(एसके सहाय)
पाकिस्तानी राष्टपति आसिफ अली जरदारी के निजी
दौरे पर भारत आने और इस मौके पर भारतीय प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह से एकांत में
पच्चास मिनट बातचीत करने को लेकर ,इधर देश -विदेश के कूटनीतिक क्षेत्रो में
जबरदस्त मीमांसा किये जाने की होड है ,जिसमे भारत के राजनीतिक गलियारों में ,इन
मुलाकातों के सन्दर्भ में तरह - तरह के अनुमानों का दौर है और इन अनिश्चित
स्थितियों के बीच राष्ट हित का सवाल गौण होता प्रतीत है ,जो कि भारत के लिये अब भी
आतंकवाद को लेकर कोई ठोस वायदे -आश्वासन पाक की ओर से संकेतित नहीं है | यही इन भेंट -मुलाकातों का
सार है ,जिसके कोई यथार्थ मायने नहीं है |
फिर भी इन दो शाख्सियतों का मूल्याकन किया ही
जाना चाहिए ,ताकि यह तो पता चाल सके कि इन दो गैर राजनीतिज्ञों के मान में क्या
विचार अपने - अपने देश के प्रति है ? ऐसा इसलिए कि मनमोहन सिंह और आसिफ अली में
ज्यादा का फर्क नहीं है ,दोनों की शक्तियां एक -दूसरे की तरह पराश्रित हाथों में
है और काफी हद तक दोनों अपनी -अपनी जरूरतों के हिसाब से ही डगर भर सकने के हालात
में है ,ऐसे में कोई यथार्थ परक रिश्ते की बात इन दोनों के बीच हुई होगी ,कोरी
कल्पना होगी |
अतएव , भारत -पाक के सबंध सीमित दायरे में ही
फिलवक्त बने रहने की है ,जिसमे अमेरिका को दुश्मन नंबर एक मान लेने की प्रवृति इन
दिनों पाक में जोर पकड़ रही है ,जो जरदारी ,गिलानी परवेज कयानी और पाक मुख्य
न्यायधीश चौधरी के झूले में अटका है , जिसमे परस्पर अहम ही इनके बीच एक -दूसरे को
शंकालु बाये हुए है |मतलब यह कि पाक में अभी स्थिरता के अभाव का दौर है और इस बचने
की जो भी कोशिश वहां दिखती है , समष्टिगत न होकर व्यष्टिगत है ,ऐसे में जरदारी के
सामूहिक या फिर व्यक्तिगत मुलाकतों का भारत के लियेकोई अर्थ नहीं है |
इतना ही नहीं , जरदारी की मनोदशा व्यापारिक
बुद्दि से प्रभावित है ,जो लाभ -हानि के नजरिये से खुद और अपने देश पाक को तौलने
की प्रवृति से लाचार हैं ,तभी तो उनको पाक में
"मि टेन परसेंट " के संबोधनों से अक्सर बातचीत में लोग नवाजते
हैं ,लेकिन भारत में सरदार जी के प्रति इस मामले में कोई आपति देश के लोगों में
नहीं है ,आपति है तो सिर्फ यह कि राजनीतिक -कूटनीतिक निर्णयों में इनके असमंजस में
रहना और दूसरों के मुखापेक्षी होना ही इनके अतिरिक्त दोष है ,जो किसी भी मुल्क के
सेहत के लिये ठीक नहीं माना जाता | ईमानदारी में इनके स्तर के खोजने से भी जल्द
व्यक्ति मिलने मुश्किल है , इन सब के बीच जो खामिया है ,वह इनके पेशेगत
नजरिये से जुड़ा है ,जिसमे अर्थकीय
विशेषज्ञता ही हर राजनीतिक -कूटनीतिक मसलों पर इनसे झलकती है ,जिसमे सपाटपन ज्यादा
है और तकनीकी बातें
कम होती है |
इन सब अलग -अलग सोच वाले व्यक्तित्वों के
बीच जब देश के परस्पर हित साधने के मसले पर विचारों का आदान -प्रदान होता है ,तब
इनके बीच बातों की मौलिकता नहीं होती ,बल्कि दूसरे के सलाह पर ही इनके फैसले होते
है .इसलिए एकांतवास की यह मुलाकात का कोई माने -मतलब नहीं दीखता | जरदारी और
सरदारजी इतफाक से ही अपने -अपने पद पर हैं | मनमोहन ईमानदार होने के साथ ,नौकरशाही संस्कृति के बीच
से एक नेत्री के पसंद के बाद अपने मुकाम तक पहुंचे है,जिसमें सीधे निर्णय लेने की क्षमता का सर्वथा अभाव अबतक के
कार्यकाल में उनमें दिखा है और देश के बाहर भी यदि कुछेक मामलों में फैसले करने तक
पहुंचे तो उसमें सोनिया गाँधी के साथ वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के मन्त्र रहे है
| ऐसा कई बार दिखा है और इसका सबसे सुन्दर उदाहरण मुंबई कांड के बात मुखर्जी के
कूटनीतिक पूर्ण बयानों में साफ परिलक्षित हुआ और पाक शेष विश्व से अलग -थलग होने
की स्थिति में आ पहुंचा है |
इसलिए जरूरी है कि भारत -पाक के रिश्ते को
समझने के पूर्व दोनों देशों के राष्ताध्यक्ष
और शासनाध्यक्ष के मनोवृतियों को समझा जाय | वैसे , जरदारी भी एक व्यवसायी
ही हैं ,जो पूर्व प्रधान मंत्री नवाज शरीफ
के सोच वाले जैसे प्रतीत हैं ,इसका उदाहरण उनके कार्यकाल में व्यापार के तहत चीनी
आपूर्ति का विषय काफी चर्चित था और अन्य क्षेत्रों में खुला बाज़ार की तरफ कदम
दोनों देश द्वारा उठाये जाने वाले ही थे कि वहां सत्ता पलट हो गए और एक बार फिर
दोनों देश जहाँ से चले थे ,वही पहुँच गए |
फिलवक्त ,भारत की सोच का दायरा एकमात्र आतंकवाद
के इर्द -गिर्द घूम रहा है ,जिसकी कड़ी में मुंबई कांड और अपनी जमीं से पनाह देने
वाली हरकतों का साया ,इनके बीच आगे बढ़ने से विचलित करती है और पाकिस्तान में कब
,कौन और कैसे संप्रभु के तौर पर अवतरित हो जाये ,यह थाह पाना भी मिश्किलों वाला है
| इधर जब से अमेरिका ने पाक के कान ऐंठने शुरू किये है ,तब से पाक की बोलती में वह
कड़क भारत के प्रति नहीं है ,जैसा कि पूर्ववर्ती कालों में दिखती रही है |
अभी के हालातों के मद्देनज़र पाक को ,भारत का
सहारा चाहिए और यह सहारा ऐसा भी होना चाहिए कि वह लात भी मरे ,तब उसे बर्दाश्त
करने में मददगार भारत को होनी चाहिए ,क्योंकि वहां के लोकतंत्र इन दिनों सेना के
साये में गर्दिश में है और यदि भारत दबाव
बनाया ,तब एक बार फिर सैन्य शासन की ओर पाक लौट
जाएगा ,जो भारत के लिये सिरदर्द ही
होगा ,पहले की तरह ,यही इन मुलाकातों का लब्बों-लुआब है ,दोनों सरदा -जरदा के
,जिसमे देशीय चिंता कम वैयक्तिक चिंता के भाव ज्यादा झलकते हैं |
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