(एसके सहाय)
कुछेक दिन पूर्व दिल्ली के मुख्य मंत्री
अरविन्द केजरीवाल ने दिल्ली पुलिस के कार्य पद्धति के विरूद्ध धारणा दी थी और इस
आंदोलनात्मक कदम की राजनीतिक,प्रशासनिक एवं संवैधानिक हल्कों में जबर्दस्त अनुगूँज
सुनाई पड़ी थी ,जिसका असर यह है कि अब उच्चतम न्यायालय इस पर सुनवाई जनित विचार
करने को विवश है | यह देखने ,सुनने में सामान्य सी परिघटना है ,मगर वैसा वास्तव
में नहीं है ,जिसे नजरंदाज कर दिया जाये | विशेष कर, उस बयान के बाद ,जब केजरीवाल
कहते हैं कि "उन्होंने दो -दो बार संविधान को पढ़ा है ,जिसमे एक मुख्य मंत्री
को धरना देने पर रोक /मनाही नहीं है |"
अतएव , इस विषय पर गहन मंथन की आवश्यकता
है |जरूरत इसलिए कि अगर एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सत्ता पर विराजमान शख्स खुद
सामाजिक मुद्दे पर आंदोलनात्मक रूख अख्तियार करने लगे ,तब शासन के ' चलायमान' पर
खतरे मंडराने लगेंगे ,फिर समाधान आखिर कौन करेगा ? इस स्थिति में अराजकता उत्पन्न
होना स्वाभाविक है ,जो कि किसी भी वैध शासन के लिये नुकसानदेह साबित होने निश्चित
हैं | ऐसी परिस्थिति में लोगों में किकर्तव्यविमूढ़ के हालात पैदा होगें ,जो सत्ता
को ही खाक में मिला देगा, जो कमोबेश जंगल राज से कम नहीं होंगे|
केजरीवाल जिस मुद्दे को लेकर धरना पर बैठे थे
, उस मुद्दे को लेकर उनकी पार्टी आंदोलन करती ,तब बात कुछ समझ में आती ,लेकिन यहाँ
तो सरकार ही आंदोलनरत है ,फिर समाधान कैसे होगा ? यह प्रश्न आज भी राज प्रेक्षक
तलाश रहे हैं ,किन्तु निदान अबतक सामने नहीं आ पाया है ,जो बौद्धिक चिंतकों के
लिये गंभीर बात है |
घटना क्या थी , कानून मंत्री सोमनाथ भारती
, दिल्ली पुलिस को अपने जाँच -पड़ताल के बाद निर्देश देते हैं कि वह काले धंधे में
अंतर्लिप्त विदेशी महिलाओं के खिलाफ कारवाई करे ,जिसे वह मानने से इंकार कर देती
है और इसी को अपना अपमान समझ मुख्य मंत्री केजरीवाल क़ानूनी रूप से वर्जित स्थल पर
धरना देते बैठ गए , जो निषेधाज्ञा का खुल्लम खुल्ला उल्लंघन था |इनकी मांग थी कि
मंत्री के बात नहीं मानने वाले पुलिसकर्मियों को दंडित किया जाये |
यह सब जानते हैं कि दिल्ली अर्ध राज्य है
,जिसके दायरे में पुलिस महकमा नहीं आती है ,सो तत्काल पुलिस ने मंत्री के निर्देश
को कानून सम्मत नहीं मानते हुए भारती के निर्देश को मानने से इंकार कर दिया ,जो
अपरिहार्य भी था ,ऐसा इसलिए कि मामला विदेशी महिला और कूटनीतिक मामलों से जुड़ा था
|सो, कम से कम ऐसी अल्प जानकारी भी सत्ता पर काबिज मंत्री को होना चाहिए ,वह भी एक
कानून मंत्री को ,इतफाक से भारती खुद भी एक अधिवक्ता रहे हैं|
कायदे से दिल्ली सरकार को पुलिस के बारे
में केंद्र सरकार को पूरे वाक्यान्त से रूबरू करते हुए उसके विरूद्ध कारवाई की
अनुशंसा करने चाहिए थी ,मगर सस्ती और टुच्ची लोकप्रियता अर्जित करने के लोभ में
स्वंय ही धरनारूपी आंदोलन पर उतर गई ,जो इसके दायित्व बोध से इत्तर था और इसे किसी
भी सभ्य राज्य में मंजूर नहीं किया जा सकता | यह हो सकता था कि केंद्र उसके
सिफारिश को मानने से इंकार करती ,तब 'आप' आंदोलनात्मक गतिविधियों को संचालित करती
,तब दल एवं सरकार के भेद से शासन व्यवस्था में साम्य बैठती , मगर दुर्योग से हठी
राजनीति ने साफ कर दिया कि अभी देश में योग्य सत्ता के सूत्र मजबूत नहीं हैं ,केवल
आंदोलन करना ही अभी भारत ने सिखा और जाना है |
स्पष्ट है कि यदि सत्तासीन व्यक्ति खुद
आंदोलन/क्रांति जैसे विरोध/प्रदर्शनों पर सक्रिय रहे ,तो आखिर आम लोग अर्थात जन
साधारण किस्से समस्या के संधान की अपेक्षा करे ! भारत जैसे लिखित संविधानवाले देश
में दिल्ली की सरकार के क्षेत्राधिकार में पुलिस अर्थात कानून -व्यवस्था के अंग
नहीं आते ,यह सबको मालूम है ,फिर उसे मुद्दा बनाकर धरना देना कभी उचित नहीं हो
सकता ,यह राजनीतिक मांग हो सकती है वह भी दलगत राजनीति के एक उपकरण की तरह ,
परन्तु एक सरकार को उसे लेकर सड़क पर उतरने और अगुवाई करने से व्यवस्था में क्षरण
होगा ही ,जैसा कि कई मौके पर बातों ही बातों में केजरीवाल ने अपने को
"अराजकतावादी" कहने से भी नहीं चुके हैं ,जो इशारा करता है कि वह अपनी
जिद के लिये तर्क-वितर्क और उचित -अनुचित के साथ संवैधानिकता का भी ख्याल करने को तैयार
नहीं है ,ऐसे स्थिति में संवैधानिक संकट सा दृश्य उत्पन्न होता हो ,तो आश्चर्य
नहीं |
संविधान पढ़ने के दावे करना और उसमे
"धरना" जैसे शब्द की तलाश करना और जब वह मुख्य मंत्री के सन्दर्भ में
कहीं उल्लेखित नहीं होना का मतलब यह नहीं कि अरविन्द केजरीवाल संविधानविद हैं | यह
उनकी 'अधकचरी' दिमाग की उपज है ,जो संविधान में 'शब्द' खोजते हैं और फिर थेथर की
भाषा में यह कहते हैं कि संविधान में धरना देने में कोई पाबंदी नहीं है |
वैसे, संक्षिप्त में जाने कि भारतीय
संविधान में मौलिक अधिकार का जिक्र है और उसमे ही एक परिच्छेद में स्वतंत्रता एवं
अभिव्यक्ति के तहत विरोध जतलाने का उपखंड उल्लेखित है ,जो सामान्य स्थिति में आम
भारतीयों के लिये है ,न कि सत्ता पर बैठे मंत्रियों के लिये | धरना दिया ही जाना
जरूरी है ,तब पहले संवैधानिक पदों पर आरूढ़ नागरिक को इस्तीफा देना चाहिए ,ताकि
अर्थ शास्त्र की तरह मांग एवं पूर्ति के सिन्धांत की तरह राजनीति में भी साहचर्य
एवं समन्वय स्थापित किया जा सके | इसी बात को सर्वोच्च न्यायालय ने पकड़ लिया है और
केजरीवाल ,संघसरकार और अन्य को धरना के बाबत जवाब तलब किया है |यह अलग बात है कि
फ़िलहाल न्यायालय ने दिल्ली पुलिस के रूख की सराहना की है | अंतिम टिप्पणी क्या
होता है ,इसका देश को इंतज़ार है |
आजादी के बाद शायद यह पहला मौका था ,जब एक
सरकार का मुखिया कानून व व्यवस्था को लेकर आंदोलन कर रहा हो | १९७७ में जानता
पार्टी कई घटक दलों के मिलन से अस्तित्व में आई थी ,इनमे काफी तीखे अंतर्विरोध थे
, चौधरी चरण सिंह एवं राज नारारायण के नेतृत्व में प्रधान मंत्री मोरारजी भाई
देसाई के खिलाफत जारी थे ,इसके बावजूद इन सबों ने मंत्री के पद पर रहते अपनी सरकार
के विरूद्ध सड़क आंदोलन नहीं किया ,किया भी तब वह मंत्रिमंडल से अलग हो गए | यही
हाल १९८९ में गठित विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधान मंत्रित्व काल का था ,चंद्रशेखर
असंतुष्ट थे और उप प्रधान मंत्री देवी लाल इनके करीब थे मगर देवी लाल ने कभी सत्ता
में शामिल रहते आंदोलनरत नहीं हुए | यहाँ यह ध्यान में रखना जरूरी है कि प्रधान मंत्री
राजीव गाँधी के वक्त हरियाणा में मुख्य मंत्री देवी लाल ही थे और बोफोर्स ,फेयर फैक्स
जनित भ्रष्टाचार को लेकर देश में आंदोलन काफी तेज थे ,जिसमे देवी लाल की भूमिका विपक्ष
की हैसियत से काफी महती थी और जन सभाओं में इनकी मौजूदगी होती थी ,मगर सड़क पर इन्कलाब
करते इनकी उपस्थिति कभी नहीं रही ,जो इनके एक सरकार के दायित्व बोध को प्रकट किया था
,इनकी पार्टी आंदोलनरत रही ,मगर सीधे उसमे कभी हिस्सा नहीं लिये | ऐसे में ,केजरीवाल
में यदि इतिहास भूगोल के ज्ञान का अभाव झलकते हैं ,जो सत्ता के बचकानापन के संकेत देते
हैं |
दरअसल ,केजरीवाल अपने जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ते
नजर आये हैं , कम से कम यह फर्क समझ में आनी ही चाहिए थी कि सरकार और दल ,दोनों अलग
-अलग प्रक्रिया है | क्षेत्राधिकार का बोध उनमे होता ,तब वह कारवाई के लिये केंद्र
को ठेठ भाषा में काहे तो ,लिखा -पढ़ी करते और साथ ही आम आदमी पार्टी सीधे आंदोलनरत होती
,जिसके पीछे दिल्ली सरकार के नैतिक ताकत काम करती ,तब नज़ारा ही कुछ और होता ,संयोग
कहें या 'आप' पार्टी के दुर्योग कि उसके मंत्री भारती के कारनामे एवं बयानबाजी उन सभी
के लिये निकट भविष्य में गल्ले की हड्डी बनने की जमीन तैयार कर दी है |
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