Tuesday, 6 March 2012

इन चुनाव परिणामों का क्या


 
                                                                                 एसके सहाय 
                          देश में संपन्न पांच राज्यों के विधान सभाओं के चुनाव परिणामों में मणिपुर के नतीजे चौकाते नहीं , बल्कि इसके लिए पूर्व से ही राजनीति समीक्षक उस तरह के प्रतिफल के लिए तैयार थे ,लेकिन अन्य चार राज्यों में आए परिणामों को लेकर अब ज्यादा माथा -पच्ची रजनीतिक -सामाजिक हल्कों में होने को बताब है |ऐसा इसलिए कि 2014 अब ज्यादा दूर नहीं है और इसमें कांग्रेस के साथ कथित इनके युवराज राहुल गाँधी के किस्मत का फैसला होने वाला है और यह निर्णय ठीक उसी तरह के होने हैं ,जैसे इनके पिटा राजीव गाँधी के हुए थे ,यह इसलिए कि राजीव भी बिना अनुभव के सीधे प्रधान मंत्री बन गए  थे और अब काफी कुछ इसी तरह कि स्थिति राहुल की है ,जो बिना राज -काज के अनिभव लिए उस पद पर निगाहें गडा दी है ,ऐसे में गंभीर मंथन का दौर इन दिनों रजनीतिक  गलियारों में हैं ,इसलिए स्वाभाविक है कि अब वक्त आ गया है कि देश के नेतृत्व  को लेकर  दो -चार हो लिया जाय |
                           पहली बात यह कि मणिपुर देश नहीं है और इसपर ज्यादा भरोसा करके कांग्रेस भविष्य की राजनीति को धार नहीं दे सकती |अतएव , उत्तर प्रदेश ,पंजाब और उत्तराखंड के ही परिणामो को लेकर भविष्य के कयास किए जाये  तो ज्यादा बेहतर होगा |   खासकर , यूपी में राहुल के कड़ी  परिश्रम का कोई साफ परिणाम नहीं हैं ,सो आने वाले कल की तस्वीर कांग्रेस के लिए ज्यादा दुःख पहुँचाने वाली प्रतीत है | ऐसा क्यों हुआ ? शायद वह इस विचार पर  ज्यादा सोचने वाले भी नहीं हैं ,ऐसा इनकी सोच की दिशा को देख कर परिलक्षित है |वजह साफ है ,इन चुनाव परिणामों के पहले के इतिहास को देखें ,विशेष कर 2009 के लोक सभा चुनाव और 2010 विधान सभाओं के वक्त के राहुल को याद करें ,तब काफी कुछ इनके मन -मिजाज का हाल आप बेहतर तरीके से जान सकते हैं |   
                             बिहार और झारखण्ड में जब उन लोक सभा -विधान सभा के चुनाव की घोषणा हो रही थी ,तब राहुल ने पूरे जोर -शोर से कांग्रेस जनों और आम जनों के मध्य यह गर्जन किए कि दागी ,  दो बार हार चुके राजनितिक तथा किसी भाई -भतीजे या पुत्रों को कांग्रेस का टिकट नहीं मिलेगा ,इतना ही नहीं साफ -सुथरी ,ईमानदार छवि के साथ युवा तबकों को टिकट दिए जाने के पैमाने तय कर दिए जाने की बात कही थी लेकिन जब चुनाव लड़ने के मौके आए ,तब अपनी कही गई और घोषित नीतियों के विपरीत बिहार और  झारखण्ड में कांग्रेस के टिकट दिए गए ,जहाँ कांग्रेस का क्या हाल हुआ .यह अब स्पष्ट रूप में रेखांकित है | राहुल की यह मकारी  पूर्ण  बातों  को यूपी के लोग भूले नहीं थे ,सो नतीजा सामने है |
                             राहुल को थोड़ी भी सामाजिक .राजनितिक और भौगोलिक समझ होती तो तो यह अहसास होता कि झारखण्ड -बिहार की सीमा और सामाजिक सरोकार उत्तर प्रदश से बंधे हैं ,जहाँ कही गई झूठ जल्द पकड़ में आ जाएगी मगर अपने गलैमर के प्रभाव से कांग्रेस की नैया हांकने की कोशिश क्या हो सकती है ,इसका ख्याल उन्हें नहीं था ,अन्यथा ऐसा हस्र नहीं होता ,जैसा की अभी हुआ है |
                               दूसरी यह कि .कांग्रेस को तीन मोर्चे पर लड़ाई लड़नी थी लेकिन इसके लिए उसके पास अपने शत्रु पार्टियों के काट के लिए कोई शस्त्र नहीं थे | समाजवादी पार्टी ,बहुजन पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के पास स्थानीय स्तर पर भी कद्दावर नेता थे ,जो कांग्रेस से कहीं पर भी उनसे बीस पड़ने कि काबिलियत से लैस थे लेकिन इनके पास वैसा कुछ भी नहीं था ,जैसा की अन्यों नके पास था |ऐसे में कांग्रेस को हारना ही किस्मत में बदा था .इससे इतर कुछ भी नहीं |
                              वैसे भी ,व्यक्तिपरक दृष्टिकोण से देखें तो स्पष्ट प्रतीत है कि कांग्रेस के पास खोने और पाने के लिए  कुछ भी नहीं था | सोनिया गाँधी कभी जन मुद्दों पर आम लोगों के बीच नहीं आइ केवल बयानबाजी ही इनके अस्त्र रहे लेकिन मुलायम सिंह यादव का लंबा इतिहास संघर्ष का रहा है और लीक से हटकर बेबाकी से राजनितिक पूर्ण चतुराई से अपनी बात कह देने में माहिर रहे हैं | याद करें .वह बयान जब अयोध्या मुद्दे पर इलाहबाद उच्च न्यायालय के फैसले आए थे ,तब इस निर्णय को सपा खेमे को छोड़ कर अन्य क्षेत्रों से सराहनीय फैसले की बात कहीं जा रही थी और मुलायम कुछेक दिन के लिए छुपी साध लिए थे .फिर मौका मिलते ही इन्होने जो कुछ भी कहा ,वह भाजपा ,कांग्रेस और बसपा के लिए अनमने सा था | इनका साफ तौर पर नपा -तुला विचार था कि "उक्त फैसले से देश का एक खास समुदाय ठगा सा महसूस कर रहा है " 
                                 बस, इस प्रतिक्रिया  को सामने आने भर की देर थी ,समूचे देश में  इसे लेकर सपा   और मुलायम को क्या -क्या आलोचनाओं   के तीर से भेद दिया गया  लेकिन वह स्थिर बने रहे .इतना ही नहीं अमर सिंह जैसे राजदार ने उकसाने वाली बात कई बार कही लेकिन उसका कोई प्रत्युत्तर नहीं दिए  और अपने तरीके से पूरे राज्य में राजनितिक दौरे में भिड़े रहे |ऐसे में चुनाव का लाभ इन्हें नहीं मिलेगा तो किसे मिलेगा ? अल्पसंख्यक समुदाय जो कल तक मायावती - बसपा के साथ थी अब सप -मुलायम के साथ दम साधे खड़े हो चुकी थी | इतना ही नहीं , इनके बेटे अखिलेश यादव ने जिस बेबाक तरीके से युवा साथियों  के साथ संपर्क साधा ,वह बेमिसाल रहा ,इसमें किन्तु -परन्तू का कोई सवाल बीच में नहीं थे  |
                                 इसी तरह काफी कुछ  उत्तराखंड और पंजाब की रही | अल्पसंख्यक वाली बातें यूपी में कांग्रेस ने की लेकिन उसके असर में पंजाब आ गया ,जहाँ अल्पसंख्यक मतदाताओं का अर्थ ही नहीं था और आजादी पूर्व के इतिहास को भाजपा -अकाली दल ने इस तरीके लोगों के बीच विस्तृत किए कि कांग्रेस जीत कर भी हार गई |कांग्रेस यह भूल गई कि तुस्टीकरण और लोक लुभावने बातों का प्रभाव भारत जैसे देश में बदलाव और स्थिरता के ठोस रह नहीं हो सकते |यह थोड़े समय के लिए फायदेमंद हो सकती है ,हमेशा के लिए नहीं | राहुल -सोनिया -प्रियंका  के भरोसे कांग्रेस में इनसे कई उम्दें राजनितिक प्राणी हैं ,फिर राहुल के रहते कैसे कोई युवा अपनी महत्वकांक्षा  को गर्त्त में मिलते देख सकता है ,वह भी तब ,जब वह राजनितिक  को  जीवन दर्शन  के लिए चुना हो |
                                   गोवा और उत्तराखंड के परिणाम शुरू  से से जुदा थे .जितना सच मणिपुर के लिए चुनाव पुर अपरिनाम कि उम्मीद थी .ठीक उसी तरह गोवा के लिए भी आशा राजनीति प्रेक्षकों की थी ,फर्क सिर्फ मात्रा का अर्थात संख्या बल का था ,जो करीब -करीब सामाजिक विज्ञानं के अनुरूप ही रहे | थोड़ा अचरज ,उत्तराखंड के लिए ही है ,जहाँ बहुमत के फासले में कांग्रेस -भाजपा पिछड़ गए लेकिन सत्ता विरोधी रूझान के बावजूद भाजपा को इतना शक्ति लोगों ने दे दी कि वह -जोड़ -तोड़ कर पुन: सरकार बना सकती है |यह अलग प्रश्न है कि इस राज्य का हस्र भविष्य में झारखण्ड जैसे दिखे ,जहाँ  अराजक सी स्थिति ही इसके अस्तित्व में आने बाद से बनी है और यही बात कांग्रेस पर भी लागू है ,जो अगर सरकार बना भी लेती है तो स्थायित्व का संकट उसे लगातार झेलने के लिए अभिशप्त रहना होया |
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