Thursday, 23 January 2014

न्यूज सेंस की चिंता

                (एसके सहाय)
      वैसे तो राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव अपने "मसखरेपन" के लिये मशहूर हैं ,मगर अपनी हास्य-विनोद की शैली में कभी -कभी ऐसी बातें कह जाते हैं कि वह बुद्धिजीवी जमात के लिये समझ पाना टेढ़ी खीर प्रतीत होते हैं, जैसा कि जैसा कि उस दिन (१८ जनवरी)पटना में दैनिक भास्कर के लोकार्पण के वक्त अपने विचार व्यक्त करने के क्रम में कहा था -" मुजफ्फरपुर के समाचार को सिवान के लोगों को मालूम नहीं है और पटना के पाठकों को छपरा में घटित मामले की जानकारी नहीं है , पत्रकारिता में ऐसे प्रयोग जन सामान्य के हित में नहीं हैं |"
     सचमुच ,आज समाचारों की आपाधापी में इसके महत्त्व अर्थात उपयोगिता से अधिसंख्य लोग वंचित है ,इसके तह तक जाएँ ,तब कई चौकाने वाली जानकारियां हासिल होगी ,जो समाज हित में कदापि नहीं हैं ,मगर बाज़ार को लुभाने के लिये प्रतिस्पर्धी वातावरण का जो निर्माण ,विशेषकर हिंदी पट्टी में हुआ है , वह काफी गैर जिम्मेदाराना है | अतएव , एक दृष्टि हिंदी पत्रकारिता के  बहाने  'समाचारिक समझ' की पड़ताल जरूरी है |
      यह बात किसी से छिपी नहीं है कि १९९१ में आर्थिक खुलेपन की वजह से आज का भारत सामने है ,इसमें अन्य क्षेत्रों की तरह मीडिया जगत में भी अपने प्रभाव पड़े हैं ,सो प्रिंट या इलेक्ट्रोनिक्स समाचार माध्यम ,प्राय: सभी हल्कों में गलाकाट प्रतिस्पर्धा का नज़ारा है , जिसमे मुनाफा सिर्फ मुनाफा ही ध्येय है ,ऐसे में पत्रकारिता में "संकुचन" होना आश्चर्य पैदा नहीं करता | इन स्थितियों में यदि 'क्षेत्रवार' खबर दिकदर्षित होना स्वाभाविक है | मालिक अर्थात प्रबंधक अर्थात संपादक का जोर इस बात पर है कि वह इलाकाई हल्कों में अव्वल रहे ,इसके लिये प्रचारात्मक बातों को भी 'खबर' के शक्ल में पैदा करना पड़े ,तो कोई हर्ज नहीं ,इसलिए आजकल अखबारी दफ्तरों में 'समाचार की गुणवत्ता'  नहीं देखी जाती ,बल्कि संख्या गिनी जाती है कि कितने मात्रा में समाचार छपे |
    इस स्थिति के उत्पन्न होने में एक -दो कारण नहीं ,बल्कि दर्ज़नों वजहें हैं ,जिसमे रोजी-रोटी से लेकर साक्षर -निरक्षरता जैसे कई पहलू हैं ,जो विज्ञापन को लेकर नजरंदाज हैं |कभी कस्बाई पत्रकारिता में वकील -प्रोफ़ेसर या लिखने -पढ़ने वाले लोग जुड़े होते थे ,समय के साथ परिवर्तन हुआ ,तो अब पत्रकार भले ही अपना आवेदन तक नहीं लिख सके , उसे 'पैसा' वसूलने की कला आना चाहिए ,जिसे व्यावसायिक लफ्जों में विज्ञापन कहते हैं |
     खैर, जाने दें ,इन बातों को ,यहाँ विचार हो रहा था कि आखिर क्या कारण है कि 'समाचार' सभी क्षेत्रों के सभी पाठकों को एक साथ मिल सके ? लालू प्रसाद के कहने का परोक्ष मतलब यह था कि न्यूज सेंस वाले अर्थात समाचारिक समझ वाले पत्रकारों का घोर अभाव के वजह से यह हालात उत्पन्न हैं | यह काफी हद तक सही भी है | कोई भी सेठ , नफा -नुक्सान को जेहन में रखकर पत्रकारिता के क्षेत्र में पूंजी निवेश करता है , उसे यह मतलब नहीं रहता कि अखबार का स्तर कैसा हो और कैसा होनी चाहिए , उसमे काम करने वाले पत्रकार ही पत्रकारिता के स्वरूप तय करते हैं , जिन्हें न्यूज सेंस अब प्राय: नहीं होती ,किसी तरह 'ड्यूटी' के तहत कार्य किये जाने की प्रवृति प्रभावी है और यदि निचले श्रेणी के कोई पत्रकार ने किसी खबर को फालतू अर्थात समाचार मानने से इंकार कर दिया ,तब उसकी छुट्टी तय है , योग्यता का परिमापन के अभाव ने यह हालात पैदा करने में योगदान दी हो ,तो यह असहज भी नहीं कहा जा सकता |
      आखिर समाचार है क्या ? कभी इसका तात्पर्य मौसम से होता था, फिर परिवार-समाज-स्थल से जुडी बातों में बदलाव हो ,तब खबर मानी जाती थी ,इसके बाद थोडा पत्रकारितारुपी समाचार माध्यमों का उन्नयन हुए ,तब कहा गया कि कुत्ता आदमी को काटे , तो वह सामान्य बात है लेकिन मनुष्य कुत्ते को काटे ,तव वह 'खबर' है | थोडा परिवर्तन हुए सामाजिक और अन्य क्षेत्रों में तो  "घटना" समाचार के तौर पर समझा गया और यह घटना किस स्तर की है ,इसके आकलन के तरीके विभिन्न मीडिया इकाइयों के अपने -अपने हैं ,जिसमे समाचार के लिये समझ की शक्ति भी अपनी -अपनी हैं ,जिसमे बहुधा अब कथित पत्रकार नाकामयाब ही रहने को अभिशप्त हैं और इसी तथ्य को लालू प्रसाद ने पकड लिया है ,जो एक पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिये चुनौती भी है |
       इससे थोड़ी अलग स्थितियां समाचार एजेंसियों की है ,कम से कम उनके खबर का खास अर्थ होता है ,जहाँ ग्राहकों को परिहार्य सूचनाओं अर्थात घटनाओं अर्थात परिवर्तनों  से वाकिफ कराने की चुनौती गुणवत्ता के साथ ही भाषागत आवश्यकताएं महत्वपूर्ण अब भी बनी हुई हैं | इन्हीं के बूते ही दुनियां में अधिकृत एवं पुष्ट खबरों का परिमापन प्राय: होता है, जिसमे समाचार के स्रोत की अपनी भूमिका खबर को विश्वसनीयता प्रदान करती है ,जो पाठकों के लिये बराबर 'शोध' का विषय प्रस्तुत करती है | दुनिया की तमाम मीडिया इन्हीं पर निर्भर है और विश्ववास इस रूप में है कि यह औरों की अपेक्षा "सच के निकट" ज्यादा है |
       विश्व में अंग्रेजी पत्रकारिता को सबसे ज्यादा 'आमिर' एवं 'समृद्ध' समझा गया है ,जो काफी हद तक हकीकत भी है ,भाषा भी और अधुनातन समय में "कंटेंट" प्रस्तुत करने के मामले में भी ,यह नहीं कि एक खबर के विस्तार में कई कंटेंट ,जिससे समाचार प्रस्तुति में विद्रूपता दिखती है ,जो भाषा की दरिद्रता का परिचायक पाठकों को प्रतीत कराती है |यह हिंदी में ज्यादा आजकल दिख रहे हैं | समाचार के विस्तार को पेश करते वक्त यह भी नहीं झलकता कि कौन तथ्य महत्वपूर्ण हैं और कौन नहीं , यही नहीं हिंदी अख़बारों के पृष्ठों की संख्या बढ़ गई लेकिन देश -विदेश की वर्गीकृत पेज ढूढें ,तो मालूम होगा कि इसे प्रस्तुत करने के तमीज से हिंदी पत्रकार काफी दूर हैं | इसलिए आज भी देश के भाषाई पत्रकारिता में बंगला ,मलयालम जैसे पत्रकारिता से हिंदी पिछड़ी है ,भले ही फ़िलहाल कमाई के ख्याल से इसके सुन्चांक में अभी उछाल आया दीखता हो ,लेकिन यह लंबे समय के लिये टिकाऊ होगी ही ,यह निश्चय के साथ नहीं कहा जा सकता |
     हकीकत में हिंदी अखबारों का यह हाल इसलिए है कि इनके आधार अपने दफ्तरों के मुख्यालय तक सीमित है ,क्षेत्रीय कार्यालयों अर्थात जिला मुख्यालयों या चिन्हित शहर में पत्रकार विज्ञापन एजेंट की भूमिका में हैं ,थोड़े -बहुत हैं भी तो बाज़ार की मांग में इनके बातों का कोई मूल्य नहीं | खबर खास हो ,इससे मतलब नहीं , मतलब केवल इतनी है कि उनकी रपट प्रकाशित हो जानी चाहिए ,भले ही उसमे गुणवत्ता का पुट हो या नहीं | अभी दौर हिंदी में "फटे बांस की तरह समाचारों को प्रस्तुत करने की होड़ है ,जिसमे कोई रस नहीं " यह भाषा के स्तर पर दरिद्रता को इंगित करता है ,फिर भी निकट भविष्य में परिवर्तन के आसार नहीं | ऐसे में लालू प्रसाद की चिंता वाजिब है | कभी मीडिया इकाइयों में दो -तीन ऐसे पत्रकार ड्यूटीवार होते थे ,जो केवल भेजी गई रपटों में न्यूज खोजते थे ,फिर कई सामग्रियों में से उसे छांट कर मातहत पत्रकार को संपादन के लिये देते थे ,लेकिन अब ठीक उल्टा है ,जो भी डेस्क पर पहुँच गया 'वह खबर बन गई ' ऐसे में घटियापन का होना लाजिमी है |

      इतना ही नहीं , स्वतंत्र देश में पत्रकारिता निजी क्षेत्रों में ही अधिसंख्य खुलापन लिये होती है ,जहाँ योग्यता का फैसला सेठ या उसके चुनिदें प्रबंधक /संपादक करने के लिये अधिकृत है ,यह कारपोरेट होने के बावजूद भी है ,जहाँ नियम तो हैं ,लेकिन उसपर एतबार तभी तक ,जब तक आपकी उपयोगता बनी हुई है |इस सन्दर्भ में दो माह पहले एक सर्वेक्षण सामने आया था ,जिसमे कहा गया था कि देश में स्नातकधारियों की तायदाद काफी है लेकिन वह उसकी अहर्ता नहीं रखते सिर्फ कागजों में ही स्नातक हैं ,उसके योग्य नहीं | ठीक पत्रकारिता में भी यही है ,जहाँ तकनीकी डिग्रीधारी हैं तो ठीक हैं मगर उसके अनुरूप कार्य के परिपूर्ण करने की क्षमता भी होनी चाहिए , वैसे भी निजी क्षेत्रों के कारोबार में पेशेगत विशिष्टता ही अनिवार्य है डिग्री नहीं ,ऐसा इसलिए कि उसमे निजी पूंजी निवेश का मामला होता है ,जिसमे काम अर्थात लाभ प्यारी होती है चेहरे नहीं |ऐसी स्थिति में क्षेत्रीय संस्करण में स्थानीय बातें होगी ,जो अर्थवान ही हो जरूरी नहीं ,  वह इसलिए कि मुनाफे की भेंट जो पत्रकारिता चढ गई है |वाकई में न्यूज सेंस देश में सिविक सेंस की तरह है ,जिसका अभाव पूरा भारत झेलने के लिये विवश है |

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