Friday, 10 January 2014

अपराध तो हुए मगर कसूरवार कौन ?

                      (एसके सहाय)
    भारतीय न्यायिक पद्धति में ,यदि थोडा पीछे और जाएँ ब्रिटिशकालीन तो ,एक धारणा काफी प्रचलित है , वह यह कि ' सौ कसूरवार छूट जाये ,लेकिन एक भी निर्दोष को सजा नहीं हो ' मतलब कि दोष सिद्ध होने पर ही अभियुक्त को दण्ड मिलनी चाहिए |
       यह देश में कहने -सुनने में अच्छी लगती है और यह एक सभ्य एवं सुसंस्कृत समाज के लिये बेहतर प्रक्रिया के रूप में स्थापित भी है , मगर परिवर्तित समय में इसके कितने खौफनाक नतीजे सामने आ रहे हैं , उसकी सहज कल्पना करना नामुमकिन है | इसलिए उस अवधारणा को समझने की जरूरत आ पड़ी है और अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस दिशा में सक्रिय पहल के संके दिए है |
        उच्चतम न्यायालय ने गत आठ जनवरी को दिए एक अहम फैसले में संघ और राज्य सरकारों को उन आपराधिक मामलों  जाँच करने का निर्देश दिया है , जिसमे अपराधी ,आरोपित होकर भी अदालत से बरी हो गए | इसके लिये छः माह में एक अलग व्यवस्था करके जाँच एजेंसी और जाँच अधिकारी के दायित्व निर्धारण की बात भी अदालत ने की है |
    वैसे ,अक्सर खबरे, खासकर फौजदारी मामले में आती हैं कि अपराध हुए , अपराधी पकडे गए , फिर संदेह के लाभ या फिर साक्ष्य के अभाव में अभियुक्त बने अपराधी को न्यायालय ने रिहा कर दिया | आखिर ,यह कैसे होता है कि आरोपित व्यक्ति या व्यक्ति समूह को पुलिस अर्थात जाँच अधिकारी अपने द्वारा लगाये गए तथ्यों को अदालत में साबित नहीं कर पाता ? क्या आरोप पत्र में ही गडबडी होती है ? क्या जाँच अधिकारी , जाँच में निपुण नहीं है ? क्या इसके प्रशिक्षण में त्रुटि है ? या पूरी जाँच प्रक्रिया ही दोषपूर्ण है ? या फिर जान बुझकर आरोप पत्र , जो अदालत में समर्पित होते हैं ,उसमे कमजोर बिंदुओं को ही रखा जाता है ,ताकि अभियुक्त क़ानूनी नुक्ता -चीनी के फायदे लेकर दोष मुक्त हो सके |
      देखा गया है कि देश में आपराधिक मामलों में ज्यादातर मुकदमों में गवाह और गवाही पर फैसले की डोर निर्भर रहती है | सामाजिक स्थितियां , व्यक्ति के मानसिक दशा ऐसी है कि लोग आसानी से फौजदारी मामलों में गवाही देने को तैयार नहीं होते और अगर तैयार होते भी हैं , अनजाने -जाने दबाव में अदालत के समक्ष पूर्व में दिए अपने पुलिस बयान से मुकर जाते है | ऐसी अवस्था में ,मौजूदा न्यायिक पद्धति के सामने गंभीर चुनौती खड़ी है और इसी को सर्वोच्च अदालत ने ठीक करने की दिशा में पहल की है |
        कल्पना करें ,हत्या या इस जैसी अन्य जघन्य अपराध हुए , जाँच अफसर ने अपनी तफ्तीश में दोषी पाए गए व्यक्ति /व्यक्तियों को उसके लिये आरोपित अदालत में किया | क्या इतना भर ही जाँच अधिकारी /जाँच एजेंसी का कर्तव्य है ? या अपने रिपोर्ट के मुताबिक अपराधी को सजा दिलवाना भी उसके कर्तव्य में है ?
  फिर सोचें , आरोपित व्यक्ति अदालत से रिहा हो जाते हैं , तब फिर आखिर उक्त जैसे अपराधों को अंजाम देने वाला कौन है ? आखिर ,अपराध तो हुए , फिर किसी निर्दोष को कैसे जाँच अफसर ने आरोप पत्र में आरोपित कर दिया ?
     यह सवाल इसलिए गंभीर है कि देश के मौजूदा समय में साढ़े तीन करोड मामले अदालतों में सुनवाई के लिये लंबित हैं | इसके जल्द निपटारे की समस्या न्यायपालिका के लिये चुनौती बन गई है | दिवानी , राजस्व के मामले में देरी थोड़ी देर के लिये समझ में आ सकने वाली हो सकती है ,मगर फौजदारी मामलों में घटना के हिसाब से कसूरवार होने वालों की संख्या काफी कम है | इस मामले में ,सजा तब ही प्राय: हो पाती है , जव मुदई चुस्त - गवाह दुरूस्त होते हैं |
       भारतीय न्याय व्यवस्था की संकल्पना परम्परागत है , जिसमे अंग्रेज हुकूमत की छाया है , यह तब के लिये लाभप्रद हो सकती थी , जब देश के आम लोग अपने "नागरिक कर्तव्यों" के प्रति जागरूक एवं संवेदनशील होते | गवाही के नाम से ही जहाँ लोग पुलिस -अदालत में सामान्य ढंग से बात कहने -रखने में हिचकते हों , वहां न्याय की सुनवाई लचर होना स्वाभाविक होगा ही | व्यवहार में तो यही परिलक्षित है और इसी को उच्चतम न्यायालय ने गंभीर माना है |

        अदालत के निर्देशों में स्पष्ट किया गया है कि जाँच अधिकारी /जाँच एजेंसी, अपनी कही गयी बातों को सिद्ध करने की जिम्मेदारी लें , अगर यह अपने आरोप पत्र के अनुसार मामले को अदालत में सिद्ध नहीं कर सकें , तब इसके लिये उनको दंडित किया जाये , यह दण्ड इसलिए कि वह बेवजह निर्दोष को फंसाया ,इसलिए नयायालय ने उसे रिहा के लाभ का अवसर प्रदान किया | ऐसे में , प्रश्न  उठाना स्वाभाविक है कि आखिर दोषी कौन है ? इसे महत्वपूर्ण मानते हुए सर्वोच्च अदालत ने 'दायित्व' का निर्धारण किये जाने पर सरकार को जोर दिया है | 

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