Thursday, 13 February 2014

गहरे अर्थ हैं मोदी-पावेल मुलाकात के

                (एसके सहाय)
    अमरीकी राजदूत नैंसी पावेल और गुजरात के मुख्य मंत्री नरेन्द्र मोदी के बीच हुई मुलाकात के अपने एवं खास अर्थ हैं | यह विशेष इसलिए है कि देश में चुनावी वर्ष का मौसम है ,दित्तीय यह कि संयुक्त राज्य अमेरिका को प्रतीत है कि अगले प्रधान मंत्री मोदी हो सकते हैं और तृतीय यह कि इस 'भेंट' का विश्व राजनय अर्थात कूटनीतिक हल्कों में प्रभाव पड़ना अवश्यम्भावी है | सो , भारतीय लोक सभा अर्थात निम्न सदन के निर्वाचन में इस "बातचीत" का मनोवैज्ञानिक असर होना भी तय है ,जिसके आसार अभी से दिखने लगे हैं |
        पावेल-मोदी मुलाकात और वह भी अमरीका की पहल/आग्रह पर होने का मतलब काफी साफ है ,जो इंगित कर रहा है कि यूनाइटेड स्टेट अब भारत में बढते दक्षिणपंथी शक्तियों अर्थात भाजपा समूह के साथ वाली राजनीतिक ताकतों को स्वीकार करने के मन:स्थिति में है ,जिसके खास वजह भी हैं ,जो दो देशों के आपसी रिश्ते ही नहीं ,वरन पूरे दुनिया के लिये विशेष अर्थ रखते हैं |इसलिए इस बातचीत को मौजुदा परिप्रेक्ष्य में नजरन्दाज नहीं किया जा सकता |
      इस तथ्य से प्राय: सभी अवगत हैं कि अमरीका ने मोदी को 'वीसा' देने से सार्वजनिक तौर पर इंकार किया था | यह इंकार इसलिए था कि उसे मोदी एक 'धर्मांध' व्यक्ति नजर आये थे | इसके मूल में गोधरा दंगे के बाद प्रतिक्रिया में भडके राज्य व्यापी दंगे थे ,जिसके नियंत्रण कर पाने में असमर्थ मोदी को इसके लिये उसने जिम्मेदार माना था ,जिसे अल्पसंख्यक समाज के दुश्मन के रूप में एक राज्य के मुख्य मंत्री को रेखांकित करके वीसा देने से मनाही कर दी थी |
        ऐसे में ग्यारह साल बाद अमरीका को लग रहा है कि जिसे वह 'लोकतान्त्रिक समाज' के लिये घातक और अछूत समझ रहा था ,वह अब " भारत जैसे वहुविध समाज " के शिखर अर्थात प्रधान मंत्री के पद पर आरूढ़ होने वाला हैं ,तब यह इंकार कहीं उसे कूटनीतिक झटके न दे जाये ,सो समय से पहले " संबंधों' को सुधारने की प्रक्रिया को शुरू कर देना ही उसके लिये बेहतर है | वैसे भी ,भारत संसार का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक व्यवस्था वाले देश के रूप में स्थापित है,जिसकी खूबियों से संसार परिचित भी है |
 सोवियत संघ के बिखरने के बाद अमरीका की छवि विश्व "दारोगा" की स्वत: उभर गई है ,जिसमे उसके खुद के योगदान भी कम नहीं है , ऐसे में विश्व के समक्ष उत्पन्न एक नये तरीके के "आतंकवाद" से निपटने के लिये भारत जैसे राष्ट को साथ में रहना उसके लिये मज़बूरी है ,जो "शक्ति" के साथ ही आर्थिक क्षेत्र में बज्ज़र भी आसानी से उपलब्ध करवाने की सामर्थ्य रखता है ,जिसे किसी भी कीमत पर वह खोना नहीं चाहता है | थोड़े देर के लिये चीन, अमरीका के लिये बाज़ार दे सकता है ,लेकिन यह टिकाऊ होगा ही ,इसकी कोई गारंटी नहीं , ऐसा इसलिए कि यह देश भूमंडलीकरण, उदारवाद , बाजारवाद जैसे प्रक्रिया को बढ़ावा देता तो है ,लेकिन यह अब भी "बंद" व्यापार से पूरी तरह मुक्त नहीं है ,जिसके नेपथ्य में सत्ता का सर्वाधिकार वादी स्वरूप के शासन /सत्ता का खतरा निहित हैं | ऐसे में , एशिया ही नहीं पूरे जगत में भारत ही उसके लिये महत्वपूर्ण एवं भरोसे का सतही हो सकता है ,जिसकी मित्रता बदलते विश्व में वह खोना नहीं चाहता |
       इतना ही नहीं , फिलवक्त अमरीका इस्लामिक कट्टरवादियों के आतंक से जूझता देश है और इसका शिकार भारत लंबे अरसे से है ,इसका ज्ञान उसे है, इसलिए भविष्य के सामुदायिक बहुधुर्वीय दुनिया में वह अलग -थलग नहीं पड़ना चाहता , इस साल के अंत में वह अफगानिस्तान से बाहर होगा ,वैसे अमरीका राष्टपति हामिद करजई से १० हज़ार सैनिक बल रखने की गुजारिश भी की है ,ताकि यहाँ उसके अमरीकी हित सुरक्षित राह सके और इसे अफगानिस्तान मानने से इंकार भी कर रहा , जो उसे विवश कर रही कि भारत का साथ उसे एशिया में मिलना अपरिहार्य है |इन हालातों में बराक हुसैन ओबामा (अमरीकी राष्टपति)का परिवर्तित रूख मोदी -पावेल मुलाकात के जरीये आने वाले दिनों के लिये आश्वस्त करते दीखते हों ,तब इस भेंट वार्ता के उपयोगिता को समझा जा सकता है |
       बहरहाल , इस मुलाकात को अमरीका ही नहीं ,वरन संपूर्ण यूरोप के देश अब आँख फाड़कर अपने -अपने हितों के सन्दर्भ में आकलन अर्थात लेखा -जोखा करने में भीड़ गए हैं | ग्रेट ब्रिटेन तो पहले ही मोदी के संग "पेंगे" बढ़ा चूका है ,फ़्रांस भी कतार में खड़ा है ,इसके अलावे कई देश जल्दी -जल्दी अपने कूटनीतिक रिश्ते को सहज करने में जुट गए हैं ,जो बता रहा कि भाजपा को शेष विश्व भविष्य का "शासक पार्टी' मानने के लिये अभी से तैयारियां शुरू कर दिए हैं |
       राजदूत -मुख्य मंत्री के इस मुलाकात का लब्बो -लुआब क्या रहा ? यह खुलकर सामने नहीं आ पाया है ,यदि आया भी है ,तो वह ढंके-तोपे हैं ,जिसका लोक सभा चुनाव के परिणाम आने तक कोई अर्थ नहीं | इसके मतलब ,बदलते सत्ता के साथ ही आने प्रारंभ होंगे | अभी केवल इतना हुआ है कि , इस बातचीत नुमा भेंट ने देश में " भाजपा " को सत्ता में आने के करीब सा मनोवैज्ञानिक आधार मतदाताओं के मध्य तैयार करने अनजाने में मददगार बन गई हैं ,जिसमे बुधि के जरीये चिढ -फाड करके अपने नजरिया कायम करने वाले बुद्धिजीवियों की संख्या में इजाफा हो गई है और इसमें यह तर्क कि "अमरीका ने मोदी के साथ अपने घोषित रूख पर विचार किया है, तब निश्चित है कि उसे अपने ख़ुफ़िया रिपोर्ट अर्थात चुनावी परिणाम का आकलन हो गया होगा |"

   और अंत में यह कि मोदी .भाजपा के घोषित प्रधान मंत्री के दावेदार हैं ,जिनकी महत्त्व को अधिक समय तक संसार के कोई भी देश उपेक्षा नहीं कर सकता ,विशेकर उस स्थिति में जब यह सत्ता लोकतान्त्रिक तरीके से हस्तांतरित होकर अधिशासी "व्यक्ति अर्थात नेता" के पास खुद चलकर पहुंचे | 

2 comments:

  1. अमेरिकी नीति शुरु से ही अवसरवादिता और दूरदर्शिता की रही है. समय की परख में माहिर अमेरिका अपने पक्ष को में फायदे के लिए कभी भी और किसी समय यू टर्न ले सकता है. आपके इस विश्लेषण में सही सही बात कही गयी है

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