Sunday, 16 February 2014

केजरीवाल : सबक में इतिहास

               (एसके सहाय)
      कहते हैं , इतिहास कभी नहीं मरता ,जब भी स्थितियां इसके अनुरूप होती है ,वह अपने को दोहराता है ,काफी कुछ यही बात अरविन्द केजरीवाल के मुख्य मंत्री के पद से इस्तीफे दिए जाने की है ,वह दिल्ली विधान सभा में सदन की हालात से खिन्न होकर त्याग पत्र दिए जाने की घोषणा कर रहे थे ,ठीक उसी क्षण दिल्ली कांग्रेस के अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली ,पार्टी विधायको का समर्थन मौजूदा सरकार को जारी रखने की बात कर रहे थे,यह विरोधाभास बता रहा था कि, कांग्रेस २४ साल बाद भी नहीं बदली है ,इसकी रणनीतियां ठीक उसी तरह की आज भी है ,जैसे प्रधान मंत्री चंद्रशेखर काल के समय थी , उस वक्त भी कांग्रेस राजीव गाँधी के नेतृत्व में इसी तरह की नाटकबाजी कार रही थी , लोक सभा में तत्कालीन सरकार अपने पहले 'विश्वास मत' पर बहस कर रही थी और कांग्रेस के निम्न सदन के सदस्य ,उससे बाहर आकर चंद्रशेखर सरकार को अपना समर्थन दिए जाने की बात कर रहे थे ,जिससे आजिज होकर चंद्रशेखर ने लोक सभा में ही अपने त्याग पत्र दिए जाने की घोषणा कर डाली थी और राष्टपति को उसे जाकर सौंप दिए थे |यही दुहरा अर्थात "दुरंगी नीति" का अनुसरण एक बार फिर कांग्रेस ने 'आप' अर्थात केजरीवाल सरकार के साथ की है |
      घटना देखिये , 'आप' की दिल्ली सरकार , केन्द्रीय पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोईली , उद्योगपति मुकेश अंबानी समेत अन्य पर " गैस " के दामों पर सुनियोजित भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आपराधिक प्राथमिकी दर्ज किये जाने के आदेश दे चुकी है और अपने घोषित "जन लोकपाल" के लिये विधान सभा में विधेयक रखने वाली है ,जिसका कांग्रेस / भाजपा विधायकों ने इतने जबर्दस्त अशोभनीय तरीके से सदन में खिलाफत की, कि वह पेश ही नहीं हो सका | पिछली सदी के अंतिम दशक के शुरूआत में भी यही हुआ हुआ था , कांग्रेस ने अपने चिर-परिचित अन्दाज में तिकड़मी रणनीतिक योजना के तहत चंद्रशेखर को प्रधान मंत्री की कुर्सी दिला तो दी थी ,मगर इसके मंशा कुछ और थे ,जिसमे यह था कि इसे ज्यादा दिनों तक न टिका कर ,कोई बहाने से गिरा दिया जाये ,जिससे जनता दल और इससे मिलते -जूलते पार्टियों के चेहरे इस कदर लोगों में 'लालची व अवसरवादी'  के रूप में स्थापित कर दिया जाये कि वे मध्यावधि चुनाव में कांग्रेस के आगे धराशायी हो जाएँ |इतफाक से कांग्रेस को एक हल्का मौका भी मिल गया , हरियाणा के दो पुलिसकर्मी राजीव गाँधी के आवास पर टहलते हुए दबोचे गये ,जिसे कांग्रेस नेताओं ने यह कहकर प्रचारित और ब्लैकमेल करना शुरू किया कि दोनों सिपाही पार्टी नेता के "जासूसी" कर रहे थे | इसी को मुद्दा बनाकर कांग्रेस ने चन्द्रशेखर से 'राजनीति के मोल -भाव' करने शुरू किया ,जिसे अपमान समझ ,प्रधान मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिये थे  |
     उस वक्त भी, कांग्रेस ने अल्पमत सरकार को अपना समर्थन दिया था और इस बार भी अल्पमत केजरीवाल सरकार को बिना शर्त समर्थन दिए जाने की बात की थी ,मगर विधान सभा में इतने विद्रूप ढंग से इसके विधायकों ने हरकत किये की ,कि जन लोकपाल विधेयक प्रस्तुत ही नहीं हो सका , जिसे मुद्दे बनाकर केजरीवाल ने पद त्याग की घोषणा ही कर डाली ,हालाँकि इसमें "आप" के रणनीतिक कदम भी नेपथ्य की राजनीति के लिये छिपे थे |
     जाहिर है , भारतीय राजनीति का चेहरा अब भी वही पुरानी "साजितन" है ,फर्क केवल "मुद्दे" को लेकर है और इस तरह की पैतरेबाजी करने में कांग्रेस को महारथ हासिल है | मामला ,दो पुलिसकर्मियों के कथित जासूसी का हो या अब संवैधानिक/ उप राज्यपाल के निर्देशों का , यह ऐसा विषय नहीं था कि उसके लिये विधायिका में हंगामे /जोर जबरदस्ती के हालात पैदा किये जाएँ , जन लोकपाल विधेयक " देश की संप्रभुता को चोट पहुंचाने वाली एवं पृथकतावादी "  विचारों से जुड़ा नहीं था ,बल्कि इसमें ' लोकतान्त्रिक व्यवस्था के मूल  का 'प्रस्फुटन' होना था ,जो वर्तमान में देश को शिद्दत से जरूरत है |
              वैसे ,भी इन दिनों देश में "काम' की राजनीति का करीब -करीब अभाव है ,जो रचनात्मक / सकारात्मक करने की राह में हैं ,उनके रास्ते में कांटे बिछाए जाने के प्रयास हैं , उप राज्यपाल  जंग केन्द्रीय सत्ता के एजेंट भर हैं , वह सीधे किस आधार पर विधायिका को निर्देशित कर सकते हैं कि --यह करो ,वह मत करो , यह संसदीय पद्धति के शासन के लिये गंभीर विषय है| गलत या सही इसका निर्णय संघ सरकार अपने मान्य व्याख्या के अनुरूप लेने की अधिकारिणी है ,इतना ही नहीं ,इसमें राजनीति घुस जाये तब और प्रवेश कर भी गया है ,इसका फैसला स्वतंत्र देश की स्वतंत्र अदालत करेगी कि क्या वैध/ अवैध और उचित /अनुचित है | दलगत राजनीति में डूबे राजनीतिज्ञ को यह हक कदापि नहीं दिया जा सकता कि ,वह डग-डग पर रोडे अटकाए ,जैसा कि कांग्रेस और भाजपा ने किया है |
    दरअसल ,सार्वजनिक जीवन में नियमों /परिनियमो का महत्त्व अब तत्कालीन लाभ /हानि से जुड़ा है | कोई किसी के प्रति निष्ठावान,प्रतिबद्ध , वचनबद्ध ,समर्पित नहीं है ,झाल -झपट की भेंट राजनीति मौजूदा समय में है ,जहाँ -लाज -शर्म के लिये कोई जगह नहीं , रिश्वत लेते पकडे जाएँ ,तो दांत निपोड़ते भ्रष्ट तत्व दिख जायेंगे , इसमें राज कर्मचारी से लेकर मंत्री ,मुख्य मंत्री रह चुके कई नामों की फेहरिस्त है |
        एक बात और ,वह यह कि अरविन्द केजरीवाल के इस्तीफे को कतिपय राज प्रेक्षकों ने फिलवक्त गैर जरूरी समझा है ,जो अधकचरी विश्लेषण है, जब अपने समर्थक विधायक (कांग्रेस)ही प्रतिपक्ष अर्थात भाजपा के साथ मिलकर सदन में अराजक माहौल कायम करने में योगदान दे रहे हों ,तब क्या रह जाता है सरकार का ,कुछ भी विधायी कार्य करने को ,ऐसे में एकमात्र रास्ता "सत्ता" के मार्ग से हट जाना ही श्रेयकर है ,जिसका अनुकरण केजरीवाल ने किया है | यह  सब जानते थे कि दिल्ली सरकार कांग्रेस के रहमो -करीब पर आश्रित थी  , केजरीवाल ने भी विवशता में इस चुनौती को स्वीकार किया था , कांग्रेस पहले ही उप राज्यपाल को अपना बिना शर्त वाली समर्थन का पत्र दे दी थी ,तब "आप" संसदीय प्रणाली के मान्य तकाजे को मंजूर करते हुए तख़्त पर बैठना स्वीकार किया , मगर चौकन्ना के साथ , इसमें अपनी राजनीति के मकसद भी अंतर्निहित हों ,तब कैसा अचरज ? 

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