(एसके सहाय)
तक़रीबन डेढ़ सौ की
संख्या में नक्सलियों का हथियारबंद दस्ता छतीशगढ़ के सुकमा के जंगल में राष्टीयकृत
मार्ग पर विचरण कर रहा है और इसकी भनक स्थानीय प्रशासन एवं आस-पास के निवासियों को
नहीं है ,इस स्थिति में अर्ध सैनिक बल/राज्य पुलिस समेत बीस " जाने "
चली जाती है | इसे क्या समझा जाये ?
स्पष्ट है कि
"जन विश्वास" की कमी ही वह वजह है ,जिसके अभाव में भूमिगत संघटनों के
क्रियाविद अपने मकसद में कामयाब हो जाते रहे हैं | यह विश्वास क्यों नहीं है ?
इसके जवाब ढूढेंगे,तब लोकतान्त्रिक सत्ता के असली चेहरे से रूबरू होंगे ,जिसमे
"भ्रष्ट तत्वों" के शिनाख्त और दण्ड के अभाव से लोग "व्यवस्था
उन्मुखी" के स्थान पर तटस्थता का भाव ओढ़ लियें हैं ,जो पूरे राजकीय तंत्र को
कमजोर किये हुए है और नक्सली/उग्रवादी कामयाब हो जाते हैं | इसके लिये दोषी कौन है
?
ऐसा नहीं है
कि नक्सलियों की यह पहली वारदात है ,जिसे नजरदांज किया जा सके | पिछले साल ही दस
मई को कांग्रेस जनों के जत्थे पर हमला करके उस इलाके में माओवादियों ने तीन दर्ज़न
जानें ली थी ,इसके बावजूद सरकार/ प्रशासन/ पुलिस / नागरिक / राजनीतिक- सामाजिक
क्षेत्रों में इसके प्रति लापरवाही बनी रही ,जिसके नतीजा यह निकला कि कल पुन:
नक्सलियों ने बड़ी हिंसक घटना को अंजाम देकर संकेत दे दिया है कि ,वह जब चाहे ,तब
अपने मंसूबों को पूरा कर सकते हैं |
वैसे, सब
जानते हैं कि आतंकवादी /उग्रवादी या अन्य माओवादी सरीखे भूमिगत संघटन हिंसक वारदात
को प्राय: "दहशत" फ़ैलाने और क्षेत्र विशेष में अपना "वर्चस्व"
स्थापित करने के लिये अंजाम देते हैं ,जिसमे प्रतिक्रियावादी कदमों को प्राथमिकता
प्राप्त है |
संसदीय अर्थात
जनतंत्रीय चुनाव इन्हें पसंद नहीं और इस नापसंदगी को नक्सली " हिंसा" के
जरीये जाहिर करते हैं और इस वक्त देश में १६ वीं लोक सभा के चुनाव को लेकर
प्रक्रिया चल रही है ,ऐसे में वे चुप कैसे रह सकते हैं ?
हकीकत में
नक्सली समस्या व्यवस्थागत प्रणाली में दोष के वजह से है और जब यह पिछली शताब्दी के
सत्तर के दशक में पश्चिम बंगाल से शुरू हुई ,तब इसके विस्तार के चपेट में सबसे
पहले बिहार आया ,फिर धीरे -धीरे इसके शक्ति में इजाफा होता गया और आज देश के नौ
राज्यों में संकट पैदा करने की ताकत इसने अपने में पैदा कर ली है |शुरूआत में ही
इसके भयावह चेहरे को बंगाल के मुख्य मंत्री सिद्धार्थ राय ताड़ चुके थे ,नतीजतन
इन्होने अपने मुख्य मंत्रित्व काल में नक्सल तत्वों को कठोरता से कुचल दिया ,जो
बाद में एकीकृत बिहार , एकीकृत मध्य प्रदेश ,एकीकृत आंध्र प्रदेश और ओडिसा में जड़
ज़माने में सफल हो गया , जो अब उत्तर प्रदेश , महाराष्ट जैसे कुछेक प्रान्तों में
भी अपनी मौजूदगी का 'भान' जब -तब कराती रहती है |
ऐसे हालात
में छत्तीसगढ़ में हुई नक्सली वारदात की उपेक्षा नहीं की जा सकती | यह घटना अर्थात
इस सरीखे वारदात इसलिए हुई कि स्थानीय लोगों का प्रशासन/ सरकार पर से
"भरोसा" उठ चूका है | यह विश्वास इसलिए उठा है कि 'उसके जरूरत पर किये
गए आरजू को स्थानीय अधिकारी बिना चढावा के पूर्ण नहीं करते . मतलब रिश्वत
/भ्रष्टाचार से है , पुलिस इनसे सभ्य व्यवहार नहीं करती ,तब 'सूचना' देने की जोखिम
कौन क्यों उठाएगा ? सरकार अर्थात प्रशासन के संगठित समूह के आगे 'लोक' बेबस हैं |
लोकतान्त्रिक तरीके एवं मुलभूत आवश्यकता से आम जन वंचित हैं | प्रखंड हो यह तहसील
,पंचायत दफ्तर ,इनके लिए ,खासकर कमजोर तबके के वास्ते कोई अर्थ नहीं रह गए हैं और
इसी का फायदा भूमिगत संगठन के तत्व उठाते हैं और सरकार कहती है कि ' वह जन हितों
को पूरा करने के प्रति दृढ संकल्पित है |'
यहाँ समस्या यह
है कि नक्सल समस्या को सरकार अर्थात सत्ता "शक्ति" के दृष्टिकोण से
देखती है ,इसके लिये पुलिस बलों को आधुनिकतम हथियारों से युक्त करने एवं प्रशिक्षण
देने जैसे कवायद करती है ,जिसमे ख़ुफ़िया तंत्र को मजबूती प्रदान करना इसके कार्य
सूची में सबसे प्रमुख होता है | यह कौन नहीं जानता कि सरकारी नौकरी करने वाला राज
कर्मचारी हो या पुलिसकर्मी ,वह अपने को औरों से अलग समझने की मनोवृति से ग्रस्त
होता है ,ऐसे में उसकी दुर्गम /सुदूरवर्ती
इलाके में पद स्थापना हो ,तो वह क्या 'राजकीय कर्तव्यों' की पूर्ति कर पायेगा ?
राज्य और जिला
मुख्यालय में बैठ करके आम लोगों के दुःख दर्द , समस्या ,जरूरत जैसी बातों को समझने
के वजह से उग्रवादी तत्व सिर उठा पा रहे हैं , इसे समझना /बुझना होगा | स्थानीय
प्रशासन से सहानुभूति के स्थान पर फटकार /घुस की मांग ,उपेक्षा ,तिरस्कृत जैसे बर्ताव
जमीनी स्थल पर लोगों के साथ हो ,तब कैसे "नक्सल समस्या" से निजात मिलने
की उम्मीद हो सकती है ? सुकमा हो या अन्य राज्य ,हर स्थान पर प्रशासनिक विफलता
अर्थात लोक प्रशासन के लोक की उपेक्षा से यह स्थिति देश भर में उत्पन्न है |
विश्वास की कमी ने नक्सल शक्ति को विस्तार देने में योगदान दिया है | सोचें -
चालीस की संख्या में पुलिस बल है और उसके पीछे घात लगाये माओवादी चहल कदमी अर्थात
लुका -छिपी का खेल कर रहे है और इलाके के बारे पुलिस को कोई भी स्थानीय व्यक्ति
तैयार नहीं है | माहौल घटना स्थल का वारदात के पूर्व सामान्य है और मार्ग पर आवा -जाही
भी नित्य दिन की भांति है ,ऐसे में नक्सली अपनी योजना को अमलीजामा पहना देते हैं ,तब
इसके लिये कसूरवार कौन है ?
दरअसल ,नक्सली
समस्या "लोगों से तालमेल" से जुडी है | यह रिश्ते आज के माहौल में इस कदर
बिगड चुके हैं कि इसका निदान केवल राजकीय प्रयास से संभव नहीं है | सरकार सिर्फ फौरी
तरीके अपनाती है , ठोस धरातल पर इसमें जन भागीदारी का अभाव ही प्राय: रहता है | ताकत
के भरोसे "शांति" के प्रयास स्थायी नहीं हो सकते | प्रशासनिक तंत्र में लोगों
के विश्वास ही विध्वंसकारी तत्वों के मंसूबों को ध्वस्त कर सकती है | इस परिप्रेक्ष्य
में सरकार को चाहिए कि उग्रवादिक/ नक्सल शक्तियों
को पृथकतावादी और अन्य के फर्क को समझें | बारीकी से अगर इसके अध्ययन करके रणनीतिक
तौर पर जनोन्मुख विकासगत योजनाओं को सही स्वरूप में क्रियाविंत किये जाएँ ,तब काफी हद तक 'जन विश्वास' सत्ता/ सरकार/
प्रशासन को हासिल हो सकती है अन्यथा सुकमा जैसे हृदय विदारक घटनाएँ बराबर होती रहेंगी
और सरकारे पूर्व की भांति चिल्लाती रहेगी कि' कुचल देंगे / ढिलाई बर्दाश्त नहीं करेंगे
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