Sunday, 17 April 2011

prime minister manmohan the importance of voting

        मनमोहन  और मताधिकार के मतलब
                                                               एसके सहाय
              देश के प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने असम विधान सभा के चुनाव में अपना "मत " का इस्तेमाल नहीं करके यह साफ जतला दिया है कि वह "राजनीतिक प्राणी" नहीं हैं '
अतएव,यह निष्कर्ष निकालना कि आम जीवन को कोई विशेष उम्मीद इनसे नहीं है ,गलत नहीं होगा ,काफी हद तक सच के निकट है |
किसी भी देश का शासक उस राष्ट के मुख्य प्रेरणादायक शक्ति होता है ,इसके कार्य व्यवहार को लोग आत्म -साथ करते हैं और उसके अनुकूल आचरण करने के   कोशिश की  जाती है लेकिन आजादी के करोब ६० साल बाद यह स्थिति आएगी कि देश के शिखर पर बैठा राजनीतिक अपने वोट इसलिए नहीं देगा की उसे इन सब में कोइ रूचि नहीं है ,तब बात काफी गंभीर है |ऐसे में विचारणीय प्रश्न है कि "आखिर हमारा भविष्य क्या है " क्या यह मान लिया जाय  कि देश की बागडोर नादान किस्म के लोगों के हाथो में आ गया है| 
  भारत अब भी तीसरे श्रेणी के देशों में शुमार है ,विकसित  देश   होने की कगार पर हम है ,लेकिन इसका यह अर्थ नहीं की देश पूरी तौर पर " लोकतान्त्रिक  ताकतों     

  के हवाले है ,इसलिए यदि प्रधान मंत्री वोट नहीं करता तो इसके कोई खास नकारात्मक परिणाम नहीं होगें .        
 लोकतंत्र में मतदान एक ऐसे प्रक्रिया है ,जिसका परिपालन प्राय: हर देश के नागरिक करते है ,खासकर जहाँ "लोकतान्त्रिक व्यवस्था  " जड़ें जमा चुकी हैं ,वहां सत्तर से अस्सी फीसदी तक मत्ताधिकार  का उपयोग होता है, लेकिन भारत जैसे देश में तो इसके लिए नागरिको के बीच खास जागरूकता अभियान हर बार चलाया  जाता है ,ताकि लोग अपने प्रतिनिधि को मन मुताबिक चुन लें |  यूरोप  और अमरीका के साथ कुछेक अन्य देश भी है ,जहाँ मतदाता को वोट देने के लिए इसलिए  सरकार या अन्य लोकतान्त्रिक शक्तियां प्रेरित नहीं करती कि   "उसे लोकतंत्र को मजबूत करना है |" मगर भारत में प्रत्याशियों को तो वोट चाहिए ही ,साथ में मत्ताधिकार के लाभ भी बताये जाते है ,ताकि तानाशाही प्रवृति से देश को बचाया जा सके |
 वैसे सभी जानते हैं कि मनमोहन सिंह एक अर्थ शास्त्री हैं ,जिन्होंने जीवन यापन के लिए नौकरी करना ही अपना और अपने परिवार के हित में उचित समझा ,सो बैंकों कि सेवा करते और अपने ईमानदारी की बदौलत  रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के गवर्नर एवं विश्व बैंक की सेवा में रहते  इतना "नाम" हुआ  कि लगने  लगा , अब देश  की अर्थ व्यवस्था को मजबूती मिलेगी ,क्यों क्योकि  इसकी बागडोर एक प्रख्यात अर्थ विज्ञानी के हाथों में है लेकिन व्यवहार में ऐसा नहीं है .६० प्रतिशत  की आबादी इनके ही वित्त मंत्री और प्रधान मंर्त्री रहते कैसी अवस्था में यह छुपा नहीं है ,पूंजी का प्रवाह खास "धन्ना   -सेठों "  की ओर है ,इससे आज पुरे देश में रंज की स्थिति है
इससे क्षुब्ध होकर भूमिगत संगठनो की बाढ़  आई हुई है .केन्द्रीय बलों का बड़ा हिस्सा पूर्वोत्तर और जम्मू -कश्मीर में प्रतिनियुक्त तो है ही ,साथ ही बिहार ,झारखण्ड,   छतीशगढ ,ओड़िसा आन्ध्र प्रदेश ,महाराष्ट .मध्य प्रदेश और वब उत्तर प्रदेश के कुछ भागों  में उग्रवादियों से मोर्चा संभालें हुए है ,जो किसी भी सूरत में मौजूदा लोकतंत्र को मानने को तैयार नहीं है |ऐसे में प्रधान मंत्री द्वारा मत्ताधिकार का प्रयोग नहीं होने से यदि यह प्रचारित हो जाय कि "असम की हिंसक हालातों के मद्देनजर ही वह वोट देने नहीं गए ,तब इसका क्या अर्थ होगा ,क्या मनमोहन जानते हैं ?
       देश में अब भी "मतदान " को एक पवित्र लोकतान्त्रिक प्रक्रिया माना -समझा जाता है और इससे इत्तर जन प्रतिनिधि नजर  चुराते    दिखे , तब जाहिर   है  कि  उनकी कोई अभिरुचि  देश के प्रति  नहीं है ,काफी कुछ ऐसा ही मनमोहन   सिंह के व्यव्हार  में झलका   है , ऐसे में आम नागरिक भी मतदान से यह कहते हुए इंकार कर दे कि उसे भी फुर्सत नहीं है चुनाव में ,क्योकि "सभी दल और उम्मीद्वार एक जैसे है" ,तब क्या होगा ?वैसे भी कई बार सामने आ चुका है कि लोक सभा और  विधान सभा के अलावा स्थानीय चुनाव में नागरिक समूहों ने कई बार मतदान से हिस्सा नहीं लिया अर्थात बहिष्कार कर दिया ,जो जनतंत्र के लिए गंभीर बात है ,इस संदर्भ में यदि आम व्यक्ति और मनमोहन सिंह को एक ही "सोच "वाला निरुपित किया जाय  तो ताज्जुब नहीं करनी चाहिए |
                          असम से मनमोहन सिंह दो दशक से लगातार राज्य सभा में पहुंचे है ,इनका दिश्पुर में एक मतदाता के रूप में नाम दर्ज है ,इसी बिना पर इनके पहली दफा निर्वाचन होने पर विवाद हुआ था जो इनके असम वासी होने को लेकर था| यह विवाद सर्वोच्च न्यायालय मेंसलता था ,विवाद इस बात प़र  थी कि "संबंधित राज्य के वासी को ही उच्च   सदन (राज्य सभा )में सदस्यता के पात्रता निर्धारित थे ,जिसमे वह अनफिट पाए गए थे |बाद में संवैधानिक संसोधन के जरिये इसका स्वरूप में बदलाव संसद ने अपने हितो के अनुकूल किया ,तब जाकर इनकी सदस्यता बच पाई थी| इसे लोग अभी तक भूलें नहीं हैं | तब सरकार कि काफी छिछलेदारी हुई थी |
              मनमोहन सिंह को प्रधान मंत्री का पद एक तोहफे में मिला ,जिसमें इनकी स्वामी भक्ति का विशेष गुण था |इनकी शक्ति का पत्ता उस वक्त ही चल गया था ,जब यह तय नहीं था कि प्रधान मंत्री कौन  होगा लेकिन वित्त  मंत्री मनमोहन ही होगें  यह सारा देश  जानता को पहले से मलिम था, बात १९९१ की है . साफ है कि कांग्रेसी राजनीति में एक परिवार कि छत्र छाया में ही  कोई मनमोहन जैसे शख्स तरक्की कर सकते हैं ,जिनका  खुद का कोई  नहीं हो  |
                  सार्वजनिक जीवन के मामले में प्रधान मंत्री की सोच का पता मतदान से चला ही है ,साथ ही भविष्य में अन्य कई राजनितिक /राजनितिक समूह भी मतदान के प्रति उदासीन हो सकते है ,जिसके आसार बढ़ गए है ,जम्मू -कश्मीर में कभी कम मतदान को लेकर अक्सर बात होती रहती है |इस परिप्रेक्ष्य  में मनमोहन के मतदान नहीं करने को देखें तो काफी खतरें आने वाले  दिनों  में हो सकते है .ऐसे में आम बुद्धिजीवियों  की चुप्पी इसमें ठीक नहीं है | ऐसा इसलिए की मतदान के दिन मनमोहन काफी अस्वस्थ थे ,या देश में स्थिति गंभीर थी, महत्वपूर्ण कामो को निपटाया  जाना जरूरी था|
                      जीवन  के अंतिम क्षण में जब आम व्यक्ति आराम चाहता है ,तन मनमोहन सिंह को राजनितीक शिखर के पद की प्राप्ति होती है,जिसके लायक वह कभी नहीं रहे ,| किसी भी राजनितीक सवालों को हल्कें में लेने की प्रवृति का नतीजा है कि  देश आज बाहरी और अंदरूनी हालातों से जूझने की कवायद में भिड़ा है | यह हालात जन्म कैसे हुई ,यह जानना हो तो मंमिहन सिंह के कार्य-  कारण को जानिए ,काफी दिलचस्प जानकारियां मिलेगी | अब तक के ज्ञात इतिहास में यही जाना जाता है कि  लोकतंत्र के लिए होने वाले मतदान में जन  नायकों की भूमिका सर्वोपरि है ,वे मतदान करके यह प्रदर्शित करते हैं कि "सभी नागरिक अपने विचारों के अनुरूप के दल और प्रत्याशियों को चुने .ताकि अपने विकास के  मार्ग तय कर सके,"|
               
            

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