Monday, 23 April 2012

पैसे का खेल बना राज्य सभा चुनाव


                  (एसके सहाय)
          कांग्रेस के विधायक चंद्रशेखर दुबे ने यह खुलासा कर झारखण्ड की राजनीतिक हल्कों में विस्फोट कर दिया है कि पिछले राज्य सभा चुनाव (२०१०) में खुद उनकी ही पार्टी के प्रत्याशी धीरज प्रसाद साहू ने उनसे और अन्य कांग्रेस के विधायकों को २५ -२५ लाख रूपये दिए जाने की पहल की थी ,जिसमें उन्होंने उसे लेने से इंकार कर दिया था | यह बात दुबे ने ऐसे समय की है ,जब अगले तीन मई  को उच्च सदन  के लिये मतदान होना है | साथ ही ,केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो की एक विशेष दल इन दिनों राज्य सभा चुनाव में हुए भ्रष्टाचार  के बाबत दर्ज प्राथमिकी के तहत जाँच -पड़ताल में जुटी है और इस सिलसिले में तीन विधायकों के आवासों पर छापामारी करके सबूत इकठ्ठा करने के प्रयास में भिडी है | ये तीन विधायक तीन अलग - अलग पार्टियों के हैं ,जिनके नाम कृष्णानंद त्रिपाठी (कांग्रेस),बिष्णु भैया (झामुमो) और सुरेश पासवान (राजद) हैं |
         इन तीनों विधायकों के यहाँ सीबीआई का दबिश होने का मतलब काफी साफ है ,जहाँ धुंआ होगी ,वहीँ आग होगी ,वाली तर्क के अंतर्गत ही यह छपा है ,जिसमे तस्वीर स्पष्ट है कि राज्य सभा के चुनाव में बराबर पैसों का खेल झारखण्ड में होता रहा है और इस बार ऐसा होगा ,इसकी कोई गारंटी भी नहीं है | ऐसे में , दुबे के खुलासे के मद्देनज़र यह मानना सही होगा कि कार्यकर्त्ता ,विचारधारा और निष्ठां विहीन हो गई है ,चुनाव प्रणाली , जिसमे तिकडम और धन का ही महत्त्व है ,जो दलगत राजनीती के मूलाधार के विपरीत है |ऐसे में ,एक बार फिर अधिक खर्च करने वाले प्रत्याशी राज्य सभा में चुनकर चले जाएँ ,तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए |
        वैसे दुबे की बात के अपने अर्थ हैं ,जिसमे उनकी राजनीती का साया है ,जिसमे एक कोण विधायक दल के नेता राजेंद्र प्रसाद सिंह हैं ,जिनसे मजदुर राजनीती में इनके छतीस के आकडें हैं | साथ ही ,प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रदीप बलमुचू का राजेंद्र सिंह से गलबहियां करके अपने लिये वोटों का जुगाड करने के प्रयास को दुबे कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं ? कभी .दुबे ने यह कहकर राज्य की राजनीती में बवाल खड़ा कर दिया था कि "आदिवासी" मुख्य मंत्री के स्थान पर गैर जन जातीय मुख्य मंत्री के होने से ही झारखण्ड का विकास होगा | फिलवक्त ,धीरज साहू ने यह कह कर अपना बचाव किया है कि "वह कैसे अपने पार्टी विधायकों को वोट के लिये पैसे का निमंत्रण दे सकते हैं ,क्योंकि उनके ही दल से तो वह उम्मीदवार थे |"
        इन आरोप और सफाई के बीच सच क्या है ,इसमें ज्यादा सिर खपाने की जरूरत नहीं है |यह बराबर से पैसे का खेल राज्य सभा के चुनाव में होता रहा है ,जिसमे पार्टियां "मालदार" को ही अपना उम्मीदवार  बनाती रही है और इनके लिये आसान रास्ते विधान सभा का वह चेहरा है ,जहां किसी दल के पास विगत बारह सालों में स्पष्ट बहुमत का अभाव रहा है |ऐसे में ,बाहरी चेहरे अपनी साम-दण्ड-भेद और अर्थ से हमेशा झारखण्ड में प्रभावी रहे हैं |हाल में .अंशुमान मिश्र के उम्मीदवारी को देखें ,जो भाजपाध्यक्ष नितिन गडकरी के आशिर्बाद से राज्य सभा के लिये नामाकन  कर दिए ,जिसमे पार्टी के ही विधायक उसके प्रस्तावक् बने लेकिन इनको लेकर  दल में जो . विवाद हुआ , उसके बाद वह नामाकन वापस लिये .लेकिन तबतक भाजपा की भद्द पीट चुकी थी ,बिना घोषित प्रत्याशी के मिश्र आखिर किसके बूते अपने को भाजपा प्रत्याशी कह रहे थे ?
       यह तो ,दो करोड १५ लाख रूपये के बरामद होना था कि चुनाव रद्द होने के पर्याप्त वजह बन गए और इसमें आरके अग्रवाल छना गए .नहीं तो दुबारा चुनाव होने की नौबत ही नहीं आती | अब जब सीबीआई चुनाव में भ्रष्टाचार के मामले की तहकीकात कर रही है ,तब कई खुलासे होना अभी बाकी है |
        अतएव , केवल तीन विधायक ही नहीं ,बल्कि दो दर्ज़न से अधिक विधायक सीबीआई के जद में आ चुके है और इसमें दलिये विधायकों के अतिरिक्त निर्दलीय विधायक भी शामिल है ,जिनपर जाँच का कड़ा जल्द गिरने वाला है ,इंतज़ार इस बात का है कि "साक्ष्य" की खोज में कई टीम जहाँ - तहां प्रत्यनशील है और इसमें काफी हद तक टुकड़े - टुकड़े में कामयाबी भी मिलती जा रही है ,देर केवल इनके बीच कड़ी जोड़ने में आ रही परेशानी का है ,जिसे वैज्ञानिक जाँच प्रविधि से क्रमबद्ध किया जा रहा है |
         अगले तीन मई को होने वाले चुनाव में सत्तापक्ष से दो उम्मीदवार और एक विपक्ष से है . इसमें एस एस अहलुवालिया (भाजपा), संजीव कुमार (झामुमो) और कांग्रेस से प्रदीप बलमुचू के भाग्य का फैसला होने वाला है |इस चुनाव में कांग्रेस की प्रमुख सहयोगी झाविमो ने अपने को अलग रहने की घोषणा कर रखी है अर्थात इसके विधायक राज्य सभा के चुनाव में किसी के लिये मतदान नहीं करेंगे |ऐसे में यह चुनाव काफी दिलचस्प मोड पर आ गया प्रतीत है | राज्य सभा के रद्द हुए चुनाव में भी संजीव व बलमुचू प्रत्याशी थे ,इनमें अहलुवालिया भाजपा के उम्मीदवार के तौर पर है ,जो पहले भी राज्य का प्रतिनिधित्व उच्च सदन में कर चुके है | यह किस हालात में पुन: चुनाव के लिये खड़े हुए ,इसकी एक अलग ही कहानी है |
           इन स्थितियों से प्रकट है कि झारखण्ड में बिना "धनबल" के चुनाव जितना कितना दुष्कर है ,जहाँ पार्टीगत उम्मीदवारी पर पैसे की चाहत हो ,निर्दलीय हैं तो भाग्य का छींका टुटा जैसे हालात हो , दलगत नेताओं -कार्यकर्त्ताओं का महत्त्व सिर्फ पैसे से नापी -खरीदी और आकलन की जाती हो , वैसे में ईमानदारी से चुनाव एक दुरूह सा होना स्वाभाविक है | आप मेरे पार्टी के हैं और उम्मीदवार भी है ,अच्छी बात है लेकिन जब जीत कर जायेंगे ,तब मेरे लिये क्या करेंगे ? ऐसी मनोभावना के बीच कार्यकर्त्ता बना राजनीतिज्ञ उम्मीदार से वोटों के बदले पैसे की मांग करता है ,तब पार्टी कहाँ ठहरती है ,जितने के बाद अक्सर विधायक -सांसद अपने कार्यकर्त्ता को भूल जाते हैं और यहीं से तात्कालिक लाभ की बातें शुरू होती है ,जो प्राय: हार पार्टी में रोग बन गया  है ,तो दलगत राजनीती का मरते जाना ही है अर्थात दल गिरोह में तब्दील हैं ,तब कैसे बिना पैसे के समाज सेवा करने के ठेकेदार आप  हो सकते हैं ?
        यह हालात केवल झारखण्ड भर की नहीं है ,राज्य सभा के सदस्यों के जीवनवृत को देखें ,इसमें कितने "जन्संघर्ष" से निकल कर पहुंचे हैं ? धीर -गंभीर सदन के रूप में चिन्हित यह राज्य सभा अब निकृष्ट तत्वों के जमावड़े के रूप में ही समझा जाता है |इनके अधिकांश सदस्यों को राष्टीय - अंतराष्टीय समझ का अभाव है .लोक चरित्र को भी आत्मसात करने में इनको दिक्कतें आती हैं , ऐसे ही परिस्थिति में अराजक तत्व देश के भाग्य विधाता बन जाते है ,तब जन -समस्या पर विचार और हल के तरीके कैसे  मूर्त रूप लेंगे ?  घूसखोरी में जो पकड़ा गए ,वह चोर और जो पकड़ में नहीं आया ,वह भ्रष्ट नहीं ,ऐसा मानना गलत होगा |
         इसलिए दुबे के बातों का एकतरफा अर्थ नहीं है ,वह स्वय भी एक संदेह से भरे जन प्रतिनिधि रहे हैं ,फिर भी जो खुलासे उन्होंने जाने या अनजाने में कर दिए हैं वह तो चिंता प्रकट करती है और इसे नज़रंदाज भी नहीं किया जा सकता | मबेलो ,नाथवानी ,केडी जैसे राज्य सभा के उम्मीदवार बन चुके और रह चुके सदस्य के बीच का राजनीतिक चरित्र का स्तर कैसा है ,यह सर्व विदित है और यह जानकर दलीय नेता -कार्यकर्त्ता कुंठा ग्रस्त होते दिखे तो यह लोकतान्त्रिक राजनीतिक व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगने का औचित्य एक बार फिर जन मानस को झकझोरे ,तब ताज्जुब नहीं !
  
        

1 comment:

  1. bahut-bahut dhanyabad aaj ke iss yug me ham log apni bat ko kisi prakar janta tak pahuchaye yahi ek rasta hai .

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