Wednesday, 11 April 2012

इन मुठभेड़ों में छिपी स्थितियां


                           (एसके सहाय)
        झारखण्ड के एक ही क्षेत्र में पांच दिनों के अंतराल में सशस्त्र माओवादियों और सुरक्षा बलों के बीच हुए मुठभेड़ों ने यह साफ कर दिया है कि भूमिगत संगठनों के प्रति सरकार और जिला एवं स्थानीय प्रशासन गंभीर नहीं है और यदि ऐसा नहीं है ,तब इतने कम अवधि में तुरत मुठभेड़ होना और केवल पुलिस को ही नुक्सान होने के क्या मत;लैब है ? पहले चार अप्रैल और अब नौ अप्रैल को पलामू परिक्षेत्र में ही मुठभेड़ इतने कम अंतराल पर होने से यह भावना ग्रामीण क्षेत्रों में घनीभूत होने को है कि जान - माल की सुरक्षा अब उग्रवादियों के ही हाथों में है ,इसलिए इनसे पंगा लेना गांव वालों  को मंहगा हो सकता है | वैसे ,पलामू प्रमंडल के तीनों जिलों में यथा -पलामू ,गढ़वा और लातेहार में माओवादियों के अतिरिक्त अन्य कई चरमपंथी संगठनों के हथियारबंद दस्ते सक्रीय हैं ,जिसमे आपसी एकता तो नहीं लेकिन सरकार को चुनौती देने में सभी तरह के उग्रवादी सक्रीय रहते दिखे है |
             यह दोनों मुठभेड़ इसलिए भी महत्वपूर्ण तौर पर रेखांकित है कि दोनों मुठभेड़ स्थलों के बीच की दुरी महज कुछेक किलोमीटर है ,जो कहने को दो अलग -अलग जिलों में पड़ता है लेकिन यह दोनों जिला पुलिस के लिये आपसी तालमेल को दर्शाने के लिये भी प्रयाप्त है ,फिर भी दोनों मुठभेड़ों में सुरक्षा बलों के ही सतही हत् हुए ,यह कम चुन्ताजनक स्थिति नहीं कही जा सकती | सर्वप्रथम लातेहार जिले के बरवाडीह थानांर्गत कर्मडीह में माओवादियों ने केन्द्रीय सुरक्षा बल के एक जवान को मार डाला और एक, झारखण्ड आर्म्स पुलिस के जवान को गंभीर रूप से घायल कर दिया .फिर नौ अप्रैल को गढ़वा जिले के भंडरिया थाना क्षेत्र के चेमु स्नाय इलाके में मुठभेड़ करके अर्ध सैनिक बलों के छ जवानो को जख्मी कर दिए ,जो माओवादियों के बढते हौसले को प्रदर्शित कर रहे और सरकार की तरफ से कोई जवाबी कारवाई के संके तन नहीं मिल रहे है ,जो आमजान में भरोसे को तोड़ते प्रतीत है और यह कोई स्वस्थ लक्षण के तौर पर नहीं लिया जा रहा ,इससे निकट भविष्य में पुन: हमले होने की आशंका से इंकार नहींकिया जा सकता |
           सबसे ताजुब की बात है कि दोनों मुठभेडें दिन के उजाले में हुई और पुलिस -सुरक्षा बलो के पास इतने समय थे कि अगर वे चाहते तो इन अतिवामपंथियों को आराम में घेर कर अपनी कब्ज़ा में ले सकते थे लेकिन इन व्यूह रचनाओं को अमली जमा न पहनाकर पुलिस आत्म रक्षार्थ हो गई ,जिसे माओवादियों के हौसले में इजाफा हो गया और जब कर्मडीह मुठभेड़ के बाद दूसरे दिन "आक्टोपस" अभियान चरम पंथियों के विरूद्ध छेड़ा गया ,तब नौ अप्रैल को दिन के दस बजे छ जवान उग्रवादियों के चपेट में चेमु स्नाय के निकट  गंभीर रूप से घायल हो गए और एक बार फिर पुलिस मुहीम, आत्म रक्षार्थ मन: स्थिति में आ  गयी |
         इन हालातों में कैसे उग्रवादियों पर झारखण्ड में काबू पाया जा सकता है |यह प्रश्न एक बार फिर पुलिस महकमें में उठ गया है | राज्य पुलिस को मदद के लिये केन्द्रीय सुरक्षा बल कि कंपनियां प्राय: हर जिले में प्रतिनियुक्त है |खासकर , उग्रवाद प्रभावित जिलो में ,जिनकी संख्या अठारह हैं ,में लगातार अभियान चलाये जाने की बात सरकार और पुलिस महानिदेशक गौरीशंकर रथ करते रहे हैं ,फिर भी नतीजे कोई विशेष सामने नहीं आ पा रहे | आखिर क्यों ?
         दरअसल , भूमिगत संगठनों के उग्रवादियों  के प्रति सरकार की कोई स्पष्ट नीति अबतक सामने नहीं आ पाई है और न ही पुलिस को वो खुली छूट प्राप्त है ,जैसा कि पूर्वोत्तर  के राज्य पुलिसों को है ,सिर्फ  "हवाई फायर " ही इनकी घोषणा दिखी है ,जिसे जन विश्वास भी खत्म होता परिलक्षित है | गांव में यदि ग्रामीण उग्रवादियों के रहम - करम पर है ,तो इनके उनके साथ सुरक्षा की गारंटी भी है ,यही वजह है कि राज्य के उग्रवाद प्रभावित इलाकों में अपराध की मात्रा घट गई है ,जिसके कारण यह रहा कि ,चोरी ,डकैती ,लुट ,छिनतई ,बलात्कार ,हत्या जैसी मामले उग्रवादियों के भय से नहीं हो पाते ,क्यों कि इनके बीच फरियाद होने या जानकारी मिलने पर तुरत अपनी कथित "जन अदालत" में फैसले  कर दिए जाने की  बात रहती है |और तो और शाम हुआ नहीं कि पुलिस या अन्य कोई भी सुरक्षा बल गांवों की मुंह नहीं करते तथा मुख्य सड़क से उतरने की तो सोचीय ही नहीं , यह हालात है झरखंड की ,जहाँ माओवादियों के अलावे अन्य कई दर्जन भर उग्रवादिक संगठन अपनी सरकार के सामानांतर प्रभाव स्थापित किये हुए हैं ऐसे में ,जब -तब कथित लेवी वसूलने की बात सामने आती है ,तब वह हकीकत है ,बिना इनके अनुमति के कोई भी निर्माणात्मक काम हो ही नहीं सकते और इसे देखना -जानना हो तो पुलिस मुख्यालय ,ख़ुफ़िया रिपोर्ट या जिला पुलिस के फाइलों को देखने ,जहाँ हजारों की संख्या में उग्रवाद के साथ अन्य गठजोड़ की बाते पढ़ने को मिल जायेगी |
               झारखण्ड में हकीकत तो यह है कि यदि ग्रामीण उग्रादियों को थोडा खाना खिला दें ,तब पुलिस उन्हें तंग करती है और अगर पुलिस कोई बात गांववाले सूचित करें ,तो माओवादी सहित अन्य उग्रवादी सताते हैं ,जिसके कारण पूरा ग्रामीण जन -जीवन तबाह है |ऐसे  में ,कोई कारगर नीति इन चरम पंथियों से लड़ने के लिये पिछले १२ सालों में नहीं बनी , जिसके वजह से आज आये दिन मुठभेड़ ,मौत ,घायल जैसी लोमहर्षक घटनाओं का सिलसिला बदस्तूर जारी है | इस राज्य में ,पूर्व मंत्री ,सांसद ,विधायक ,भारतीय पुलिस सेवा ,राज्य पुलिस सेवा या अन्य अधिकारी ,- कर्मचारी समेत असंख्य लोगों की मौत उग्रवादियों के हाथों हो चुकी है ,इसके बावजूद सरकार ,सामाजिक जीवन ,आर्थिक -राजनीतिक समूह या कहे अन्य वर्गों में केवल "वैक्तिक " रूप से बैचेनी है ,कुछ कर गुजरने की भावना का सर्वथा अभाव है ,जो पुरे  झारखण्ड को लकवा ग्रस्त किये हुए है |यही इस राज्य की फ़िलहाल सबसे बड़ी त्रासदी है |
 
         

2 comments:

  1. उम्दा लिखा है संजय जी। परते खोलता लेख।

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  2. jharkand ke sahi halat ka ulakh kiya hi aa pne

    jasprit singh air /ddnews palamau

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