(एसके सहाय)
२०१४ में होने वाले लोक सभा चुनाव के
विधिवत घोषणा में अभी देर है, इसके बावजूद देश में अगले प्रधान मंत्री को लेकर
बहस-मुबाहिसों का दौर तेज हो गया है , ऐसे में नवोदित दल 'आम आदमी पार्टी' के अचानक धीर -गंभीर तरीके से
राष्टीय राजधानी दिल्ली में काबिज होने से नये समीकरण एवं धुर्वीकरण की संभावना
उत्पन्न है , जिसे लेकर भाजपा में धीमी स्वर से ,तो कांग्रेस खुलेआम चिंता के स्वर
दिखने लगे हैं और इस कड़ी में जब केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश अपनी
पार्टी ,कांग्रेस को सचेत करते हुए कहते हैं कि ' कांग्रेस को अभी से अपने में
परिवर्तन करना होगा ,अन्यथा ---तो गंभीर बात होगी , का खास मतलब है | यह इसलिए भी
चिंतनीय है कि दिल्ली में "आप" के उदय पर राहुल गाँधी ने तूरत साफ तौर
पर इसके क्रिया -कलापों को स्वीकार किया है और सीखने की बात कही है |
ऐसे में अरविन्द केजरीवाल को अगले प्रधान
मंत्री के तौर पर 'आप' के रणनीतिकार एवं विचारक योगेन्द्र यादव घोषित करते हैं ,
तब इसके मायने काफी गुढ़ होते हैं , जिसे मौजूदा राजनीति में प्रभावकारी कारक के
तौर पर देखा जा रहा है |
यों तो , भाजपा के घोषित प्रधान मंत्री के
उमीदवार नरेन्द्र मोदी हैं और कांग्रेस के लिये नाम अबतक सामने नहीं आये हैं ,फिर
भी परदे के पीछे की बातों पर भरोसा करें ,तो राहुल गाँधी ही इसके दावेदार होंगे |
चर्चा भी इसी नाम की है |मनमोहन सिंह ने प्रेसवार्ता करके स्पष्ट कर दिया है कि वह तीसरे पाली के
लिये प्रधान मंत्री के पद पर विराजमान नहीं होगें , इनकी माने तो , राहुल ही
पार्टी के 'आदर्श उम्मीदवार उक्त पद के लिये हैं |
बहरहाल , अब जो नाम देश के फिजां में तैर रहा
है ,उसमे राहुल ,मोदी और केजरीवाल का है | इनके नाम पर मुहर कैसे लगेगी ,यह तो
चुनाव परिणाम आने के बाद ही तय होगा | वैसे , नतीजे सामने आने पर १९९६ की तरह भी
अचानक लाटरीनुमा नाम अचानक सामने आ सकते हैं , फिर भी इसकी संभावना कम ही है |
तुलनात्मक दृष्टि से देखें , तो जाहिर होगा
कि मोदी बनाम राहुल के मध्य ही मुख्य जोर होगा | इसमें भाजपा को लगातार प्रतिपक्ष
में रहने का लाभ है ,तो कांग्रेस को सत्ता में रहते भ्रष्टाचार ,मंहगाई और अन्य
समस्याओं को लेकर दरपेश होने की विवशता है | मुख्य मुकाबले में यही दो किनारों के
बीच "केन्द्रीय सत्ता " के लिये
होड़ होगी |ऐसा राज प्रेक्षक मानते हैं | इसमें अरविन्द केजरीवाल की भुमिका को लेकर
कतिपय राजनीतिक हल्कों में संदेह के बदल हैं , जिसमे मुख्य वजह सांगठनिक शक्ति का
सीमित स्वरूप , चरित्रवान सामाजिक क्रियाविदों के चयन का झमेला , पैसे -सादगी के
बीच आम लोगों के बीच पहुँच के अलावा अन्य कई ऐसे तथ्य हैं ,जिसका परीक्षण होना अभी
बाकी है |
यह इसलिए कि भारतीय समाज कई कोणों से
विभाजित हैं , जिसमे जातीय ,धार्मिक क्षेत्रीय ,सामुदायिक समूहों के अपने -अपने
आग्रह -विग्रह हैं , इस अवस्था में अभी सीधे कोई निष्कर्ष निकाल लेना जल्द बाजी
होगी कि भारतीय मतदाता आजादी के बाद पूर्णत: परिपक्व हो गई है और अपना -बुरा -भला
समझने में सक्षम है |यह इसलिए कि अबतक भावावेश में ही 'सत्ता' परिवर्तन देश में
हुए हैं और जहाँ राजनीतिक चुनाव के प्रति उदवेग नहीं हैं , वहां खंडित 'जनादेश' ही
सामने आये हैं ,यथा - १९९१ ,१९९६ ,२००४ और २००९ के नतीजे को विश्लेषित कर सकते हैं
| हालाँकि सरकार गठित हुई लेकिन इसमें कई दल , दलीय समूह ऐसे से ,जो एक -दूसरे के
विरूद्ध ख़म ठोक कर चुनाव मैदान में थे | इनमे साहचर्य तभी बना ,जब सत्ता की मलाई
में हिस्सेदारी मिली |१९७७ में तानाशाही बनाम लोकशाही ,१९८९ में बोफोर्स से उपजे
भ्रष्टाचार की छाया तो १९९८-९९ में पस्त कांग्रेस एवं अन्य कथित तीसरे मोर्चे की
स्थिति | इन चुनाव परिणामों को देखें ,तो साफ होगा कि भारत जैसे विविधता वाले देश
में अब स्पष्ट जनादेश निकट भविष्य में किसी पार्टी या पार्टी समूह को आसानी से मिल
जायेगी ,यह मुमकिन प्रतीत नहीं होती |
याद करें , परतंत्र भारत में अंग्रेजी
हुकूमत में भी केन्द्रीय एसेम्बली के लिये चुनाव हुए थे , इसमें कांग्रेस और
मुस्लिम लीग ही प्रभावी भूमिका में थे , जिसका असर इस रूप में प्रकट हुआ कि जिस
समुदाय की जहाँ बहुमत था ,वहां उसी को मतदाताओं ने पसंद किया ,बंगाल इसका सुन्दर
उदाहरण है | तब कांग्रेस को हिंदू पार्टी और लीग को मुस्लिम के प्रतिनिधित्व करने
वाली समझा गया था | ऐसे में , यदि केजरीवाल के 'आप' को कितना जन समर्थन मिल पाता
है , यह देखने लायक होगा , प्रधान मंत्री के ख्वाब देखें ,यह अच्छी बात है लेकिन
यह सहज होगा , यह अभी काफी लंबा सफर की मांग करती है |
'आप' का प्रादुर्भाव स्थानीय जन समस्या/संकट
से उत्पन्न है |अलबत्ता , यह दीगर बात है कि लोकतंत्र के अनुरूप जन अधिकार की लड़ाई
में इसके कर्ता-धर्ताओं की अहम योगदान है ,जैसे सूचनाधिकार और लोकपाल | मगर यह भी
फिलवक्त काफी नहीं है | सिन्धान्तों का गढना , विचारधारा को अंगीकृत करना यों कहें
कि एक जो राजनीतिक दल के लिये मौलिक स्वरूप होती है , उसे तैयार करना ,इसके लिये जरूरी
है | नहीं तो विनोद कुमार बिन्नी के असंतोष , प्रशांत भूषण के अति बुधिवादी बातें और
कुमार विश्वास के बडबोलापन के जरीये से सत्ता पर काबिज होना इसके बूते की बात नहीं
|
अतएव , मोदी संघर्ष की उपज हैं ,तो राहुल विरासत
की देन है ,इसमें केजरीवाल मध्य वृति के परिचायक हैं | कांग्रेस और भाजपा को अपनी सांगठनिक
शक्ति पर भरोसा है , तो 'आप' को अपने तेज वैक्तित्व एवं चरित्र पर अडिग रहने का जज्बा
| मोदी को लेकर चुनाव परिणाम आने पर संशय -संदेह उक्त पद के लिये हो सकते है लेकिन
राहुल को लेकर कांग्रेस में कोई चुनौती देने को तैयार नहीं | केजरीवाल केवल 'पूरक'
की भूमिका में वर्तमान राजनति में हो सकते हैं ,मगर उक्त दोनों के साथ ऐसा संभव नहीं
, जब भी भाजपा -कांग्रेस होंगे एक -दूसरे के खिलाफ ही होंगे ,बाकी इनके हाथों के खिलौने होंगे |
इन परिप्रेक्ष्य में प्रकट है कि आनेवाले चुनाव
पूर्व की अपेक्षा ज्यादा दिलचस्प होंगे , जिसमे 'आप' का तड़क कितना कारगर होगा , वह
देखने वाली चीज होगी |
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