पतित आइपीएस के फिर से सेवा में आने के आसार
एसके सहाय
रांची : झारखण्ड में भारतीय पुलिस सेवा के एक पतित पुलिस अधिकारी के पुन सेवा में लौट आने की आशंका है .यह स्थिति राज्य सरकार के अस्थिरता का परिणाम है कि पीएस नटराजन नाम का अधिकारी न्याय के उचित प्रकिया का अवलंबन करके सरकार को मजबूर करने कि कोशिश किया है कि उसे वह फिर से नौकरी में नियमित तौर पर बहल करे , अन्यथा न्यायालय कि तौहीन को झेलने के लिए तैयार रहे .इससे इन दिनों राजनितिक क्षेत्रों के अलावा प्रशासनिक ,सामाजिक हल्कों सहित हर वर्ग में सरकार कि हालात काफी कमजोर दिखी है ,जो इसके सेहत के लिए ठीक नहीं है .
यहाँ पर जिस पुलिस अधिकारी की चर्चा की जा रही है , वह पुलिस महा निरीक्षक (आईजी )स्तर का है ,जो २००५ से निलबिंत है और जमानत पर करा से निकलने पर कानून ki तकनीकी सीढियों का सहारा लेकर सरकार को विवश करने की मुद्रा में ला दिया है .अतएव इस पूरे प्रकरण को जानने के लिए २००५ की उस घटना को याद कर्म होगा " जिसमे नटराजन एक आदिवासी युवती के साथ अय्यासी करते पूरे देश में देखे गए थे . यह तस्वीर एक निजी टीवी चैनल के द्वारा प्रसारित हुआ था ,जिसके बाद सरकार ने इस अधिकरी को मुअतल करके अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ कर इसे पांच सालों तक लगातार अनदेखा करती रही .
अब ,जब झारखण्ड उच्च न्यायालय ने सरकार की उस याचिका को ख़ारिज कर दिया है ,जिसमे इस पुलिस अधिकरी को निलंबन में रखने के मांग की गई थी ,तब सरकार को लोक -लाज की याद सताने लगी है ,ऐसे में राज्य की सामाजिक ताना -बाना में भरोसा कैसे हो ,इसके संकट पैदा हो गए हैं .इसलिए यदी पीएस नटराजन जैसे चरित्रहीन अधिकारी फिर से कुर्सी पर बैठ जाएँ ,तब इंसाफ का क्या होगा ,इस बारे में सहज hi सवाल खड़े हो जाएँ ,तो आश्चर्य नहीं .
यहाँ पर महज नटराजन का सवाल नहीं है , यह चिंता लोक व्यवस्था से जुडी है ,जिसमे "संवैधानिक तौर पर यह साफ रेखांकित है की "राज कर्मचारी अपने पद पर तभी तक रह सकता है ,जब तक वह सदाचारी है " .लेकिन इस मामले में तो पूरी बात ही उलटी दिख रही है ,जिससे अंदेशा है कि क़ानूनी -दांव पेंच से नटराजन को मत देना उतना आसान नहीं है जितना अमूमन समझ लिया गया है ,ऐसे में सरकार हर जाय और एक कदाचारी को पुन : नौकरी पर बुलाने के लिए बाध्य होना पड़े ,तब कैसा शासन -प्रशासन का रूप दिखेगा ,इसकी सहज कल्पना की जा सकती है .
इस पूरे प्रकरण को समझने के लिए थोड़ा नटराजन के ही बोटों पर विश्वास करें ,-जिसमें उन्होंने कहा था -सुषमा के साथ जो कुछ भी हुआ .उसमे उसकी रजा मंदी थी अर्थात परस्पर सहमती thi ,इसके लिए उनको दोषी नहीं ठहराया जा सकता .
जाहिर है कि वे सदाचार के मतलब से अपने को अलग रख कर सोचते है ,ताकि " सेवा" का लाभ मिलता रहे ,ऐसे में अदी हर कोई कर्मचारी व्यक्तिगत बात करके किसी अश्लील हरकत को सहज बताने लगे तब क्या होगा , तब तो हर वक्त अनाचार -कदाचार कि स्थिति होगी ,ऐसे " सभ्य समाज " की कल्पना ही मुश्किल होगी जैसी कि संवैधानिक तौर पर सभी नागरिकों को बताया जाता रहा है .
आइपीएस नटराजन का मामला सरकार के अनदेखी का है ,यह उस काल का है ,जब राज्य में स्थायित्व को लेकर राजनितिक दलों के भीतर जोड़ -तोड़ की राजनीति चरम पर थी ,ऐसे में खानापूर्ति के लिए आनन् -फानन में इस अधिकारी को निलंबित किया गया और "इस तथ्य को भुला दिया गया ki निलंबन के बाद की प्रक्रिया बर्खास्तगी की होती है |" लेकिन यहाँ पर उदासीनता ka ऐसा ज्वर चढ़ा की सरकार और प्रशासक भूल ही गए की उनके यहाँ एक अय्यास अधिकारी भी है जिसे दंडित किया जाना लोक हित में इसलिए जरूरी है कि लोगों का विश्वास सरकार और प्रशासन पर बनी रहे . कानून -व्यवस्था को हानि नहीं पहुंचे .
दरअसल , इस मामले में नटराजन का कोई दोष नहीं है कि व्यवस्था कैसी है ,तभी तो अराजक सी स्थिति में उस पुलिस अधिकारी ने कानूनों का पूरा इस्तेमाल अपने हित के लिए किया और यह अहसास करा दिया कि यदि तिकड़म और नियम -परिनियम कि थोड़ी भी जानकारी हो तो किसी भी सरकार को अपने अनुकूल कारवाई करने के लिए बाध्य किया जा सकता है , इस मामले में काफी कुछ ऐसा ही है , नटराजन निलबिंत हुए ,जेल गए ,फिर जमानत में बाहर आये ,इसके बाद केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (कैट ) में दरखाव्स्त किए कि उनके साथ अन्याय किया जा रहा है ,सो कैट ने इनके पक्ष में फैसला दे दिया ,यहाँ पर सरकार इसलिए मात खा गई कि वह अपनी बातों को ठीक से रख नहीं सकी . ढीले -ढले तरीके से किसी मामले को अंजाम तक पहुचाने की प्रवृति ने राज्य को काफी नुकसान पहुँचाया है ,जिसका इसमें एक झलक है .
कैट के आदेश के तहत नौकरी पर रखे जाने की बात पर सरकार ने झारखण्ड उच्च न्यायालय से इसमें रोक लगाने की गुहार की ,तब यहाँ पर भी सरकार को मात खानी पड़ी .ऐसे में आसार इसी के है कि पतित समझे जाने वाले नटराजन एक बार फिर पुलिस की लाठियां भांजते नज़र आवें .
इस घटना से जाहिर है की कानून --संविधान का कोई मतलब नहीं है . व्यावहारिक स्तर पर तो यही फिलवक्त दिखा है ,वैसे राज्य सरकार अब उच्चतम न्यायालय में एक बार फिर इस मामले में जाने को सोच rahi hai . लेकिन प्रश्न है कि जब खुद को अपने शक्तियों के बारे में पता नहीं हो ,तब कैसे ऐसे मामले को संभाल सकते है ,झारखण्ड का यही मूल संकट है
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