(एसके सहाय)
बात नेहरू-लोहिया युग की है , भारत १९६२ के चीन युद्ध में मात खा चूका था , लोक सभा में इस युद्ध के बारे में प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू, बहस के दौरान चीन -भारत युद्ध के प्रसंग में यह कहा कि 'चीन ने जिस भारतीय भूभाग पर बलात कब्ज़ा किया है , वह चिंता के लायक नहीं है,क्योंकि वहां घास का एक तिनका भी नहीं उगता ,वह देश का महत्वहीन हिस्सा है ' यह सुनकर डॉ राममनोहर लोहिया ने तपाक से बोले कि 'प्रधान मंत्री महोदय ,आपके सिर पर भी एक बाल नहीं है ,तो क्या आप उसे दुश्मनों को इसे हवाले कर देंगे ? '
यह प्रतिक्रिया होना था कि पूरा सदन स्तब्ध हो गया ,अंतत नेहरू ने अपनी गलती स्वीकारी ,फिर सदन ने एक स्वर से अर्थात सर्व सम्मति से एक प्रस्ताव पारित कर संकल्प लिया कि भारत ,चीन से तबतक चैन से नहीं बैठेगा ,जबतक हड़पे गए भूमि को वह चीन से वापस नहीं ले लेता । और अब जरा ,सियाचिन गलेशियर में बर्फ के टुकड़ों से शहीद हुए दस जवानों के बारे में विचार करें ,तब अजोबो-गरीब स्थिति से आपको सबका पड़ेगा ।
ऐसा इसलिए कि ,अबतक ज्ञात इतिहासों में युद्ध दो देशों या कहिये दो समूहों के बीच हथियारों के जरिये लड़े जाते रहे हैं ,लेकिन यह जो युद्ध ऊँचे हिमपर्वतों के साथ भारतीय जवानों का है ,यह सतत चलने वाला है ,जिसका कोई मारक उद्देश्य/लक्ष्य नहीं है अर्थात देश की सीमाओं की चौकसी रखने के लिए लड़ा जाने वाला युद्ध है ,जिससे बच निकलने की कोई वैज्ञानिक प्रविधि अबतक ईजाद नहीं है ,सो शहीद होने के लिए भारतीय सैनिक अभिशप्त हैं ।
सियाचिन गलेशियर पर निगहबानी के दौरान अबतक ८३६ सैनिक अपनी जीवन को होम कर चुके हैं और यह पिछले ३५ सालों में हुआ है अर्थात १९८६ के बाद , मगर तकनीक के अभाव में सीमा की रखवाली में कोई नई प्रविधि अभी तक सामने नहीं आ पाई है , जिससे भविष्य में और अधिक जवानों के खोने की आशंका बानी हुई है और हम हैं कि पडोसी देश पाकिस्तान को विश्वास में लेकर उसे सुरक्षित करने की दिशा में खोई उल्लेखनीय कदम नहीं बढ़ा सके हैं ।
वैसे, भारत -पाक दुश्मनी परम्परागत है,इसके बावजूद इसकी रखवाली के लिए समुचित एवं ठोस विकल्प नहीं ढूंढ पाना यह हमारी सामरिक कमजोरी को इंगित की है । पाकिस्तान का भी यही हाल है ,जिसकी विश्वसनीयता शुरू से संदिग्ध है ,फिर इसके हल हो तो कैसे यह यक्ष सवाल आज देश के समक्ष बना हुआ है । \
सियाचिन गलेशियर भारत के लिए ऐसा क्षेत्र है ,जहाँ जीवन के साथ प्राकृतिक संसाधनों का भी कोई मूल्य नहीं है ,इसके बावजूद इसकी प्रहरी में कोताही बरतना ठीक नहीं है । युद्ध अर्थात संघर्ष सीधे सैनिकों के मध्य होता है ,लेकिन यहाँ तो प्रकृति ही जवानो पर कहर बरपाती दिखती है ,ऐसे में भौगोलिक सीमा अर्थात संप्रभुता की रक्षा एक राष्ट-राज्य के लिए सर्वोपरि रूप से अपरिहार्य है ।
बर्फ के शोलों के तौर पर तब्दीली कैसे होती है ,यह बलिदान हुए जवानों से प्रकट है । सियाचिन का महत्व १९८५ के पहले कभी नहीं था ,लेकिन जब पाक में सैनिक तानाशाह मो जिया उल हक़ सत्ता की बागडोर संभाली ,तभी से इसको लेकर भारतीय सीमाओं में खतरे की घंटी सुनाई दी । छदम युद्ध के नाम पर जेहादी जत्थे को धर्म की चाशनी में सीमापार से चुनौती मिलने के साथ ही हलचल बढ़ गई ,तभी भारत को अचानक इसके महत्व का भान हुआ । चौकसी पहले भी थी ,लेकिन यह न्यूनाधिक मात्र में थी ,पर बाद के वर्षों में पूर्णकालीन तैनाती हिमवानों की जरूरत बन गई ,जो अब के अन्तराष्टिय परिवेश में पीछे हटना जोखिम से कम नहीं रहा ।
ऐसे में प्रश्न उत्पन्न है कि आखिर उपाय क्या है , उपाय है और यह बहुत ही सीधा सा मसला है ,हम सैटेलाइट के उपयोग करने में माहिर हैं ,फिर क्यों न इसकी निगहबानी में उसे इस्तेमाल करने को तैयार हों ! टुकड़े -टुकड़े में सीमा की रखवाली में व्यष्टि की जगह समष्टि रूप से सीमा सुरक्षा बल/सेना को इसके लिए अभ्यस्त/प्रशिक्षण दिए जाने की आवश्यकता है । प्रकृति पर विज्ञानं ने काफी फतह पाई है ,मगर कुछेक ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ प्रकृति अब भी मनुष्य जनित शक्तियों पर भारी है ,जिसकी हम उपेक्षा नहीं कर सकते ।
नेहरू अपनी अक्षमता छिपाने के वास्ते चीन द्वारा हड़पी भूमि की अनुपयोगिता की बात कर रहे थे ,मगर आज भारत इतना सक्षम है कि खुद के ईजाद तकनीक से अपनी सीमाओं की सुरक्षा कर सके ।
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