(एसके सहाय)
कांग्रेस कार्य समिति और अखिल भारतीय
कांग्रेस समिति की हुई बैठक के खास अर्थ हैं | विशेष इसलिए कि लगभग एक स्वर से
कांग्रेस के प्रांतीय एवं राष्टीय नेताओं ने राहुल गाँधी को पार्टी की तरफ से
प्रधान मंत्री के पद के लिये उम्मीदवार घोषित करने की मांग केन्द्रीय नेतृत्व से
की ,मगर पार्टी ने वैसा कदम नहीं उठा कर या यह समझे कि उस मांग को दरकिनार कर वह
अब "प्रचार अभियान समिति" के प्रमुख के तौर पर सक्रिय योगदान देंगे |यह
पहल दो माह बाद होने वाली लोक सभा के चुनाव के लिये है | मतलब कि राहुल सीधे उक्त
पद के प्रत्याशी घोषित नहीं होकर भी परदे
के पीछे वही प्रधान मंत्री पद के दावेदार हैं | यह काफी कुटिल और सुविचारित योजना
अपने चहेते नेता के लिये चुनाव की बिसात पर कांग्रेस ने बिछाई है |
यहाँ भारतीय राजनीति के सन्दर्भ में इस
लिये चुनावी उपयोगिता सामने खड़ी है कि कांग्रेस ने अर्थात इसके अधिकृत प्रवक्ताओं
ने बार -बार प्रतिदंदी भाजपा से "प्रधान मंत्री" के नाम घोषित करने की
रट लगा रखे थे और जब नरेन्द्र मोदी के नाम भारतीय जानता पार्टी ने सार्वजनिक तौर
पर एलान कर दिया ,तब अब बारी कांग्रेस की थी कि वह अपना भी संभावित नाम को उदघोषित
करे और यह संभावना राहुल गाँधी के लिये थी ,लेकिन ऐसा नहीं करके इसने
"दब्बुपन" का ही परिचय दी है और यह भी संकेत कर दिए हैं कि एक बार फिर
२००४ और २००९ की तरह कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता के बूते चुनावी
समर में उतरने के मन:स्थिति में है ,जो इसकी और इसके समान कई दलों का सत्ता के
लिये प्रचार का ठोस संबल है और यह रणनीति कितना कारगर हो सकती है ,यह तो कुछेक
दिनों बाद ही स्पष्ट हो सकेगा , जब राष्टीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) और संयुक्त प्रगतिशील
गंठबंधन (संप्रग) के इर्द -गिर्द क्षेत्रीय पार्टियां परिक्रमा करने शुरू करेंगे |
इसके लिये बस ,चुनावी तिथियों का इंतज़ार है |
राहुल गाँधी को पार्टी के तरफ से अगला
प्रधान मंत्री घोषित करने में आखिर हर्ज क्या थी ? इसे पार्टी अध्यक्ष सोनिया
गाँधी ने क्यों नहीं तवज्जो दी ? इसके गुढ़ निहितार्थों में जाएँ ,तब प्रतीत होगा
कि "दूरगामी भविष्य की चिंता" को इसमें ध्यान रखा गया है | यह एक माँ का
बेटे के प्रति दूरंदेशी भरा सकारात्मक सोच हो सकती है ,लेकिन एक पार्टी के लिये यह
नकारात्मक पक्ष ही के तौर पर यह रेखांकित हो सकता है ! तब भाजपा से प्रधान पद के
लिये नाम बताने की बार -बार चिल्लाहट का क्या मतलब था ? क्या इससे कांग्रेस को
नुक्सान का अहसास नहीं है ? यह राजनीतिक हल्कों में ,खासकर गैर राजनीतिक वर्ग में पिछे
हटने जैसा ही समझने की स्थिति है |
यह सर्वज्ञात है कि राहुल गाँधी को पार्टी
में ,जो भी शक्ति प्राप्त है , वह 'विरासत' की देन है, जिसमे चतुर किस्म के
कांग्रेसी नेताओं की अहम भूमिका है | इस परिप्रेक्ष्य में १९९६ की वह घटना है ,जब
पार्टी अध्यक्ष के पद पर सीताराम केसरी विराजमान थे , तब इनसे ईर्ष्या-जलन रखने
वाले तत्कालीन पार्टी के कई नेता सोनिया गाँधी को इस कदर बरगलाये कि केसरी कप
अध्यक्ष पद से च्युत करने के लिये एक दोपहर इनको लेकर २४ ,अकबर रोड धमक गए और
केसरी को बलात धकेल करके रोड पर कर दिए , फिर सोनिया की सदारत में कांग्रेस की
बैठक हुई ,जिसमे उनको पार्टी अध्यक्ष घोषित किया गया , जो किसी भी कांग्रेस नेता
को आजादी के बाद इतने लंबे अरसे तक उक्त पद नसीब नहीं हो सका है | उधर ,केसरी रोड
पर ही प्रेस कांफ्रेंस करते रहे और अपने को अधिकृत अध्यक्ष बताते रहे , जिसमे बार
-बार सोनिया गाँधी के प्रति अपनी अंध भक्ति के बोल थे , वैसे भी इनको नेहरू -गाँधी
परिवार का वफादार ही माना जाता रहा था , लेकिन जीवन के अंतिम समय में अपनों ने ही
इनको बेदर्दी के साथ पार्टी से निष्कासित करने में थोडा भी बुजुर्गियत का ख्याल नहीं रखा |
सोलह और सतरह जनवरी को कांग्रेस की हुई
बैठक के नतीजों एवं फैसलों के भविष्य में पड़ने वाले प्रभावों को समझना और जानना है
,तब दो अन्य घटनाओं को भी जेहन में रखना होगा कि पार्टी नेतृत्व अर्थात सोनिया
गाँधी क्या पसंद करती हैं? पिछले दो दफे के चुनाव में कांग्रेस को सरकार बनाने के
अवसर मिले ,तो दोनों बार पार्टी को मनमोहन सिंह ही योग्य प्रधान मंत्री लगे , इसी
तरह जब महिला राष्टपति का मुद्दा उच्छा .तब उसके लायक प्रतिभा सिंह पाटिल ही मिली
, जो जाहिर कर रहा कि "जन मानस में अमिट छाप" वाले कांग्रेस नेता सोनिया
गाँधी को पसंद नहीं हैं ? प्रणव मुखर्जी ,अब राष्टपति तो हैं ,लेकिन कैसे राष्टपति
बने और इसके लिये कहाँ से दबाव बने कि सोनिया गाँधी असर में आ गई ,जिसकी एक लंबी
कहानी है |
इस तरह की मानसिकता अर्थात सोच का कितना
बड़ा खामियाजा देश को विगत सालों में सामाजिक -राजनीतिक-वैदेशिक -आर्थिक -प्रशासनिक -न्यायिक क्षेत्र के स्तर
पर भुगतना पड़ा है ,शायद कांग्रेस प्रमुख को अनुभूत नहीं है ,अन्यथा लोकतान्त्रिक
देश के कथित जनतांत्रिक पार्टी (कांग्रेस) में बहुसंख्यकों की आवाज /मांग को इस
तरह नजरदांज करने की हिम्मत पार्टी नेतृत्व को नहीं होती|
चुनाव में हार -जीत होते रहते हैं ,लेकिन
यहाँ कांग्रेस नेतृत्व का व्यवहार एक
जागीदार की तरह है ,जिसे अपने पुत्र की चिंता है ,इसके भविष्य का ख्याल है , इसके
ताजपोशी में विलंब हो ,मगर उसमे सीधे कोई रूकावट नहीं हो ,ऐसी कामना /विचार सोनिया
गाँधी रखती है | इन हालातों में यदि सोनिया को लोकतंत्र विरोधी निरूपित कर दिया
जाये ,तो सैन्धान्तिक तौर पर गलत भी नहीं होगा ,आखिर बहुमत के आवाज थे-राहुल गाँधी
,जिसे प्रधान मंत्री के पद के लिये कांग्रेस जनों का बड़ा समूह पसंद किये हुए था
,मगर इनके आशाओं पर तुषारापात हो गया |
वैसे भी ,कांग्रेस में सोनिया ,राहुल और
प्रियंका से इत्तर नेतृत्व की कल्पना करना सहज नहीं है , यह इंदिरा गाँधी युग से
ही चला आ रहा है , जिसमे वह नारा काफी चर्चित हुआ था ,जब आपात काल में पार्टी
अध्यक्ष देवकांत बरुआ हुआ करते थे और इनके जुबान से बार -बार यह बोल निसृत होते थे
,जिसमे कहा जाता था ,"इंदिरा ही भारत है और भारत ही इंदिरा है " अर्थात
यह चाटुकारिता का इन्तहा थी ,बावजूद किसी कांग्रेस के लोक पसंद नेता उस तरह के
नारेबाजी के खिलाफत करने के हिम्मत नहीं जुटा सके |
अतएव , कांग्रेस दूसरों के भरोसे बाजी मारने के
फ़िराक में है , राहुल के नाम को नेपथ्य में डालकर क्षेत्रीय दलों को पटाने की यह पुरानी
चाल है ,जिसमे एक बार फिर कथित " धर्मनिरपेक्षता
" को गंभीर विषय चुनावी बेला में बनाने
के यत्न हैं |देखना है कि इस जाल में कौन -कौन फंसते हैं ? कांग्रेस के लिये भावना
का कोई कद्र /मूल्य नहीं , कांग्रेस जन मायूस भी हैं ,तो इसके कोई मतलब नहीं , कांग्रेसी
बैठक का महत्व केवल चापलूस पसंद राजनीतिज्ञों के लिये है ,जो उनके हित में होने की
संभावना लिये हो सकता है |
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