(एसके सहाय)
स्थानीय सत्ता का ,क्या महत्त्व होता
है ,इसकी अनुभूति कुछेक दिन पूर्व झारखण्ड के दौरे पर आये केन्द्रीय ग्रामीण विकास
मंत्री जयराम रमेश को हुई ,तभी तो उनके मुंह से अनायास निकला कि "वह अबतक देश
में दो सरकारों के अस्तित्व को ही जानते थे लेकिन नहीं अब तीन सरकारें देश में हैं
एक संघ ,दूसरा राज्य ओर तीसरा जंगल की सरकार , जिनके बिना कोई भी योजना क्रियांवित
होना मुश्किल है |" यह बात जयराम ने लातेहार में पिछले तीस अप्रैल को दौरे
करने के बाद रांची में पत्रकारों के समक्ष कही | साफ है कि योजना ,जिस किसी भी
सरकार की हो ,उसका उग्रवाद प्रभावित राज्य ,इलाके में तभी क्रियान्वयन संभव है ,जब
भूमिगत संघटन इसके लिये मंजूरी देते हों और
यह मंजूरी उसी उग्रवादी संघटन को मिलती है ,जिसमे ठेकेदार कंपनियों के
प्रबंधन माओवादी सहित अन्य क्षेत्रीय प्रतिबंधित एवं सक्रीय उग्रवादियों से
निर्माण कार्य के लिये अनुमति अपने बूते हासिल किये हो | खुद ,रमेश ने माना है कि
राज्य में नौ सडकों का निर्माण इसलिए नहीं शुरू हो सका है कि उग्रवादी इसे बनने
नहीं देना चाहते और यह सभी मार्ग उग्रवाद ग्रस्त क्षेत्रों में ही बनना है ,फिर
इसे आसानी से कैसे बनाया जा सकता है ,यह केंद्र और राज्य साकार के लिये भारी
सिरदर्द है |
अतएव , अब जब मुख्य मंत्रियों को
संबोधित करते हुए प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह राष्टीय आतंकवाद निरोधक केंद्र
(एनसीटीसी) के मौजूदा स्वरूप से तारतम्य जोड़ने और तादात्म्य सबंध स्थापित करने की
बात ,राज्यों की सरकार से कहते हैं ,तब विरोध कैसा ? यह इसलिए कि देश की अंदरूनी
हालात में एक साथ बाहरी और भीतरी संकट व्याप्त है , जिसमे बढती हिंसा के खतरे कम
होने के असर दीखते नहीं ,तब इसका सामना और खात्मा कैसे किया जाये ,यह यक्ष प्रश्न
वर्त्तमान व्यवस्था के समक्ष गंभीर रूप में उपस्थित है ,जिससे इंकार नहीं किया जा
सकता |
वैसे , कल याने छ मई को नई दिल्ली में एन सी टी सी पर ,जो कुछ भी विचार राज्यों के मुख्य मंत्रियों की ओर से प्रकट किये गए ,उसमे आतंकवाद की गंभीरता को तो प्राय: सभी ने स्वीकार किया है ,जो यथार्थ में इसकी उपयोगिता के महत्त्व को रेखांकित किया है ,तब विरोध के स्वर कैसा ? यही बात को यहाँ समझने का प्रयास है | प्रस्तावित केंद्र के बारे में गृह मंत्री पी चिंदबरम ने भी काफी सफाई दी है ,लेकिन इसे विपक्ष के मुख्य मंत्रियों ने मानने से इंकार कर दिया है ,जिसमें पहले के केन्द्रीय सरकार की तरफ से उठाये गए कदम है ,जो संशय पैदा करते हैं | ऐसे में इस विषय पर सर्वानुमति हों कठिन है और विचार - विमर्श का यह दौर लंबा चलने की मांग भीं करता है ,वह इसलिए कि एन सी टी सी पर अबतक कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्य मंत्रियों ने अपने मुंह सी लिये हैं और इसकी वजह अम्मा सोनिया गाँधी के नाराजगी का डर समझा गया है ,ऐसे में गैर कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्य मंत्रियों ने ही विस्तार से इसके खामियों और दुरूपयोग की ओर ध्यान खिंचा है ,जिसमे ओडिसा के नवीन पटनायक ,बंगाल के ममता बनर्जी ,बिहार के नीतीश कुमार ,गुजरात के नरेन्द्र मोदी ,तमिलनाडु के जयललिता ,झारखण्ड के अर्जुन मुंडा ,मतलब कि अबतक बारह राज्यों ने इसके इस्तेमाल पर शक जाहिर करते हुए ,इसमें राज्यों की सहभागिता को केंद्र के बराबर ही आतंकवाद को लेकर "कार्यबल" संचालित होने पर जोर दिया है ,ताकि केन्द्रीय सरकार इसके मनमाना इस्तेमाल राज्यों के विधि सम्मत अधिकारों को कुचल नहीं सके ,ऐसा इसलिए कि कानून -व्यवस्था के विषय संवैधानिक रूप से राज्यों के क्षेत्राधिकार में आते है ,जो यह एक मजबूत तर्क भी है , वैसे भी देखा गया है कि क्रिया -प्रतिक्रिया में भी केंद्र -राज्यों के कदम एक -दूसरे के विपरीत उठते रहे हैं ,जैसे -टाडा,फिर पोटा जैसे अधिनियम का इस्तेमाल प्रतिक्रियात्मक स्वरूप में अर्थात कांग्रेस और गैर कांग्रेस केन्द्रीय सरकारों के काल में हुआ है ,ऐसे में गैर शासित कांग्रेस के मुख्य मंत्रियों का यह मानना कि इसके बहाने राज्यों के मामले में केंद्र की दखलंदाजी बढ़ाने की यह सुनियोजित चाल है ,काफी हद तक राजनीतिक तौर पर उचित ही मालूम पड़ती है |
वैसे , कल याने छ मई को नई दिल्ली में एन सी टी सी पर ,जो कुछ भी विचार राज्यों के मुख्य मंत्रियों की ओर से प्रकट किये गए ,उसमे आतंकवाद की गंभीरता को तो प्राय: सभी ने स्वीकार किया है ,जो यथार्थ में इसकी उपयोगिता के महत्त्व को रेखांकित किया है ,तब विरोध के स्वर कैसा ? यही बात को यहाँ समझने का प्रयास है | प्रस्तावित केंद्र के बारे में गृह मंत्री पी चिंदबरम ने भी काफी सफाई दी है ,लेकिन इसे विपक्ष के मुख्य मंत्रियों ने मानने से इंकार कर दिया है ,जिसमें पहले के केन्द्रीय सरकार की तरफ से उठाये गए कदम है ,जो संशय पैदा करते हैं | ऐसे में इस विषय पर सर्वानुमति हों कठिन है और विचार - विमर्श का यह दौर लंबा चलने की मांग भीं करता है ,वह इसलिए कि एन सी टी सी पर अबतक कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्य मंत्रियों ने अपने मुंह सी लिये हैं और इसकी वजह अम्मा सोनिया गाँधी के नाराजगी का डर समझा गया है ,ऐसे में गैर कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्य मंत्रियों ने ही विस्तार से इसके खामियों और दुरूपयोग की ओर ध्यान खिंचा है ,जिसमे ओडिसा के नवीन पटनायक ,बंगाल के ममता बनर्जी ,बिहार के नीतीश कुमार ,गुजरात के नरेन्द्र मोदी ,तमिलनाडु के जयललिता ,झारखण्ड के अर्जुन मुंडा ,मतलब कि अबतक बारह राज्यों ने इसके इस्तेमाल पर शक जाहिर करते हुए ,इसमें राज्यों की सहभागिता को केंद्र के बराबर ही आतंकवाद को लेकर "कार्यबल" संचालित होने पर जोर दिया है ,ताकि केन्द्रीय सरकार इसके मनमाना इस्तेमाल राज्यों के विधि सम्मत अधिकारों को कुचल नहीं सके ,ऐसा इसलिए कि कानून -व्यवस्था के विषय संवैधानिक रूप से राज्यों के क्षेत्राधिकार में आते है ,जो यह एक मजबूत तर्क भी है , वैसे भी देखा गया है कि क्रिया -प्रतिक्रिया में भी केंद्र -राज्यों के कदम एक -दूसरे के विपरीत उठते रहे हैं ,जैसे -टाडा,फिर पोटा जैसे अधिनियम का इस्तेमाल प्रतिक्रियात्मक स्वरूप में अर्थात कांग्रेस और गैर कांग्रेस केन्द्रीय सरकारों के काल में हुआ है ,ऐसे में गैर शासित कांग्रेस के मुख्य मंत्रियों का यह मानना कि इसके बहाने राज्यों के मामले में केंद्र की दखलंदाजी बढ़ाने की यह सुनियोजित चाल है ,काफी हद तक राजनीतिक तौर पर उचित ही मालूम पड़ती है |
ऐसे में .जयराम सरीखे
केन्द्रीय मंत्रियों के अनुभव का लाभ संघ सरकार को लेना चाहिए ,जिन्होंने बेबाक
तरीके से स्वीकार किया कि उग्रवाद प्रभावित राज्यों में स्थानीय विकास में स्थानीय
सरकार अर्थात उग्रवाद को तभी नेस्तनाबूद किया जा सकता है ,जब सामाजिक,शैक्षणिक और
आर्थिक तौर पर विकासगत योजनाओं का व्यापक तौर पर क्रियान्वयन होगा और इन्होने स्वय
लातेहार में ४३१ करोड रूपये की आधारशिला रखी , भले ही इन्होने सुरक्षा के साये में
ही अपनी कार्य योजना को मूर्त रूप देने की पहल की हो लेकिन खुद बाइक से चाल कर
दुर्गम क्षेत्रों में जाकर निर्माणात्मक गत्रिविधियों को गति देना .कम सराहनीय
नहीं कहा जा सकता | जंगल की सरकार का अस्तित्व तभी तक है ,जब तक सरकार से निरीह
ग्रामीण या लोग उपेक्षित हैं ,मगर जैसे ही केंद्र या राज्य की सरकार कल्याणकारी
स्वरूपों में हाथ बढाती है तब , इनमें
स्वत: स्फूर्त "सिरचन" की प्रक्रिया शुरू हो जाती है ,तब लोग ही जंगल
सरकार के खिलाफत में उठ खड़े होने के लिये तैयार होंगे और फिर किसी एन सी टी सी की
जरूरत नहीं रह जायगी |
जयराम रमेश का यह कदम अपनी ही
सरकार की सोच से एकदम उलट है , केवल विधि -व्यवस्था ही शांति स्थापित करने में पहल
नहीं करती ,बल्कि विकासगत योजनाएं भी आतंकवाद को सिरे से नकार सकने की क्षमता रखती
है | अभी के दलगत सरकारों के अस्तित्व में आसानी से कोई भी सार्थक पहल ,तब तक
कामयाब नहीं हो सकती ,जबतक केंद्र अपने
आचरण से खुद को नेक आचरण और काम करने वाले
के तौर पर प्रदर्शित नहीं नहीं करती | फिलवक्त तो संदेह का ही डेरा राष्टीय
राजनीती में है ,फिर इसके छाया से आसानी से निकलना तो थोडा मुश्किल है |
आतंकवाद ,देश को अंदर से खोखला कर
रहा है ,इससे इंकार नहीं किया जा सकता ,मगर जिस तरह कांग्रेस सरकार का राष्टीय
राजनीती में व्यवहार रहा है ,वही इसके विरोध का मुख्य कारण है ,जो मनमोहन सिंह की
सरकार समझ पाने में असमर्थ है | गैर कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्य मंत्रियों के दिए गए विचार स्पष्ट सन्देश दे
रहे हैं कि उनको एन सी टी सी से उतना विरोध नहीं है ,जितना इसके दुरूपयोग होने से
संशकित है | आखिर आतनकवाद इनको भी तो खतरा
के तौर पर मौजूद है और यह छिपा सन्देश पढ़
पाने में केंद्र सरकार भी सक्षम नहीं है
,अन्यथा सहमति नहीं बनने की क्या वजह हो सकती है | केवल राजनीतिक तिकडम से तो
सहमति बनती नहीं |
cntre government ko aj malum hua hai ki forest kshetr men naxaslwadiyon ki sarkar hai ,jab ki jharkhand ya any kai rajyon men iski hi hukumat chalti hai ,jo ek katu sachhai hai , sarkar sirf dhakosla karti hai , yadi himmat hai to ganv men rahkar dekh le ,kise log ijjat karte hain , keval baton se kam nahin hone wala hai ,thos dharti par hi kisi ki shakti ko parkha -jancha jata hai , jisme rajy aur kendr ki sarkar fel hain hain --
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