( एसके सहाय )
जैसी कि आशंका थी ,वही हुआ ,राज्य
सभा के लिये होने वाले मतदान में भ्रष्टाचार के तौर पर दो करोड पन्द्रह लाख रूपये
पकड़ में आना और फिर कल ही देर रात चुनाव आयोग द्वारा चुनावी प्रक्रिया को रद्द
किये जाने से यह साफ हो गया कि झारखण्ड में बिना दौलत के कोई सामाजिक क्रियाविद
उच्च सदन का सदस्य नहीं हो सकता | ऐसे में यक्ष प्रश्न है कि आखिर धनबल से कैसे
निपटा जाये और स्वस्थ मानसिकता ,चरित्र के बूते सामाजिक - राजनीतिक -आर्थिक एवं
सांस्कृतिक क्षेत्रों में योग दे रहे नागरिक किस राष्ट -राज्य को अपनी निस्वार्थ
सेवा देस सकें ?
दरअसल , जब से झारखण्ड अस्तित्व में
आया ,तब से राज्य सभा के लिये होड लग गई ,जहाँ विगत १२ सालों से बराबर कोई न कोई
पूंजी का धनिक व्यक्ति अचानक आ धमक गया और अपनी चकाचौंध से विधायकों को प्रभावित
करने में सफल होता रहा ,जिसका यह परिणाम
निकला कि सरे देश में यह सन्देश विस्तृत हो गए कि झारखण्ड से राज्य सभा में घुसना
है तो " पैसे लगाओ " और पहुँच जाओ उच्च सदन में , फिर अपनी ओछी कामनाओं
को पूरी करो < इसमें को हर्ज नहीं है | दिक्कत इसलिए नही कि पिछला इतिहास इसी
तरह का रहा है | नाथवानी ,केडी ,मबेलो ,अहवालिया जैसों का इतिहास ऐसा ही रहा है
,जिनका इस राज्य से कोई सीधा रिश्ता कभी नहीं रहा लेकिन अपनी ऊँची पहुँच और पैसे
के बल पर राज्य सभा में निर्विध्न पहुँच गए |ऐसे में नवधनाढय लेकिन राजनीतिक सोच
के कथित नेता एक बार फिर वैसी ही रणनीतिक व्यूह रचनाओ के जरीये अपने लक्ष्य को
साधने में भिड़ें हो तो कैसा आश्चर्य ?
अब जरा ,उस दृश्य को देखें ,जिसमें आर के
अग्रवाल के नाम पर रूपये आयकर वालों ने कल रांची में पकड़ा और फिर इसके साथ , जो
पर्चा मिला ,उसमें जिन विधायकों के नाम लिखे थे ,उनमें कई राष्टीय मान्यता प्राप्त
पार्टियों के विधायकों के नाम उल्लेखित है अर्थात संदश यह कि वे पैसे पर अपने ही
पार्टी के विपरीत वोट करने के लिये कमर कास लिये थे ,जिनके चेहरे अब उजागर है |
इतना ही नहीं ,अग्रवाल ने अपने को भाजपा के करीब दर्शाने के लिये ,जो विज्ञापन कल
ही याने मतदान के ही दिन एक राष्टीय दैनिक पत्र को दिया ,उसमें अटल बिहारी बाजपेयी
और लालकृष्ण अडवानी के साथ ही कई संघ से जुड़ें नेताओं के तस्वीर थे ,जो बता रहा था
कि उसे भाजपा का आशिर्बाद प्राप्त है |
इसी तरह ,कई ऐसी बातें हैं ,जिसे वर्णन नहीं किया जा सकता .अन्यथा एक मोटी पोथी तैयार हो सकती है | वैसे३ .झारखण्ड में इस तरह की राजनीती के शुरूआत भाजपा और कांग्रेस ने की ,और इसकी प्रेरणा प्रधान मंत्री से मिली ,जो १९१९ में असम से जीतकर राज्य सभा में पहुंचे थे और इसे लेकर न्यायिक लड़ाइयां भी तब हुई थी ,जिसे बाद में चुनाव आयोग , केंद्र सरकार और उच्चतम नयायालय के बीच इसे साध्य कर इस मुद्दे को खत्म किये गए ,तब से यह पूरी तरह स्पष्ट हो गया कि कोई भी नागरिक कहीं से भी कहीं के लिये राज्य सभा की दावेदारी कर सकता है अर्थात राज्यवासी होने का मूल विषय गौण कर दिए . फलत: अब झारखण्ड जैसे राज्य इसके बेहतर प्रयोगशाला के रूप में सामने हैं ,जहाँ सार्वजनिक नैतिकता नाम की कोई बात या प्रक्रिया नहीं ,सीधे "दौलत " ही यहाँ किसी के सम्मान का अधिकारिणी है |
इसी तरह ,कई ऐसी बातें हैं ,जिसे वर्णन नहीं किया जा सकता .अन्यथा एक मोटी पोथी तैयार हो सकती है | वैसे३ .झारखण्ड में इस तरह की राजनीती के शुरूआत भाजपा और कांग्रेस ने की ,और इसकी प्रेरणा प्रधान मंत्री से मिली ,जो १९१९ में असम से जीतकर राज्य सभा में पहुंचे थे और इसे लेकर न्यायिक लड़ाइयां भी तब हुई थी ,जिसे बाद में चुनाव आयोग , केंद्र सरकार और उच्चतम नयायालय के बीच इसे साध्य कर इस मुद्दे को खत्म किये गए ,तब से यह पूरी तरह स्पष्ट हो गया कि कोई भी नागरिक कहीं से भी कहीं के लिये राज्य सभा की दावेदारी कर सकता है अर्थात राज्यवासी होने का मूल विषय गौण कर दिए . फलत: अब झारखण्ड जैसे राज्य इसके बेहतर प्रयोगशाला के रूप में सामने हैं ,जहाँ सार्वजनिक नैतिकता नाम की कोई बात या प्रक्रिया नहीं ,सीधे "दौलत " ही यहाँ किसी के सम्मान का अधिकारिणी है |
झारखण्ड में कांग्रेस -झाविमो के बीच विधान सभा
में चिनावी तालमेल रहा और इसी के आधार पर इनके बीच आपसी सदभावना के तहत रणनीतिक
कदम होने चाहिए थे लेकिन इन दोनों के बीच केवल जरूरत के रिश्ते थे और परस्पर लेन
-देन की कोई ऐसी बात हुई नहीं और आपस में ही खीचतान करते रहे | यही हाल , झामुमो
और भाजपा के लिये रहा ,जो स्वार्थवश एक दूसरे को साथ देने में हैं मौका मिलते ही
इनमें छतीश का आंकड़ा होने में देर नहीं लगेगी | नजारा देखें - भाजपाध्यक्ष नितिन
गडकरी ने अपने मर्जी से झारखण्ड में अंशुमान मिश्र को पार्टी का प्रत्याशी बनाया
,फिर इसकी उम्मीदवारी को वजन देखने के लिये कुछ दिन इंतजार किये मगर जब इस उम्मीदवारी
का विरोध हुआ ,तब इसे पल्ला झाड लिये और अपने को पाक-साफ दिखने को लेकर
"वोटिंग प्रक्रिया " से अपने दल को अलग रखने की बात कही और जब झामुमो ने
अपने पसंदीदा उम्मीदवार संजीव कुमार के लिये दबाव बनाया ,तो कल अचानक यह कहते हुए
मतदान में कूद पड़ी कि " वोट नहीं देने से उसके प्रतिदंदी उम्मीदवार अर्थात
कांग्रेस के प्रदीप कुमार बलमुचू के जीत हो जायेगी ,इसलिए विधायकों को मतदान करने
के निर्देश दिए गए | हैं न कमाल की बातें ,
सत्ता के बीच अपनी भद पीट गई साख को बचाए रखने के कवायद में भाजपा की यह
"गत्त" हुई .इसके बावजूद इनमें अबतक ग्लानी के भाव पैदा नहीं हुए तो
भविष्य कैसा होगा ,यह इनके लिये सोचनीय वाली बात है |
अब ,जब राज्य सभा के चुनाव रद्द हैं .तब यह
जरूरी है कि यह सोचा जाना चाहिए कि आखिर
कैसे भला होगा झारखण्ड का ,जहाँ तात्कालिक लाभ के लिये विधायक खुलेआम बिकते हों और
"दलगत अनुशासन " का भय नहीं हो ,साथ में "लज्जा" भी शर्मिंदा
हो जाये और इसके चपेट में एक -दो नहीं बल्कि पूरी पार्टियां ही शामिल हो ,तब इस
संसदीय व्यवस्था के लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को बदलने की दिशा में चिंतन क्यों नहीं
हो "
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