(एसके सहाय)
रेल मंत्री के पद से दिनेश त्रिवेदी के त्याग पत्र दिए जाने के बाद,ऐसा नहीं है कि रेलवे के हालात में कोई गुणात्मक परिवर्तन के आसार दीखते हों |ऐसा संभव है कि कुछेक बिंदुओं पर सस्ती और सतही घोषणा हो जाय, परन्तु मूल समस्या जो इसके हैं ,वो जस -के -तस ही रहने वाले हैं |इसमें बदलाव तभी हो सकते हैं ,जब स्थायित्व सरकार के स्थायी रेलमंत्री हों ,तदर्थ मंत्रियों के रहते आमूल चूल परिवर्तन और राष्ट हितकारी के सपने देखना मन को भुलावे में रखने के बराबर है |इसलिए एक नजर इसके चाल -ढाल पर दौडाना लाजिमी है |इसी को ध्यान में रख कर कहना है |
वैसे , यह परिघटना १०७० के दशक की शुरूआत की है | उस दौर में रेल मंत्रालय ने प्रांतीय राजधानियों को द्रुतगामी रेल सेवा से राष्टीय राजधानी नई देहली को जोड़ने के लिए "राजधानी एक्सप्रेस " नाम से यात्री ट्रेन के परिचालन प्रारंभ किया ,जिसके ठहराव केवल राजधानी में ही नियत किये गए लेकिन इसमें अफवाद स्वरूप एक ठहराव "रायबरेली " को भी दिया गया और यह ठहराव राजनीतिक सोच के तहत दिए गए ,क्योंकि उस क्षेत्र का लोक सभा में प्रतिनिधित्व तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी कर रही थी |
इसी तरह, दूसरे मामले का रिश्ता आजादी पूर्व का है ,जिसमे रेलवे की एक महत्त्वपूर्ण योजना गुलाम भारत में ही करीब अस्सी फीसदी पूरी कर ली गई थी मगर स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही इसके निर्माण पर अनिश्चित काल के लिए ग्रहण लग गया और यह निर्माणाधीन योजना क्यों स्थगित किया गया ,उसका कोई साफ -साफ जवाब आजतक किसी भी केंद्र सरकार ने नहीं दिया ,इसके बावजूद कई योजना रेलवे अपने हाथों में लेता रहा लेकिन पहले की अपूर्ण योजना को पुरे किये जाने के प्रति कभी भी खास दिलचस्पी नहीं ली |नतीजतन ,धरना ,प्रदर्शन ,घेराव जैसे आंदोलन होते रहे और रेल मंत्रालय इसे नजरंदाज करती रही |यह हाल दिखा है रेल मंत्रालय का ,जिसमे दूरगामी सोच की अवधारणा का कुछेक समय के बाद विलोप हो गया और तदर्थ आधार पर परियोजना बनने लगे |
इन दो परिदृश्यों से प्रकट है कि रेल शुरू से ही राजनीतिक शक्तियों का खिलौना बना रहा |ऐसे में दिनेश त्रिवेदी काफी अरसे बाद थोड़ी ईमानदारी का इजहार देश के वर्तमान जरूरत के हिसाब से किया तो मानो पहाड टूट गए और लगे हाथ अपनी ही पार्टी के प्रमुख ममता बनर्जी की आलोचना के शिकार होने लगे और यह कबतक रेल मंत्री के पद पर बने रहेगें ,यह संशय का प्रश्न बन गया है |तात्पर्य यह नहीं कि त्रिवेदी ने सबसे बेहतर रेल बजट को जनोन्मुखी स्वरूप में प्रस्तुत किया है | कहने का मतलब यह कि पूर्व के मंत्रियों कि तुलना में इनका पेश किया गया बजट अन्यों से ठीक है |ऐसा योजनाओं एवं आर्थिक जरूरतों के दृष्टि से परिलक्षित है ,इसलिए इस रेल बजट को २०१२-१३ के लिए परिवर्तनकारी समझा जाय तो गलत नहीं होगा |
अतएव , रेल मंत्री के रूप में त्रिवेदी ने समग्रता में रेल बजट को प्रस्तुत करने को कोशिश की है ,जिसमे यात्री किराये में वृद्धि को अधिसंख्य नागरिकों ने गंभीरता से नहीं लिया है और कोई लिया है तो वह इनकी पटी प्रमुख ममता बनर्जी ने ही ,जिनकी तुनक मिजाजी से अब बंगाल ही नहीं बल्कि पुरे देश के लोग आजिज आने लगे हैं ,जिसका भान खुद ममता को फ़िलहाल नहीं है लेकिन यह कटु सत्य है ,जो ठोस तौर पर व्यावहारिक होने के इंतजार में है |
बहरहाल , इस रेल बजट को खास राजनीतिक चाहत का नतीजा नहीं कहा जा सकता ,वह इसलिए भी कि इसमें वो रेखांकित नहीं है ,जो कभी ममता ,लालू , नीतीश और राम विलास के कार्यकाल में परिलक्षित होता था ,जहाँ खुल कर बजट में अपने राज्यों के लिए विशेष जगह होती थी ,इसलिए इसे अलग ही कहा जा सकता है ,जो दिनेश त्रिवेदी को अन्य रेल मंत्रियों से अलग और राष्टवादी सोच के राजनीतिज्ञ की श्रेणी में शुमार कर दिया है ,जो इसकी खास बात उल्लेखनीय है |इस आधार पर पेश बजट की आलोचना कतई संभव नहीं | वैसे ,आलोचना के लिए आलोचना हो तो बात अलग है |
इसलिए रेलवे को यदि व्यवस्थित रूप देना है ,तब इसके लिए सुविचारित नीति ,जो लोकतान्त्रिक अवधारणा के तहत लोक कल्याणकारी भाव से व्यावसायिक स्वरूप देना होगा ,जैसा कि इस बजट में दीखता है | त्रिवेदी ने कोशिश की है और इस कोशिश को बढ़ावा दिए जाने की जरूरत है क्योंकि पक्षपात पूर्ण रूख से क्षेत्रीय असंतोष स्वाभाविक तौर पर विस्तृत स्थान घेरती है ,जो एक देश -राज्य के लिए नुकसानदेह ही होगा ,इसे भलीभांति समझने कि आवश्यकता है | इंदिरा गाँधी ने अपने चुनाव क्षेत्र के लोगोएँ को राजधानी एक्सप्रेस का तोहफा देकर सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने में पहल की और बदकिस्मत से तत्कालीन रेल मंत्री ने इसे नजरंदाज भी कर दिए ,जिसका परिणाम है कि अब हर कोई रेल को लेकर राजनीती करने को आतुर है और आर्थिक योजना के स्थान पर राजनीतिक रणनीति काम करने की प्रवृति पिछले दो दशक से परवान पर है ,जो क्षोभ पैदा करने में मददगार सिद्ध हो रही है ,जो देश के सेहत के लिए उचित नहीं है बल्कि इसके जगह पर सैधांतिक आधार को महत्त्व दिया जाना चाहिए ताकि आपसी लगाव की दुरी में खटास नहीं हो | राजधानी एक्सप्रेस की शुरूआत हुई थी .तब इसके लिए खास अवधारणा तैयार किया गया था ,जिसमे आर्थिक मजबूती के साथ -साथ राजनीतिक जुडाव भी इसके मुख्य तत्व थे लेकिन अब हाल यह है कि ट्रेन कहलाती है एक्सप्रेस और इसके चाल और ठहराव से खीझ पैदा होती है | ऐसा इसलिए कि राजनीतिक चाहत ने छोटे -छोटे स्टेशनों को रूकावट के तौर पर इसकी चाल -लक्षण को खस्ताहाल बना देने में अहम योगदान दिया है ,जहाँ आर्थिक लाभ के बड़े स्रोत के दर्शन भी रेलवे को नहीं होते जो इसकी मूल शक्ति है |
दरअसल , व्यवस्था के लोकतान्त्रिक स्वरूप में ही "लोकप्रियता " ऐसी प्रक्रिया है ,जिसके लोभ संवरण करने में कई अच्छे नेताओं को बेनकाब कर दिया है और इसका दिग्दर्शन रेल महकमे में ज्यादा है ,तभी तो इसके लेने को लेकर गठबंधन सरकार के दौर में काफी जोड़- तोड़ होती है ,जैसा कि पूर्ववर्ती कई मंत्रियों के काल में हुआ है | अपने क्षेत्र में रेलवे का विकास हो ,इसे कौन इंकार कर सकता है ,लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि व्यावसायिक सिंद्धात के फैसले को दरकिनार कर दिया जाय ,जैसा कि विगत दो दशकों से होता आ रहा है
रेलवे को नई परियोजना में हाथ डालने के पूर्व एक बार पहले से निर्माणाधीन योजनाओं को देखना चाहिए कि ,उसकी क्या हाल है ? समय से यह कार्य कर रही है या नहीं ,या धन की कोई कमी तो नही है , अन्य योजना हाथ में लेने से कहीं इसके निर्माण में खर्च हो रही राशि का टोटा तो नहीं हो जायेगा | ऐसा ही ,नज़ारा उस वक्त था ,देश आजाद हो गया था बरवाडीह -चिरमिरी रेल खंड के लिए स्टेशन, पुल -पुलिया ,कर्मचारियों के क्वार्टर ,बंगले , रेल पटरी वगैरह के काफी हद तक काम पुरे कर लिए गए थे ,जिसके अवशेष आज भी देखें जा सकते हैं ,जहाँ अब झाड -फूंक के रूप में बड़े -बड़े दरख्त के विहंगम दृश्य विधमान हैं | यह नजारा ,झारखण्ड के पलामू -गढ़वा जिले और इससे सटे छतीशगढ के अंबिकापुर ,रामानुजगंज ,जसपुर तथा अन्य इलाके है जहाँ भी रेलवे के खंडहर दीखते हैं |
साफ है कि रेलवे के संचालन में आर्थिक जरूरतों को नजरंदाज करने और राजनीतिक स्थितियों के अनुरूप दिशा तय करना ही इसके दुर्दशा के लिए जिम्मेदार तत्व है पुराणी योजन पूरब हुई नहीं और लगे हाथ नई योजना को क्रियान्वित करने कि ललक ने आज रेलवे को इस मुकाम पर ला खड़ा कर दिया है कि इसे सुधरने के लिए कड़े निर्णय लेने होंगे ,तभी इसकी हालत में सुधर हो सकेगी |त्रिवेदी के पेश बजट में ज्यादा ललो-चपो नहीं था ,इस लिए इसकी आलोचना सिर्फ विपक्ष की अपनी उपस्थिति जतलाने भर थी ,ऐसे में त्रिवेदी को खास मुश्किलों का सामना दूसरे से नहीं बल्कि अपनों से ही थे ,जिसका नतीजा इस्तीफे में देखने को मिला है ,जिसमे तृणमूल प्रमुख एवं पशिचमी बंगाल के मुख्य मंत्री ममत बनर्जी को फ़िलहाल खलनायक बना दिया है ,जिसके लिए दिनेश जिम्मेवार कतई नहीं है |यह राजनीतिक खेलों का ही नतीजा है कि बजट पेश किया कोई और पारित होने में अहम भूमिका कोई अन्य निभाता है |रेलवे को नई परियोजना में हाथ डालने के पूर्व एक बार पहले से निर्माणाधीन योजनाओं को देखना चाहिए कि ,उसकी क्या हाल है ? समय से यह कार्य कर रही है या नहीं ,या धन की कोई कमी तो नही है , अन्य योजना हाथ में लेने से कहीं इसके निर्माण में खर्च हो रही राशि का टोटा तो नहीं हो जायेगा | ऐसा ही ,नज़ारा उस वक्त था ,देश आजाद हो गया था बरवाडीह -चिरमिरी रेल खंड के लिए स्टेशन, पुल -पुलिया ,कर्मचारियों के क्वार्टर ,बंगले , रेल पटरी वगैरह के काफी हद तक काम पुरे कर लिए गए थे ,जिसके अवशेष आज भी देखें जा सकते हैं ,जहाँ अब झाड -फूंक के रूप में बड़े -बड़े दरख्त के विहंगम दृश्य विधमान हैं | यह नजारा ,झारखण्ड के पलामू -गढ़वा जिले और इससे सटे छतीशगढ के अंबिकापुर ,रामानुजगंज ,जसपुर तथा अन्य इलाके है जहाँ भी रेलवे के खंडहर दीखते हैं |
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