(एसके सहाय)
कांग्रेसनीत
संप्रग सरकार के केन्द्रीय वित्त मंत्री पी चिदम्बरम ने लोक सभा के सोलहवीं चुनाव
के परिप्रेक्ष्य में बजट रखा ,वैसे ही स्पष्ट हो गया कि दस साल तक देश में हुकूमत
करने वाली पार्टी की अब "इच्छा शक्ति" मर गई है ,तभी तो वह पूर्णकालिक
वार्षिक बजट प्रस्तुत करने के बजाय 'अंतरिम' तौर पर ही लेखा -जोखा पेश की, ताकि
चुनाव बाद बनने वाली 'सत्ता' ही वर्ष भर के अर्थकीय गतिविधियों को नियमन करे
,दूसरे शब्दों में इसे 'जिम्मेदारी' से भाग निकलने वाली कदम के रूप में रेखांकित
कर सकते हैं |
पुनश्च्य, अब जब बजट
सामने आ चूका है ,तब स्वाभाविक है कि इसके लाभ-हानि के प्रभावों को अर्थशास्त्र के
पंडित गंभीरता से समझे ,मगर इसके असर का फिलवक्त आकलन तो राजनीतिक दल और
राजनीतिज्ञ करने में जुट गए हैं ,जिसे वह अपनी -अपनी समझ के अनुसार चुनाव में भुना
सके | सो , प्रतिक्रिया भी प्राय: हर दल के नेताओं का अपने -अपने हिसाब से आया है
,जिसका आम भारतीयों के लिये कोई मतलब नहीं | इससे चुनाव बाद काफी विकट स्थिति
आर्थिक जगत में उत्पन्न होने की संभावना बढ़ गयी है | गोलमोल अंदाज़ में सामाजिक
,कृषि ,स्वास्थ्य ,चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में बात होने से साफ है कि बजट में
लओके सभा अर्थात निम्न सदन के निर्वाचन के बाद तब्दीलियाँ आने निश्चित हैं | यह
किस रूप में सवा अरब आबादी के समक्ष आएगा ,यह मौजूदा समय में सपष्ट तो नहीं हैं
,मगर जिस तरह से 'राज' अर्थात सरकार को १९९१ से संचालित करने की मनोवृति का उदय
हुआ है , वह भविष्य में तीखी आन्दोलन के संकेत इसमें छिपे हैं |
मतलब यह कि,
लोकतान्त्रिक समाज की सत्ता अर्थात सरकार में राज-काज का दृष्टिकोण यदि
"व्यावसायिक" हो जाये ,तब अधिसंख्य लोगों को उसका शिकार होना उसकी नियति
बन जाती है और पिछले २३ सालों में देश की सरकारों ने 'कल्याणकारी संकल्पना' से
इत्तर नजरिये का ही परिचय दिया है ,चाहे वह पीवी नरसिंह राव की सरकार हो ,या फिर
देवगोडा, गुजराल , बाजपेयी या मौजूदा मनमोहन की सरकार , सभी ने मुलभूत जरूरत के
विषयों/ क्षेत्रों को 'व्यापार/उद्योग की तरह ही देखा है और नागरिकों को बरगलाने
के ही यत्न किये हैं | ऐसे में , चिदंबरम ने चुनाव को ध्यान में रखकर वार्षिक बजट
को अधूरे मन से "ललो -चपो" के साथ स्वरूप दिया हो तो आश्चर्य नहीं |
इसके पहले भी देश के वित्त मंत्रियों ने काफी कुछ इसी तरह के बजट देश में प्रस्तुत
किये हैं |
वैसे ,भी
राजनीतिक चर्चा -परिचर्चाओं के बीच "अर्थ नीति" के मामले में कहा जाता
है कि भाजपा और कांग्रेस कम से कम उस क्षेत्र में एक -दूसरे के साथ हैं अर्थात
कार्बन कॉपी हैं | उदाहरण देखिये - रिलायंस कंपनी के प्रमुख मुकेश अंबानी पर
दिल्ली के तत्कालीन सरकार (अरविन्द केजरीवाल) ने गैस के दामों में हुए भ्रष्टाचार
को लेकर आपराधिक मुकदमे दर्ज करने के निर्णय लिये और वह दर्ज भी हुआ ,तब उस चर्चित
मामले में दोनों पार्टियां दम साधे चुप रही | यह बताता है कि ,आर्थिक प्रगति
,उन्नयन और विकास को लेकर देश की दो बड़ी राजनीतिक दलों में आपसी परोक्ष समझदारी है
| कहने का मतलब कि 'विकास' के तथाकथित रास्ते को तय करने में दोनों के मध्य आपसी
रिश्ते हैं |
अतएव , मौजूदा
बजट को 'यथास्थितिवाद' का द्योतक के रूप में ही लेना चाहिए ,जिसमे परवर्ती काल में
अर्थात चुनाव बाद परिवर्तन के पूरे आसार हैं |अर्थ विज्ञानी ,जो फिलवक्त इसके चिर
-फाड में जुटे हैं ,वह निरर्थक है | मोबाइल,
वाहन , फ्रिज जैसे वस्तुओं के सस्ते होने के फायदे और शिक्षा में मिले कर्ज
के ब्याज में अनुदान के लाभ सतही होने के साथ ही यह सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने
की कोशिश भर है ,जिसके स्थायी राहत के कोई संभावना नहीं है | तब इससे खुश किसे
होना है ?
हकीकत तो यह
है कि मनुष्य अर्थात भारत जैसे विकासमान देश के लिये भोज्य पदार्थ , ईंधन ,कपडे
-लते , स्वास्थ्य ,शिक्षा ,परिवहन आजादी के ६३ साल बाद भी अहम है और सरकारें है कि
इन सभी मामलों में "लाभ -हानि" अर्थात व्यावसायिक तरीके से विचार करती
है ,जो बराबर " असंतोष " को जन्म देने वाली प्रक्रिया के तौर पर सामने
आई है | १९७७ में तानाशाही व मंहगाई को लेकर जनता पार्टी का प्रयोग , १९८९ में
बोफ़ोर्स जनित भ्रष्टाचार की गूंज के अतिरिक्त १९९६/१९९७/ १९९८/१९९९ / २००४-२००९ के
सत्ता परिवर्तन के "मुड' अर्थात मन:स्थिति आम भारतीयों की क्या थी ? क्या यह
सच नहीं प्रतीत है कि भाजपा और कांग्रेस के साथ गुंथे प्राय: हर दलों की सोच एक
-दूसरे से प्रभावित है ,भले ही इसके आख्यान धूर्त नेता अपनी -अपनी जरूरत एवं
विचारधारा के चश्में में करते हों |
देश में अब
मध्य वर्ग का विस्तार काफी मात्रा में है
|इससे तदर्थ नीतियों का अवलंबन करने का साहस सरकारें करती है और इसी में असंतोष
/विद्रोह/ विग्रह के भाव अकस्मात जन्म लेते हैं और उसी का प्रस्फुटन आज 'आम आदमी
पार्टी' में हुआ है , जिसके शक्ति का अंदाज वर्तमान सत्ता के शीर्ष पर काबिज
तत्वों को नहीं है | पहले सत्ता के बारे में ज्यादा समझ लोगों को नहीं हो पाती थी,
परम्परागत सोच ही हावी मन -मस्तिषक में रहते थे ,लेकिन कम से कम लगातार सत्ता के
बदलाव से अच्छे -बुरे का पहचान भी लोग करने लगे हैं ,जो कम बड़ी उपलब्धि नहीं है |
सामाजिक
क्षेत्रों के हालात को समझें ,तब काफी भयावह चेहरे नजर आयेगें ,जिसमे बजट के
सारहीन होने की अनुभूति होगी | सरकारी स्कूलों में कौन बच्चे पढते हैं ? सरकारी
अस्पतालों में कौन इलाज करता है ? उत्तर है -कमजोर तबके के लोग/परिवार ,फिर इन
क्षेत्रों पर भारी-भरकम रकम खर्च करने का क्या ओचित्य ? जवाब है ,लोकतान्त्रिक सत्ता के लोक कल्याणकारी
अवधारणा के तहत ,यह प्रबंध जरूरी है | सुनने ,पढ़ने और समझने में यह काफी लोक
-लुभावनी प्रतीत है ,जैसा पेश बजट को लेकर जन चर्चा है ,मगर यथार्थ यह है कि इसके
आड़ में व्यापारिक नजरिये का ही पक्ष -पोषण सरकार कर रही ,जो इस बजट में
'खानापूर्ति' के स्वरूप में है अर्थात बाजारवाद को बढ़ाने वाली बजट समझा जाये ,तो
कोई गलत नहीं होगा |
निष्कर्षत: यह कि आकडों के जरीये देश
-दुनिया को बरगलाने की प्रवृति बराबर रही है ,जो मौजूदा पेश बजट में सलीकेदार
ढर्रे पर मौजूद है , असल बात यह है कि आखिर देश को कोटा /परमिट और लाइसेंस
/इन्स्पेक्टर राज से कब मुक्ति मिलेगी ?इस सन्दर्भ में मोरारजी भाई देसाई के
प्रधान मंत्रित्व काल को जाने ,तब मालूम होगा कि कैसे उनके वित्त मंत्री एचएम पटेल
ने एक झटके में मंहगाई को नियंत्रित कर लिया था | इंदिरा गाँधी के प्रधान
मंत्रित्व काल में सरसो तेल ३०/३५ और चीनी १५/२० रूपये प्रति किलोग्राम थी , वह नई
बजट पेश होते ही क्रमश: ८/९ व २-३०/२-३५ रूपये के दर से खुले बाज़ार में सहज तौर पर
उपलब्ध हो गई थी, कहने का तात्पर्य कि रोजमर्रे के सामानों के दामों में स्थिरता
पहली आवश्यकता जनतांत्रिक समाज को रहती है ,यह नहीं कि गैस के दामों को मोबाइल फोन
की तरह हर पखवारे बदलते रहे , अनुदान देने में कंजूसी का मतलब "आम"
समस्या को निमंत्रण देने जैसा है | इस मूल जरूरत को पहचान करने में मौजूदा सत्ता
चूक गई है ,इसलिए इसके अवसान की प्रक्रिया भी शुरू है , मेरे ख्याल से इसमें दो मत
नहीं |
जैसा कि यह आज के
भारतीयों को मुलभूत जरूरत है ,
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