Thursday 19 January 2012

सेनाध्यक्ष सिंह का न्यायालय में जाना अनुशासनहीनता का परिचायक है


भारतीय थल सेनाध्यक्ष वीके सिंह का अपनी उम्र को लेकर लोकतान्त्रिक व्यवस्था के तहत न्यायिक पद्धति के समक्ष गुहार लगाने से एक बात स्पष्ट है कि "अब राष्ट -राज्य की अवधारणा  विशिष्ट जनों के मध्य कमजोर पड़ गई है ,यदि ऐसा नहीं होता तो एक व्यवस्था के लिए गए निर्णय के विरूद्ध  वह अपनी आयू को लेकर अभियाचना कदापि नहीं करते |"
अर्थात सिंह का उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खट खटाना किसी भी राज्य -देश की व्यवस्था को चुनौती देने जैसा कदम है और यह "अनुशासनहीनता " है ,ऐसे में इनको तत्काल बर्खास्त कर दिया जाना ही उचित है | ऐसा इसलिए कि हम लोकतान्त्रिक व्यवस्था के नागरिक तो है लेकिन उसके पहले एक देश के व्यवस्थित एवं सभ्य नागरिक भी है ,जो भौगोलिक सीमाओं से बंधा हुआ ,राष्ट -राज्य के रूप  में मौजूद है  |
सेनाध्यक्ष का कदम लोकतान्त्रिक समाज के समष्टि में उचित और वैध हो सकता है ,परन्तू  जहाँ व्यवस्था के नेतृत्व के निर्णय को चुनौती देने जैसे प्रश्न है ,वह कदापि राष्ट--राज्य की संकल्पना  के विपरीत है ,जिसे वर्तमान सरकार ( व्यवस्था )के लिए असहनीय है |
यहाँ पूर्व में रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाडिज के हाथों बर्खास्त नौ सेनाध्यक्ष विष्णु भागवत का दृष्टान्त   सामने है |
तात्पर्य यह कि  जनतांत्रिक व्यवस्था में ही कुछेक विषय ऐसे होते हैं ,जिसे देशकाल के दृष्टिकोण से कभी चुनौती दिए जाने की प्रक्रिया को ,कोई भी सत्ता बर्दाश्त  नहीं कर सकती  ,जैसा कि संघ सरकार ने  उच्चतम न्यायालय में अपनी बात रखने की पहल की है |