(एसके सहाय)
पहले कांग्रेस और अब भाजपा पूरी तौर पर लोक
सभा चुनाव के मन:स्थिति में है | संयोग ऐसा कि कांग्रेस ने अपनी कार्य एवं राष्टीय समितियों के बैठक में अपने लिये एक
अदद संभावित प्रधान मंत्री के नाम का खुलासा करने से परहेज़ किया ,वहीँ भाजपा के
राष्टीय परिषद में गुजरात के मुख्य मंत्री नरेन्द्र मोदी ने पार्टी की ओर से घोषित
प्रधान मंत्री के हैसियत से "मतदाताओं" के बीच खुद और भारतीय जनता
पार्टी के लिये "वोट बैंक" की आधारशिला तैयार करने की पृष्ठभूमि पैदा
उत्पन्न करने के हरचंद कोशिश की है | इतफाक ऐसा कि सत्ता में आने के पूर्व अपने
कार्यक्रम दोनों पार्टियों ने देश की राष्टीय राजधानी "दिल्ली" में किये
हैं ,जिसका असर कितना राष्ट्व्यापी होगा ,उसका थाह चुनाव परिणाम आने के बाद ही
चलेगा |
अतएव , इन दोनों राष्टीय पार्टियों के
रणनीति का आकलन क्या होंगे ,इन दिनों राज प्रेक्षकों के बीच यह माथा-पच्ची का विषय
बन गया है ,जिसमे भाजपा को फिलवक्त बढ़त के आसार दीखते हो ,तो अचरज नहीं , यह
स्वभाविक भी है | विधमान सत्ता के विरूद्ध
जनतंत्र में आक्रोश का प्रतिफलन ज्यादा चमकदार होता है , काफी कुछ कांग्रेस पर
भाजपा के हमले इसी तरह के हैं ,जो अतिरंजित प्रतीत नहीं होते |
यह तो आम धारणा आजादी के काल से रही है कि
भाजपा (पूर्व में जनसंघ) दक्षिणपंथी शक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाली राजनीतिक
समूहों का "समुच्चय" है , जिसमे अगड़ों -पिछडों में विभेदकारी तत्वों का
समावेश होना कोई खास मायने नहीं रखता | धर्म ,संस्कृति ,परम्परा ,इतिहास जैसे तत्व
इसके जीवाणु हैं , जिसमे समुदाय -जाति की अहम भूमिका है ,जिससे यह पीछे हट नहीं
सकती | अनुदार और कट्टरता इसके खास पहचान हैं ,जिसे लेकर बार -बार भाजपा को अपने
में हुए परिवर्तन के बारे में सफाई देने की जरूरत जब -तब पड़ती रही है | ऐसी स्थिति
में जब मोदी यह कहते हैं कि " कांग्रेस का नेतृत्व अपने को उच्च और संभ्रांत
समझता है ,जिसे पिछड़ा ,निर्धन तथा चाय बेचने वाले को प्रधान मंत्री बनना गंवारा
नहीं ", तब इसके चुनावी मौसम में गहरे अर्थ है |
वैसे, पूर्व में अपने को राजद प्रमुख लालू
प्रसाद यादव और सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव अपने को परोक्ष तौर पर पिछड़ा घोषित
करके क्रमश; बिहार और उत्तर प्रदेश में गत शताब्दी के अंतिम दशक में सफलता के परचम
फहरा चुके हैं ,तब मंडल आयोग जनित "आरक्षण" का मुद्दा गरम था ,जिसके राह
में हिंदुत्व अर्थात राममंदिर-बाबरी मस्जिद का आकर्षण कम तो नहीं था ,लेकिन इसमें
इष्ट की भक्ति में "रोजगार" के ललक ने अवरोध उत्पन्न किये , जिससे भाजपा
जीत करके भी वह मंजिल नहीं पा सकी ,जिसकी वह वास्तव में अधिकारिणी थी |
काफी हद तक नरेन्द्र मोदी का राम लीला
मैदान में दिए गए भाषण का लब्बो -लुआब यही है | पिछड़ा ,चायवाला का जिक्र बार -बार
करके भाजपा के इस नेता ने जाहिर कर दिया है कि चुनावी जंग जितने के लिये हर उस
हथकंडे/फंडे का इस्तेमाल करने से पार्टी नहीं हिचकेगी | विशेषकर ,हिंदी पट्टी वाले
राज्यों में सामाजिक समीकरणों में पिछड़े तबके में शुमार जातियों का अपना महत्त्व
शुरू से रहा है | यूपी -बिहार इसके सबसे बेहतर उदाहरण हैं ,जहाँ स्वतंत्रता
प्राप्ति के बाद से ही सवर्ण शक्तियों का प्रभाव राजनीतिक ,सामाजिक और प्रशासनिक क्षेत्रों
में इसलिए रहा कि अधिसंख्य आबादी के पास "राजनीतिक समझ" नहीं था और थोड़ी
समझ भी था ,तब इनके नुमाइंदे सत्ता में "पिछलगू" ही थे ,जिन्हें राजनीति
के शिखर नसीब नहीं थे ,यह हाल कांग्रेस काल में ज्यादा रहा है |
बाद में जब "आरक्षण" के बहाने
पिछडों में राजनीतिक जाग्रति अपने हकों को लेकर आई ,तब कांग्रेस -भाजपा हवा हो
चुकी थी ,जहाँ मुलायम ,लालू एवं मायावती
अपने -अपने जातीय आग्रहों -विग्रहों के बीच सशक्त धुर्वीकरण स्थापित करके
"सता का स्वाद चख रहे थे | ऐसे में इन दोनों प्रान्तों के सवा सौ से अधिक
सीटों की उपयोगिता से कैसे मोदी अपरिचित रह सकते हैं | बिहार में भाजपा की रणनीति
देखें , तो जाहिर होगा कि प्रतिपक्ष के
नेता नंद किशोर यादव हैं ,जिनके समक्ष पूर्व उप मुख्य मंत्री सुशील मोदी को पार्टी
ने वरीयता प्रदान की है | इसमें एक खेतिहर समुदाय से ,तो दूसरा व्यापारिक वर्ग से
ताल्लुकात रखते हैं | काफी कुछ उत्तर प्रदेश में संख्या को कल्याण सिंह के काल में
भाजपा ने इसी तरह चुनावी गणित को ब्राह्मणों के साथ साधा था ,जिसमे कल्याण खुद एक
पिछड़े समुदाय से जुड़े थे | यह अलग बात है कि परवर्ती काल में कैसे यूपी में सभी
समीकरण भाजपा के उलट हो गए |
बहरहाल ,मोदी ने अपनी मंशा जाहिर कर दी है |
यह संख्या के अनुपातिक लिहाज से काफी प्रभावी भी है | देश में कुल आबादी में पिछड़े
समुदायों की सहभागिता बावन फीसदी है , जिसमे पैंतीस प्रतिशत के हिस्सेदार केवल
बणिक वर्ग हैं ,जो हर गांव में किसी न किसी रूप में हल्दी -नमक से लेकर बड़े -बड़े
कारोबार में संलिप्त हैं | अगर यह एक बार "मन" बना ले कि "प्रधान
मंत्री" की गद्दी पिछड़े नेता को नसीब हो ,तब केन्द्रीय सत्ता में बदलाव होने
में तनिक भी देर नहीं होगी | मोदी के पिछड़े थ्योरी के नेपथ्य में यही योजना /कहानी
है |
फ़िलहाल में देश के राजनीतिक फिजां में कोई भावनात्मक
मुद्दे नहीं कौंधे हैं | यह स्थिति किसी के लिये भी लाभप्रद -हानिप्रद हो सकती है |
मंहगाई ,भ्रष्टाचार जैसे मसले कांग्रेस और इसके नेतृत्व में सक्रिय संप्रग के लिये
गंभीर हैं ,तो दस वर्षों तक विपक्ष की राजनीति करते आई भाजपा के लिये नई अवसर भी २०१४
के लोक सभा चुनाव ने दिया है | कांग्रेस हताश है ,तो भाजपा हौसलों से लबालब भरी है
| इसमें क्षेत्रीय दलों की मौजूदगी ही इनके ताकत को कम या अधिक कर सकती है | इसमें
देखना ज्यादा दिलचस्प होगा कि इस दफे के चुनाव में स्थानीय मुद्दे कितने असरकारक होते
हैं और राष्टीय मुद्दे कहाँ -कहाँ आम भारतीयों को कौन -कौन नजरिये से प्रभावित करते
हैं |
और अंत में यह कि पोंगापंथी चोले को उतार कर
अधुनातन प्रवृति से लैस होने की प्रक्रिया में भाजपा किस तरह नरेन्द्र मोदी को "आत्मसात"
करती है ,यह भी नतीजे आने के बाद स्पष्ट होंगें | मोदी ने तो अपनी तरह से लौहपुरूष
सरदार बल्लभ भाई पटेल को प्रतिमान बनाकर खेतिहर जातियों को गोलबंदी के लिये उकसा ही
दिया है ,जिसमे यदुवाशियों , कुर्मी ,कोइरी ,लौध , धानुक सरीखे उत्तर-पूर्व-मध्य भारत
के इन समुदायों के बीच अपने बणिक वर्गों को समाहित करके नये प्रयोग कर डाले हैं और
हमेशा सवर्ण समुदायों के हितचिन्तक समझी जाने वाली भाजपा को भी बदलाव के देहलीज पर ला खड़ा किया है ,इसका फायदा
किस रूप में होगा ,इसके लिये तीन माह के इंतजार करने होंगे |
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