजाजत के सीधे अपने शत्रुओं पर वार पर वार किये जा रहा है और भारत केवल तालियाँ बजने के काम में ही अपनी सफलता मान ले रहा है ,जो साफ जाहिर कर रहा कि हम अपनी राष्टीय चिंताओं को दूर करने की दिशा में प्रयत्नशील नहीं है और यही हमारी सबसे बड़ी कमजोरी सिद्द हो रही है | यहाँ पर चीन ,जापान जैसे बड़े समृद्द और वियतनाम ,ईरान जैसे छोटे देश उदाहरण हैं जो किसी भी कीमत पर अपनी राष्टीय अस्मिता को लेकर ढिलाई देने को तैयार नहीं है ,जबकि इनके बीच नस्लीय -जातीय तत्वों के पुट भी आपस में मिलते  है |
           

Tuesday 3 April 2012

बजट की सियासत में चालबाजियां


                       ( एसके सहाय )            
               बोल - चाल की भाषा में आपने सुना होगा कि, देखो वह "हदरल" जैसा खा रहा है ,मानों उसे पुन: भोजन नसीब होगा या नहीं, वह एक ही बार में सब आहार जल्दी -जल्दी खाकर तृप्त होने की चेष्टा कर रहा है | काफी कुछ ऐसा ही ,झारखण्ड में वार्षिक बजट को लेकर राज्य सरकार बर्ताव वह करती रही है और इसका दोषारोपण केन्द्र सरकार पर इस रूप में लगाती है ,जैसे उसके अपेक्षा के अनुरूप विकास मद में राशि नहीं दिए जाने से प्रान्त अबतक समृद्दि से कोसों दूर है ,गोया इसके लिये हम जिम्मेदार नहीं बल्कि केंद्र की कांग्रेसनीत संप्रग सरकार है ,जो केन्द्रीय राशि  देने में पक्षपात करती है, लेकिन सच तो यह है कि राजग शासन कल में भी यही हालात इस राज्य के थे ,तब आरोप - प्रत्यारोप के आयाम नहीं थे ,क्योंकि दोनों एक ही प्रवृति की सरकार थी ,इसलिए यह विषय कभी अटल बिहारी बाजपेयी के प्रधान मंत्रित्व काल में संघर्ष का मुद्दा नहीं बना ,मगर अभी ऐसी बात नहीं है ,इसलिए एकबार फिर से समाप्त हुए वित्तीय वर्ष (२०११- १२) के लेखकीय बजट को जानना समीचीन होगा ,ताकि यह स्पष्ट हो सके कि विकासगत मामलों में कौन उत्तरदायी और किस रूप में हैं |             
              वैसे ,झारखण्ड में एक बार फिर योजनागत -विकासगत राशि करोड़ों में पिछले वित्तीय वर्ष (२०११ -१२) में तय समय में खर्च कर पाने में सरकार सफल नहीं हो पाई |यह पहली दफा नहीं है कि ऐसी स्थिति उत्पन हुई हो , बल्कि राज्य के अस्तित्व में आने के बाद से ही हर साल निर्माणात्मक -संरचनात्मक कार्यों में प्राप्त रूपये को अबतक किसी  भी मुख्य मंत्री के कार्यकाल में समय के साथ पूर्ण या कहें कि खर्च नहीं कर पाने का रिकार्ड भी इस राज्य का है |ऐसे में यदि संघ सरकार चालू वित्तीय वर्ष में योजना मद की राशि में कटौती कर दे ,तब कोई नैतिक हक झारखंड का नहीं है कि उसे लेकर राजनीतिक वितंडा खड़ा करे ,लेकिन भाजपानीत मुख्य मंत्री अर्जुन मुंडा की सरकार क्या सहन करेगी या राजनीतिक लोभ के संवरण करने से बाज आएगी ? पूर्व का इतिहास देखें तो ऐसा नहीं लगता बल्कि जोर -शोर से कांग्रेसनीत संप्रग सरकार को विकास के मार्ग का रोड़ा घोषित करेगी और लोगों को भरमाने के लिये झूठ का सहारा लेगी |अबतक का ऐसा ही नज़ारा रहा है |इसमें आम लोगों को बेवकूफ बनाने और अपनी सत्ता बचाए रखने की रणनीति काम करती है ,जो क्षुद्र मानसिकता वाले प्राय: हर राजनीतिज्ञ करते है और इसी श्रेणी के मुंडा है ,जो खुद और भाजपा के बीच समन्वय स्थापित करने की आड़ में राजभोग में तल्लीन है और इनके साथ झामुमो और आजसू सरीखी बौनी पार्टियां साथ देने को तैयार ही है |
           इस पूरी धोखाधड़ी और राजनीती को समझने के लिये चालू वित्तीय वर्ष (२०१२- १३ )के लिये पारित विनियोग विधेयक को देखें ,जिसमे साल भर के बजट के लिये ३७,११३.८० करोड रूपये स्वीकृत किये गए हैं और इनमें योजना मद के लिये १८,७०९.६७ करोड तथा गैर योजना कार्यों के लिये १८,४०४.१३ करोड रूपये खर्च किये जाने की बात सरकार ने की है ,लेकिन सवाल है कि क्या वास्तव में वर्तमान सरकार की क्षमता है ,जो इतनी बड़ी राशि निशिचत समय पर खर्च कर सकती है ! यह इसलिए संदेह पैदा किया है कि विगत १२ सालों का अनुभव यही बताता है कि बाबु लाल मरांडी ,शिबू सोरेन ,मधु कोड़ा और अर्जुन मुंडा के मुख्य मंत्रित्व में कभी ऐसा आभास नहीं हुआ कि "सरकार गंभीरता एवं चुश्ती" के साथ योजनाओं को धरातल पर उतारने के लिये कृत संकल्प है |
            इस तथ्य की पुष्टि समाप्त हुए वित्तीय वर्ष के आंकड़े खुद करते हैं और शक भी उत्पन्न करते है कि मात्र एक माह में तीन चौथाई राशि बजट के कैसे खर्च कर दिए गए ? वह इसलिए कि २०११-१२ में फ़रवरी कुल बजट का ६५०१.५७ करोड रूपये ही खर्च होने की आधिकारिक घोषणा थी ,फिर अचानक समाप्त हुए साल में ३६०० करोड रूपये खर्च कर दिए जाने की बात सरकार ने कर डाली आखिर यह कमाल कैसे हुआ ? यह इसलिए भी सोचनीय वाली बात है कि केन्द्र सरकार बराबर यह तोहमत झारखण्ड  पर लगाती रहती है कि वह दिए गए राशि का समय में उपयोग नहीं करती और अधिक राशि मांगने के फोबिया से यह ग्रस्त रहती है |ऐसे सवाल उठाना वाजिब ही कहा जा सकता है मगर इसका भी जवाब राज्य सरकार ने तैयार कर रखा है और कहा भी है कि केन्द्रीय आवंटन हाल में जैसे ही मिला ,उसे तुरत खर्च कर दिए गए इसलिए कि योजना पूरी कर ली गई थी !
     इसमें क्या सच है और क्या झूठ ,इसका दस्तावेजी सबूत ही साक्ष्य हो सकते है . जिसका कौन पहले खुलासा करता है ,इसका इंतजार है | ऐसा इसलिए कि दोनों ही सरकार अपने -अपने तरीके से एक दूसरे को इल्जाम में घेरते रहने के प्रयत्न में हमेशा रही है .क्योंकि दोनों ही इस वक्त एक -दूसरे के विपरीत राजनीतिक समूह के प्रतिनिधित्व कर रहे हैं |  
                    बहरहाल ,झारखण्ड का गत साल का वार्षिक बजट १५३२२.७५ करोड का था |बाद में ,खर्च नहीं कर पाने की आशंका के बीच राज्य सरकार ने केन्द्रीय मदद को देकते हुए इसके आकार में कमी की और फिर १२२३२.६५ रूपये के वार्षिक बजट बनाये ,जिसमें प्राप्त आवंटन १०४०२.८५ करोड रूपये घोषित हुए ,जिसमें बताया गया कि इसमें अबतक अर्थात बीती ३१ मार्च तक १०१००.२२ करोड रूपये खर्च कर दिए गए हैं |  
           अतएव , इस सन्दर्भ में मुख्य मंत्री अर्जुन मुंडा की तरफ से क्या करवाई होती है ,इसे देखा जाना बाकी है ,वह इसलिए कि मुंडा ने बराबर अधिकारियों को चेतावनी दी है कि यदि समय पर याने चालू वित्तीय वर्ष में योजना मद की राशि खर्च नहीं की गई ,तब सरकार सबंधित अधिकारीयों के विरूद्ध दंडात्मक कदम उठायेगी लेकिन अब कहा जा रहा है कि समीक्षा में दोषी पाए जाने पर विभागों के सचिवों के खिलाफ नकारात्मक चारित्रिक टिप्पणियाँ लिखी जायेगी | साफ है कि स्वयं अकर्मण्य सरकार कैसे सख्त कारवाई कर सकती है ? जबकि वह खुद विकास पर कम और राजनीतिक चालबाजियों पर ज्यादा ध्यान देने में मशगुल है ,जिससे कि सरकार के स्थायित्व का खतरा टालता रहे ,यही आज झारखण्ड का मूल संकट है ,जिसमें हर पक्ष किसी न किसी रूप में प्रत्यक्षमान है |
         जाहिर है कि विगत वित्तीय वर्ष में कुल बजट के ८२.९७ फीसदी खर्च किये जाने की बात सामने आई है ,जिसमें १२,२३२.६५ करोड में से १०,१००.२२ करोड खर्च किये जाने का दावा है और इसमें फ़िलहाल पांच विभागों के खर्च राशि में ३८ से ६२ प्रतिशत राशि खर्च नहीं होने के संकेत है | मसलन ,सूचना प्राविधिक क्षेत्र में ३७, समाज कल्याण में ५९.५७, उर्जा में ६२.३२ ,भवन निर्माण में ६५.१० ,स्वास्थ्य में ६६.१३ और विज्ञान प्रौधोगिकी के लिये ४६८.९१ प्रतिशत राशि ,इनके लिये निर्धारित बजट में से खर्च हुई है ,जबकि अभी सड़क, पेयजल , बिजली , ग्रामीण विकास , कृषि ,सिंचाई कल्याण जैसे निर्माणात्मक ,संरचनात्मक एवं विकासगत महकमों-क्षेत्रों -विषयों के समीक्षा किया जाना शेष है |