Monday, 10 February 2014

तीसरा मोर्चा अर्थात अराजक समूह

                                           (एसके सहाय)
    देश में इन दिनों राजनीतिक हल्कों में तीसरे मोर्चे को लेकर बहस -मुबाहिसों का दौर तेज है और इस सन्दर्भ में जब भाजपा के घोषित प्रधान मंत्री के पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ,कोलकाता में यह कहे कि 'थर्ड फ्रंट का मतलब थर्ड ग्रेड है' तो सरसरी तौर पर प्रतीत हुआ कि यह 'शब्दों की तुकबंदी' है , सो, इसे कतिपय क्षेत्रों में हल्के ढंग से लिया गया ,मगर जब इसके "गहराई" में ताक-झांक की गई ,तब काफी चौकाने वाले बातों और स्थितियों के 'भान' हुए हैं | इसलिए इसपर खुले दिल -दिमाग से विचार किया ही जाना चाहिए कि १६ वीं लोक सभा के चुनाव परिणाम आने के बाद कैसी "संघीय" सत्ता की स्थापना जरूरी है ,ताकि एक स्थायित्व वाली सरकार नागरिकों को मिल सके |
       सर्व प्रथम यह जानना आवश्यक है कि तीसरे मोर्चे अर्थात तीसरा मोर्चा की अवधारणा क्या है ? यह मौजूदा राजनीतिक /सामाजिक परिस्थिति में कैसे उपयोगी है ? क्या यह स्थायी सरकार के हित में है ? इसके पूर्व के प्रयोग देश में कैसे रहे हैं ? और इससे आगे यह कि कहीं यह अराजकता उत्पन्न करने वाली 'सत्ता' तो नहीं है ?
      इन प्रश्नों के तह में जाने के पहले ,जरा उस परिप्रेक्ष्य को समझने -बुझने की जरूरत है ,जब यह संकल्पना सबसे पहले अस्तित्व में आई थी ,विशेषकर देश के राजनीतिक सन्दर्भों में , यह इसलिए कि तीसरे मोर्चे के गठन की कवायद उन राजनीतिक हालातों में अबतक हुई है ,जब लोक सभा में किसी दल या दलिय समूह को स्पष्ट बहुमत नहीं थे , तब देश की दो बड़ी पार्टियां संख्या बल में अधिक होने के बावजूद सत्ता के हासिये पर रहने को विवश थी | ऐसे में तीसरे मोर्चे में शामिल पार्टियों के चांदी ही चांदी थी ,भले ही यह कालावधि अल्प समय के लिये ही हो |
      अतएव , एक बार फिर तीसरे मोर्चे की गूंज चुनाव पूर्व सुनाई पड़ रही है ,तो आश्चर्य नहीं | फिर भी ,इसमें दिक्कत इस बात पर हैं कि जिस मोर्चे की बात कुछेक दिन पहले ग्यारह पार्टियों के प्रमुख नेताओं ने की है ,वह पहली नजर में ही अंतर्विरोध से भरा है ,जिसमे आपसी समन्वय एवं सामंजस्य का घोर अभाव है | यह सैन्धान्तिक तौर पर टिकाऊ तो परिलक्षित नहीं लगता ,साथ में विचारधारात्मक स्तर पर भी इनके बीच टकराव के बिन्दू अधिक हैं ,जो इसकी खास कमजोरी को इंगित कर रहा |
     मसलन , तीसरे मोर्चे में भाजपा और कांग्रेस अर्थात राजग एवं संप्रग से अलग राह तलाशने वाली पार्टियों के लिये जगह सैन्धान्तिक तौर पर होनी चाहिए ,तो उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी , बहुजन समाज पार्टी तथा अन्य , बिहार में राष्टीय जनता दल , लोकजनशक्ति पार्टी , जनता दल (यूनाइटेड) व अन्य , पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के संग वाम दल , तमिलनाडु में एआईडीएमके , डीएमके और अन्य ,आंध्र प्रदेश में जगनरेद्दी कांग्रेस , तेलगु देशम व अन्य समेत देश के तमाम वैसे छोटे -बड़े दलों के इसके छाते के नीचे आने चाहिए , मगर व्यवहार में क्या यह संभव है ?
     जाहिर है कि सिन्धांत ,विचारधारा और नेतृत्व के वैक्तित्व के स्तर पर इनके बीच एका नहीं है और कभी इनके बीच पूर्व में गठित मोर्चे में भी नहीं रही | ऐसे में यह निष्कर्ष निकाला जाये कि तीसरा मोर्चा अराजक शक्तियों का प्रतिनिधित्व करता है ,जो विविधता से पूर्ण एकबद्ध देश के लिये अराजक हो सकती है ,तो गलत नहीं होगा | इसके तीन मौकों को संदर्भित किया जा सकता है |
   फिलवक्त ,जिस मोर्चे की बात है ,वह सबसे पहले गैर कांग्रेस सरकार के सन्दर्भ में ही सबसे पहले आई थी ,तब यह राष्टीय मोर्चा के शक्ल में थी, बात १९८९ में जनता दल के नेतृत्व वाली सरकार की है , उस काल में वाम एवं भाजपा बाहर से विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधान मंत्रित्व को सहारा दिए थे | इस सरकार का बाद में कैसे पतन हुआ , यह किसी से छिपा नहीं है | फिर मोर्चा १९९६ और १९९७ में संयुक्त मोर्चा के रूप में अवतरित हुई ,जिसमे एचडी देवगोडा और इन्द्र कुमार गुजराल क्रमश: प्रधान मंत्री के तौर पर देश के सामने आये ,तब यह कांग्रेस के बल पर सत्ता में एक -एक साल के लिये टिकी रही |
      इन स्थितियों में मौजूदा तीसरे मोर्चे के गठन की पहल होती है ,तब इसके नतीजे कितने अराजक होंगे ,शायद कल्पना ही की जा सकती है | इस मोर्चे का एक मतलब साफ है कि भाजपा और कांग्रेस को "केन्द्रीय सत्ता" से दूर रखने की प्रयास के रूप में यह कवायद है | देश को फ़िलहाल ठोस बहुमत से गठित एवं स्थायित्व से लबरेज सरकार की जरूरत है ,इसे मौजूदा दल के नेताओं को बोध नहीं है , यही नहीं ,इनमे विरोधाभास चुनाव पूर्व ही प्रदर्शित है , मायावती /मुलायम - लालू /नीतीश - नायडू / रेड्डी -करूणानिधि/जयललिता तथा अन्य प्रदेशों में कई ऐसे विपरीत समीकरण मौजूद हैं कि इनके स्वार्थ एक -दूसरे से बराबर टकराते रहे हैं , फिर कैसे मजबूत नेतृत्व देश को तीसरा मोर्चा देगा ? यह यक्ष प्रश्न देश के प्रबुद्ध जन इसकी बात करने वाले नेताओं से पूछ रहा है |
    दरअसल ,बात केवल मोदी के सोच की नहीं है | उनके तुकबंदी में भविष्य के सार छिपे हैं | समाज वैज्ञानिकों ने यह शुरू से मान्यता स्थापित कर रखा है कि " पुरूष तीन तरह के विचार एवं व्यक्तित्व वाले होते हैं , जिनमे प्रथम पुरूष वह है ,जो खुद विचरता है और तदनुरूप निर्णय लेकर व्यव्याहर /आचरण करता है | दितीय पुरूष वह है , जो प्रथम पुरूष के बताये मार्ग /नीति सिन्न्धंत / विचार /निर्णय को अपने विवेक से तौलता है ,तब उचित /अनुचित व लाभ /हानि की ओर कदम बढ़ाता  है , लेकिन तृतीय पुरूष बगैर विचारे अर्थात समझे -बुझे बगैर सीधे घोषित /प्रतिपादित बातों को क्रियान्वित कर डालता है | काफी कुछ यही बात मुलायम सिंह यादव , शरद यादव ,नीतीश कुमार सरीखे नेताओं का है ,जिसे "ताल" देने में वाम दलों की अहम भूमिका रेखांकित है |

    कुल मिलाकर यह कि तीसरे मोर्चे में जब संपूर्णता का अभाव है और यह चुनावी दंगल में भी विरोधाभासी स्वरूप में शिरकत करेगी ,तब इसके महत्त्व को चुनावी नतीजे के बाद कौन स्वीकार करने को तैयार होगा ? भाजपा और कांग्रेस को परस्पर विरोधी मानकर हो रही १६ वीं लोक सभा के चुनाव वैसे भी अब दिलचस्प मोड पर हैं ,जिसमे नई पीढ़ी अपने तरीके से मैदान में पैतरेबाजी करने को उतावला है | पूर्व में जिस कथित राष्टीय मोर्चा और संयुक्त मोर्चा का गठन हुआ हैं ,वह परिणाम आने के पश्चात ही "आकार" ले सका है ,ऐसे में इस मोर्चे को "हताशा में उठाये गए कदम" के तौर पर राज प्रेक्षकों ने समझा है ,जो आने वाले दिनों में अराजक राजनीति को जन्म देने में सहयोगी होगी |

1 comment:

  1. बिलकुल सही और सटीक विश्लेषण किया गया है.

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