Friday, 7 March 2014

वामपक्ष से अचानक दक्षिणपंथ की ओर

                                  (एसके सहाय)
    अति वामपंथी विचारों से लैस यदि कोई शख्स सीधे धुर दक्षिणपंथी दिशा की तरफ कदम बढ़ा दे अर्थात सशस्त्र आंदोलन में रत नेता भूमिगत जीवन का परित्याग करके अचानक संसदीय राजनीति में विश्वास प्रकट करके सार्वजनिक क्षेत्र में सक्रिय योगदान देने लगे ,तब आप क्या समझेंगे ? जी हाँ, ऐसा ही परिवर्तन सांसद कामेश्वर बैठा के चाल-चलन से इन दिनों जाहिर है ,जो संकेत किया है कि 'मानसिक रूप से कमजोर' व्यक्ति से आम लोग "विशेष" की उम्मीद करते हैं ,वह व्यर्थ है |
       जैसा कि खबर है , बैठा अब झारखण्ड मुक्ति मोर्चा को परि त्याग करके भाजपा की शरण में हैं , इसके लिये बकायदा उन्होंने राज्य विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता अर्जुन मुंडा (भाजपा)को भाजपा की सदस्यता के लिये दरख्वास्त भी दिए हैं ,इस बात की पुष्टि उन्होंने इस पंक्तियों के लेखक से बातचीत में की है |
      ऐसे में यह जानना समीचीन होगा कि आखिर 'वो' कौन सी परिस्थिति रही,जिसने बैठा को महसूस हुआ कि उनके लिये घोर दक्षिणपंथी विचारधारा के लिये प्रसिद्ध भारतीय जनता पार्टी उनको अपने लिये ज्यादा मुफीद प्रतीति हुई , जबकि वह ,जब चुनावी राजनीति में दिलचस्पी लेना शुरू किये थे ,तब थोड़ा मध्यमार्गी राजनीतिक दल का अनुगमन उन्होंने किया था ,जिसका पहला पड़ाव बहुजन समाज पार्टी था |
       इसलिए जरूरी है कि सशस्त्र क्रांति के जरीये अपनी खास पहचान स्थापित करने वाले बैठा के रूख में यह बदलाव कहाँ तक स्थिरता बनाये रखता है | यह कई उन उग्रवादी / नक्सलपंथी तत्वों के लिये भी महत्वपूर्ण है ,जिन्होंने हथियार छोड़कर समाज की मुख्य धारा में आने के यत्न में भिडे हैं | सांसद कामेश्वर ,वैसे उन वाम चरमपंथियों के लिये ' प्रतिमान ' हैं ,यह इसलिए कि वह पहले माओवादी क्रियाविद हैं ,जिन्होंने चुनाव के माध्यम से संसद में कदम रखा है और यह भारत ही नहीं , शेष दुनिया के लिये अजूबे राजनीतिक प्रयोगशाला के लिये 'शोध' के विषय/वस्तु बने |लोक सभा के लिये निर्वाचित होने की प्रक्रिया तक इनके ऊपर ५५ आपराधिक/ उग्रवादिक मामले अलग -अलग अदालतों में विचाराधीन थे और यह बिहार ,उत्तर प्रदेश के अलावा झारखण्ड में लंबित रहे | इसमें हत्या, वह भी पुलिस/अधिकारी क़त्ल समेत और मुठभेड़ , विध्वंसक कारवाई सहित अन्यान्य मामले इनपर अभियोग के तौर पर रहे | इसमें बिहार में भारतीय वन सेवा के अफसर संजय कुमार सिंह की हत्या काफी चर्चित रही |
     पलामू जिले के विश्रामपुर थाना क्षेत्र के ढांचाबार गांव से ताल्लुकात रखने वाले बैठा पिछली सदी के अंतिम दशक के शुरू में नक्सल आंदोलन में सम्मिलित हुए और यह शुरूआत भी दृढ़ता से तब हुई ,जब इनके गांव के निकटवर्ती गांव मलवरिया में ११ दलितों को सामंती प्रवृति के आतताइयों ने आग में क्रूरता पूर्वक जला कर मार दिया था ,जिसमे इनके घरों को भी जलाकर राख कर दिए गए थे |यह क्रूर कारनामा तब 'सनलाइट सेना' के कथित हथियारबंद दस्ते ने अंजाम दिया था | इसमें गिरफ्तारियां हुई ,जेलों में अभियुक्त कैद रहे ,समय बदलते के साथ आरोपित लोग अदालत से रिहा भी हो गए और यह आग बता के सीने में संसदीय राजनीति में कदम रखने तक धधकती रही |
       बाद में , भागमभाग और पुलिस की लुका छिपी के खेल से बता तंग होते गए ,शरीर भी पहले की भांति फुर्तीला नहीं रहा ,हालाँकि आवाज की हनक अब भी पूर्व की तरह बरकरार है | इन हालातों में एक दिन  वह बिहार के डेहरी ऑन सोन में रहस्मय स्थिति में पुलिस के गिरफ्त में आ गए और सासाराम जेल में कैद हो गए | पुलिस के पकड़ में कैसे माओवादी सब जोनल कमांडर आ गए , यह भी अबतक रहस्य है | कहते हैं ,वह नक्सल गतिविधि से थक चुके थे और सुनियोजित ढंग से अपने को पुलिस के हाथों गिरफ्तार करवाए | यह नौटंकी सच के पास इसलिए भी प्रतीत है कि नक्सली संगठन अपने बीच के किसी भी साथी को अपने से अलग होने पर उसे अपना 'शत्रु' मानती है और इसी को ध्यान में रखकर यह प्रचारित है कि बिहार पुलिस ने अपने ख़ुफ़िया सूचना पर उन्हें गिरफ्तार किया |
      खैर , कारा में रहते हुए बैठा की राजनीतिक महत्वकांक्षा धीरे -धीरे संसदीय राजनीति की ओर उन्मुख होने लगी ,तभी प्रश्न पूछने के लिये रिश्वत लेने के जुर्म में लोक सभा से निष्काषित मनोज कुमार भुइयां से रिक्त हुई पलामू क्षेत्र में उप चुनाव की घोषणा २००७ में हो गई और वह पहली बार बसपा के टिकट पर चुनावी संघर्ष में कूद गये , मगर दुर्योग से तक़रीबन २० हजार मतों से राजद के घुरन राम से पिछड गए |
       बदलते समय के साथ १५ लोक सभा के लिये २००९ में बैठा ने पाला परिवर्तन करते हुए झामुमो का झंडा थाम लिया और उतने ही मतों से जीत का किला फतह कर लिया ,जितने वोटों से वह पहली दफा हारे थे | दोनों चुनाव बैठा ने जेल में रहते ही लड़ा था | इस जीत में झारखण्ड के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री भानु प्रताप शाही की अहम भूमिका थी |
      बहरहाल , अब जब लोक सभा के चुनाव सामने हैं और झामुमो ने अपने जीते हुए पलामू संसदीय क्षेत्र से आँखे मुंद ली है ,तब बैठा के लिये " दल " की जरूरत अनुभूत हुई है ,इसके लिये अपने तरीके से उन्होंने राजद वगैरह समेत अन्य पार्टियों के दरवाजे "टिकट" के लिये खटखटा दिए मगर टिकट मिलने की ठोस गारंटी के अभाव में भाजपा के सामने माथा टेक दिए हैं | ललाट में लाल रंग के टिके और हाथों में हिंदू परम्परा के रक्षा सूत्र बांधे , बैठा अब अन्य सामान्य भाजपाइयों से खास दीखते हैं | ऐसे में एक अति उग्र वाम विचार के नेता का ह्रदय परिवर्तन में " अभिनय" की झलक लोग देखते हैं ,तब आश्चर्य नहीं लगता ,कलतक वह बसपा/ झामुमो के झंडे तले मध्यमार्गी राजनीति का आरोहन कर रहे थे और अब एक झटके में ही कथित उग्र दक्षिणपंथी पार्टी के रूप में पहचान रखने वाली भाजपा के शरण में जाने को आतुर इस सांसद के चेहरे पर "म्लान" के भाव हैं ,जहाँ टिकट मिलने , न मिलने की बैचेनी झलकी है | वैसे ,पलामू के अतिरिक्त बिहार के सासाराम लोक सभा क्षेत्र  भी दलित वर्ग के लिये आरक्षित है ,जिसे लेकर भी झारखण्ड/बिहार के राजनीतिक हल्कों में बैठा को अभियोजित करने पर भाजपा का एक वर्ग विचार कर रहा है ,भले ही थोड़ी देर के लिये पार्टी को अपनों का विरोध झेलना पड़े |

    साफ है कि ,बैठा को किसी विचारधारा से कोई विशेष मतलब नहीं है ,वह खुद के राजनीतिक शक्ति के लिये संघर्ष में हैं | इसके लिये कभी राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव ,तो कभी भाजपा प्रमुख राजनाथ सिंह के दरवाजे हो आये हैं | यहाँ यह भी जानिए कि राजनाथ सिंह का ससुराल ,पलामू संसदीय क्षेत्र में ही है और राजनीतिक प्रेक्षक को प्रतीत है कि बैठा को भाजपा कहीं न कहीं 'ठोर' अवश्य देगी | 

No comments:

Post a Comment