( एसके सहाय )
झारखण्ड में हटिया विधान सभा के आये
उप चुनाव परिणाम से यह जाहिर हुआ है कि राज्य में अब राष्टीय पार्टियों से लोगों
का मोह भंग होने की स्थिति है ,इतना ही नहीं बल्कि परंपरागत झामुमो की भी हालात
पूर्ववत है ,भी या नहीं ,इस पर भी संशय है ,जिसकी वजह इसका नेतृत्व वर्ग है ,जिसमे
शिबू सोरेन एवं इनके पुत्र के प्रभाव का परीक्षण निकट भविष्य में होना निश्चित है
| ऐसी हालात में इस उप चुनाव के नतीजे का खास महत्त्व है ,जिसमे एक साथ राजनीतिक
स्थिरता और अस्थिरता के फैसले होने हैं |
राज्य में , फिलवक्त के
राजनीतिक माहौल में आजसू के भाव बढ़ना स्वाभाविक है ,आखिरकार झारखण्ड की सरकार के
नेतृत्व करने वाली पार्टी भाजपा को इसने अपने बूते मात जो दी है | यह इसलिए भी
महत्वपूर्ण है कि सत्ता की बागडोर संभालने के बाद भाजपा को एक भी उल्लेखनीय जीत
अबतक नसीब नहीं है ,जिसमे विशेषकर राज्य सभा में इसके प्रत्याशी एस एस अहलुवालिया
की हार और अब हटिया में अपने ही सरकार के साथी पार्टी आजसू के उम्मीदवार नवीन
जायसवाल के हाथों मिली मात ने भाजपा को भविष्य के सकेंत दिए हैं ,इसमें यदि
गुणात्मक परिवर्तन नहीं हुए ,तो तय मानिये भाजपा की "गिजना" होना ही है
और इसका श्रेय मुख्य मंत्री अर्जुन मुंडा को ही जाता है | ऐसे में एक साथ कई सवाल
मौजूदा परिप्रेक्ष्य में उठना लाजिमी है |
वैसे में , हटिया विधान सभा
के राजनीतीक संदर्भ का "प्रतिमान " का अध्ययन जरूरी है | वह इसलिए कि
चुनाव का परिदृश्य नितांत अराजक थे ,एक ही समूह के दो प्रतिद्न्दी आमने -सामने थे
,जिसमे एक के साथ झामुमो का परोक्ष साथ था ,तो दूसरे को यह गुमान था कि यह सीट उसी
का है ,क्योंकि पूर्व में इसी क्षेत्र में महेश शारदा तीन दफे चुनाव जीत चुके थे
और पुन; किस्मत आजमा रहे थे |ऐसे में भाजपा गफलत में थी कि वह आसानी से विजयी हो
जायेगी ,मगर हुआ ठीक इसके विपरीत ,यह तीसरे स्थान पर आ गई और कांग्रेस के सुनील
सहाय को मत पूछिए ,यह जनाब चौथे पर रहकर भी जमानत बचाने से चूक गए | यह हाल है
,हटिया विधान सभा के हाट का , जहाँ एक साथ राष्टीय पार्टी के गौरव से अभिभुषित
भाजपा -कांग्रेस एक साथ चारों खाने चित हैं |
अब जरा , हटिया क्षेत्र के
पृष्ठभूमि पर , जहाँ कभी आज के केन्द्रीय पर्यटन मंत्री सुबोधकांत सहाय का एकछत्र
राज था ,जो खुद १९७७ से इस सीट पर १९८९ तक काबिज रहे थे ,जिनसे बाद में भाजपा के
महेश शारदा ने इनके वैक्तिक असर को कट दिया और भगवा से पूरे सीट को रंग दिए ,तब
राम लहर का प्रभाव का योगदान ज्यादा था लेकिन अब राजनीतिक फिजां में वैसी बात नहीं
रही ,तभी तो बाद के चुनाव में कांग्रेस ने इस सीट पर अपना दबदबा बन ली ,जो अब आजसू
के तौर पर नये समीकरण की ओर इशारा कर दिया है ,इसमें इसके उम्मीदवार का करिश्मा कम
और आजसू प्रमुख सुदेश महतो का ज्यादा रहा है ,जिसके बदौलत इसे जीत नसीब हुई |
सुदेश महतो .राज्य में उप
मुख्य मंत्री है और अपनी मौन राजनीती का विस्तार लेने में हमेशा अव्वल रहे हैं
,संयोग से हटिया रांची जिले के तहत ही है और सुदेश भी इसी जिले के वासी है और इनके
क्षेत्र में "कुर्मी " जनित जातिगत प्रभाव दृष्टिगत है ,इसमें शहरी
इलाकों में मतदान का प्रतिशत कम होने का लाभ आजसू को अनायास मिल गया हो तो ताज्जुब
नहीं | ऐसे में कांग्रेस - भाजपा को यह प्रतीत होना कि वह आसानी से इसे जीत लेंगे
दिवा स्वपन ही था | ऐसा सोचने के इनके पास पर्याप्त तर्क भी थे लेकिन वे भूल गए कि
सामाजिक प्रक्रियाओं में हमेशा तर्क काम नहीं करते | अबतक जनता पार्टी , जनता दल(
सुबोधकांत सहाय ) भाजपा (महेश शारदा) और कांग्रेस ( शाहदेव ) के राजनीतिक
क्रियाविधियों का क्षेत्र हटिया रहा था ,जिसमे आजसू सेंध मारने में कामयाब हो गई
,तो इसके युगान्तकारी असर होना सत्ता के खेमों में स्वाभाविक है |
ऐसे में , हटिया उप चुनाव के
नतीजे राज्य की राजनीती में क्या गुल खिलाते हैं ,इसका राजनीतिक प्रेक्षकों को
इंतजार है | यह इंतजार इसलिए भी है कि नतीजे में जो पार्टी दूसरे स्थान पर है ,वह
झाविमो है ,जिसके प्रमुख पूर्ववर्ती मुख्य मंत्री बाबु लाल मरांडी हैं ,जो कभी
भाजपा के सिरमौर ,झारखण्ड में थे | स्पष्ट है कि अब राज्य की राजनीती का जोर
क्षेत्रीय पार्टियों की ओर है ,आजसू के जीत ने यही राह दिखाई है ,जिससे इनके भाव
बढ़ने की उम्मीद राजनीतिक गलियारों में है और यह शुरू भी हो चूका है | कभी
,कांग्रेस का झाविमो के संग गलबहियां थी ,जो अब कडुआहट में बदल चुकी है और इसके
पीछे पिछला राज्य सभा चुनाव की पृष्ठभूमि है ,ऐसे में नये समीकरण के तहत अगले
विधान सभा के चुनाव तक इन क्षेत्रीय पार्टियों के बीच ध्रुवीकरण होते दिखे जाने का
ही नजारा है |
अब जब , निकट भविष्य में
राज्य में कोई प्रतीकात्मक चुनाव नहीं हैं , ऐसे में हटिया के बाजार में आजसू के
बढे भाव का मोल ही राजनीती की धुरी है ,जिसमे ज्यादा भाजपा और कांग्रेस को ही माता
-पच्ची करना है | एक खुद सत्ता का प्रतिनिधिक शक्ति होते हुए हारी है तो दूसरा केन्द्रीय
शक्ति सुबोध के भाई सुनील सहाय खेत में
जुत गए लेकिन कामयाबी नहीं मिल पाई , तब इन स्थितियों में इन दोनों पार्टियों के
बीच अलग - अलग रूपों में सिर फुटौवल होना
ही है ,आख़िरकार इनकी शक्तियों के तार खुद के उम्मीदारों के पास नहीं थे ,
ये दोनों सिर्फ मोहरे भर थे ,जो चुनावी खेत रहे |
हटिया के जीत का जश्न आजसू किस
रूप में मानती है ,यह अभी देखना है , अब इसकी विधायकों की सदस्य संख्या पांच से
बढ़कर छ हो गई है ,सो सत्ता के मलाई खाने में इसके दबाव की ताकत का इस्तेमाल आजसू
प्रमुख किस तरह करते हैं ,यह जानना ,समझना और बुझना जरूरी है | राजनीति के बदलते
स्वरूप ने अब दलगत शक्ति को नये सिरे से परिभाषित करने शुरू कर दिए हैं ,जिसमें एक
उदाहरण राष्टीय तौर पर यह है कि राजद प्रमुख लालू प्रसाद और लोजपा प्रमुख राम
विलास पासवान ,केन्द्रीय राजनीती में संप्रग के साथ है लेकिन सरकार में प्रत्यक्ष
- परोक्ष भागीदारी इनकी नहीं है और यह भागीदारी इसलिए नहीं है कि इनके पास मंत्री
बने रहने एवं दबाव डालने की वह शक्ति नहीं ,जो कभी इनके पास लोक सभा में रहा करती
थी | काफी कुछ इसी तरह के हालात झारखण्ड में हैं ,जिसमे हटिया ने आजसू को नई ऊर्जा दी है और यह शक्ति अगर अपने पर
उतार जाये तो राजनीती के नई रास्ते खुल सकते हैं ,जिसमे बाबु लाल मरांडी के साथ का
अपना गुणात्मक असर होगा | ऐसे में भाजपा - कांग्रेस हासिये पर जाती दिखे ,तो
आश्चर्य नहीं करनी चाहिए | आने वाले समय में राष्टीय पार्टियों का
"सिकुडन" होना है ,क्षेत्रीय दलों में झाविमो -आजसू के उभार के लक्षण हैं , झामुमो अपनी
मौजूदगी तो दर्शाएगी ही लेकिन इसमें वह धार नहीं रहेगी ,जैसा कि सत्ता के बाहर और
भीतर रहते इसके दिखे हैं | ऐसे में ,स्थानीय -क्षत्रिय जन विश्वास ही किसी भी पति
को वह धार -शक्ति देगी ,जिसके अपने व्यक्तिगत प्रभाव भी इलाकाई स्तर पर होंगे
,फ़िलहाल तो यही सबक हटिया के हाट में आजसू के बढे भाव के हैं |
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