(एसके सहाय)
देश के सर्वोच्च
न्यायालय ने कल एक महत्वपूर्ण निर्णय में निचली अदालतों को दिशा निर्देश देते हुए
आदेश दिया है कि "विधायिका के सदस्यों के आपराधिक मामलों की सुनवाई एक वर्ष
के भीतर करके फैसले दें |" सचमुच में
यह अपने आप में चुनाव सुधार की दिशा में क्रांतिकारी कदम है , जो काम सरकार और
निर्वाचन आयोग को करना चाहिए था ,वह कार्य आज अदालत ने किया है |इसका भारतीय
लोकतंत्र में स्वागत योग्य पहल के रूप में देखने की प्रवृति परिलक्षित है |
अबतक चुनाव
सुधार में मात्र एक हो ठोस पहल सामने थे और क्रियान्वित थे ,वह दो और इससे ऊपर की
सजा पाए नागरिकों को संसदीय चुनाव में भाग लेने पर ,तबतक प्रतिबन्ध घोषित है ,जबतक
कि ऊपरी न्यायालय उसे सबंधित जुर्म से मुक्त न कर दे | इस कड़ी में ३६५/३६६ दिनों
की बाध्यता अब सांसदों /विधायकों के लिये अहम है | यह इसलिए कि व्यवहार में देखा
गया है कि संसद/विधान मंडल के सदस्य पर आपराधिक मामले अदालतों में लंबी अवधि तक
विचाराधीन रहते हैं और इसका बेजा इस्तेमाल अपनी शक्ति को परोक्ष/प्रत्यक्ष तौर पर
सार्वजनिक / व्यक्तिगत फायदे के लिये उपयोग करते हैं ,इससे 'जन प्रतिनिधि' की
आदर्श छवि खंडित होती है ,जिसे लोकतंत्र के संसदीय प्रणाली की सत्ता में मंजूर
किया जाना नैतिक सिधान्त के विरूद्ध मान्यता प्राप्त है ,सो देर आयद -दुरूस्त आयद
वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए उच्चतम न्यायालय ने एक जन याचिका की सुनवाई करके
उक्त महत्वपूर्ण फैसले दे दिए हैं ,जिसका भविष्य में सकारात्मक प्रभाव से राज
प्रेक्षक इंकार नहीं कर रहे |
यह फैसला
इसलिए भी महत्वपूर्ण रूप में रेखांकित है कि दो वर्ष पूर्व ही चुनाव आयोग को
चुनाव/राजनीतिक सुधार के लिये नियमावली बनाने के निर्देश सर्वोच्च नयायालय ने दिए
थे ,यह निर्देश उस स्थिति में दिए गए थे ,जब सरकार अपनी तरफ से जन प्रतिनिधित्व
अधिनियम में जरूरी संशोधन करने को उत्सुक नहीं दिखी ,तब विवश होकर अदालत ने आयोग
को ही ठोस कदम उठाने के निर्देश देने पड़े , जिसका संरक्षण अदालत करने को खुद तैयार
था |
वैसे ,देखें तो
प्रतीत होगा कि यह निर्देश् फिलवक्त के राजनीतिक हालात में पूर्ण भी नहीं है
,बल्कि एकांगी है | एकांगी इसलिए कि निर्देश का असर केवल सांसद/ विधायक पर है
.लेकिन इससे एक दूसरी कड़ी जुदा है | अलग इसलिए कि सजायाफ्ता चुनावी राजनीति से अलग
तो है ,लेकिन दलगत राजनीति में वह सक्रिय भी है ,यह विरोधाभास क्यों ? भारतीय
संविधान के अध्येता के रूप में अबतक यही यह लेखक शुरू से अवगत है कि ' कोई भी सजा
याफ्ता नागरिक विधायिका के योग्य नहीं हो सकता |' स्पष्ट है कि एक बार सजा घोषित
होने और उसके बरक़रार रहते कोई भी नागरिक को "राजनीतिक अधिकार" प्राप्त
नहीं हो सकते , मगर उदाहरण स्वरूप राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव सरीखे आज भी दलगत
राजनीति में सक्रिय हैं | आखिर क्यों?
हालाकिं , इस
संवैधानिक/वैधानिक क्रियाविधियों के नेपथ्य में संक्षिप्त तौर पर जाये ,तो विदित होगा
कि दो दशक पूर्व तक सजा याफ्ता भी जमानत पर रिहा होने के बाद चुनाव में सहभागी
होते थे ,लेकिन कालांतर में १९९१ में टीएन शेसन के मुख्य चुनाव आयुक्त के पद पर
हुई नियुक्ति ने शनै: शनै: चुनाव सुधार की ओर कदम बढ़ाना शुरू किया , इसी क्रम में
कई आपराधिक मामले उच्च और उच्चतम न्यायालय में आते गए ,फैसले दर फैसले के बाद यह
तय हुआ कि दो या इससे अधिक साल तक की सजा पाए नागरिक चुनाव में शिरकत करने का
अधिकार नहीं रखता |
बहरहाल , जो कुछ
भी हो , शीर्ष अदालत का यह आया फैसला दूरगामी बदलाव के संकेत हैं ,इससे इंकार नहीं
किया जा सकता | देश के विधायिकाओं में कैसे गाली -गलौज ,मारपीट और अन्य अशोभनीय
कृत्य होते हैं ,यह अब छिपा / रहस्य नहीं रह गया है , सामाजिक रूप से त्याज्य
नागरिक कैसे धनबल /बाहुबल के इस्तेमाल करके 'माननीय' हो जाते हैं और फिर अपनी
कुत्सित प्रवृति से सार्वजनिक जीवन को प्रभावित कर जाते हैं ,यह सामने हैं , हाल
के सालों में घटित मामलों को देखें ,तो काफी वीभत्स सामाजिक/राजनीतिक जीवन से अवगत
होंगे | अदालतों से सजा प्राप्त हैं , पुलिस/ कानून से भागे -भागे फिर रहे हैं और
फिर भी इनसे ताल्लुकात बनाने में ' व्यक्ति ' को शर्म/ लज्जा नहीं अनुभूत होती ,जो
दर्शाती है कि भारतीय सामाजिक जीवन मरणासन्न है | पिता ,पुत्र ,पुत्री , पत्नी
,भाई ,बहन ,दोस्त -यार या अन्य रिश्ते-नातेदार एक दूसरे को ग्लानी महसुस नहीं करते
, बल्कि जितने बड़े अपराध ,उतने बल से गौरवान्वित दीखते हैं |प्राचीन काल में जो
चोरी करता था ,भ्रष्ट आचरण में लिप्त होता था ,उसे समाज बहिष्कृत किये रहता था
,मगर आज दुर्योग से स्थिति ऐसी सामाजिक /राजनीतिक क्षेत्रों में उत्पन्न है कि लोग
'भ्रष्टाचार ,वह भी सार्वजनिक रूप ' में करते हुए दांते निपोरते हुए दीखते है ,इससे
क्या जाहिर है ?
कुल मिलाकर ,
फिलवक्त के राजनीतिक जीवन में 'माननीयों' के प्रति अदालत ने जो पहल की है ,वह परवर्ती
समय में दलगत राजनीति में सक्रिय राजनीतिज्ञों के लिये सबक भी है | सबक इसलिए कि कल
वो भी अधिकृत जन प्रतिनिधि होंगे, इसलिए जरूरी है कि उनके आचरण 'सदाचार' और आपराधिक
कृत्य/षड्यंत्र से मुक्त रहे | ऐसे में सर्वोच्च अदालत के निर्देश को अभी से ही चेतावनी
के तौर पर ग्रहण किया जाना चाहिए | निचली न्यायालयों की भूमिका अब बढ़ गई है , इसके
सुनवाई के तरीके /प्रक्रिया अब दैनिक क्रियाविधियों से निर्धारित होगी ,ऐसा इसलिए कि
फैसले में अगर समय में छुट चाहिए ,तब न्यायाधिकारी को उच्च नयायालय को इसके वजहों से
संतुष्ट करना होगा | जाहिर है कि विधायक/सांसद अपने किये कुकृत्य/भ्रष्टाचार समेत अन्य
मामलों में बराबर खतरे के रास्ते में रहेंगे |
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