Wednesday, 1 January 2014

परिवर्तित रंग में झारखण्ड


                    (एसके सहाय)
      अपने स्थापना काल से राजनीतिक स्थायित्व की तलाश में तेरह वर्ष गुजर जाने के बाद भी झारखण्ड में अस्थिरता का दौर ही बने रहने के आसार हैं | निकट भविष्य में इस राज्य को कोई ठोस ठौर मिलने की उम्मीद नहीं है , जैसा कि अब खुल्लम -खुल्ला "भ्रष्टाचार" के मुद्दे विधान सभा में 'नाम' सहित आने के बाद भी पक्ष -प्रतिपक्ष यह साफ तौर पर यह नहीं बता सका कि "बसंत सोरेन' कौन है ? जाहिर है कि जोड़ -तोड़ और गठबंधनों के जरीये सत्ता हासिल करने के विकल्प खुले रखने में ही प्राय: सभी दल विश्वास पाले हुए हैं , तब राजनीतिक अराजकता से छुटकारा मिले ,तो कैसे ? इस राज्य की मूल समस्या यही है |
                          यह चर्चा इसलिये अहम है कि "बालू घाटों" के ठेके पर दिए जाने के मसले ने सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में इतने तेजी से 'मथा' है कि सत्र के दौरान ही इसके नेपथ्य में हुई काली लेन-देन में उपजी भ्रष्टाचार पर हुई बहस में बसंत सोरेन का नाम अचानक उछल गया, इसके बावजूद विपक्ष के किसी विधायक ने उस नाम के शख्सियत को "शिनाख्त" नहीं की, जो इंगित करता है कि 'भविष्य' के गठजोड़ को ध्यान में रखकर किसी ने उस शख्स की पहचान अपने जुबान से नहीं की ,जबकि पूरा झारखण्ड उसे पहले से ही मुख्य मंत्री के भाई और झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन के पुत्र के रूप में जान चूका था |
        तात्पर्य यह कि 'कर प्रबंधन एवं ग्राम पंचायतों के विकास' के नाम पर तिजोरी भरने की यह नायाब तरीके भ्रष्ट सत्ता में ही दिकदर्शित है और इसमें पूरा राजनीतिक समाज गले में  आकंठ तक डूबा है , तो कैसे अराजक तस्वीर से झारखण्ड को मुक्ति मिलेगी ? यह यक्ष सवाल राज्य के लोग पूछ रहे हैं , मगर कोई संतोषप्रद जवाब देने को तैयार नहीं है ! जहाँ राजा भोज और गंगुआ तेली एक जैसे हो , तो उम्मीद बंधे तो कैसे ?
       वैसे ,गत २९ दिसंबर को भाजपा के प्रधान मंत्री पद के प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी ने लोक सभा के अगले चुनाव के परिप्रेक्ष्य में एक ख्वाब दिखला गए हैं और सूबे की बदहाली ,गरीबी ,कुशासन जैसे हालात के लिये केंद्र और राज्य में बैठी सरकारों को जिम्मेदार बताया है लेकिन वह भूल गए कि खनिज - वन संपदा से परिपूर्ण इस प्रान्त की सत्ता में १३ सालों में तीन चौथाई काल भाजपानीत सरकार ही आरूढ़ रही है , जो अपनी तिकड़मों से इसे बदतर ही बनाने में योगदान दी है |
              इस सन्दर्भ में एक उदाहरण ही है ,इसे समझने के लिये पर्याप्त -- केंद्र सरकार ने स्कूली बच्चो को पोशाक निशुल्क उपलब्ध कराने के मद में ७३५ करोड रूपये झारखण्ड सरकार को २०१० में दी थी ,मगर दो साल बीत जाने के बाद भी छात्रों को पोशाक नहीं मिल सका | ऐसा इसलिए नहीं हुआ कि अर्जुन मुंडा एवं इनके मानव संसाधन मंत्री बैधनाथ राम इसमें "कमीशन" की चाह पाल रखे  थे और इसके लिये अनावश्यक रूप से केंद्र को पत्र लिखकर अनुनय करते रहे कि एक जगह से ही पोशाक के कपडे ख़रीदे जाएँ , तब उसे स्कूलों को आपूर्ति किया जाये , जबकि केंद्र सरकार का सख्त निर्देश था कि विकेन्द्रीकृत तरीके से पोशाक की राशि स्कूलों को दी जाये ,जिसके लिये विद्यालय प्रबंध समिति ही क्रय के अधिकृत हों |मगर भाजपा की सरकार ने इसे लटकाए रखा | भला हो , राष्टपति शासन का , जिसने राज्य की कमान सभालते ही समुची राशि, विद्यार्थियों के अनुपात में विद्यालयों को भेज दिया और बच्चों को सहज तौर पर प्राप्त भी हो गए | क्या यह भ्रष्टाचार का चेहरा नहीं है ? इसी तरह के मामले पाठ्य पुस्तकों के खरीदगी और आपूर्ति के हैं ,मगर इसपर कोई ठोस एवं त्वरित कदम के अभाव ने साफ -साफ भ्रष्टाचार कई दफे दिखलाया है , फिर भी यह ख़ामोशी पक्ष -विपक्ष के मध्य है ,आखिर क्यों ?
        इन दो उदाहरणों से प्रकट है कि बदलते समय के साथ झारखण्ड में अब खुल्लेआम अवैध कमाई पर परस्पर विरोध नहीं है , विरोध केवल अपने -अपने हिस्सेदारी को लेकर है | बालू घाटों को लेकर सत्ता पक्ष के कांग्रेस -राजद ने हाय -तौबा मचाया ही , साथ में विपक्ष के भाजपा ,आजसू और झाविमो ने भी कम कोहराम नहीं किया , परिणाम वही ढँक के तीन पात की तरह है , जिसमे सभी नंगे हैं |
      १५ नवंबर २००० को झारखण्ड अस्तित्व में आया था , तब कुछेक लाज -शर्म की आबो -हवा राजनीतिक हल्कों में थी , मगर शनै:शनै: इसके रंग में बदलाव होते गए ,कभी भाजपा के लिये सहयोगी की भूमिका निभाहने वाले झामुमो राज्य गठन के साथ ही ,इससे बिदक कर कांग्रेस की झोली में बैठ गई और जब इसके सहारे सत्ता की मलाई खाने के मौके नहीं मिलने के संदेह उत्पन्न हुए ,तो भाजपा के संग हो लिये , उसपर तुर्रा यह कि विकास के नाम पर राज्यवासियों को बरगलाने की कोशिश !
         इस राज्य में राजनीति के सभी सिन्धांत और इससे निसृत विचारधारा की सीमाएं टूट गई , जब जिसे जो लाभकारी प्रतीत हुआ , उसके साथ हो लिये ,वाली राजनीति ही झारखण्ड में प्रभावी रही | गजब तो उस काल में हुआ , मधु कोड़ा के मुख्य मंत्रित्व काल में चंद्र प्रकाश चौधरी इसमें शामिल रहे , यह आजसू के विधायक थे और इस पार्टी ने कोड़ा के विरोध में अपने को घोषित कर रखा था मगर चौधरी के इस व्यवहार को , कभी इनको पार्टी स्तर से कोई राजनीतिक परेशानी नहीं होने दी , यह इसलिए संभव हो सका कि पार्टी प्रमुख सुदेश महतो के वह सगा मौसा थे अर्थात दल -बदल और अनुशासन सबंधी सभी नियम इनके लिये ताक पर थे | है न दिलचस्प नजारा !
        ऐसे में , झारखण्ड में वर्तमान राजनीति परिदृश्य परिवर्तित स्वरूप में दिखती हो तो ,अचरज नहीं | इसके रंग में मौका परस्ती अव्वल है | शब्दों की बाजीगरी के साथ बेशर्म कदम इसके हदों को तोड़ते नहीं ,बल्कि जोड़ते है , ऐसी मानसकिता के बीच इस राज्य में लोक सभा के चुनाव चालू साल में होने हैं ,जहाँ राष्टीय और क्षेत्रीय दलों के बीच की दूरियां सिमट गई प्रतीत है , फिर गठजोड़ हो तो,  न हो तो, क्या फर्क पड़ता है , जीत तो बेमानी ही है न आम लोग के लिये !
        भ्रष्टाचार को लेकर बदनाम हुए मधु कोड़ा को अपने में समाहित करने में बेकरार कांग्रेस , तो नरेन्द्र मोदी के असरकारक होने के भान ने भाजपाइयों को इतना उत्प्रेरित कर रखा है कि मानो इनके हाथों में इनके होने से लड्डू मिल ही जायेगा | यह ख्याली पुलाव कैसे इनके अलावे झामुमो ,झाविमो और आजसू के हैं , यह उल्लेखित किया जाये तो पूरी राम कहानी  कभी नहीं पूरी हो पायेगी |

        सो , अब इस राज्य में चुनावी रंग में परिवर्तन के लक्षण दिखने लगे हैं और इसमें किसी को सराहने और दुराहने जैसी को नई बात नहीं है ,बल्कि यह समझा जाये कि राजनीति के हमाम में सभी नंगे हैं | मौजूदा ,जो सांसद हैं , वही थोड़ी -बहुत परिवर्तन के साथ लोक सभा में रंग भरेंगे ,ऐसा परिलक्षित है |

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