Thursday, 9 January 2014

पारिस्थितकी -पर्यावरण अदालत के आसरे

                 (एसके सहाय)
   देश की सर्वोच्च अदालत ने जल ,जंगल और जमीन के सन्दर्भ में पर्यावरण एवं पारिस्थितकी को लेकर गंभीर चिंता प्रकट की है | इसके उपाय के तौर पर उसने एक राष्टीय "नियामक" प्राधिकार का गठन करने के निर्देश केंद्र सरकार को दिया है ,ताकि वन नीति को ठोस एवं कारगर तरीके से क्रियान्वित किया जा सके | यह बात उच्चतम न्यायालय के तीन सदस्यीय पीठ ने पिछले छ जनवरी को अपने दिए गए आदेश में की है |
      इस आदेश -निर्देश के परिप्रेक्ष्य में विचार करें , तो मालूम होगा कि वास्तव में वनों को लेकर संघ एवं राज्य सरकार शुरू से लापरवाह रही हैं | सारे उपक्रम कागजी खानापूर्ति तक सीमित हैं | वन अधिकारियों -कर्मचारियों के भारी -भरकम मौजूदगी के बावजूद वन योजनाओं को धरती पर उतारने में कोताही बरते जाने के कई मामले सामने हैं | जैसे कि जंगलों की सुरक्षा मे परम्परागत हथियारों के बदले रायफल ,अत्याधुनिक शस्त्र, वन रक्षियों को उपलब्ध कराना, जंगली उत्पादों को संरक्षण प्रदान करना , निषिद्ध क्षेत्रों में  वृक्षों की कटाई कठोरता से रुकवाना , जल संचय के लिये पहल करना , पर्यावरण में संतुलन स्थापित रहे ,इसके लिये पारिस्थितकी के विकास के लिये सतत हरियाली के कार्यक्रमों को प्रोत्साहित करने जैसे कई विषय हैं , जिनमे गंभीरता की कमी है |
       इतना ही नहीं , देश के संपूर्ण जिले में १९९५ -९६ जल छाजन कार्यक्रम कार्यान्वित है | यह योजना गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से लागु की गई है | इसपर अबतक हज़ार करोड रूपये से अधिक राशि खर्च कर दी गई है ,मगर वास्तविक धरातल पर क्या हकीकत में जल के साथ हरियाली उत्पन्न हो पाई है ?
        एक बेहतर उदाहरण झारखण्ड के सन्दर्भ में है | यह वन प्रदेश के तौर पर प्रसिद्ध है | इस राज्य में एकमात्र ब्याघ्र रिजर्व पलामू है | इसके सुरक्षा के साथ आस-पास के वनों की देखभाल का प्रश्न अरसे से सरकार के पास गौण है | वन कर्मियों के जिस हिस्से को जंगलों की रखवाली करनी हैं ,उनके पास केवल लाठी ही हैं ,जबकि पूरा इलाका नक्सली गतिविधियों के साथ आपराधिक घटनाओं से प्रभावित है | वन्य जीवन के साथ मनुष्य के ऊपर खतरे अक्सर विधमान हैं और पूर्व में हत्या जैसी वारदात भी हो चुके हैं | यही जाने कि कभी पिछली सदी के नब्बे के दशक तक देश विदेश से तीस से पच्चास हज़ार तक सैलानी रिजर्व के केंद्र 'बेतला राष्टीय उधान' में वन्य प्राणियों के जीवन का आनंद उठाने आते थे ,लेकिन अब यह संख्या मुश्किल से दस से बारह हज़ार तक ही रह गई है | पेड़ों की अवैध कटाई से उजड़ा दृश्य अब काफी दूरी तक इस क्षेत्र में दृश्यमान हैं , जो वनों की होती पतली हालात का बयां खुद करती है |
     इस जैसी परिस्थिति सिर्फ झारखण्ड में नहीं है ,बल्कि उतराखंड ,असम , हिमालय के तराई वाले इलाके , आंध्र प्रदेश , कर्नाटक ,छतीशगढ़ , मध्य प्रदेश के अतिरिक्त प्राय: हर जगह है , जहां जंगल मौजूद है | ऐसे में उच्चतम न्यायालय ने खुद पहल करते हुए पर्यावरण में संतुलन और पारिस्थितकी विकास की दिशा में सरकार को निर्देशित किया है , तो उसमे हर्ज जैसी कोई बात नहीं है | यदि सरकार स्वयं प्राकृतिक संपदा एवं वातावरण को अक्षुण्य बनाये रखने और विकास के प्रति सचेष्ट रहती तो आज अदालत को उक्त दिशा निर्देश देने की जरूरत नहीं पड़ती | इस निर्देश से जाहिर है कि 'वन नीति' को लेकर सरकार उदासीनता बरतते रही है , तभी अदालत को पहल करने के लिये बाध्य होना पड़ा |
   सचमुच ,आज पर्यावरण को लेकर विश्व व्यापी चिंता है | विज्ञान के अत्यानुधिक तकनीक ने यह सपष्ट कर दिया है कि संसार में अब कुल क्षेत्र का मात्र ३० फीसदी हिस्से में ही 'वन' हैं | इसमें भारत की भागीदारी दो तिहाई से कम हैं , उसमे भी घने जंगलों के परिमापन में यह केवल १२-१८ फीसदी ही ठहरता है | ऐसे में एक सशक्त नियामक की आवश्यकता जरूरी थी , जो केवल वन नीति के तहत आने वाली योजनाओं के क्रियान्वयन पर निगरानी रख सके और उचित -अनुचित में अंतर करके कारवाई कर सके |
        दरअसल , वन नियामक के अस्तित्व से "वन्य जीवन" की सुरक्षा भी जुडी है | अवैध शिकार को रोकना आज के विविधतापूर्ण वन्य जीवन के महत्त्व को उपेक्षा नहीं की जा सकती | सिकुड़ते वनों की वजह से पूरे संसार में चिंता व्याप्त है |प्रकृति में छेड़छाड़ का संकट जलवायू परिवर्तन का जलवा विश्व में जहाँ -तहां विध्वंसक रूप में दिखा है |ऐसा पर्यावरणविद कहते आ रहे हैं , फिर भी इस ओर सरकारों का विशेष ध्यान नहीं गया है | इसी तथ्य को न्यायमूर्ति एके पटनायक , सुरिंदर सिंह निज्जर और एफएमआई कलीफुल्ला ने अपने दिए संयुक्त फैसले में सरकार के समक्ष रखा है | इतना ही नहीं , अगले मार्च २०१४ तक सरकार को उसके दिए गए निर्देश के तहत क्या कदम उठाये गए , इसकी शपथ भी दाखिल करने को कहा है | स्पष्ट है कि वन नीति को कितना उपयोगी अदालत मानती है |
       ग्रीन गैसों के उत्सर्जन से मनुष्य के स्वास्थ्य पर पड़ते घातक प्रभाव के बीच उच्चतम न्यायालय के इस निर्देश विशेष तौर पर भारतीयों के लिये रेखांकित है | वन्य जीवों का सड़क पर आना और दुर्घटनाओं का शिकार होना , पर्यावरण में आई तब्दिली से बिमारियों के संक्रामक प्रहार से जंगली जानवरों की मौत होने में वन नीति के प्रति उपेक्षा ही है | राष्टीय बाघ संरक्षण प्राधिकार के अधिकृत रिपोर्ट पर विश्वास करें , तब विदित होगा कि विगत साल में ६३ बाघों की मौत गैर प्राकृतिक स्वरूप में हुई है जिसमे केवल ४८ बाघ शिकारियों के हाथों मारे गए हैं |बाकी प्रकृति जन्य वजहों से मौत के शिकार हुए |इसमें बीमारी प्रमुख है | साफ है कि अधिसंख्य मौत मनुष्यकृत कारणों से हुई है |इसमें वाहनों के चपेट में होने वाली मौतें भी शामिल है | यह केवल बाघ का ही मामला नहीं है | झारखण्ड में ही पलामू परिक्षेत्र में दो सालों के बीच बाघ प्रजाति के लकडबग्घा(हायना) की कई मौते वाहन के टक्कर में हुई है , इसी तरह हाथियों के भी मौत के मामले दृष्टव्य है | वनों के उजड़ते जाने से नीलगाय तक को खतरे हैं | इसे जंगल के बाहर और भीतर खतरे हैं | वैसे ,प्रकृति अपने में आहार -विहार के बीच संतुलन बनाये रखने के यत्न भरसक करती है |

        अतएव , वन नीति के प्रति जागरूकता पैदा करना अपरिहार्य है | सामान्य लोगों को अहसास होना चाहिए कि वन्य जीव कोई अलग दुनिया के प्राणी नहीं है | इसमें मनुष्य और जंगली जानवरों के बीच मित्रता के भाव तभी सार्थक हो सकेंगे ,जब इनके मध्य वनों का विस्तृत दायरा पर्यावरण के अनुकूल होगा तथा पारिस्थितकी विकास पर जोर होगा | ऐसे में अदालत की पहल का स्वागत किया जाना चाहिए ,इसलिए कि उसने सरकार के इस तर्क को नामंजूर कर दिया गया है कि वनों की सुरक्षा के प्रति पर्याप्त कदम क्रियाशील हैं |

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