Friday, 4 May 2012

स्थायित्व की खोज में भाजपा की हार


               (एसके सहाय)
 झारखण्ड में राज्य सभा चुनाव के नतीजे विशेष कुतूहल पैदा नहीं करते ,जहाँ केवल "सत्ता" में बने रहने की कला को ही राजनीती का अंतिम ठौर मान लिया गया हो ,वहां तो सरकार के नेतृत्वकारी शक्ति को हारना ही पड़ता है और ऐसा ही खेल इस बार के चुनाव में दिखा है ,जहाँ भाजपानीत सरकार में शामिल मुख्य घटक ने अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिये अतिरिक्त प्रयास नहीं किये और किये भी तो केवल दिखावटी ही ,जिसमें सत्ता किसी दूसरे के हाथों में हस्तगत नहीं हो जाये ,इस डर से अपनी भद्द पिटवा लेने में ही भलाई समझी ताकि सत्ता की मलाई खाने में दिक्कत नहीं  हो सके काफी कुछ ऐसा ही नज़ारा इस चुनाव के दरम्यान परिलक्षित हुआ |
           वैसे , भाजपा की इस हार में इसके सरकार के स्थायित्व का संकट छिपा है ,जो अब शनै - शनै प्रकट होगा और मुख्य मंत्री अर्जुन मुंडा समझ रहे होंगे कि उन्होंने अपनी गद्दी बचा ली है तो यह उनका ख्याली पुलाव ही साबित होने जा रहा है | सरकार के स्थायित्व को लेकर भाजपा शुरू से ही संशकित है और इस वजह से ही राज्य में चहुंओर अराजकता का प्रभाव दिक्दर्शित  है बल्कि यूँ कहिये कि प्रशासनिक स्थिति लुंज -पुंज हालात में वैसी ही है ,जैसी मधु कोड़ा के राज में थे ,फिर इस वर्त्तमान सरकार के औचित्य का क्या अर्थ ,जो एक भी जन समस्या को हल ढूढने में कामयाब नहीं हो सके अर्थात अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आने के बाद भी झारखण्ड मुलभुत संकट यथा बिजली ,पानी ,सड़क ,चिकित्सा ,शिक्षा के साथ ही कानून व व्यवस्था के लिये झूझ रहा हो , ऐसे में सरकार का नेतृत्व करके भी भाजपा को कोई खास फायदा होती प्रतीत नहीं होती ,बल्कि विपक्ष में ही अपनी सशक्त भूमिका को दमदार बनाते हुए सत्ता में बहुमत पाने के लिये संघर्ष करती तो वह ज्यादा बेहतर होता |
         बहरहाल , भाजपा के उम्मीदवार एस एस अहलुवालिया ,मात खा चुके है और कांग्रेस के प्रदीप बलमुचू एवं झामुमो के संजीव कुमार राज्य सभा में पहुंच कर झारखण्ड के लिये कौन सा लाभकारी योजना केंद्र से यहाँ ला सकते हैं ,यह देखना बाकी है
 फिलवक्त के राजनीतिक माहौल में इस चुनाव में झाविमो ( प्रजातान्त्रिक) की घोषित नीति ने आस जगाई है ,जिसने शुरू से ही वोट नहीं करने का फैसला कर रखा था और यह पूरी तरह से कार्यान्वित भी हुआ मगर सौधान्तिक परिप्रेक्ष्य में यह कदम लोकतंत्र के विपरीत हो सकती है लेकिन ,जो हालात झारखण्ड में उत्पन्न है ,उसमे घोषित नीति पर अटल रहना आज के राजनीती वातावरण में अलग ही नीति धार  थोडा हटकर अन्यों की तुलना में दे जाता है ,जिसमे इसके प्रमुख बाबु लाल मरांडी अभी सफल हैं |चुनाव के  येन बेला पर ऐसा  कभी दिखा नहीं कि वह भाजपा की प्रतिक्रिया में आकार कांग्रेस को वोट करने के लिये तैयार है ,जैसा कि रद्द हुए गत चुनाव में भाजपा ने अंतिम समय में झामुमो के पक्ष में मतदान कर अपनी प्रतिक्रियात्मक वोट यह करके डाल दी थी .कि उसके विरोधी प्रत्याशी के जीत नहीं हो, इसके लिये मतदान किये गए |
             इस राज्य सभा के चुनाव में उम्मीदवारों के प्राप्त हुए वोट भी कई आशंकाओं को जन्म दिया है और यह आशंका इस बात के संकेत हैं कि आने वाला समय राजनीतिक झंझावतों को अपने में लिये हुए है ,जिसका एक सिरा कांग्रेस के हाथों में है ,तो दूसरा झामुमो के पास है |यह आशंका इस बात से उपजी है कि प्राप्त वोटों के विश्लेषण में बलमुचू को सर्वाधिक २५ मत मिले और संजीव को २३ तथा अहलुवालिया को २० अर्थात निर्दलीय के सभी सात वोट कांग्रेस को मिले ,जब कि विदेश सिंह और चमरा लिंडा जैसे विधायकों का समर्थन मौजूदा सरकार को प्राप्त रहा है ,यही नहीं ,इन दोनों विधायकों ने झामुमो के प्रत्याशी का भी प्रस्तावक बन कर सामने आये थे ,ऐसे में क्या  बात हो गई कि दोनों एक साथ प्रतिपक्ष  के लिये वोट कर दिए ,जब कि इन दोनों के गृह जिले में मनमाफिक अफसरों की पद स्थापना -तबादले -योजनागत विकास के मामले में खुली छूट अर्जुन मुंडा ने अपनी सरकार के स्थायित्व बरक़रार रखने के लिये दे दी थी |
         ताज्जुब इस बात का है कि जेलों में भ्रष्टाचार को लेकर कैद विधायक एनोस एक्का ,हरिनारायण और सांसद मधु कोड़ा की पत्नी गीता कोड़ा ने भी कांग्रेस का साथ दिया ,जबकि इनको इस हाल में पहुँचाने में कांग्रेसनीत केन्द्र सरकार का ही मुख्य हाथ है ,इनके मतदान की संकल्पना अब रहस्य का रूप ले चुकी है ,ऐसे में अर्जुन मुंडा की सरकार को हारने के बाद भी सकून नहीं मिलने वाला है और राज्य एक बार फिर निकट भविष्य में अस्थिरता के दौर में आने के लिये अपने को तैयार कर रहा |
         ऐसे में , राज्य के प्रमुख  राजनीतिक नेताओं के प्रवृति पर नज़र डालना जरूरी है ताकि भविष्य में होने वाले खेल को सहज ढंग से समझा जा सके | पहली बात कि अर्जुन मुंडा को पार्टी से ज्यादा खुद की चिंता इस रूप में जाहिर है कि सरकार रहे तो उसके मुखिया वह रहें और सरकार बचाने के लिये ही सारे उपक्रम अहलुवालिया को ठिकाने लगाने में किये अन्यथा वह चाहते तो भाजपा प्रत्याशी की जीत सुनिश्चित करवा देने में सक्षम थे ,इनके लिये निर्दलियों को अपनी तरफ मोडना खास बात नहीं था ,इनकी पृष्ठभूमि भी कोई खास नैतिकता से भरा रहा है ,वह इसलिए कि आज भी अपने हाथों के जरीये भद्दे मजाक का त्रिकोण बनाने और अंगूठा दिखाने जैसे प्रदर्शन करते रहे हैं ,जो इनकी मानसिकता को बयां करने के लिये काफी है | झामुमो की जीत में अपनी सरकार की सुरक्षा की तलाश में वह शुरू से थे ,जिसमे वह आजसू को मोहरा के रूप में इस्तेमाल अपने आलाकमान के सामने किया और आजसू नेता एवं उप मुख्य मंत्री सुदेश महतो ने अपनी गोल -मोल बातों से एक तरफ भाजपा तो दूसरी तरफ झामुमो को साध कर रणनीतिक तौर पर कांग्रेस को इशारा कर दिए कि उसे भाजपा से किसी तरह के मोह -माया नहीं है | इसी को ध्यान में रख कर कांग्रेस ने निर्दलीय विधायकों को सत्ता में आने के भरोसा दिलाकर इनकी वोट हासिल किये ,जिसमे राजद के पास कांग्रेस को छोड़ कर अन्य को वोट दने का विकल्प ही नहीं था ,तब कामयाबी मिलती कैसे नहीं |

       दरअसल ,भाजपा का संकट बढ़ गया है ,अपनी हार से वह खुद की नज़र में गिरा ही ,साथ में कोई साफ सन्देश भी लोगों को नहीं दे पाया कि वह क्या चाहती है ? पूर्व में अंशुमान मिश्र प्रकरण तजा था , आरके अग्रवाल जनित भ्रष्टाचार के मामले सामने आ  चुके थे ,ऐसे में सत्ता के साझेदार दलों के बीच मतैक्य नहीं हो पाना ही इसके लिये सिरदर्द साबित होंगे ,ऐसे आसार अब दिखने को है | झामुमो को केवल अपनी शर्तों पर सत्ता चाहिए और इसके लिये ,जो भी तैयार है ,वह मुंडा को किनारे लगाने में जरा भी देर नहीं करेगी | आखिर सर्वाधिक वोट जो कांग्रेस को मिले हैं |कठिनाई है तो झाविमो को लेकर ,जो कतई झामुमो के साथ सरकार बनाने की ओर उन्मुख नहीं  होगी | ऐसे में मौजूदा सरकार हिलते - डुलते ही रहेगी ,जो इसके स्थायित्व के लिये अभिशप्त जैसा ही है |

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