Thursday, 8 March 2012

झारखण्ड की राह पर उत्तराखंड


उत्तराखंड भी अब झारखण्ड की राह पर है | खबर है कि कांग्रेस भी अब राज्य में सरकार बनाने के लिए कमर कस चुकी है |ऐसे में सरकार के स्थायित्व का संकट बराबर रहेगा ,जो इस खुबसूरत वादियों वाले  प्रान्त को बर्बाद कर देगी |जोड़ -तोड़ और धूर्त चालें अब इसके मुख्य अस्त्र होगें ,जिसमे आम लोग पीसने के लिए अभिशप्त होगें |यही संसदीय प्रणाली के लोकतंत्र का विद्रूप चेहरा है ,जो कई प्रदेशों में भी दिखता रहा है |इसके बावजूद भी कोई धीर -गंभीर शक्ति जनहितों के अनुरूप सार्वजनिक क्षेत्र में राजनीति को एक ठोस दिशा देने के लिए आगे बढ़ने से कतराती है और यह स्थिति व्यवस्था से ही चिढ लोगों को पैदा करने में योगदान  दे रही है ,जो किसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए भविष्य में नुकसान दायक हो सता है |
                                  आकंड़े और  वह भी प्रतिनिध्यात्मक संख्या संसदीय व्यवस्था में समूचे जन विश्वास को अपने में नहीं समेटती ,बल्कि टुकड़े -टुकड़े में स्थानीय "मनो इच्छा "को अभिव्यक्त करती है ,इसे  समझने की जरूरत है |इसे ही समझ कर और अनुभूत करके कांग्रेस के ही एक दिबगंत नेता बसंत साठे ने  इंदिरा गाँधी के प्रधान मंत्रित्व काल में और खुद मंत्री रहते अध्यक्षात्मक प्रणाली की सरकार  अर्थात व्यवस्था की जोरदार वकालत की थी लेकिन 1982 में उठाई गई बात अब भी देश के लिए प्रासंगिक है और बहस की मांग करते है ,जिस पर वाकई में गौर करने की आवश्यकता है | यह विषय जब साठे ने आम लोगों के बीच विचार करने के लिए रखा ,तब इसे हल्के से लिए गए और तत्कालीन सता और प्रतिपक्ष मतलब सभी पक्षों ने इसे अपने -अपने तरीके से शंकालू होकर अपनी  बातें ,दबी जबान से की थी ,इसलिए यह बहस आगे नहीं बढ़ सकी |खुद इंदिरा गाँधी ने ही इसे उस वक्त ध्यान नहीं दी थी ,अन्यथा परवर्ती दिनों में कुछेक परिवर्तन देखने को मिल सकता था |
                                          खैर, अब .जब उतराखण्ड में कांग्रेस और भाजपा की संख्या एक -दो से पीछे है और राज्य में संघ सरकार द्वारा पदस्थापित कांग्रेस चरित्र के राज्यपाल मार्गरेट अल्वा मौजूद है ,तब एक बार फिर देश को सरकार बनाने के लिए हो रहे नौटंकी देखने का मौका मिल सकती है और इन दलों से अलग जीत कर आए दलों में भी टूट -फुट  और बागीपन के तेवर दिखेंगे ,जिसमें पद और मुद्रा ही सत्ता की चाभी इनके बीच स्थायित्व का मानक बनेगा ,इससे इतर कुछ भी नहीं और यदि कोई चतुर नेता खासकर भाजपा और कांग्रेस से गोल - गोल बातें करते हैं तो उसका कोई मतलब यथार्थ राजनीति से नहीं होता ,सिर्फ "सत्ता " ही इनके येन -केन -प्रकारेण लक्ष्य होते हैं .जहाँ सैधान्तिक , आदर्श और चरित्र के लिए कोई जगह नहीं होती |ऐसे में अब देखने लायक यह होगा कि राज्यपाल किसे सरकार बनाने के लिए सर्व  प्रथम बुलावा देती है ,वैसे दावे तो दोनों कर ही चुके हैं |
                                         उत्तराखंड और झारखण्ड समेत छतीशगढ प्रदेश का गठन एक साथ थोड़े -थोड़े अन्तराल के बाद 2000 में हुआ |इतफाक से झारखण्ड को छोड़कर इन दोनों  राज्यों में  स्थायित्व का संकट प्राय: नहीं रहा लेकिन इस बार उतराखंड फंस गया है .इसे अब झारखण्ड की तरह ही अराजक स्थिति से गुजरने के लिए तैयारी कर  लेनी होगी ,इसमें कोई संशय नहीं | जो विधायक ,विशेष कर निर्दल सरकार बनाने में अपना समर्थन देगा ,वह इसकी पूरी कीमत वसूलेगा |यह आज की राजनीति का दस्तूर बन गया है और ऐसा नहीं हुआ ,तब समझे कि खंडूरी जैसे नेता अब भी राज्य में मौजूद हैं ,भले ही मुख्य मंत्री खंडूरी खुद चुनाव हर गए हो लेकिन इनकी ईमानदारी का कोई जोड़ नहीं | ऐसे नेता हारते भी है ,तो अपनी व्यापक सोच को लेकर जिसमे  क्षेत्रीयता,जातीयता और सांप्रदायिकता    के लिए कोई जगह नहीं होती .यदि ऐसा होता तो वह चुनाव नहीं हारते ,जैसे कि आप जानते है -सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी सरीखे नेता अपने चुनाव क्षेत्र से बाहर विकास के प्रति समग्र सोच रखते ही नहीं ,केवल अपने ही चुनाव हल्कों में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं ताकि चुनावी युद्ध में उनको कोई परेशानी भविष्य में नहीं हो सके |इसका नतीजा क्या हो सकता है ,खंडूरी सामने हैं ,अगर यह भी अपने चुनावी इलाकों को ध्यान में रखकर राजनीति की भौतिकवादी प्रवृतियों के अनुकूल सरकार का नेतृत्व करते तो हर का यह सामना इनको नहीं करना पड़ता |
                                        बहरहाल ,उत्तराखंड के जनादेश का संकेत काफी साफ है और काफी हद तक निरपेक्ष है ,वह यह कि सरकार में सभी की भागीदारी हो ,ताकि स्थायित्व के संकट से यह राज्य बचा रहे | यदि ऐसा संभव नहीं है ,तो राष्टपति शासन ही इसकी नियति है ,ऐसा इसलिए भी बेहतर होगा कि बहुमत पर आधारित सरकार  का स्वरूप ढीला -ढाला होगा ,और बात -बात पर "सनक " पूर्ण राजनीति का शिकार होने के लिए यह विवश होगा ,जैसा कि झारखण्ड में प्राय; रोज दिखता है | राष्पति शासन इसलिए कि कम से कम एक व्यक्ति याने राज्यपाल के हुक्म की तामिला होगी  .जिससे प्रशासनिक अराकता से प्रान्त बच जायेगा | हाँ ,इसके लिए लोगों को खासकर., राजनीतिक प्राणियों को सब्र करना होगा ,अगर लोक कल्याण की भावना में विश्वास करते हों तब , वह भी इसलिए कि परोक्ष रूप से केंद्र की सरकार ,जो संयोग से कांग्रेस नेतृत्व वाली है |
                                     लेकिन प्रश्न है कि क्या  भाजपा -कांग्रेस ऐसा होने देगी  खासकर , केंद्र में बैठी संप्रग सरकार के स्वभाव में जनतांत्रिक मूल्यों और जनहितों के स्थायी समझ को ठोस रूप देने की मादा   है  |कांग्रेस सरकार का सीधे सँचालन करती हो या अप्रत्यक्ष तौर से केंद्र के सहारे ,कलेजे पर सांप भाजपा के ही लोटेंगे न ,फिर जनहित -लोकहित कहाँ है ? यही बात कांग्रेस के साथ भी लागू है ,जो केंद्र में होने के लाभ राज्यपाल के जरीये लेने से नहीं हिचकेगी |ऐसे में लोकतान्त्रिक व्यवस्था का यह विद्रूप चेहरा देश को हमेशा चिढाता रहेगा और हम बराबर "अट्ठाहस " करते  रहेंगे |
                                          
                                   

No comments:

Post a Comment