(एसके सहाय)
बात १९९८ की है ,तब मई के माह
में भारत, परमाणु विस्फोट कर चूका था और इसकी अनुगूँज पूरे दुनिया में हुई थी
,जिसमे पश्चिमी देश के साथ -साथ संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा एवं आस्ट्रेलिया
प्रतिबंधों के बाबत देश को धमकी दर धमकी दिए जा रहे थे ,इधर देश में भी इस विस्फोट
के बाद लाभ -हानि पर बहस तेज थी |ऐसे में रोज ब रोज केंद्र सरकार को किसी न किसी
रूप में इन विस्फोटों को लेकर अपनी नीति स्पष्ट करने की मशक्कत से जूझना पर रहा था
,तब अचानक तत्कालीन रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाडीज ने संसार को यह बताकर स्तंभित कर
दिया था कि " भारत का असली दुश्मन पाकिस्तान नहीं बल्कि चीन है |" यह
कहने भर की देर थी ,इसे लेकर भारी नाराजगी तब चीन ने प्रकट किया था ,जिसे भाजपानीत
राजग सरकार ने पूरी ताकत व क्षमता के प्रतिकार करने में सफल हो गई |बाद के दिनों
में क्या हुआ ,इसे सभी जानते हैं |खुद अमेरिका की पहल पर अंतराष्टीय परमाणु क्लब
की सदस्यता भारत ने ग्रहण की ,प्रतिबन्ध हटे या ढीले हुए ,इसकी गाथा से प्राय: अब
सब परिचित हैं |
इस पृष्भूमि के आईने में देखें तब चीन की
इन धमकियों का अर्थ समझने में सहायक हो सकती है ,जिसमें चीन सरकार के राष्टीय
इंस्टीट्युट आफ साऊथ चाइना के अध्यक्ष वू सिचुन ने दक्षिण चीन सागर को लेकर सख्त
चेतावनी वाले लहजे में कहा है कि " विवादित क्षेत्र से भारत ने तेल निकाला
,तब उसे भारी कीमत चुकानी पड़ेगी |" साफ है कि चीन अपनी कूटनीतिक चालों में
पूर्व की तरह अंतराष्टीय राजनय के क्षेत्र में कर रहा है ,जिससे भारत को भयभीत
होने की जरूरत नहीं है और इसकी प्रतिक्रिया में विदेश मंत्री एस एम् कृष्णा ने
स्पष्ट लफ्जों में कहा कि "दक्षिण चीन सागर किसी की जागीर नहीं है बल्कि यह
पूरे संसार की है " और इस जवाबी हमले
में कूटनीति के वे तार जुड़े हैं ,जिसकी प्रतीक्षा में अमेरिका समेत अन्य कई राष्ट
इस इंतजार में हैं कि वे भी दक्षिण चीन सागर में आर्थिक दोहन अर्थात सामुद्रिक
खनिजों के लाभ उठाने के मौके मिले | यह इसलिए भी यूरोप -अमेरिका ,जापान जैसे देशों
के मुफीद है कि चीन का अपने सभी पडौसियों से "सीमा विवाद " शुरू से चला
आ रहा है | यह उस तरह के विवाद नहीं है ,जैसा कि भारत के साथ पाकिस्तान को छोड़कर
अन्य से है |ऐसे में ,चीन को शेष दुनिया से अलग - थलग करने में फिलवक्त सारी बातें
मौजूद है ,इसके बावजूद ,भूमंडलीकरण ,बाजारवाद और उदारवाद जैसी संकल्पनाओ के
व्यावहारिक स्वरूपों में यह संभव नहीं है |इसलिए अभी तो यही देखना
है कि चीन अपनी
धमकियों के बाबत कौन सा कदम उठता है ?
यह जग जाहिर है कि भारत, वियतनाम के
सहमति और रजामंदी से दक्षिण चीन सागर में तेल की खोज में जुटा है और इन परियोजनो
से दिपक्षीय संबंधों के आधारों को बल मिलने की नई उम्मीद है और इन आशाओं के मध्य
यह भी एक तथ्य है कि वियतनाम के साथ चीन के रिश्ते शुरू से बिगड़े हुए है |इसकी झलक
पिछली सदी के सत्तर के दशक में देखि जा सकती है | घटना १९७९ की है ,भारत -चीन अपने
रिश्ते को पटरी पर लाने की अंतराष्टीय कूटनीतिक प्रक्रियाओ को आजमा रहे थे,आजमा
इसलिए रहे थे कि १९६२ में हुए युद्द के बाद पहली बार जनता पार्टी की केन्द्रीय
सरकार के विदेश मंत्री अटल बिहारी बाजपयी चीन दौरे पर थे और इनके बीजिंग में रहते
चीन ने वियतनाम पर आक्रमण कर दिया था ,जिसके विरोध में बाजपेयी ने अपनी यात्रा को
बीच में ही अधूरी छोड़कर वापस लौट गए और चीन की इस हरकत को नापसंद करने की
प्रतिक्रिया व्यक्त की |
प्रकट है कि चीन की नीति ,कूटनीति और
कदम पहले से ही काफी सुविचारित एवं सुनियोजित रहते है ,जिसे लेकर भारत को अत्यंत
ही सतर्क रहने के लिये आगाह रहना है | इसलिए जब वह चेतावनी दे रहा है ,तब उसके
जेहन में आने वाली प्रतिक्रिया को लेकर पहले से रणनीति बन चुकी होगी |ऐसे में
अमेरिका का दक्षिण चीन सागर को लेकर दिलचस्पी होना चीन को भी सावधानी बरतने के
संकेत दे दिए है ,वह इसलिए कि यह इलाका प्रशांत महासागर से जुड़ा है ,जो अमेरिका
एवं इससे प्रभावित देशो के लिये महत्वपूर्ण है क्योंकि यह क्षेत्र ३५ लाख वर्ग
किलोमीटर में विस्तृत है ,जो चीनी सीमा से काफी दूर है लेकिन अब जब सामुद्रिक
सम्पतियों की दोहन को लेकर मामले काफी आगे बढ़ चले हैं तब ऐसे में चीन नौनसा द्दीप में
तेल ,गैस एवं अन्य खनिजों की तलाश शुरू कर सकता है और भारत को दिए चेतावनी के पीछे
उसकी यही मकसद होने की संभावना हो सकती है |
वैसे ,दक्षिण चीन सागर का विषय हाल
में तब ही चर्चा में आया ,जब वियतनाम ने भारत को तेल परियोजनाओं के लिये आमंत्रित
किया |इस आमंत्रण के साथ चीन के चौधराहट से बौखलाये देश यथा - फिलीपिंस, ब्रुनेई
और ताइवान जैसे राष्ट खुलकर चीन के विरूद्ध सामने आ गए है | इअके अतिरिक्त अन्य
पडौसियों में भी चीन की दादागिरी को लेकर चिंताएं बराबर रही है ,जिसका लाभ भारत
उठा सकता है और फिलवक्त की स्थितियों में जब अमेरिका भी स्पष्ट कर चूका है कि वह
मानता है कि दक्षिण चीन सागर अंतराष्टीय आवागमन के सार्वभौम रास्ते हैं ,तब चीन भी
सतर्क हो चूका है ,ऐसे में शक्ति का इस्तेमाल करने की जुर्रत वह आसानी से नहीं कर
सकता |अभी के विश्व राजनय के हालात तो ऐसे ही हैं |
वास्तव में, चीन को अब एहसास है कि भारत
वह नहीं है ,जो कभी १९६२ में था | उसे यह
भी पत्ता है कि १९८२ और १९९२ में जब भारत परमाणु विस्फोट करने की ओर अग्रसर था ,तब
अमेरिका की चेतावनी से वह अपने बढे कदम पीछे हटा लिये थे और यह तब की बातें है ,जब
क्रमश: अमेरिका में रोनाल्ड रीगन जैसे सख्त एवं अनुदार राष्टपति थे और इंदिरा
गाँधी के प्रधान मंत्रित्व में यहाँ सरकार थी ,तब पी वी नरसिंह राव जैसे कमजोर
शासनाध्यक्ष की क्या बिसात, जो उसके हुक्म को बे उदूली करे |
लेकिन नहीं , समय ने करवट ली ,बाजपेयी
की सत्ता भारत में स्थापित हुई और अपने कलम से जिस संचिका पर सरकार ने सबसे पहले
जो निर्णय लिया वह परमाणु विस्फोट का ही था और इसमें ठीक -ठीक अंदाज में चीन को
कूटनीतिक तरीके से संकेत दिए गए कि भारत वो नहीं है ,जो अबतक जाना जाता रहा ,बल्कि
वो है ,जो हम चाहते है अर्थात विस्फोट के दिन बुद्द जयंती थी और तारीख थी ११ मई ,
यह इसलिए भी महत्पूर्ण रूप से रेखांकित है कि २४ साल पूर्व १९७४ में उसी माह में
भारत ने पहला परमाणु परिक्षण किये थे और जब बाजपेयी काल में पुन: विस्फोट हुए ,तब
दुनिया यह देख रही थी कि "बुद्द" मुस्करा रहे है |मतलब यह कि अहिंसक
नीति को भारत त्याग रहा था और अपनी ताकत को विश्व मंच पर तौलने के लिये खड़ा हो रहा
था ,जो चीन को विशेष तौर पर लक्षित किये गए थे और इसकी आवाज बने थे जार्ज फर्नाडीज
जिन्होंने बेबाक तरीके से दुनिया को बताया कि उनके देश का प्रथम शत्रु पाकिस्तान
नहीं बल्कि चीन है और इसी में कूटनीति के व्यापक सूत्र छिपे है ,जिसे अभी सहेजा जाना
बाकी है ,जिसका थोडा दिग्दर्शन एस एम् कृष्णा के बयानों में है |
और अंत में यह कि दक्षिण चीन सागर को
लेकर जिस तरह चीन ने अपनी संप्रभु होने का दावा
किया है ,ठीक उसी अंदाज में पाक अधिकृत कश्मीर के वे भाग ,जो कराकोरम
कहलाता है और इसे पाक सरकार ने अपनी दोस्ती को चीन के साथ प्रगाढ़ करने के निमित
चीन को दे दिया है ,उसे लेकर भारत को चाहिए कि चीन को बातचीत के जरीये संपूर्ण तौर
पर हल करे ,क्यों कि चीन ने भी अपनी उपस्थिति कराकोरम में भारतीय नाराजगी व्यक्त
करने के बावजूद बनाये हुए है ,जिस पर भारत शुरू
से अपना हक जतलाते आ रहा है | राजनय के सिद्दांतो में कूट चालों में एक सौदेबाजी भी तत्व हैं ,जिसे
याद रखा जाना चाहिए और फिलवक्त चीन के पास पाकिस्तान -उत्तर कोरिया सरीखे एक -दो
देश ही है .जो मित्र के
तौर पर अंतराष्टीय
मंचों पर उसके साथ खड़े हो सकते है और इसकी काट के लिये अमेरिका ही काफी है ,जो इन
दिनों दिन प्रति दिन भारत से सटने के करीब है, तब करारा झटका देने में हर्ज नहीं
होनी चाहिए |मौके की उत्पन्न स्थितियां तो ऐसी ही हैं |
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