(एसके सहाय)
नवोदित "आम
आदमी पार्टी" के महज डेढ़ साल के जन संघर्ष में राष्टीय राजधानी "नई
दिल्ली" की सत्ता में काबिज होने की परिघटना ने राज प्रेक्षकों को अचरज में
डाला है , जो स्वाभाविक भी है , मगर अचरज जैसी कोई बात नहीं | आश्चर्य इस बात का
है कि यह किसी ठोस सिन्धांत , विचारधारा , नीति की घोषणा किये केवल
"कार्यक्रम" के बल पर इतना समर्थन प्राप्त किया है कि इसे कैसे संगठित
राजनीतिक दल या समूह में निरुपित किया जाये , जो भविष्य में इस जैसे अन्य उदीयमान
संघटन को राजनीतिक शक्ति के तौर पर प्रस्थापित किया जा सके |
ऐसे में एक शब्द
इसके लिये उचित प्रतीत हो सकती है और वह :तदर्थवाद" से उपजी मानसिकता का
परिचायक के रूप में जाना जा सकता है | इसमें वर्तमान सत्ता के कार्यशैली
,भ्रष्टाचार और लोक विरोधी क़दमों का समावेश मुख्य है |कार्यशैली से तात्पर्य
पारदर्शिता का अभाव , भ्रष्टाचार से मतलब कई घपले -घोटाले का सामने आना और लोक
विरोधी से अर्थ "लोकपाल" के पार्टी दुराभाव का मौजूदा केन्द्रीय सत्ता
में होना से है |
इन तत्वों से
दिल्ली के लोगों ने सीधा साक्षात्कार पिछले काफी अरसे से करते आ रहे थे और इसमें
कोई सीधा अर्थात विकल्प ने देखकर सिरे से भाजपा एवं कांग्रेस को नकार दिया , जो अब
एक बड़ी चुनौती के तौर पर इनके समक्ष खड़ी है |
अतएव , भविष्य की
चुनावी राजनीति की तस्वीर कैसी होगी ? इस विषय पर बहुत तेज़ी से विचार -मंथन का दौर
राजनीतिक -सामाजिक हल्कों में गतिमान है और उम्मीद किया जाना चाहिए कि जल्द ही
पुरातन पंथी राजनीतिक टोटकों से अब देश की राजनीति से छुटकारा मिलने वाला है ,
इसकी शुरूआत "आप" प्रमुख अरविन्द केजरीवाल के जज्बे से परिलक्षित है |
इसमें कांग्रेस एक बार फिर चक्करघिन्नी की तरह जन वेग में हवा होने की रह पर है |
झलक देखें . "आप" को बिना शर्त समर्थन दिए जाने की घोषणा दिल्ली
कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष लवली ने चुनाव परिणाम आने के दो दिन बाद खुद की थी और
अब जब "आप" ने सरकार बनाने की ओर कदम बढ़ाने शुरू किया , तब कार्यवाहक
मुख्य मंत्री शिला दीक्षित ने बिना शर्त समर्थन को ख़ारिज करते हुए बयान जारी किया
है कि जन कल्याणकारी कार्यक्रमों के लिये कांग्रेस का समर्थन है , इससे इत्तर नहीं
| जाहिर है कि कांग्रेस की दोमुंही बातों से एक बार फिर "आप" को
दिल्लीवासियों का विश्वास प्राप्त होगा | यह कोई कहने की बात नहीं कि जन मुद्दे
क्या हैं ? इस बारीकी की समझ कांग्रेस के पंडितों को शायद नहीं है कि राष्टीय
राजधानी क्षेत्र में रहने वाले लोगों की समझ देश के सुदूरवर्ती इलकों से ज्यादा
होती है , इसमें किसी तरह के काइयांपन का प्रदर्शन किसी भी जमे -जमाये पार्टी की
लुटिया डुबो सकती है |
बहरहाल ,
"आप" के सत्ताधारी वर्ग में सम्मिलित होने से प्रकट है कि चरित्र के साथ
जन मुद्दों पर अगर संघर्ष करने की मादा हो , तब लोकतान्त्रिक राजनीति में बदलाव को
कोई भी ताकत नहीं रोक सकता ,बशर्ते इसमें विश्वास को चुनौती नहीं मिल सके | भाजपा
, कांग्रेस ,वामपंथी दल के साथ- साथ क्षेत्रीय दलों में मौजूदा परिवेश में
"चरित्र" का संकट है, इसलिए इनको जाति, समुदाय , धर्म , क्षेत्र और
अवसरवादी गठबंधन का सहारा लेने की मज़बूरी रहती है |ऐसे में नवोदित 'आप` ने दिखला
दिया है कि वह कांग्रेस को पसंद नहीं करती , इसके बावजूद संसदीय राजनीति के तय
मापदंडों के तहत सरकार बनाने में उसे गुरेज़ भी नहीं है |गुरेज इसलिए नहीं कि वह
`सत्ता` की भूखी है , यह इसलिए कि मध्यावधि चुनाव का तोहमत उसके माथे पर नहीं लगे
, इसलिए वह अपने तरीके से दिल्लीवासियों का मनटटोल कर सरकार बनाने को तैयार है ,
करना तो वही है , जो दिल्लीवासियों के प्राथमिक हित में है और जब सरकार जनापेक्षी
और पूर्ववर्ती सरकार के घपलेबाजी उजागर करेगी और दंडात्मक कारवाई होंगे तो
कांग्रेस तिलमिलाएगी, कालांतर में वह समर्थन वापसी के तौर पर सामने आएगी , जो एक बार फिर `आप` को जन समर्थन देने पर
गंभीरता से लोगों को उत्प्रेरित कर सकती है |
पुनश्च , अब राज विश्लेषकों
को `आप` के भविष्य को लेकर भ्रम का शिकार होना वाजिब प्रतीत है | यह भ्रम भी इसलिए
कि यह उस तरीके से अस्तित्व में नहीं आई है , जैसे अन्य राजनीतिक दल आते हैं , अर्थात
येन-केन-प्रकारेण सत्ता हस्तगत करना किसी भी दलगत राजनीति से उत्पन्न पार्टियों का
मुख्य उद्देश्य इसके प्रथम रहे हैं | ऐसे में `आप` को समझने के लिये नए दृष्टिकोण की
जरूरत है , जिसमे विचारधारात्मक विभेद की जगह "मौके पर उत्पन्न" जन समस्या
-संकट ही इसके सिन्धांत ,विचार ,सूत्र ,नीति और कार्यक्रम गढते हैं और यह मौजूदा वक्त
में किसी के आयामी शब्दावली का मोहताज भी नहीं है| इसका परिचय कई मरतबे केजरीवाल ने
अपने खास लहजे में दे भी दिया है | मतलब यह कि जो मुलभूत आवश्यकता हैं , उसकी परिपूर्ति
इसके मुख्य एजेंडे में स्वत: शामिल है , यथा बिजली-पानी के अलावे भ्रष्टचार में लिप्त
प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के साथ ही इसमें दोषी पाए गए तत्वों को कठोरतम सजा मुकरर
करना , ताकि समाज में राज्य अर्थात सरकार के होने का स्पष्ट सन्देश जाना निश्चित हो
|
इतना ही नहीं ,`आप`
को जो फिलवक्त कामयाबी दिल्ली में मिली है , इसका यह अर्थ नहीं कि इसकी सफलता के गाथे
अन्य राज्यों में भी इसी तरह दुहराएँ जा सकने की संभावना बढ़ गई है | इसमें इतना जरूर
तब्दिली आई है कि इस नवोदित पार्टी से जुड़ने की ललक आम लोगों में बढ़ गई है , जिसका
उदाहरण है कि `आप` के केन्द्रीय नेताओं को मालूम भी नहीं है और कई राज्यों में इस नाम
से पार्टी का गठन भी क्षेत्रीय -स्थानीय तौर पर हो चूका है और इससे संबद्धता के लिये
आवेदन भेजे जाने लगे हैं | यह परम्परागत राजनीति जैसा ही है, जिसका अभी ठोस स्वरूप
नहीं |
खैर , `आप` के विस्तार
का असली परीक्षा मेट्रो पोलिटन सिटी में होना है , यथा मुंबई ,चेन्नई , कोलकाता, अहमदाबाद
, लखनऊ , पुणे , नागपुर , बैंगलोर, जयपुर जैसे महानगरों में इसकी ताकत का परीक्षण होगा , जहाँ जात
-पात से एक अलग दुनिया ही बस्ती है |बिहार , उत्तर प्रदेश ,झारखण्ड , छतीशगढ़ जैसे अन्य
प्रान्तों में इसकी अभी सीमित सफलता की ही गुंजाइश है, जिसमे गांव -कस्बे वाली मानसिकता
से लोग आजादी छियासठ साल के बाद भी उबर नहीं पाए हैं |
और अंत में एक बात
-- देश में उपभोक्तावादी संस्कृति मौजूदा प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की देन है और यही
मनोवृति ने दिल्ली में कांग्रेस की कब्र खोद दी , जिसमे मध्य वर्ग में शुमार होती जनसँख्या
ने तात्कालिक आवश्यकता को ही पहली जरूरत समझा है , जिसमे "सपाट राजनीति"
की अहम भूमिका अन्तर्निहित है , आखिर इस कपटी राजनीति के अगुवा भी तो सिंह ही थे ,जब
वह नरसिह राव के प्रधान मंत्रित्व(१९९१-९६) में वित्त मंत्री थे |
No comments:
Post a Comment