( एसके सहाय )
भारतीय राजनयिक
देवयानी के मामले में अमरीका के प्रति इतनी तीव्रता एवं दृढ़ता से देश में
प्रतिक्रिया होगी , यह कभी संयुक् राज्य अमेरिका ने कल्पना नहीं की होगी , लेकिन
जो सामने है , उसे अब दुनिया के अपने को दरोगा समझने वाले अमरीका को एहसास हो गया
होगा कि भारत वह नहीं है , जो वह समझता है बल्कि वह है , जो अब उसके सामने है |
इसलिए , जरूरी है कि एक नजर उस स्थितियों पर नजर डाली जाये , जिसके जवाब में देश
ने ऐसा सख्त कदम उठाने को विवश हुआ |
इसे जानने - समझने के पूर्व
इन्द्र कुमार गुजराल के अल्प समय अर्थात एक वर्ष के प्रधान मंत्रित्व काल को
झांकना होगा , तब कश्मीर के मुद्दे विश्व में गंभीर विषय के तौर पर चर्चित और
सुलगे थे और इसी को लेकर पाश्चात्य देश ,भारत के विरूद्ध चेतावनी दे रहे थे ,
जिसमे आस्ट्रेलिया ने कूटनीतिक रिश्ते भी तोड़ कर अपने गुस्से का इजहार किया था
,इसके अलावा , ब्रिटेन के विदेश मंत्री जैक स्ट्रा ने कश्मीर को विश्व में "सर्वाधिक जलते मुद्दे" की बात कर
इसमें पाक -भारत के बीच चिंगारी भरने की कोशिश की थी |ऐसे में गुजराल ने जिस दृढ़ता
से अपनी बात दुनिया के समक्ष रखी और उसका जो फल निकला , वाकई में देश को
गौरवान्वित करने वाला है |
इन भारत विरोधी विश्वव्यापी बयानों
से गुजराल कभी विचलित नहीं हुए बल्कि इनके वह बात जिसमे कहा गया था कि " दो
नम्बर के देश (ब्रिटेन) अपनी धौंस हमपर (भारत) दिखाते हैं ,उन्हें अपनी ताकत का
पता नहीं है ,उनके गीदड भभकी से भारत डरने वाला नहीं है , जो चाहे वह कदम उठा लें,
हम उनको जवाब देने को हरदम तैयार हैं" इस स्पष्ट चेतावनी का असर इतना जबरदस्त
हुआ कि तत्कालीन ब्रिटेन के विदेश मंत्री को अपने पद से दो माह के भीतर इस्तीफा
देने के लिये मजबूर होना पड़ा | साथ ही , जब आस्ट्रेलिया को अपनी कूटनीतिक चूक की
अनुभूति हुई ,तब वह छ माह बाद फिर से "दौत्य" रिश्ते कायम करने के लिये
अपने यहाँ से विशेष प्रतिनिधि मंडल दिल्ली भेजा , जिसे केंद्र सरकार ने कोई खास
तव्वजो नहीं दी और वह महीने भर कभी राष्टपति , तो कभी प्रधान मंत्री , विदेश
मंत्री और विदेश सचिव से मुलाकात करने के लिये 'गिडगिडाना' पड़ा था , तब जाकर उसे
मामूली अतिरिक्त सचिव (विदेश मंत्रालय) से भेंट करने की अनुमति मिली थी और अपने
उठाये क़दमों के लिये माफ़ी मांगनी पड़ी थी |
अतएव , इन परिप्रेक्ष्य में
मौजूदा अमरीका -भारत के सबंधों को देखें , तो प्रतीत होगा कि अमरीका जैसे बलशाली
राष्ट के प्रति अचानक कठोर कदम प्रतिक्रिया में उठाने की हिम्मत आखिर भारत को कैसे
आई ? विश्व में जो शक्ति के केंद्र हैं , उसमे अमरीका अव्वल है , यों कहें कि उससे
सीधे चुनौती देने की कुव्वत शेष विश्व को नहीं है , फिर भारत जैसे विकासशील देश उसकी
आँख में आँख डाल करके बात करे , यह उस
जैसे 'विश्व दरोगा' को पसंद नहीं |
इस गुढ़ अर्थ को समझने के लिये दो
बातें महत्वपूर्ण हैं , पहली यह कि भारत ही नहीं बल्कि समूचे एशिया में 'नारी' को
विशेष दर्ज़ा अपने -अपने संस्कृतियों के अनुरूप समाज में प्राप्त है , यह 'नंगापन'
जाँच ने देवयानी के मामले ने भारतीय अंतरमन को झकझोर दिया , जो सहन से बाहर की बात
थी | अमरीका में पहले भी भारतीय शाख्सियतों को जाँच के नाम पर बेइज्जत किया गया ,
मगर कभी प्रतिरोध कूटनीतिक तौर पर उग्रता से नहीं किये गए | दूसरा यह कि देश में
आम चुनाव अर्थात लोक सभा के चुनाव सिर पर है ,ऐसे में केंद्र में सत्तासीन कोई भी
सरकार देश की मर्यादा को नजर अंदाज करने की जुर्रत नहीं कर सकती थी |
वैसे , यह भी एक यथार्थ
है कि भारत -अमरीका के सबंध मौजूदा स्थिति में ज्यादा दिन रहने वाले नहीं हैं | विश्व
में जो एकतरफा धुर्वीकरण १९९१ में सोवियत संघ के विखंडन से हुआ है , वह विगत २३ सालों
से अबतक बरकरार है , रुस , चीन या अन्य समूह देश , जो अमरीका को सामरिक-आर्थिक चुनौती दे सकते
थे , वे भी सीधे सामना करने से बचने में अपनी कूटनीतिक चतुराई का सहारा लेते आ रहे
हैं | इन विश्व व्यापी हालातों में फ़िलहाल ,अमरीका ही एकमात्र महाशक्ति के तौर पर विराजमान
हैं , जो अपनी शर्तों पर राजनयिक -कूटनीतिक आयामों को गढता चला आ रहा है | यह इतफाक
ही था , देवयानी के मामले में वह फंस गया और भारत उसे उसके ही तरीके से ,लेकिन सभ्य
स्वरूप में गरूर को चुनौती देने की हिमाकत कर डाली है और अब एक बार पुन: रिश्ते को
पटरी पर लाने के प्रयास हो रहे हैं , यह कोशिश किस प्रकार है , यह अभी बयानबाजी के
जरीये ही व्यक्त है | इससे इत्तर अन्य कदम भारत उठा भी नहीं सकता | दोनों को एक -दूसरे
की जरूरत है , इसमें भारत को ज्यादा ,अमरीका को कम , कम इसलिए कि उसे किसी देश से सीधे
सैन्य संघर्ष में उलझने स्थिति नहीं है ,जबकि भारत के साथ वैसा नहीं है |पाकिस्तान
और चीन से बराबर आशंका उत्पन्न रहने के हालात है | इसमें अमरीका अपने शर्तों पर ही
किसी राष्ट -देश के खिलाफ उलझता रहा है , चाहे इराक हो , अफगानिस्तान, लीबिया , मिस्र
या कोई |
स्थितियां को देखें - इराक में सद्दाम
हुसैन का मामला हो या अफगानिस्तान में तालिबान का , दोनों में अमरीका और नाटो के सैनिक
तभी हस्तक्षेप किये ,जब वह साम ,दण्ड ,भेद और अर्थ के माध्यम से संयुक्त राष्ट संघ को अपने अनुकूल साधने में विवश
किया |यह विश्व में पिछले दो दशकों से चल रही
उसकी अपनी दादागिरी की ही परिस्थितियां हैं
, जिनके विरूद्ध कूटनीतिक तौर पर कोई सामने नहीं आने को तैयार है |
इतना ही नहीं , याद करें जब तालिबान के खिलाफ
सैन्य कारवाई के लिये ' अड्डे ' की तलाश में वह मध्य पूर्व एवं दक्षिण में भरोसे के
काबिल साथी देश में था , तब पाक -भारत के तत्कालीन सरकारों में इस बात की होड थी कि
वह उनके देश से अपनी सैन्य कारवाइयों को अंजाम दे | साफ है कि ,भारत अमरीका के दबाव
को अधिक दिनों तक झेलने की स्थिति में नहीं है , देर -सबेर यह पूर्ववत रिश्ते कायम
होने ही हैं | ऐसा कूटनीतिक जगत में विश्वास है | यह हो सकता है कि इसके लिये दोनों
देश परस्पर मेल से गोपनीय ढंग से नाटकीयता बरतते हुए शेष विश्व के समक्ष सबंध सुधार
के लिये प्रकट हों |
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