Tuesday, 4 February 2014

मोर्चेबंदी में झामुमो

               (एसके सहाय)
    झारखण्ड से दो परदेशियों के राज्य सभा के चुनाव में निर्विरोध चुने जाने के बाद सरकार का नेतृत्व कर रही पार्टी झामुमो इन दिनों मोर्चेबंदी का शिकार हो गई है | यह मोर्चा दल के ही तीन विशेष विधायकों ने सामाजिक रणनीति के आधार पर तैयार किया है ,जिसके लिये झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन जिम्मेदार हैं |इसमें किसी तरह के संशय नहीं है |
     अतएव , पार्टी के मौजूदा संकट में सरकार के स्थायित्व पर खतरा स्वभावगत है ,जो आने वाले लोक सभा के साथ विधान सभा के चुनाव में असर करने की दिशा में अग्रसर है |यह इसलिए की झामुमो की राजनीतिक शक्ति में शुरू से ही दो जातियों का योगदान इसके जन्म काल से है ,इसमें एक आदिवासी और दूसरा कुरमी समाज का , इनके बूते ही यह पार्टी अबतक एकीकृत बिहार के वक्त से प्रभावी रही है ,जिसकी अनदेखी का असर चुनावी राजनीति में अब दल देखने को अभिशप्त है |
      फ़िलहाल ,जो संकट झामुमो में पसरा है ,वह उच्च सदन अर्थात अर्थात राज्य सभा के लिये निर्वाचित प्रेमचंद गुप्ता से जुड़ा है ,जिन्होंने अचानक राजद के प्रत्याशी बनके सभी को अपनी ताकत का अहसास कराकर चल दिए और पार्टी के घोषित उम्मीदवार साबित महतो हाथ मलते रह गई जिसमे तुर्रा यह कि इनके लिये नामाकन पत्र तक खरीद लिये गए थे और यह गृहणी अपने दिवंगत पति सुधीर महतो के श्राद्ध कर्म किये बगैर जमशेदपुर से रांची डेरा डाल दी थी कि उसे सांसद बनने के अवसर मिलने वाले हैं ,लेकिन ऐसा नहीं हुआ ,जिससे कुरमी जाति से ताल्लुकात रखने वाले पार्टी के तीन विधायको ने क्रोधित होकर विधान सभा से ही इस्तीफा दिए जाने की सार्वजनिक घोषणा कर दी है ,जिससे झामुमो और सरकार सकते में है |
     इस पटकथा के नेपथ्य में झारखण्ड की राजनीति में दबदबा  को स्थापित करने की प्रक्रिया है ,जिसमे सत्ता पक्ष के साथ ही प्रतिपक्ष के अपने -अपने केन्द्रीय नेतृत्व के सहारे अपनी -अपनी दुकानदारी चमकाने की कोशिश जैसी है | कहानी देखें - 'वो (विधायक) ,उन्हें जानते नहीं ,मगर राज्य सभा के चुनाव में विधायकों के वोटों पर कब्ज़ा उनके ही रहा , नतीजतन "सत्ता" बचाने के समीकरण ऐसे उत्पन्न हुए कि उनके चयन निर्विरोध हो गया |' मतलब ,प्रेमचंद गुप्ता और परिमल नथवानी से है , जो मूल रूप से क्रमश: हरियाणा और गुजरात के वासी हैं लेकिन अब उच्च सदन में वे सूबे का प्रतिनिधित्व करेंगे |वैसे , नथवानी इसके पूर्व भी इसी राज्य से उक्त सदन की शोभा बढ़ा चुके हैं ,तब झामुमो और भाजपा में अनचाहे मतैक्य थे |
    इतफाक से इस दफे स्थितियां विचित्र एवं भिन्न थी , झामुमो ,राजद और कांग्रेस में राज्य सभा में उम्मीदवार संयुक्त रूप से खड़ा करने का विग्रह चरम पर था ,कांग्रेस ने फुरकान अंसारी ,तो झामुमो ने दिवंगत सुधीर महतो की पत्नी साबित महतो को अपना प्रत्याशी खड़ा करने का निश्चय कर लिया था अर्थात सत्तासीन हल्कों में एका का अभाव के बीच राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव की घुड़की ने सबको सरकार के अस्तित्व की चिंता में डुबो दिया ,जिसमे झामुमो ने बिना लाग -लपेट के घुटने टेक दिए ,जो वर्तमान में झामुमो में समस्या पैदा की है |
      विधायक जगन्नाथ महतो ,विद्युत चरण महतो और मथुरा महतो ने संयुक्त तौर पर इस परिघटना को कुरमी जाति के लिये अपमान समझा है | इनके अपमान के पीछे ,जो तर्क है ,वह यह कि सुधीर महतो के बेवा सबिता महतो को पार्टी ने बैठक करके सर्सम्मत से अपना उम्मीदवार घोषित किया था ,फिर झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन ने बिना राय -मशविरा के कैसे राजद के दबाव में आना स्वीकार कर लिया ? 
       साफ है कि झामुमो में अधिनायकवादी प्रवृति के विरूद्ध पहली बार आवाज नेतृत्व के प्रति उच्चे आवाज में गूंजी है ,जिसका असर अभी नहीं ,लेकिन आने वाले समय में काफी नुकसानदेह साबित होने जा रहा है ,जिसका शायद गुरूजी के नाम से मशहूर शिबू सोरेन को अंदाज अब होने को है | सबिता  महतो ,उस परिवार से सबंधित है ,जिसने पृथक राज्य के संघर्ष में अपना बलिदान देने में कभी कोई हिचकिचाट नहीं प्रकट की है  अर्थात स्वर्गवासी निर्मल महतो के भाई सुधीर महतो थे जिनकी पत्नी सबिता महतो हैं | निर्मल महतों को कुरमी समाज में बलिदानी शख्स के तौर पर नमन किया जाता रहा ,जिनकी हत्या १९८५ में जमशेदपुर के मजदुर आंदोलन में सक्रिय रहने की वजह से हुई थी , उस वक्त निर्मल महतो ही झामुमो के केन्द्रीय अध्यक्ष थे ,तब गुरूजी कहे जाने वाले शिबू सोरेन की हैसियत पार्टी में दूसरे दर्जे की हुआ करती थी |
       इस प्रतिशा को ठेस पहुँचने पर आज कुरमी समाज उद्वेलित दीखता हो ,तो इसे मानव सुलभ सामाजिक ताने -बाने अस्वाभाविक भी नहीं कहा जा सकता |इसी शक्ति के बदौलत झामुमो को सिंहभूम के साथ उत्तरी झारखण्ड में दृढ़ता प्राप्त है ,जिसकी उपेक्षा से यह समाज मर्माहत है |इस अपमान जनित चोट से मंत्री जय प्रकाश पटेल फिलवक्त चुप्पी साधे हुए है | इससे पार्टी के राजनीतिक शक्ति में क्षरण होने की संभावना बलवती है | यह संभावना इसलिए भी स्वाभाविक प्रतीत है कि स्थानीय पार्टी के रूप में आजसू का भी विस्तार राज्य में शनै -शनै पिछले कुछ सालों से हुआ है और इसका नेतृत्व भी कुरमी समाज से जुड़ा शख्स सुदेश महतो के हाथों में है ,जो झामुमो के भीतरी विग्रहों पर नजर रखे हुए है |यह पार्टी भी काफी हद तक जातीय गोलबंदी की जुगत में है और यह मौजूदा समय में कामयाब भी दिखती है | उदाहरण सामने है ,हजारीबाग में लोकनाथ महतो - देवीदयाल कुशवाहा ,चार /पांच बार भाजपा के विधायक रह चुके हैं ,मगर इनमे जातीय चेतना हाल में इस तरह जगी कि दोनों अब इससे किनारा कर चुके हैं और आजसू के दामन थाम चुके है | वैसे भी ,
धनबाद ,गिरिडीह ,बोकारो, हजारीबाग , कोडरमा , जमशेदपुर और रांची के इलाकों में कुरमी समाज का अपना प्रभाव क्षेत्र है ,जहाँ इसकी अनदेखी करने का साहस तभी संभव है ,जब इनमे विग्रह के सूत्र तारतम्य में नहीं हों |
   संक्षिप्त में यह कि झामुमो को आकार देने में स्वर्गीय बिनोद बिहारी महतो(पार्टी संस्थापकों में अग्रणी) की शुरूआती भूमिका नकारने की दिशा में शिबू सोरेन आगे बढ़ चुके हैं ,सत्तालिप्सा ने इन्हें बेटे हेमंत सोरेन को ताज पहना दिया ,मगर यह ताज कितने दिनों तक रहेगा ,यह संदिग्ध है |शिबू -हेमंत अब सबिता को खुश करने के लिये निगमों /बोर्डों के अध्यक्ष और समय आने पर राज्य सभा में भेजे जाने के 'लालीपाप' दिए जाने के बात की है ,यह वैसे भी गिरते राजनीतिक स्तर की ओर इशारा की है , भ्रष्ट राजनीति के संकेत हैं |

    बहरहाल ,झारखण्ड अस्मिता ,संस्कृति और स्थानीय पहचान को नजरंदाज करके अब प्राय: सभी दल अपनी विश्वसनीयता पर कुठाराघात किये हैं ,इसमें प्रमुख झामुमो तो है ही ,साथ में झाविमो (प्रजातान्त्रिक) भाजपा ,राजद व आजसू भी शामिल हैं , इनमे झाविमो ने बिकाऊ स्थिति की जमीन इस एलान के साथ तैयार कर दी थी कि वह चुनाव में शिरकत ही नहीं करेगा | इससे बाहरी खिलाडियों को खेलने के पूरे अवसर मिल गए ,जिसमे झामुमो को तत्काल स्वर्गवासी हुए नेता सुधीर महतो का "माइलेज " नहीं मिल सका | इसमें भी संदेह है कि झामुमो का इसमें अपना वैक्तिक स्वार्थ के तार न जुड़े हों | पूर्व के इतिहास से ऐसे कयास  पूरे जोर -शोर से झारखण्ड में चर्चा का विषय बन गई है |
   कुल मिलाकर ,झारखण्ड बाहरी राजनीतिज्ञों के प्रयोगशाला के रूप में सामने है ,राजद के मूल आधार वाले बिहार में एक भी सीट उसे नसीब नहीं है ,मगर पांच विधायकों के बल पर अपने पसंदीदा उम्मीदवार को जीता ले जाना उसकी खास 'धौंस -पट्टी' के रणनीतिक पहलू है ,जिसमे कांग्रेस भी नतमस्तक है ,तो उसकी वजह आसन्न लोक सभा के नज़ारे हैं | पहले भी सूबे से बाहरी तत्व राज्य सभा में जा चुके हैं और इस बार भी उच्च सदन में गए हैं ,तो आश्चर्य कैसा ? इस खेल में कोई एक भी अछूता हो ,तब तो ---

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