Saturday, 4 January 2014

ऐसे हों यार तो कैसे हो बेड़ा पार

                        (एसके सहाय)
        इन दिनों अगले लोक सभा चुनाव को लेकर देश में बहस तेज है |क्या पक्ष और क्या विपक्ष सभी अपने -अपने हित -अनहित को लेकर चिंतित और व्यूह रचना में मशगुल हैं | खासकर ,केंद्र की सत्ता पार काबिज होने कि बेकरारी बढ़ गई है |इसमें राष्टीय एवं क्षेत्रीय दलों की  भूमिका अपने नफे -नुक्सान को लेकर आकलन में क्या होगी ? इसपर ज्यादा राज प्रेक्षक जोर दिए हैं और इसके केंद्र में भाजपानीत राष्टीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) के अलावे तीसरे मोर्चा की चर्चा प्रबल है |इस संभावित मोर्चे पर बल इसलिए है कि 'कहीं बिल्ली के भाग्य का छींका फिर १९९६ की तरह टूटे और हलदन हल्ली डोडेगौड़ा देवगौड़ा एवं इन्द्र कुमार गुजराल की तरह किस्मत चमक उठे' इस प्रत्याशा में वैसे खुलकर कोई नाम नहीं आया है ,लेकिन दबे जुबान राजनीतिक गलियारों में समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव वैसी लालसा पाल बैठे है , यह चर्चा भी बहुत है |
कहते हैं ,राजनीति संभावनाओं का खेल है , फिर मुलायम या अन्य क्यों नहीं अपने को 'प्रधान मंत्री' बनने के सपने पालें ?इनकी इस मनोभाव को वामपंथी दलों के नेताओं ने ताड़ लिया है और जब -तब अपने अंदाज़ में इनके ख्वाब को हवा तीसरे मोर्चा के लिये देते रहे हैं और मुलायम भी बार -बार तीसरे मोर्चे के रट लगाते दिखे हैं ,ताकि जीवन के अंतिम पहर में सत्ता के शिखर पद पर आरूढ़ हो सके | इसके लिये क्षेत्रीय दलों के बीच तालमेल बिठाना काफी मुश्किल एवं दुष्कर सा है |यथा -बिहार में राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव , जद (यु) के शासन वाली बिहार के मुख्य मंत्री , बसपा प्रमुख मायावती , बंगाल में तृणमूल कांग्रेस प्रमुख व मुख्य मंत्री ,उडीसा में बीजू जनता दल प्रमुख व मुख्य मंत्री नवीन पटनायक , तो आंध्र प्रदेश में तेलगु देशम , जगन रेड्डी वाली कांग्रेस के अलावा तमिलनाडु में डीएमके -एडीएमके सरीखे पार्टियों के बीच सामंजस्य एवं समन्वय बिठाना किसी पहाड तोड़ने जैसा ही है | फिलवक्त मुलायम -मायावती एक मंच में एक -दूसरे को देखने को तैयार नहीं हैं और कांग्रेस दोनों को कैसे मौजूदा स्थिति में साध रही है , यह कलाबाजी सीखने को तैयार भी नहीं है , नीतीश -लालू एक -दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाते |इससे इत्तर क्षेत्रो में भी कमोबेश यही हालात हैं |करूणानिधि ,जयललिता को पसंद नहीं , तो चंद्रबाबू नायडू -जगन रेड्डी की अपनी -अपनी सीमा है | इसके अतिरिक्त , महाराष्ट में नवनिर्माण राज ठाकरे , असम में अगप और हरियाणा में अलग -अलग परिस्थितियां हैं और इनके बीच समय स्थापित करना टेढ़ी खीर जैसी प्रक्रिया है |
         दरअसल , अपनी - अपनी महत्वकांक्षा को साकार करने में ठिगने से पार्टियों में स्पंदन को बढ़ावा इसलिए मिल पाई है कि देश में पहले भी तीसरे मोर्चे अर्थात राष्टीय मोर्चे अर्थात संयुक्त मोर्चा के नाम पर गठबंधन की सरकार केंद्र की सत्ता में आ चुकी है | १९८९ में जनता दल की अगुवाई में विश्वनाथ प्रधान मंत्री तीसरे मोर्चे की तरह प्रधान मंत्री हुए ,तो उस सरकार को बाहर से परस्पर धुर विरोधी भाजपा और वाम दल समर्थन दे रहे थे | परवर्ती काल में १९९६-९८ के मध्य देवगौड़ा और गुजराल सरकार  को कांग्रेस भाजपा के रास्ते रोकने या कहिये खेल बिगाड़ने के लिये इस मोर्चे को बाहर से अपना समर्थन देकर टिकाये रखने के काम किये और मतलब नहीं सधते देख दोनों से अपना हाथ एक -एक वर्ष के अंतराल में खींच लिया | इसके बावजूद भी उम्मीद के परवान चढ़ने की उम्मीद कथित तीसरे मोर्चे के कल्पनाशील नेताओं को इसमें अपना भविष्य दीखता हो ,तो कोई आश्चर्य नहीं |
           इन राजनीतक परिस्थितियों के मध्य भाजपा और कांग्रेस की पैतरेबाजी २०१४ के लोक सभा चुनाव में क्या रंग भरती है , वह भी कम दिलचस्प नहीं है | कांग्रेस ढलान पर है , इसे प्राय: सभी राजनीतिक पर्यवेक्षक किन्तु -परन्तु के साथ स्वीकार कर चुके हैं |अब कोई करिश्माई हरकत ही इसमें निस्तेज होती शक्ति में प्राण फूंक सकता है |फिलवक्त, १२८ वर्ष पुरानी  इस पार्टी का ही कुनबा अर्थात गठबंधन ,भाजपा से बड़ा है ,इसके बावजूद इसके कुनबा दरकने की ओर अग्रसर है | सो , संकट इस बात का है कि कांग्रेस अपना भविष्य जोड़े तो किस क्षेत्रीय दल से , जो डूबती नैया को बेड़ा पार कर सके |
          उत्तर प्रदेश में बसपा -सपा के बीच दांत कटी दुश्मनी है , अभी दोनों मज़बूरी में दांत पीसकर  कांग्रेस के केन्द्रीय पतवार को खेवने में सहायक हैं और दोनों के साथ कांग्रेस भी भ्रष्टाचार जनित घपले -घोटाले को लेकर तर -बतर हैं | यही हाल बिहार में हैं ,जहाँ सजा याफ्ता व्यक्ति लालू प्रसाद यादव (राजद) अपनी  रणनीति में कांग्रेस के साथ सकून अनुभूत करते हैं और सोनिया गाँधी भी दागदार लालू को मुलाकात का अवसर देकर आने वाले चुनौतियों से भिड़ने का मंसूबा बनाती है | झारखण्ड में देखें तो सत्ता में शामिल होकर भी राजद ,झामुमो और कांग्रेस के मध्य इतना अंतर्विरोध है कि मंत्री सार्वजनिक रूप से अपनी ही सरकार के बखिया उखाड़ने में जरा भी संकोच नहीं करते ,जबकि १०-४ के बीच क्रमश: कांग्रेस -झामुमो के बीच लोक सभा के सीटों पर समझौता सरकार बनाने के पहले ही संयुक्त रूप से कर चुके हैं , जिसमे राजद के लिये कोई स्थान नहीं हैं | इसे लेकर विवाद भी इनके बीच शुरू हो चूका है |
       कांग्रेस के दो प्रयोग सत्ता में टिके रहने के लिये कितना खतरनाक स्थायित्व को लेकर हो सकता है ,शायद इसका अहसास इसके केन्द्रीय नेतृत्व को नहीं है | राजनीतिक समीक्षक देख रहे हैं कि कैसे मुलायम -मायावती को सीबीआई का भय दिखा कर और झारखण्ड में सरकार का लालच देकर झामुमो के मुख्य मंत्री हेमंत सोरेन एवं इनके पिता व पार्टी प्रमुख शिबू सोरेन को मिलाये हुए है कि राज्य तुम्हारा और केंद्र हमारा | सीटों के बंटवारे की संख्या से जाहिर है | इतना ही नहीं , लालू प्रसाद यादव , उस हालात को कैसे भूल सकते हैं ,जब संप्रग के पहले कार्यकाल में उनकी महत्ता को कांग्रेस नेतृत्व स्वीकारती थी और उनके विचारों को महत्व देती थी , फिर बिहार से राजद के सांसद क्या कम हुए , समर्थन दिए जाने के बाद भी दूसरे कार्यकाल में 'मंत्री' तक नहीं बनाया गया राजद कोटे से , लालू के मन में यह कैसे कचोटता होगा , क्या इसकी समझ कांग्रेस को है ?
        वास्तव में ,यथार्थवादी राजनीति में आदर्शों का कोई मूल्य नहीं होता | कांग्रेस और भाजपा अपने -अपने तरीके से क्षेत्रीय क्षत्रपों को सहलाने एवं पुचकारने में जुटे हैं और कोई  अचरज नहीं कि  कल् के बिछड़े यार पुन: मलाई खाने को एक मंच पर अपनी -अपनी वजहों से आ जाएँ | नवीन पटनायक ,ममता बनर्जी , मायावती , प्रफुल कुमार महंत , फारूक अब्दुला , शिव सेना , ओम प्रकाश चौटाला , चंद्र बाबू नायडू , जयललिता ,नीतीश कुमार ,रामविलास पासवान सरीखे नेता और इनकी पार्टियां मौका मिलते ही भाजपा के साथ होने में जरा भी देर नहीं कर सकती | इन सबों ने कभी भाजपा के संग सत्ता की गलबहियां की है  ,इसलिए तोता रटंत की तरह बार -बार कांग्रेस का कथित धर्म निरपेक्षता के स्वर कुम्भ्लाते दिख सकते हैं |अब तो भाजपा से कभी नाता नहीं रखने वाले डीएमके के अध्यक्ष करूणानिधि ने खुले तौर पर नरेन्द्र मोदी को प्रधान मंत्री के लायक बताने में संकोच नहीं किया है और इसे देश के लिये बेहतर कहा है | साफ है कि " यारों के यारीपन " पर ही लोक सभा के चुनाव नतीजे निर्भर हैं , जिसमे कई उजले -काले चेहरों का नुमाइश दो माह बाद होने शुरू होंगे |
      कुल मिलाकर यह कि 'आम आदमी पार्टी ' ही एकमात्र राजनीतिक दल ऐसा होगा , जिसका परम्परागत दलों से कोई नाता -रिश्ता कम से कम चुनाव तक नहीं रहने के आसार प्रबल हैं 

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