( एसके सहाय )
देश के पांच
राज्यों के चुनाव नतीजों का सबक यह है कि मौजदा राष्टीय एवं क्षेत्रीय दल अब अपने
को परिवर्तित दौर में राजनीति के नये "टूल्स" से लैस करें , नहीं तो आने
वाले कल् के राजनीतिक बियाबान में खो जाने के लिये तैयार रहें | ऐसा मध्य प्रदेश
,राजस्थान ,छतीशगढ़ , दिल्ली और
मिजोरम के संकेत
हैं | यह चुनाव कल् के लोक सभा चुनाव का पूर्वाभ्यास था | स्थानीय मुद्दे के साथ
राजनीतिक हल्कों में आर्थिक भ्रष्टाचार ने समूचे समाज को भीतर तक झकझोर दिया है और
पारम्परिक पार्टियां इनपर अट्टहास करती दिखी है , जिसका परिणाम है कि "आप"
सरीखी नवोदित पार्टी ने एक साथ भाजपा और कांग्रेस का मान -मर्दन कर दिया है और यह
अब और उफान पर आने वाला है , जिसमे भाजपानीत राजग गठबंधन को मुश्किलों में डालने
की कुव्वत है |
भारतीय राजनीति में तेज़ी से नये नायकों
का प्रवेश हुआ है , इसमें दो मत नहीं कि अरविद केजरीवाल महज डेढ़ साल के राजनीतिक
जीवन में वह कर दिखलाया है , जिसकी कल्पना तक शीर्ष पार्टियों के नेता नहीं कर सके
थे |इसमें राहुल गाँधी बौने नजर आये ,तो कोई आश्चर्य नहीं | संघर्ष क्या होती है
और क्या कहलाती है , यदि राहुल को सीखना हो ,तो केजरीवाल से सीखें |वैसे ,राहुल ने
अपनी इन चुनावी प्रतिक्रिया में "आप" के राजनीतिक ओजारों को परोक्ष रूप
से स्वीकार कर लिया है , तभी तो उनका कहना था कि दिल्ली के सन्देश को वह ग्रहण कर
लिये हैं और कांग्रेस को उसी के तर्ज़ पर आने वाले चुनौतियों के लिये तैयार किया
जायेगा |
इस प्रसंग में
१९४७ के पूर्व स्वाधीनता संघर्ष को जानने की जरूरत है , मोहनदास करमचंद गाँधी के
भारतीय भूमि में दक्षिण अफ्रीका से अवतरण के पहले देश में बाल, पाल और लाल अर्थात
बाल गंगाधर तिलक , बिपिनचंद्र पाल और लाला लाजपत राय की तिकड़ी अंग्रेस सरकार से लोहा
लेने की थी , इसमें उग्र तेवरों का जलवा भी काफी कुछ अहिंसक तरीके से मौजूदा हाल
में "आप" जैसा ही था और तीनों उस काल में अपने -अपने क्षेत्रों में
क्रमश: महाराष्ट , बंगाल और पंजाब में आजादी की अलख जगा रहे थे और इनके आन्दोलनों
में जन भागीदारी भी कम नहीं थी | इनके ओजस्वी भाषणों में में वह जाज्वलयमान विचार
थे , जो अब केजरीवाल में दिख रहे हैं | एक अर्थों में इसे इतिहास का दुहराना भी कह
सकते हैं |यह स्थिति उन तीनों नेताओं के रहते देश में राजनीतिक आंदोलन तीखा काफी
अरसे से था |
ऐसे समय में जब
गाँधी जी का स्वदेश में वापसी हुआ ,तो शनै ; शनि: आजादी की लड़ाई के तरीको अर्थात
ओजारों अर्थात टूल्स में बदलाव आने लगा , ऐसा इसलिए कि एक ही तरह के रास्ते से
स्वाधीनता की लड़ाई से लोगों में "अनमना " से हालात उत्पन्न हो गए थे और
गाँधी अपने तरीके से सत्य एवं अहिंसा से उपजे सिन्धान्तों के बल पर सविनय ,अवज्ञा
जैसी प्रक्रिया को राजनीति को नई धार प्रदान कर रहे थे और यह तब के भारतीयों के
लिये एक प्रकार का अलग ही अनुभूति थी , जो बाद के दिनों में आजादी के मतवालों के
बीच सिर चढ कर बोला और हम गुलामी के जंजीरों से मुक्त हुए |
फिर आजादी बाद की
स्थिति दूसरी थी , जिसमे तपे -तपाये नेताओं का प्रभाव उनके खुद के चरित्रों से
चलायमान थे | ऐसे में, पंडित जवाहरलाल नेहरू , लाल बहादुर शास्त्री तक राजनीतिक
संघर्ष में कोई खास परिवर्तन नहीं था ,मगर इंदिरा गाँधी और इनके पुत्र संजय गाँधी
के कार्यकाल में इन हथियारों में बदलाव हो चूका था और अधिनायकवादी प्रवृति भारतीय
राजनीति को भीतर से लोकतान्त्रिक व्यवस्था को खोखला करने में आमादा थी , तब वैसे
दौर में नेहरू युग के ही लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने दृढ़ता से जन संघर्ष की अगुवाई
की , नतीजा १९७७ में सामने था | इस तानाशाही बनाम लोकशाही लड़ाई में सात साले लगे
थे और आज जब केजरीवाल ने महज डेढ़ वर्ष के संघर्ष में भाजपा के विजयी घोड़े को
दिल्ली में रोक दिया , तब भी बुजुर्वा राजनीति के विश्लेषक इसे हल्के में लेते
प्रतीत हैं | यह काफी कुछ वैसा ही है , जब मर्यादा पुरूषोतम राम के घोड़े को लव
-कुश ने थामकर कुछ क्षण के लिये उनके समक्ष चुनौती दे डाली थी |यह हल्कापन भाजपा
के लिये काफी गंभीर है और उसे संघ अर्थात केंद्र की सत्ता पर काबिज होना है , तो दृढ़ता
के साथ राजनीति में ईमानदारी का परिचय उसे देना ही होगा, जिसमे चारित्रिक पुट की
खास अहमियत होगी लेकिन उसमे तिकड़मी बुधिबाजी का स्थान नहीं होना होगा |
यह वास्तव में ,
भ्रष्टाचार से निसृत शक्ति है , जिसकी आवाज को दिल्ली के लोगों ने करीने से पहचाना
-जाना है | इसने अपने नई पहचान अन्ना हजारे के जरीये कायम की और नेक इरादों के साथ
अपने मकसद में पिल पड़ गए , कामयाबी भी पहले चरण में इनकी कम नहीं है , इसीलिए तो
आज युवाओं के प्रेरणा स्रोत के तौर पर राहुल के जगह पर अरविन्द केजरीवाल के नाम
हैं |
बहरहाल , इन पांच
प्रान्तों के इशारों को समझें ,तो विदित होगा कि आनेवाले लोक सभा के चुनाव में
पशिचम ,मध्य और उत्तर का इलाका भाजपा के लिये विशेष होगा और कांग्रेस के लिये जीवन
-मरण सा होगा | इसे ऐसे समझें , पश्चिम में राजस्थान , उत्तर में दिल्ली और मध्य
में मध्य प्रदेश -छतीशगढ़ के विधान सभा चुनाव में भाजपा को अपेक्षित सफलता तो मिली
लेकिन दिल्ली का महत्त्व इनमे अन्य से पृथक है , अलग इसलिए कि बहुमत के रास्ते इसी
मार्ग से लोक सभा में अधिसंख्य जाते हैं , जिसमे उत्तर प्रदेश की उपयोगिता किसी भी
राष्टीय दल के लिये खास है | ऐसे में
दिल्ली उत्तर भारत का आइना दिखती हो तो ताज्जुब नहीं | मिजोरम जैसे सूबों का
इस्तेमाल चीथड़े बहुमत में पैबंद जैसा है , इसलिए इस प्रदेश को चुनावी परिदृश्य से
अलग चश्मे में देखने -आंकने के प्रवृति समीक्षकों को है |
इन चुनावों का
हकीकत तो यह है कि राजनीति के बाज़ार में पारम्परिक लटके -झटके -टोटके का जमाना लद
चूका है | लोग अपेक्षा पाल रहे है कि कैसे भ्रष्टाचार से निजात मिले | यह देश
-समाज को अन्दर से खाई जया रही है | जन लोकपाल एक वैसा टूल्स रहा , जिसमे
लोकतान्त्रिक व्यवस्था के तहत चोरों को अर्थात भ्रष्टाचारियों को दंडित करने की
पद्धति विकसित हो सकती थी , बावजूद विपक्ष में रहते भाजपा इसके महत्ता को भांप
नहीं पाई और कांग्रेस को नंगा करने के चक्कर में यह खुद के लिये भी सवाल खड़ी कर गई
, इसी का नतीजा है कि दिल्ली में इसके रथ बहुमत के नजदीक आते रुक गए और
"आप" ने अपनी उपयोगिता सिद्ध कर डाली | अन्ना हजारे , राजनीति में सक्रिय नहीं नहीं थे और हैं भी
नहीं , लेकिन इनकी मांग के साथ पूरा देश का "अवचेतन मन" हमेशा रहा , क्योंकि यह ऐसी मांग थी , जिसे एक
लोकतान्त्रिक समाज में बराबर आवश्यकता बनी रहती है |इस मुद्दे को केजरीवाल ने ठीक
उसी तरह लपका यह कहिये कि आत्म -सात किया ,जैसे अमरीकी समाज विज्ञानी डेविड इस्टन ने
कभी यह कहा था कि "जानने का क्या अर्थ है , इसका मतलब है कि उसे करने के लिये
अपने को उसमें जोत देना और यह जोतना क्या है , तो इसका तात्पर्य यह कि समाज के हित
में अपने को लगा देना , यह लगा देने का क्या मतलब , तो यह कि वैसा कर्तव्य जो समाज
के लिये जरूरी है , तो कैसा कर्तव्य , जो सद हो और उसकी रचनात्मक उपयोगिता हो
|"
ठीक, यही दिल्ली
की राजनीति में "आप" ने किया है , जिसका प्रतिफल सामने हैं और यह डर अब
सभी को खाए जया रहा है कि चरित्रगत विशेषताओं के बिना उनके राजनीतिक कांरवा कैसे
आगे बढे ?संघर्ष के साथ राजनीतिक ईमानदारी अब भारतीय राजनीति के चेहरे बदलने के
लिये आतुर हैं | इसमें , नौकरशाह , किसान , व्यवसायी , कर्मचारी , विद्यार्थी ,
सामाजिक कार्यकर्त्ता , मजदुर अर्थात हर वर्ग -समुदाय -क्षेत्र के उग्र विचारों का
समावेश होगा और यह खास पहचान की मोहताज नहीं होगी , अदना सा दिखने वाला भी कल हमारा
भाग्य -विधाता होगें , दिल्ली के "आप" के निर्वाचित विधायकों से ऐसा ही
आभास है | यह नई चुनौती है , परम्परागत राजनीति को , जिसमे नई सोच के साथ बदलते
समय में नई चेहरे राजनीति के मौजूदा स्वरूप को पलटते दिखे , तब अचरज कैसा ?
दिल्ली विधान सभा
के चुनाव परिवर्तित समय में एक अलग तरह का "अभिनव प्रयोग" है , जिसमे
विरोध करता स्वर , वर्तमान व्यवस्था को चुनौती देने में देश का ध्यान इसलिए बरबस
खिचने में कामयाब है कि बिना विचारधारा ,सिन्धांत एवं नीति के इसने सिर्फ "कार्यक्रमों" को
ही अपने क्षेत्रीय घोषणा पत्रों में जगह दी , जिसमे लफ्फाजी नहीं ,केवल
क्रियान्वयन ही इनके मुद्दे रहे |क्या इस मर्म को अरसे से राजनीतिक दल में सक्रिय
नेता -कार्यकर्त्ता समझने के लिये तैयार हैं ?
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