Thursday, 19 April 2012

व्यवस्थागत खामियों के मध्य कानून व व्यवस्था के प्रश्न


                       (एसके सहाय)
आंतरिक सुरक्षा के मुद्दे पर हाल में सपन्न मुख्य मंत्रियों के संग प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह के व्यक्त विचारों ने गंभीर सवाल कड़े किये हैं और उन अप्रत्यक्ष प्रश्नों के उत्तर खोजा ही जाना चाहिए कि "भारत राज्यों का परिसंघ है या इससे इतर' , यह विषय इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि प्रधान मंत्री ने रटे-रटाये शब्दावली में ही अपने प्रस्तावित नीतियों को रेखांकित किया है ,जो अक्सर बोल -चाल की भाषा में हर शासक वर्गों की नियति है ,उसे दोहराते रहने की ,क्योंकि इनके पास अपने कोई मौलिक विचार ,योजना होती नहीं ,सिर्फ यथा -स्थिति को बनाये रखने की चिंता ही इनके भीतर होती है ,सो मनमोहन सिंह ने कोई नई बात संघ की तरफ से नहीं की है ,यही सबसे गंभीर बात है |
              प्रधान मंत्री के पद पर बैठा व्यक्ति वही बात कहे ,जो आम लोग अर्थात सामान्य सत्तासीन व्यक्ति बोले ,तो चिंता होनी स्वाभाविक है ,मसलन मनमोहन सिंह ने कहा कि "जातीय ,धार्मिक ,सामुदायिक - सांप्रदायिक ,आतंकी जैसी भीतरी संकट काबू में है लेकिन इसके समूल नष्ट करने के लिये अभी और ठोस कदम उठाये जाने हैं |" स्पष्ट है कि इन्होने कोई विशेष बात देश की अंदरूनी हालात पर नहीं की ,जिससे इस समस्या को पूरे राज्यों के मुख्य मंत्री एक तरीके से हाल के प्रति अपनी -अपनी दृष्टिकोण का इजहार करते ,लेकिन सम्मलेन में वैसा कुछ भी नहीं था ,गुजरात के मुख्य मंत्री नरेन्द्र मोदी के विचार अलग थे ,तब तमिलनाडु के जयललिता के कुछ और पशिचमी बंगाल के मुख्य मंत्री ममता बनर्जी , ओडिसा के नवीन पटनायक  समेत हर मुख्य मंत्रियों के कानून व्यवस्था के प्रश्न पर शांति को लेकर भिन्न - भीं विचार थे ,ऐसे में मतभेद होना स्वाभाविक था और यह विवाद खुलकर सामने आया भी, इन्हीं परिप्रेक्ष्य में देखें तो अभी से ही आभास होता प्रतीत है कि अगले पांच मई को जब "राष्टीय आतंक रोधी केंद्र" अर्थात एन सी टी सी को लेकर एक बार फिर पखवारे बाद मुख्य मंत्री और प्रधान मंत्रियों के बीच विचारों का विनिमय होगा ,तब इसमें विवाद होना अभी से ही तय है ,जिसकी पृष्भूमि इस आंतरिक विषय को लेकर हुए बैठक में बन गई है |ऐसे में केंद्र के साथ राज्यों का मतैक्य होना कठिन है और इसके लिये संविधान वर्णित स्थितियों का इसमें मुख्य करक की भूमिका है |
         प्राय: इस बात से सभी अवगत है कि "कानून व व्यवस्था" राज्यों के जिम्मे है और ऐसा राज्यों से निर्मित "भारत संघ" के सवैधानिक प्रावधानों में स्पष्ट रूप  से उल्लेखित है ,फिर इसमें आमूल चूल परिवर्तन किये बिना केंद्र सरकार कैसे सीधे हस्तक्षेप करने की योजना बना लेती है ,यह समझ से परे की बात अबतक है | संघ, राज्य और समवर्ती सूची के तौर पर स्पष्ट विभाजन रेखा ,इन के मध्य है ,केवल समवर्ती सूची ही ऐसी है ,जिसपर दोनों या एक अपने - अपने ढंग से अपने क्षेत्राधिकार के तहत कार्य कर सकते हैं | विवाद होने की हालात में परस्पर मिलकर या न्यायालय के निर्णयों के तहत कुछ हद तक ,अथवा कानूनों के आपसी टकराहट की स्थिति में संघ के नियम ही मान्य होंगे , ऐसा ही  व्यवस्था भारतीय संविधान में है ,फिर विरोध के स्वर उठने पर इसके समाधान की प्रक्रिया का अवलंबन होना चाहिए लेकिन यहाँ तो गैर कांग्रेसनीत राज्यों के मुख्य  मंत्रियों ने सीधे आक्षेप  कर दिया  है कि संघ की सरकार राज्यों के सरकार को स्थानीय निकाय समझ जैसी बातें कर रही है ,जो वाकई में गंभीर बात है |
         दरअसल ,यह विवाद देश के इतिहास से गुंथा है ,जिसके अवचेतन मन के "प्रभाव से प्रभावी" होने की ललक सत्ता वर्ग को बराबर बैचेन किये रहती है | संवैधानिक स्थिति में राज्यों के मिलन से संघ बना ,जिसे भारत संघ कहा गया ,यह स्थानीय संस्कृति ,भाषा ,अस्मिता के आधार पर गठित है ,जिसमें व्यापक स्वरूप में जनहित के दृष्टिकोण से संघ अर्थात केन्द्रसरकार को संचालित करने का दायित्व भर है ,मगर पिछली सदी के यों कहें कि इंदिरा गाँधी के अभ्युदय काल से ऐसी प्रवृति राष्टीय राजनीती में उत्पन्न है कि संघ सरकार पर किसी भी दल या दलीय समूह की सरकार हो ,वह अपने को ज्यादा सशक्त करने और दिखने में प्रत्यनशील रहती आई है ,ऐसे में राज्य - संघ के बीच तनाव -विवाद नहीं होंगे तो क्या होंगे ?
         यह सदैव याद रखी जानी चाहिए कि भारत कई राष्टियता वाले देश का संघ है ,केंद्र नहीं , यह संवैधानिक प्रावधानों में साफ तौर पर अंकित है या जानें कि "राज्यों के संघ" उदबोधन से ही संविधान की शुरूआत  होती है और इसे नजरदांज किये जाने की प्रवृति से खतरनाक परिणाम निकल सकते हैं | सोवियत संघ का बिखराव हमारे सामने है | यहाँ इसलिए इसे याद करने की जरूरत है कि इस देश में संविधान में ही उल्लेख था कि राज्य चाहें तो अलग हो सकते हैं पर यथार्थ में वैसा नहीं था ,सोवियत संघ की जकडबंदी से पूरा विश्व परिचित रहा है | इस तुलनात्मक विवरण का मकसद भारत को भी सतर्क रहने की ओर इशारा करना है | ऐसे में राज्य संघ के रिश्ते को समय रखने की आवश्यकता है |
            केन्द्रीय सत्ता को अत्यधिक मजबूत करने पर जोर की प्रवृति ने राज्यों को संशकित किया है और इसमें  यह मान लेने की प्रवृति है का योगदान है ,जिसमें भारत को एक राष्ट सरीखी जैसी समूह समझा जाय | यह तो उप राष्टियताओं के मिलन से उत्पन्न राज्य है ,जिसकी सीमा भुगौलिक रूप  से निश्चित होने के बाद भी कई टुकड़े  हुए ,जिनमे पाक ,बंगला देश  सुंदर उदाहरण है |
              ऐसे में केंद्र - राज्यों के बीच संवाद में प्रभुता स्थापित करने वाली प्रवृति से बचा जाना चाहिए ,सत्ता का संचालन सदा एक सा नहीं होता ,मुगलकालीन ओरंगजेब शासन  में सबसे ज्यादा केन्द्रीयकरण का परिणाम थ कि उस वक्त देश के  अधिक भूभाग एक सता के अधीन रहे ,फिर इस श्ससक के इंतकाल .कमजोर पड़ने से कैसे सत्ता भरभरा का ढह गई ,यह इतिहास के पन्नों में देखा जा सकता है |  लालडेंगा , तमिल, राजनीती के स्वरूप  कश्मीर ,भाषाई संकट ,जातीय अस्मिता से पैदा हुए कई आन्दोलानो का इन सन्दर्भों में अध्ययन किया जा सकता है .जो पूर्व में कैसी -कैसी क्रिया कर्म से यह प्रभावित रहा है |
           व्यवस्थागत कठिनाइयों के बीच केंद्र को अब ज्यादा संघ जैसी मानसिकता से परिचालित होने का समय है | संविधान भी संघ सोच को मान्यता देता है ,शक्ति के अतिशय प्रयोग से मौजूदा संप्रभुता पर चोट पहुँच सकती है | चिदम्बरम ,सिब्बल जैसे नेताओं को केवल क़ानूनी तकनीकी आधारों पर बोलने के आदत से बाज आने चाहिए और प्रधान मंत्री को भी थोडा इतिहास के लेखों पर ध्यान देने चाहिए .तभी कानून -व्यवस्था पर सार्थक पहल संयुक्त रूप से हो सकती है ,जिसमे राज्यों का योगदान "समुच्चय" के रूप में केन्द्र बनी संघ को मिलने  की उम्मीद हो सकती है ,इससे इत्तर नहीं |
        वैसे भी, देखा गया है कि देश में दलगत व्यवस्था ने राज्य -संघ के संबंधों को काफी प्रभावित किया है और हार-जीत को लेकर होने वाली और बननेवाली राजनीतिक रिश्ते ने देश को काफी नुक्सान पहुँचाया है | द्रमुक -अन्नाद्रुमुक को लेकर संघीय सरकार के दृष्टि चाहे संप्रग या राजग केन्द्रीय सरकार में किस रूप में रही है ,यह खुद प्रत्यक्षमान है , वैसे इस तरह के कई उदाहरण भारितीय इतिहास में पड़े हैं , यहाँ तो अंदरूनी व्यवस्था पर होने वाली विचार -विमर्श पर सोचने के अवसर है | इसलिए दुराग्रही प्रवृति से मुक्त होकर ही केंद्र -राज्य एक बेहतर स्थिति ला सकते है केवल राजनीतिक चश्मे से समाधान नहीं संभव है | .

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