Sunday, 16 March 2014

न लहर, न पहर ,सब बेअसर

                (एसके सहाय)
   देश में १६ वीं लोक सभा के चुनाव परिणाम क्या होंगे , फ़िलहाल , दो माह के गर्भ में है,सो इसके नतीजे किस रूप में निकलेंगे ,यह केवल कयास भर है | ऐसे में , मानवीय संवेगों को पूर्णत: वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मूल्याकन करना व्यर्थ है | इसलिए इससे जरूरी है कि भारतीय समाज का "मुड" कब -कब किस तरीके एवं मुद्दे से प्रभावित हुआ है ,उसकी पड़ताल की जाये ,तभी  १६ मई को परिणाम के बारे में सही -सही अंदाज निकाल सकता है |सिर्फ आंकड़ों के माध्यम से वहुविध भारतीय सामाजिक / राजनीतिक ,सांस्कृतिक और आर्थिक नजरिये से आकलन करना उचित नहीं होगा ,क्यों कि बहु प्रचारित स्थितियों के आधार पर कोई निष्कर्ष सही न हुए हैं और न ही भविष्य में भी सटीक होंगे |
    इस सन्दर्भ में याद करें , अटल बिहारी बाजपेयी के प्रधान मंत्रित्व में २००४ में चमकते भारत अर्थात शाइनिंग इण्डिया की
 बात प्रचार तंत्रों के जरीये राजनीतिक फिंजा में गूंजी थी और जब नतीजे सामने आये तब तस्वीर काफी हद तक बदली हुई थी , भाजपा के साथी ,राजग को छोड़ रहे थे और कांग्रेस के नेतृत्व में नया गठबंधन 'संप्रग" तैयार हो रहा था , जो १० सालों तक लंगड़ाते हुए निर्विध्न रूप में बरक़रार है | ऐसे में , प्रमुख विपक्ष भाजपा के लिये तारणहार के तौर पर नरेन्द्र मोदी कितना कारगर इस वक्त के चुनाव में कामयाब होंगे ,यह अभी देखना है |
     देखना इसलिए कि भाजपा और इसके साथ के अनुदारवादी / दक्षिणपंथी सहयोगी अपने प्रचार अभियानों में बार -बार 'नमो' के लहर की बात हवा में उछाल रहे हैं और इतफाक से समाचार माध्यमों का एक हिस्सा इसे स्वीकार भी कर रहा है | यह काफी हद तक १९९६ के चुनाव की तरह है , जिसमे भाजपा की सशक्त दावेदारी की बात की गई थी लेकिन यह सफलता  भाजपा को १९९८ और १९९९ में ही हासिल हो सकी थी |
     अतएव , जब 'लहर' की बातें हो रही है ,तब यह जाना जाये कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात कब -कब लहर जैसे हालात भारतीय राज व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में पैदा हुए ? चुनावी नतीजे के ज्ञात इतिहास में १९७७ ,१९८५ और कुछ हद तक १९८९ और १९९१ के लोक सभा के चुनाव के समय लहर जैसी स्थितियां उत्पन्न हुई | इन चुनाव परिणामों के भूतकालीन हालातों का जायजा लें ,तब अनुभूत होगा कि सचमुच में खास दल या दलिये समूह के पक्ष में सामाजिक /राजनीतिक परिस्थितियां पैदा थी |
   मसलन - आपातकालीन स्थिति और तानाशाही के संक्रमण काल में १९७७ में लोकशाही बनाम तानाशाही के मुद्दे लोगों के दिलो -दिमाग में छाये हुए थे ,तब लोकनायक जयप्रकाश नारायण सरीखे विराट स्वरूप वाले 'व्यक्तित्व' मौजूद थे | इस चुनाव में पहली बार कांग्रेस केन्द्रीय सत्ता से च्युत हुई थी | इसी तरह , १९८५ में इंदिरा गाँधी के मारे जाने के बाद उत्पन्न हुई देश व्यापी 'सहानुभूति' लहर में कांग्रेस को तीन चौथाई बहुमत मिल गया था ,जो आजादी के बाद सर्वाधिक आंकड़े  थे | बाद में कांग्रेस की राजनीतिक शक्ति सिकुड़ती चली गई ,जो १९८९ में बोफर्स जनित अन्य भ्रष्टाचार के किस्से के बीच 'राम मंदिर-बाबरी मस्जिद' प्रकरण का ध्यावधि चुनाव भी था | कालांतर में कांग्रेस के कमजोर होते जाने और मुद्दा लहर के तौर पर प्रभावी रहा ,जिसके चपेट में १९९१ के म क्षेत्रीय दलों के उभार की कहानी है ,जिसमे बसपा, सपा,राजद, शिव सेना , समता पार्टी ,जनता दल एवं जद (यु) ,तृणमूल कांग्रेस ,बीजद ,झाविमो ,जैसे कई पार्टियां हैं ,जो अपनी सुविधानुसार केन्द्रीय सत्ता का अनुगमन करते रहे और छोड़ते रहे |
     इस परिप्रेक्ष्य में मौजूदा लोक सभा के चुनाव के अंदाजे की बात करें ,तब जाहिर होगा कि 'भ्रष्टाचार और उससे पैदा हुए मंहगाई' से लोगों को कोफ़्त है ,लेकिन यह इतना भी असरकारक नहीं कि प्रतिपक्ष अर्थात भाजपा की तरफ लहर पैदा करे | इनके राह में स्थानीय एवं क्षेत्रीय दल भारी रोडें की तरह हैं ,जहाँ पार्टी                    के साथ ही उम्मीदवार के " वैक्तिक " का अपना ही एक अलग महत्त्व है | भाजपा /कांग्रेस के लिये यह समस्या टिकट बंटवारे में ज्यादा रेखांकित है | नरेन्द्र मोदी खुद को 'चाय बेचने वाला, पिछड़ा अर्थात वणिक के साथ मध्य वर्ग के सपनो का सौदगर ' के रूप में "मतों" के धुर्वीकरण को धार देने की पुरजोर कोशिश में है |
    इस दफे अबतक ,जो गतिविधि राष्टीय राजनीतिक दृष्टिकोण से परिलक्षित है ,उसमे भाजपा हमलावर की भूमिका में है ,तो कांग्रेस रक्षात्मक मुद्रा में ,इसी से भाजपा को कुछेक बढ़त हासिल होती प्रतीत है ,मगर यह कामयाबी इसके कुनबे अर्थात राजग के बढ़ने से ही संभव है ,अन्यथा दिल्ली का ख्वाब ,ख्वाब ही रह जायेंगे  |
     स्पष्ट है कि इस चुनाव में लहर जैसी कोई बात नहीं है | सुरक्षित क्षेत्र की खोज में भाजपाध्यक्ष राजनाथ सिंह व अन्य का जहाँ -तहां भटकने का क्या मतलब है ? गाजियाबाद के बजाय अब लखनऊ से किस्मत तलाशने की जरूरत क्यों पड़ी ? बिहार में गिरिराज बेगुसराय पर जोर लगाये रहे लेकिन नवादा भेजे जाने पर आक्रोशित क्यों हुए ? लाल कृष्ण आडवानी गाँधी नगर को छोड़कर अन्य स्थान से राजी क्यों नहीं हुए ? शत्रुहन सिन्हा पटना साहिब के अलावा कहीं अन्य पर जाने को तैयार क्यों नहीं हुए ? इस तरह के कई टिकट के मगजमारी के किस्से भाजपा के हैं | ऐसे में सवाल है कि नरेन्द्र मोदी अर्थात नमो, भ्रष्टाचार/मंहगाई को लेकर 'लहर' कांग्रेस के विरूद्ध 'लहर' है ,तो सुरक्षित सीट की तलाश में वरीय से कनीय भाजपाई नेता क्यों हैं |क्या इसके जाहिर नहीं है कि विपक्ष खुद आश्वस्त नहीं है कि उसे आसानी से बहुमत मिल ही जायेगा |इसमें 'आम आदमी पार्टी' के उदय ने भाजपा को भीतर से हिलाए हुए है ,आखिर इससे भी तो मध्य तबके का एक वर्ग मोहित है ,जो इसमें अन्दर से कंपकंपी पैदा की है | 

        कुल मिलाकर १६ वीं लोक सभा के चुनाव पूर्व के अपेक्षाकृत स्थिर माहौल में होने की उम्मीद है | लहर अथवा पहर जैसी कोई परिस्थितियां अबतक उत्पन्न नहीं है |इस दफे पार्टी के जगह पर उम्मीदवारों को ध्यान में रखकर अच्छे प्रतिशत में वोटों के समीकरण नई हालात पैदा करेगें | स्थानीय दलों .क्षेत्रीय दलों की चांदी रहने की संभावना बलवती है | काफी समझदारी भरा यह चुनाव होगा ,आसार इसी बात के हैं |   

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