एसके सहाय
आपने यह कहावत सुनी होगी - तू डाल -डाल तो मै पात -पात ,ठीक इसी तर्ज़ पर इन दिनों गुटखा के कारोबार में दिख रहा है . यह सभी जानते है की सर्वोच्च न्यायालय ने पर्यावरण को देख कर पान -मसाले के तौर पर बेचे जाने वाली गुटखे के पैकेजिंग में प्लास्टिक का उपयोग करने पर रोक लगा दी है और इसके लिए सरकार को निर्देशित कर रखा है . न्यायालय के आदेश के तहत सरकार ने भी बाकायदा इसके लिए अधिसूचना जारी भी किए और स्वच्छ प्रयावरण के हित में प्रतिबंधित कर रखा है ,इसके बावजूद इस धंधे से जुड़े व्यवसायी कैसे सरकार ,प्रशासन और न्यायालय को धोखा दे रहे हैं ,यह किसी से छिपा नहीं है
गुटका वैसे भी स्वास्थ्य के लिए नुकसान देह हैं ,चिकित्सा विज्ञानं भी इसे मानती है ,साथ में इसके पैकेजिंग में प्रयुक्त किए जाने वाले प्लास्टिक भी प्रयावरण को क्षति पहुँचाने में योगदान देते है ,इसे भी लोग और पूरी दुनिया मानती -जानती है ,फिर भी इस बारे में लोक चेतना गंभीर नहीं है ,जिसके वजह से सरकार और न्यायालय को धता बताते हुए इसके कारोबार में पिल पड़े कारोबारी अपने धंधे को बद स्तूर जारी रखे हैं ,जो इनकी हिम्मत को इस रूप में प्रदर्शित की है ,जैसे इनको कानून का भय नहीं हो अर्थात कानून इनके लिए खिलौना जैसे हैं | .
अब जरा गुटखे की तस्वीर को देखें , इसे निरीक्षण करें तो पाएंगे कि इसके पैकेजिंग के उपरी कवर पर कागज के लबादा ओढ़ाये हुए है और अन्दर प्लास्टिक का पैकेजिंग ठीक उसी तरह का है ,जिस तरह प्रतिबंधित किए जाने के पूर्व यह था | .
मतलब कि " आँखों में धुल झोकने के लिए धंधे बाजों ने गुटखे की उपरी आवरण को कागज से ढँक दिया लेकिन इसमें नमी पैदा नहीं हो जाय ,इसके लिए प्लास्टिक के बनाये को रखा , ताकि इसकी मियाद पहले कि तरह बनी रहे ." फ़िलहाल जो गुटके बिक रहे है ,वह केवल दिखावे भर के लिए कागज के कवर से ढंके हुए हैं ,अन्दर तो प्लास्टिक ही है ,फिर इसके प्रतिबंधित करने के क्या मतलब रह गए हैं ?
भारत में कानून की आड़ में लोगों को मुर्ख बनाने का धंधा काफी पुराना है ,कभी इसके जद में सरकार आती है ,तो कभी आम लोग आते है और इस वक्त कारोबारी हैं ,जिन्होंने बिना डर के बेहिचक गुटखे की बिक्री कर रहे हैं . इस कारोबार में सरकारी कर्मचारी -अधिकारी को हाथ हो तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए .आखिर उपरी आमदनी का जो मामला है , समाज के प्रगतिशील और रचनात्मक कामो के "दंभ " भरने वाले गैर सरकारी संगठन भी इस दिशा में खामोश हैं ,जबकि एक स्वैच्छिक संस्था की पहल पर ही यह मामला जनहित याचिका के तौर पर उच्चतम न्यायालय के सामने आया था ,जिसे जरूरी समझ न्यायालय ने इसे रोकने की निर्देश सरकार को दिए थे , जिसका काट इस रूप में सामने कारोबारी करेंगे ,इसकी कल्पना नहीं थी .तभी तो कहा गया है कि तू डाल डाल तो हम पात - पात
प्रश्न है - जीवन की तुलना में पैसे का क्या महत्व जिसमे सिर्फ रोजगार .के तर्क हों ?
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